विकास के अध्ययन में प्रसंग को धैर्य से सहन करना, विकास, बहुप्रत्यय तथा अनेकानेक, विकास को जीवन के क्षेत्रों में जारी रखना; स्त्रोतों जिनके द्वारा विकास को जारी रखा जा सके अन्यथा बन्द कर दिया जाए; सामाजिक-सांस्कृतिक प्रसंगों द्वारा विकास को प्रभावित करने के बारे में लिखो।

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विकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो कि विश्व के समस्त प्राणियों में पायी जाती है। यह प्रक्रिया गर्भधारण से शुरु होती है एवं मृत्युपर्यन्त तक चलती रहती है। इसकी गति भी कभी तेज तथा कभी मन्द होती है। गर्भाधान से लेकर परिपक्वावस्था तक मानव में विभिन्न तरह की शारीरिक एवं मानसिक योग्यताओं और विशेषताओं में समय-समय पर विविध तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों की गति हमेशा एक समान नहीं होती है। कुछ परिवर्तनों की गति बहुत तेज होती हैं तथा कुछ परिवर्तनों की गति मन्द होती है । गर्भाधान से परिपक्वावस्था तक जो परिवर्तन होते हैं वे अधिकतर विवृद्धि से संबंधित होते हैं। इसलिए इन परिवर्तनों को रचनात्मक परिवर्तन कहा जाता है। इसी तरह मानव जीवन की वृद्धावस्था में भी कई परिवर्तन होते हैं जिनकी प्रकृति हास से पूर्ण होती है। इस तरह के परिवर्तन व्यक्ति को वृद्धावस्था की तरफ उन्मुख करते हैं। रचनात्मक परिवर्तन मानव में परिपक्वता पैदा करते हैं। विकास में इन सभी परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है जो प्राणी में एक विकास अवस्था से दूसरी अवस्था में पर्दापण करते समय होते हैं । विकास में इन परिवर्तनों के कारणों का भी अध्ययन किया जाता है। विकास में होने वाले परिवर्तन कुछ व्यक्तिगत होते हैं, तो कुछ सार्वभौमिक होते हैं। यह परिवर्तन कब एवं किस तरह घटित होते हैं, इसका भी अध्ययन किया जाता है।


विकास के नियम :

अध्ययनों ने सिद्ध कर दिया है कि एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन निश्चित सिद्धांतों के अनुसार होते हैं। इन्हीं को विकास के सिद्धांत कहा जाता है जो निम्न हैं-

1. निरंतर विकास का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार, विकास की प्रक्रिया अविराम के गति से लगातार चलती रहती है लेकिन गति कभी तीव्र तथा कभी मंद होती है, उदाहरणार्थ, प्रथम तीन वर्षों में बालक के विकास की प्रक्रिया बहुत तीव्र रहती है तथा उसके पश्चात् मंद पड़ जाती है। इसी तरह शरीर के कुछ भागों का विकास तीव्र गति से तथा कुछ का मंद गति से होता है। लेकिन विकास की प्रक्रिया चलती अवश्य रहती है, जिसके कारण व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता है। स्किनर के शब्दों में-“विकास प्रक्रियाओं की निरंतरता का सिद्धांत सिर्फ इस तथ्य पर बल देता है कि व्यक्ति में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता है।”

2. विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत- डगलस तथा हालैंड ने इस सिद्धांत का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है-विभिन्न व्यक्तियों के विकास की गति में विभिन्नता होती है तथा । यह विभिन्नता विकास के संपूर्ण काल में यथावत् बनी रहती है, उदाहरणार्थ, जो व्यक्ति जन्म के समय लंबा होता है,वह साधारणत: बड़ा होने पर भी लंबा रहता है तथा जो छोटा है,वह साधारणतः छोटा रहता है।

3. विकास क्रम का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार बालक का गामक तथा भाषा-संबंधी विकास एक निश्चित क्रम में होता है। शर्ले, गेसेल, पियाजे, एमिस आदि की परीक्षाओं ने यह बात सिद्ध कर दी है, उदाहरणार्थ-32 से 36 माह का बालक वृत्त को उल्टा, 60 माह का बालक सीधा तथा 72 माह का फिर उल्टा बनाता है। इसी तरह जन्म के समय वह सिर्फ रोना जानता है । 3 माह में वह गले से एक विशेष तरह की आवाज निकालने लगता है। 6 माह में वह आनंद की ध्वनि करने लगता है। 7 माह में वह अपने माता-पिता के लिए ‘पा’,’बा’,दा’ आदि शब्दों का उच्चारण का प्रयोग करने लगता है।

