विद्यालय की बालक के समाजीकरण में भूमिका का वर्णन करो।

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विद्यालय शिक्षा का महत्त्वपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सक्रिय साधन है। बालक के समाजीकरण में विद्यालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

शिशु के लिए विद्यालय जाने का अर्थ विकास करना है। घर में रहने वाला शिशु जब अपने साथियों को विद्यालय में जाते देखता है तो उस समय की प्रतीक्षा करने लगता है जब वह विद्यालय जायेगा। बच्चे विद्यालय के प्रति निष्ठावान होते हैं एवं यहाँ जाकर विविध दायित्वों को सीखते हैं। विद्यालय में बालक पाठ्यक्रम के साथ-साथ खेल-कूद एवं अन्य क्रयाकलापों में भी भाग लेता है। इस तरह बालक निरन्तर एक कक्षा से दूसरी कक्षा में बढ़ता रहता है एवं इसी क्रिया में उसकी समाजीकरण की प्रक्रिया ज्यादा प्रभावशाली होती रहती है।

विद्यालय समाजीकरण का सक्रिय साधन है। नियमित शिक्षा विद्यालय के अभाव में देना सम्भव नहीं है। विद्यालय के औपचारिक साधन होने के संबंध में जॉन डीवी का मत है, “बगैर औपचारिक साधनों से इस जटिल समाज में साधन एवं सिद्धियों को हस्तान्तरित करना सम्भव नहीं है। यह एक ऐसे अनुभव की प्राप्ति का द्वार खोलता है जिसको बालक दूसरों के साथ रहकर अनौपचारिक शिक्षा के द्वारा प्राप्त नहीं करते।”

जॉन डीवी के अनुसार, “विद्यालय ऐसा विशिष्ट वातावरण है जहाँ जीवन के गुणों तथा विशिष्ट क्रियाओं और व्यवसायों की शिक्षा बालक के अन्तर्निहित के विकास के लिए दी जाती है।’

टी.पी. नन के अनुसार, “विद्यालय को प्रमुख रुप से ज्ञान देने वाले साधन के रुप में नहीं वरन् उस स्थान के रुप में समझा जाना चाहिए जहाँ बालकों का विकास होता है तथा वे क्रियाएँ विस्तृत संसार में बहुत महत्त्व की होती हैं।”

रॉस के अनुसार, “विद्यालय वे संस्थाएँ हैं जिनको सभ्य मनुष्य के द्वारा इस उद्देश्य से स्थापित किया जाता है कि समाज में सुव्यवस्थित तथा योग्य सदस्यता तथा बालकों को तैयारी में सहायता प्राप्त हो।”

उक्त परिभाषाओं से कुछ तथ्य स्पष्ट होते हैं जो इस तरह हैं-

(i) विद्यालय एक विशिष्ट वातावरण का नाम है।

(ii) यहाँ पर सम्पन्न होने वाली सभी क्रियाएँ बालक के विकास हेतु उत्तरदायी हैं।

(iii) विद्यालय बालक के विकास का एक केन्द्र है।

(iv) विद्यालय बालक को सामाजिकता के योग्य बनाने वाली संस्था है।


1. समाजीकरण और सहपाठियों का प्रभाव

छात्र के ऊपर उसके संगी-साथियों का प्रभाव काफी पड़ता है। बालक का विविध विकास जैसे-शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक अपने संगी-साथियों के साथ होता है। बच्चा भाषागत विकास भी अपने संगी-साथियों से अति शीघ्र सीख लेता है। बच्चे के सहपाठी जैसे होते हैं उनका भाषागत विकास, बोलने का ढंग, वाक्यों की रचना, शब्द भंडार आदि सभी बच्चे के विकास पर प्रभाव डालता है। विद्यालय में बालक के साथ भिनन भिन्न समुदाय, जाति एवं धर्म के बालक होते हैं। हर जाति एवं धर्म का अपना इतिहास होता है । बालक अपने संगी-साथियों का चुनाव करते समय जाति, धर्म, स्तर आदि को नहीं देखता है। उसके संगी-साथियों में कई तरह के बालक होते हैं जिनके प्रभाव में बालक रहता है तो उसके ऊपर भी उनका प्रभाव पड़ता है। वह विविध संस्कृतियों के अपने सहपाठियों से उनके रीति-रिवाजों की जानकारी प्राप्त करता है। अपने मित्रों से विविध धर्मों के त्यौहारों के विषय में एवं उनके इतिहास के बारे में जानता है । सभी समुदाय के बालकों से उनकी संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथाएँ एवं परम्पराएँ सीखता है, उनकी भाषा एवं बोली से परिचित होता है, उनके संगीत एवं साहित्य से परिचित होता है। इस तरह उसके संगी-साथियों से भी उसका समाजीकरण होता है।


