विकास की विभिन्न अवस्थाओं के विकासात्मक कार्यों का वर्णन कीजिए।

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विकास काल का प्रारम्भ बालक के जन्म से माना जाता है और उसका अन्त किशोरावस्था के अन्त तक । जन्म और किशोरावस्था के मध्य हम विकास की विभिन्न अवस्थाओं के रूप में मुख्यतया शैशवावस्था (जन्म से दो वर्ष तक), पूर्व बाल्यावस्था (तीन से पाँच वर्ष तक), उत्तर बाल्यावस्था (छ: से बारह वर्ष तक), किशोरावस्था (तेरह से अठारह वर्ष तक) की ही चर्चा करते हैं। इसकी भी विकास अवस्थाओं में बालकों से जिस प्रकार के विकासात्मक कार्यों के सम्पादन की प्राय: भारतीय समाज एवं संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में हमें जिस तरह की अपेक्षा होती है उसे नमूने के तौर पर निम्न प्रकार लिपिबद्ध किया जा सकता है- 

1. शैशवावस्था के विकासात्मक कार्य :

>  रेंगना, खड़ा होना, चलना, दौड़ना, चढ़ना, कूदना, फेंकना आदि सीखना।

>  साधारण रूप से खाने-पीने आदि की क्रियाओं को सीखना।

>  बोलना तथा बातें करना सीखना।

>  शारीरिक रूप से अपना सन्तुलन बनाये रखना सीखना।

>  मल-मूत्र के विसर्जन पर नियन्त्रण करना सीखना।

>  अपने चारों ओर के भौतिक परिवेश के बारे में जानने की चेष्टा करना।

>  खिलौने से खेलना सीखना।

>  तीन पहियों की साइकिल चलाना सीखना ।

>  वस्तु, व्यक्तियों और घटनाओं पर ध्यान देना सीखना ।

>  वस्तुओं और व्यक्तियों में पहचान करना सीखना।

>  सामग्री और भौतिक परिवेश में स्थित वस्तुओं के सन्दर्भ में साधारण संप्रत्ययों का निर्माण करना सीखना।

>  कवितायें और कहानियाँ सुनाना सीखना ।

>  दूसरों के व्यवहार और क्रिया-कलापों का अनुकरण करना सीखना।

>  अपने संवेगात्मक व्यवहार में सभी तरह के सकारात्मक एवं नकारात्मक संवेगों को धारण करना।

>  धीरे-धीरे खेल सामग्री से अपने साथियों पर अधिक ध्यान देना सीखना।

>  अपने हम उम्र तथा अन्य बड़े बालकों के साथ समय व्यतीत करने में रुचि लेना।

>  अपने माता-पिता, भाई-बहिन तथा अन्य के साथ भावनात्मक रूप से रिश्ता बनाने की ओर बढ़ना।


2. पूर्व बाल्यकाल के विकासात्मक कार्य :

>  विभिन्न गायक कौशलों जैसे-चलना, दौड़ना, कूदना-फाँदना, चढ़ना-उतरना, तीन पहियों की साइकिल चलाना, रस्सी कूदना, फेंकना, पकड़कर छलांग लगाना आदि में प्रवीणता अर्जित करना।

>  बोलने, सुनने, पढ़ने, लिखने आदि भाषायी कौशलों से सम्बन्धित आधारभूत समझ रखना।

>  लिंग भेद और यौन आचरण सम्बन्धी कुछ साधारण बातों की जानकारी ।

>  भले बुरे, सही-गलत व्यवहार में अन्तर समझना तथा आत्म चेतना का उदय ।

>  सामाजिक और प्राकृतिक परिवेश सम्बन्धी उचित संप्रत्ययों का निर्माण ।

>  माँ-बाप के साये से बाहर निकल अपने साथी बालकों की संगत को पसन्द करना।

>  ‘मैं’ की भावना के स्थान पर ‘हम’ की भावना तथा सामूहिक खेलों और कार्यों को महत्त्व देना।

>  वस्तुओं में समानता, असमानता की तलाश करने की योग्यता में वृद्धि और उसी के अनुरूप तुलना करने की योग्यता का विकास।

>  अपने संवेगों की बाह्य अभिव्यक्ति पर उचित नियन्त्रण करना सीखना।

3. उत्तर बाल्यावस्था के विकासात्मक कार्य :

>  विभिन्न प्रकार के इन्डोर और आउटडोर गेम्स को खेलने हेतु आवश्यक शारीरिक और गामक कौशलों का अर्जन।

>  अपने हम उम्र साथियों के साथ समायोजित होना।

>  उचित यौन व्यवहार और भूमिका निर्वाह की शिक्षा लेना।

>  स्वयं के प्रति उचित दृष्टिकोण एवं मान्यता बनाना ।

>  संप्रेषण एवं भाषा कौशलों में प्रवीणता अर्जित करना तथा गणना, आलेख और रचना कार्य में सहायक आवश्यक दक्षता का विकास करना।