4. विकास-दिशा का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार, बालक विकास सिर से पैर की दिशा में होता है, उदाहरणार्थ, अपने जीवन के प्रथम सप्ताह में बालक सिर्फ अपने सिर को उठा पाता है। पहले 3 माह में वह अपने नेत्रों की गति पर नियंत्रण करना सीख जाता है 6 माह में वह अपने हाथों की गतियों पर अधिकार कर लेता है। 9 माह में वह सहारा लेकर बैठने लगता है। 12 माह में वह स्वयं बैठने तथा घिसट कर चलने लगता है। एक वर्ष का हो जाने पर उसे अपने पैरों पर नियंत्रण हो जाता है तथा वह खड़ा होने लगता है। इस तरह, जो शिशु अपने जन्म के प्रथम सप्ताह में सिर्फ अपने सिर को उठा पाता था, वह एक वर्ष बाद खड़ा होने तथा 18 माह के पश्चात् चलने लगता है।

5. एकीकरण का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को तथा फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। उसके पश्चात् वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है, उदाहरणार्थ, वह पहले पूरे हाथ को, फिर उंगलियों को तथा फिर हाथ और उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

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6. परस्पर संबंध का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार, बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक आदि पहलुओं के विकास में परस्पर संबंध होता है, उदाहरणार्थ, जब बालक का शारीरिक विकास के साथ ही साथ उसकी रुचियों, ध्यान के केन्द्रीयकरण तथा व्यवहार में परिवर्तन होते हैं। साथ ही साथ उसमें गामक तथा भाषा-संबंधी विकास भी होता है।

7. वैयक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार हर बालक तथा बालिका के विकास का अपना स्वयं का स्वरूप होता है। इस स्वरूप में वैयक्तिक विभिन्नताएं पायी जाती हैं । एक ही आयु के दो बालकों, दो बालिकाओं अथवा एक बालक तथा एक बालिका के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि विकास में वैयक्तिक विभिन्नताओं की उपस्थिति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।

8. समान प्रतिमान का सिद्धांत- इस सिद्धांत का अर्थ स्पष्ट करते हुए हरलॉक ने लिखा है-“हर जाति, चाहे वह पशु जाति हो अथवा मानव जाति, अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।” उदाहरणार्थ, संसार के हर भाग में मानव-जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है तथा उसमें किसी तरह का अंतर होना संभव नहीं है।

9. सामान्य तथा विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सामान्य प्रतिक्रियाओं की तरफ होता है, उदाहरणार्थ, नवजात शिशु अपने शरीर के किसी एक अंग का संचालन करने से पहले अपने शरीर का संचालन करता है तथा किसी विशेष वस्तु की तरफ इशारा करने से पहले अपने हाथों को सामान्य रूप से चलाता है।

10. वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतःक्रिया का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार, बालक का विकास न सिर्फ वंशानुक्रम तथा वातावरण के कारण, बल्कि दोनों की अंत: क्रिया के कारण होता है । इसकी पुष्टि स्किनर के द्वारा इन शब्दों में की गयी है-“यह सिद्ध किया जा चुका है कि वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है, जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता । इसी तरह, यह भी प्रमाणित किया जा चुका है कि जीवन के प्रारंभिक वर्षों में दूषित वातावरण, कुपोषण अथवा गंभीर रोग जन्मजात योग्यताओं को कुंठित अथवा निर्बल बना सकते हैं।”

I. सामाजिक सन्दर्भ में विकास :

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सामाजिक परिवेश में बहुत-सी संस्थाएँ, संगठन एवं सामाजिक अनुभव प्रदान करने वाले स्त्रोत होते हैं। इनका भी बालक के विकास पर प्रभाव पड़ता है। ये साधन एवं संस्थाएँ अग्रलिखित हैं-

(i) पास-पड़ोस- पास-पड़ोस में जो भी व्यक्ति रहते हैं तथा जिनके साथ बालक खेलता है एवं अपना समय व्यतीत करता है वे सभी बालक के विकास पर अपना प्रभाव डालते हैं। यही कारण है कि अच्छे पड़ोस की तरफ ध्यान दिया जाना बालक के उचित विकास हेतु जरुरी माना जाता है।

