विकास के अध्ययन में चिरस्थायी विचार के रूप में बहुआयामी और बहुमुखी विकास के क्षेत्र तथा उसमें शिक्षक की भूमिका पर प्रकाश डालिए ।

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 छात्रों (बालकों) के सर्वांगीण विकास को विकास के अध्ययन में एक स्थायी विचार माना जाता है। सर्वांगीण विकास का शाब्दिक अर्थ है सभी पहलुओं या आयामों का विकास । इस बहुआयामी या बहुमुखी विकास में बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, चारित्रिक, नैतिक, सृजनात्मक, सौंदर्यात्मक और भाषागत विकास के आयाम आते हैं ।

वैसे तो बालक के विकास की प्रक्रिया गर्भ से लेकर विद्यालयीन शिक्षा तक सत्त गतिशील रहती है परन्तु उसमें कोई विकास अधूरा या अपर्याप्त हो तो यह बहुआयामी और बहुमुखी (सर्वांगीण) विकास के अन्तर्गत नहीं आता। उदाहरणार्थ यदि छात्र (बालक) ने पढ़ने लिखने की योग्यता प्राप्त कर ली हो तो हम कह सकते हैं कि उसका मानसिक विकास हुआ है। परंतु यही छात्र दुर्बल, कमजोर, बीमार रहने लगा हो तो हम कहेंगे कि उसका शारीरिक विकास उचित नहीं हुआ। अतः यह एकांकी विकास होने के कारण सर्वांगीण विकास नहीं कहलाएगा। शिक्षा का लक्ष्य बालक का सर्वांगीण विकास माना गया है अतः शिक्षा द्वारा उसके बहुआयामी या बहुमुखी विकास का प्रयास किया जाता है। किसी भी बालक का विकास तभी पूर्ण और सार्थक माना जाता है जब उसका बहुआयामी और बहुमुखी विकास हुआ हो ।

बहुमुखी और बहुआयामी विकास के क्षेत्र- बहुआयामी और बहुमुखी क्षेत्र के अन्तर्गत बालक के किसी एक क्षेत्र या पक्ष पर विचार न कर सभी पक्षों पर सम्यक रूप से विचार किया जाता है। यदि किसी कारणवश किसी पक्ष का विकास परिलक्षित न हो रहा हो तो उस पक्ष पर अधिक ध्यान देने के प्रयास किये जाते हैं-

(1) मानसिक विकास- मानसिक विकास बालक के बौद्धिक विकास से संबंधित है। इसके अन्तर्गत बालक की स्मृति शक्ति, तर्कशक्ति, चिंतन-मनन शक्ति आदि शक्तियों के विकास का मापन या परीक्षण द्वारा अनुमान लगाया जाकर जो शक्ति विकसित नहीं हो रही है उसके कारणों का पता लगाया जाकर शिक्षा तथा मानसिक व्यायाम द्वारा को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है । बुद्धि की मापुन हेतु बुद्धिलब्धि (I.O.) को निकाला जाकर बालक तीव्र बुद्धि, औसत बुद्धि या मंद बुद्धि का है इसे ज्ञात किया जाता है। शिक्षा लब्धि ज्ञात कर उसके विभिन्न विषयों में निष्पत्ति का आंकलन किया जाता है।

(2) शारीरिक विकास- बालक का सर्वांगीण विकास सही हो इसके लिए विद्यालय में खेलकूद तथा विभिन्न शारीरिक व्यायामों का आयोजन किया जाता है। चिकित्सकीय परीक्षण द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि बालक के किसी अंग में कोई कमी या बीमारी तो नहीं है जिसके लिए दवा आदि की व्यवस्था की जाती है।

(3) सामाजिक विकास- बालक अपने मित्र समूह से तथा वरिष्ठ जनों से कैसा व्यवहार करता है ? उसमें प्रेम-सहयोग, आज्ञापालन आदि भावना समुचित विकसित हो रही है या नहीं? वह अनुशासनहीन या झगड़ालू प्रवृत्ति का तो नहीं है यह उसके सामाजिक विकास से ज्ञात होता है। समाजमिति परीक्षण द्वारा बालक की सामाजिकता जानी जा सकती है।