>  वस्तुओं, व्यक्तियों, विचारों तथा प्रक्रियाओं के बारे में स्कूल तथा सूक्ष्म आधारों को विकसित करना।

>  आत्म-चेतना, नैतिकता और मूल्यों का विकास होना।

>  तर्क, चिन्तन और समस्या समाधान सम्बन्धी क्षमताओं का विकास होना।

>  समूह के प्रति भक्तिभाव और लगाव उत्पन्न होना।

4. किशोरावस्था के विकासात्मक कार्य :

>  सभी प्रकार के खेलकूदों में अच्छी तरह भाग ले सकने हेतु आवश्यक शारीरिक, गामिक तथा बौद्धिक क्षमताओं का समुचित विकास होना ।

>  सभी प्रकार के शारीरिक और मानसिक कार्यों को अच्छी तरह सम्पादित करने स्थूल या सूक्ष्म कार्य व्यापार हेतु सभी तरह के आवश्यक संप्रत्ययों का विकास हेतु आवश्यक योग्यताओं तथा शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का समुचित विकास होना।

>  कठिन और पेचीदा मानसिक कार्यों एवं प्रक्रियाओं के सम्पादन हेतु आवश्यक मानसिक और संज्ञानात्मक योग्यताओं का विकसित होना।

>  स्थूल या सूक्ष्म कार्य व्यापार हेतु सभी तरह के आवश्यक संप्रत्ययों का विकास होना

>  अपने रंग-रूप तथा शारीरिक बनावट से सन्तुष्ट होकर अपने को अपने सहज रूप में स्वीकार करना सीखना।

>  अपने लिंगानुसार अपेक्षित भूमिका निभाना सीखना।

>  अपने साथी लड़के या लड़कियों से नवीन सम्बन्ध या सहयोग स्थापित करने में पहल करना सीखना।

>  यौन व्यवहार में परिपक्वता अर्जित करना।

>  अपनी एक अलग पहचान बनाने की ओर बढ़ना।

>  अधिक आत्मनिर्भरता की ओर उचित कदम बढ़ाना।

>  वस्तुओं, व्यक्तियों, नागरिक कर्तव्य को समझकर जनतान्त्रिक जीवन जीने के ढंग सीखना।

>  अपने समुदाय, सामाजिक समूह, संस्कृति, प्रदेश और राष्ट्र के प्रति लगाव और समर्पण भाव में वृद्धि होना।

>  समाज, देश, धर्म और मानवता के लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार रहने की भावना पैदा होना।

>  अपने भविष्य को ध्यान में रखते हुए आगे के शैक्षणिक तथा व्यावसायिक कोर्सों में प्रवेश हेतु अपनी योग्यता तथा क्षमता में वृद्धि करने के प्रति जागरुक रहना।

>  अपनी विशिष्ट रुचियों तथा अभिरुचियों की सन्तुष्टि हेतु आवश्यक कुशलताओं और दक्षताओं का अर्जन करना।

>  मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक परिपक्वता की ऊंचाइयों को छूने के लिए प्रयत्न रत रहना।

>  भविष्य में एक उत्तरदायित्वपूर्ण परिपक्व एवं सफल सदस्य के रूप में सामाजिक भूमिका निर्वाह के लिए चेष्टा रत रहना।

इस प्रकार से प्रत्येक समाज और सांस्कृतिक समूह अपने-अपने बालकों से उनकी आयु और जीवनकाल के हिसाब से विशेष प्रकार के विकासात्मक कार्यों के सम्पादन की अपेक्षा करता है और इसी दृष्टिकोण से इन कार्यों के सम्पादन हेतु उन्हें आवश्यक रूप से तैयार करने के लिए विभिन्न प्रकार की औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा का भी प्रबन्ध करना है। बालकों द्वारा इन कार्यों का उचित सम्पादन उन्हें अपनी आयु और अवस्था विशेषज्ञ में अपने आपसे तथा अपने वातावरण के साथ समायोजित होने में पूरी-पूरी सहायता करता है। इस तरह न केवल किशोरावस्था तक के कार्यों की अपेक्षित कार्यों की सूची किसी समाज या समूह विशेष द्वारा अपने सदस्यों को जारी की जा सकती है बल्कि प्रौढ़ों तथा वृद्धों के व्यवहार को भी समाज या समूह अपेक्षित बनाने हेतु ऐसे कार्य और व्यवहार क्रियाओं को निश्चित किया जा सकता है कि जिनसे उनको अपने आप से और परिवेश से समायोजन में उचित सहायता की जा सके।

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