(ii) धार्मिक संस्थाएँ- धार्मिक संस्थान जैसे-चर्च, गुरुद्वारा, मन्दिर एवं उनमें चलने वाली विभिन्न सामाजिक गतिविधियाँ बालक के दिल और दिमाग पर शुरु से ही शान्त रुप में गम्भीर एवं स्थायी प्रभाव छोड़ने की क्षमता रखते हैं तथा इस प्रकार उसके व्यवहार और व्यक्तित्व के निर्धारण में अपनी शक्तिशाली भूमिका निभाते हैं।

(iii) अन्य सामाजिक संगठन तथा साधन- बालक के माजिक परिवेश में समस्त अन्य कई तरह की संस्थाएँ, समूह, संगठन एवं साधन निहित होते हैं जो काफी गहरी छापु बालक के व्यक्तित्व पर अंकित करने की क्षमता रखते हैं। कई प्रकार की सामाजिक संस्थाएँ, क्लब, मनोरंजन एवं सम्प्रेषण के साधन, साहित्यिक और ललित कलाओं से संबंधित संस्थाएँ, प्रचार के साधन, समाचार, पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तकें एवं अन्य समस्त तरह का साहित्य आदि सभी किसी न किसी रुप में बालक के व्यक्तित्व को मोड़ने में काफी प्रभावशाली सिद्ध हो सकते हैं।

II. सांस्कृतिक सन्दर्भ में विकास :

बालक का सांस्कृतिक परिवेश भी बालक के विकास पर विशेष प्रभाव डालता है। बालक जिस समाज में रहता है उसका सांस्कृतिक स्वरुप क्या है, इस बात का बालक के व्यवहार, आचार-विचार तथा व्यक्तित्व एवं विकास पर गहरा प्रभाव पड़ता है। लोग कैसे रहते हैं, कैसे सोचते हैं, क्या खाते-पीते हैं, आपस में किस तरह का व्यवहार एवं आचरण करते हैं, किस प्रकार के वस्त्र पहनते हैं, उनका जीवन दर्शन क्या है, उनकी सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताएँ किस तरह की हैं, दूसरी जाति, वर्ण, धर्म, प्रान्त एवं देशों के नागरिकों के प्रति उनका व्यवहार कैसा है? उनके किस तरह के संस्कार एवं आस्थाएँ हैं, दूसरे लिंग के प्रति उनकी सोच क्या है तथा उनके जीवन-यापन की शैली क्या है, इस प्रकार की समस्त बातें व्यक्ति के सांस्कृतिक परिवेश का प्रतिनिधित्व करती हैं, ये बातें बालक को शुरु से ही अपने रंग में रंगना प्रारम्भ कर देती हैं। एक विशेष सांस्कृतिक परिवेश में पला-बढ़ा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं में दूसरों से काफी भिन्न होता है। एक ऐसा सांस्कृतिक परिवेश जिसमें महिलाओं को निचले पायदान पर रखा जाता हो उस वातावरण में पले-बढ़े बालक से महिलाओं के प्रति यथेष्ट सम्मान व्यक्त करने की अपेक्षा कम ही होती है। एक दूसरा ऐसा सांस्कृतिक परिवेश जहाँ बुजुर्गों को सम्मान देना एवं वृद्धावस्था में उनकी देखभाल करना तथा सेवा करना जैसी बातें आचरण में नहीं होती। वहाँ बुजुर्गों एवं नवयुवकों का व्यवहार तथा आचरण उसी रुप में ढल जाता है । यूरोपीय देशों में इसी तरह का सांस्कृतिक परिवेश पाया जाता है जहाँ वृद्ध एवं लाचार माता-पिता अपने परिवार से अलग होकर वृद्धाश्रमों में एकाकी जीवन बिताने के लिए मजबूर हो रहे हैं। वहाँ के परिवेश में पले युवा दम्पत्तियों को अपने वृद्ध माता-पिता एवं सास-श्वसुर को तिरस्कृत कर देने में कोई भी अपराध बोध नहीं होता है। दूसरी तरफ भारतीय परिवेश में पले व्यक्तियों को बुजुर्गों का सम्मान करना एवं उनकी सेवा करना शुरु से ही सिखाया जाता है, इस प्रकार उनके विकास तथा दृष्टिकोण में अन्तर आ जाता है।

इसलिए यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति के विकास पर सामाजिक एवं कारकों पर प्रभाव पड़ता है। पास-पड़ोस, धार्मिक संस्थाएँ, अन्य सामाजिक संस्थाएँ, संगठन तथा साधन, विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश यह सभी बालक के विकास पर अपना प्रभाव डालते हैं तथा बालक का आचरण उसी के अनुरुप निर्मित हो जाता है ।

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