(4) संवेगात्मक विकास- बालक में विभिन्न संवेग, पीड़ा आनंद, क्रोध, भय, प्रेम, प्रसन्नता आदि में कोई अवरोध या रुकावट की स्थिति तो नहीं है ? बालक सुपरिटी कॉम्पलेक्स या इफीरियरिटी कॉम्प्लेक्स का शिकार तो नहीं है इसकी जाँच मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से की – जाकर बालक के सम्यक विकास की ओर ध्यान दिया जाता है।

(5) चारित्रिक एवं नैतिक विकास- बच्चों के प्रति सम्मान, मित्रों से मैत्रीपूर्ण व्यवहार, निर्धनों व अभावग्रस्तों के प्रति दया भावना, आचरण में ईमानदारी, सत्यनिष्ठा आदि में यदि कोई कमी बालक में रह गई है तो उसे दूर करने का प्रयास किया जाता है । मूल्य शिक्षा तथा नैतिकता की शिक्षा द्वारा भी बालक के चरित्र व नैतिकता में विकास का प्रयास विद्यालयों से किया जाता | घर के परिवेश का प्रभाव भी बालक के चारित्रिक व नैतिक विकास पर पड़ता है ।

(6) सृजनात्मक विकास- बालक में कलात्मक व सृजनात्मक रुचियाँ विकसित हो इसके लिए चित्रकला, गीत गायन, वादन आदि का प्रावधान शाला में होता है। बालक की किसी क्षेत्र में प्रतिभा का पता लगाकर उसके विकास के लिए और प्रयास किये जाते हैं ।

(7) सौंदर्यात्मक विकास- बालक में सौंदर्यानुभूति के विकास के लिए कविता शिक्षण, प्राकृतिक स्थलों के शैक्षिक भ्रमण आदि की व्यवस्था शालाओं में की जाती है।

(8) भाषागत विकास- बालक परिवार में परिजनों के साथ रहकर मातृभाषा सीखता है और विचाराभिव्यक्ति करने लगता है। शाला में कुछ अन्य भाषाओं का भी अध्ययन कराया जाता है। बालक के शब्द भंडार, पठन या वाचन, लेखन, भाषण आदि से उसके भाषागत विकास का अंदाजा लग जाता है।

बहुआयामी विकास में शिक्षक की भूमिका- बालक के बहुआयामी तथा बहुमुखी विकास में परिवार, समुदाय के साथ-साथ शिक्षक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। निम्नलिखित दृष्टि से शिक्षक छात्रों के बहुआयामी विकास में सफल हो सकता है-

1. बालक की सहभागिता व सक्रियता को बढ़ावा देना। विभिन्न शैक्षिक तथा सांस्कृतिक साहित्यिक गतिविधियों में छात्रों को भाग लेने के लिए निरंतर प्रोत्साहित करना।

2. बालक में नैतिकता व चारित्रिक विकास पर लगातार ध्यान देना। शिक्षक को अपने व्यवहार में भी नैतिक चारित्रिक गुणों का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि शिक्षक के व्यक्तित्व का छात्र अनजाने हेतु अनुकरण करते पाए जाते हैं।

3. छात्रों में प्रेरणा, प्रोत्साहन द्वारा उनमें आशावादिता उत्पन्न करना तथा निराशा छात्रों को हतोत्साहित न कर आशावादी बनाना।

4. छात्रों के भाषागत विकास के लिए वादविवाद-भाषण प्रतियोगिता, कहानी सुनाना, नाटकों में पात्रों का अभिनय करना आदि प्रयासों से शिक्षक छात्रों के भाषागत विकास को बढ़ावा दे सकता है।

5. छात्रों में आत्मविश्वास जागृत कर शिक्षक छात्रों को आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर बना सकता है।

6. शिक्षक छात्रों के सृजनात्मक विकास, सामाजिक विकास, शारीरिक विकास आदि में व्यक्तिगत प्रयास कर छात्रों के बहुआयामी विकास या बहुमुखी या सर्वांगीण विकास का प्रयास कर सकता है।


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