2. विद्यालयी संस्कृति

विद्यालय की संस्कृति का भी बालक के समाजीकरण पर प्रभाव पड़ता है। विद्यालय में अगर परम्परावादी अनुशासन है एवं कठोर और निरंकुश वातावरण है जिसमें शिक्षक सर्वेसर्वा होता है । कक्षा-अध्यापक कक्षा के सभी क्रियाकलापों का निर्णय लेता है। ऐसी स्थिति में छात्र कोई रचनात्मक कार्य नहीं कर पाते हैं तथा छात्रों में विद्रोह के भाव बढ़ने लगते हैं। छात्रों में निष्क्रियता की प्रवृत्ति ज्यादा बढ़ जाती है। छात्र अपने सहपाठियों से भी सहयोग नहीं व्यक्त करते हैं। इसके विपरीत अगर विद्यालय में प्रजातंत्रात्मक वातावरण है । शिक्षक तथा छात्र मिलकर कक्षा में क्या कार्य करना है यह निश्चित करते हैं। इस तरह की संस्कृति रखने वाले विद्यालयों में छात्र कक्षा में अन्य छात्रों के साथ भी मित्रवत् व्यवहार करते हैं। शिक्षक की अनुपस्थिति में भी वे एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करते हैं। छात्रों में सहयोग की भावना ज्यादा पायी जाती है । कुछ विद्यालयों में स्वतन्त्रता का वातावरण होता है। ऐसे विद्यालयों में आधुनिकता की संस्कृति होती है। इस तरह का वातावरण उन कक्षाओं में होता है जहाँ शिक्षक छात्रों को पूरी छूट दे देते हैं एवं कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों के सुझावों को बहुत महत्त्व दिया जाता है। ऐसी आधुनिक संस्कृति से पोषित कक्षाएँ हालांकि बहुत कम होती हैं। इस तरह की कक्षाओं में पढ़ने वाले छात्रों में परस्पर द्वेष का भाव ज्यादा पाया जाता है । इन छात्रों में रचनात्मकता भी नहीं पायी जाती है क्योंकि इनमें व्यवस्था का अभाव होता है।


3. शिक्षकों से संबंध

विद्यालय में एक छात्र का समाजीकरण एवं अधिगम किस तरह का होगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि शिक्षक के साथ छात्रों के संबंध किस तरह के हैं। एक शिशु हेतु जिसने अभी-अभी घर छोड़कर विद्यालय में प्रवेश लिया है शिक्षिका माँ का प्रतिस्थापन होती है। दूसरी तरफ एक बालक हेतु शिक्षक एक वयस्क एवं सम्मान पाने वाला आदरणीय व्यक्ति है जिसके व्यवहार का अनुकरण करना चाहिए । इसलिए यह जरुरी है कि शिक्षकों में प्रभावशाली आदर्श तथा अनुकरणीय विशेषताएँ होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में हुए अध्ययनों में यह देखा गया है कि शिक्षक की अभिवृत्तियों के प्रति छात्र बहुत संवेदनशील होते हैं। अधिकांशतः यह देखा गया है कि ज्यादातर शिक्षक मध्यम सामाजिक आर्थिक स्तर के होते हैं, क्योंकि ऐसे शिक्षकों को अपने छात्रों को समझने में ज्यादा कठिनाई नहीं होती है। अधिकांशतः कक्षा का वातावरण शिक्षक की अभिवृत्तियों को अभिव्यक्त करता है। अगर कोई शिक्षक कक्षा में छात्रों को भयभीत करके शिक्षा दोता है तो कक्षा के छात्रों का स्वभाव भी कठोर हो जायेगा एवं उनके व्यवहार में लचीलापन खत्म हो जायेगा।

बालक अनुशासित रहना अधिकतर अपने अभिभावकों एवं अध्यापकों से सीखता है। विद्यालयों में भी अनुशासन के द्वारा समाज द्वारा मान्य नैतिक व्यवहारों को सिखाया जाता है विद्यालय का अनुशासन बालक के व्यवहार एवं उसकी अभिवृत्तियों को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित है । जब विद्यालय में प्रभुत्वशाली अनुशासन होता है तो ऐसे वातावरण के कारण छात्र में व्यक्तित्व संबंधी अनेकों विशेषताएँ पैदा हो जाती हैं; जैसे-संदेह करना, शर्मीलापन, अति संवेदनशीलता, अर्न्तमुखी व्यक्तित्व अकेले रहने की प्रवृत्ति आदि । जब विद्यालय में प्रजातान्त्रिक तरह का अनुशासन होता है तो बालकों के व्यक्तित्व में भिन्न विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं; जैसेसहयोग, आत्म-महत्त्व, प्रसन्नता आदि ।

जब कक्षा का वातावरण स्वस्थ संवेगों पर आधारित होता है तो बालकों में सहयोग, प्रसन्नता का भाव पैदा हो जाता है। वह कक्षा के नियमों को मानता है एवं पढ़ाई के प्रति ज्यादा प्रेरित होता है एवं अगर कक्षा का वातावरण अस्वस्थ संवेगों पर आधारित होता है तो छात्रों के व्यक्तित्व में कुछ विशेषताएँ अथवा लक्षण दिखाई पड़ते हैं; जैसे- चिड़चिड़ापन झगड़ालू, तनावपूर्ण आदि । ऐसे बच्चे पढ़ने के प्रति प्रेरित नहीं होते हैं। इस क्षेत्र में हुए अध्ययनों में यह देखा गया ।

है कि कक्षा का संवेगात्मक वातावरण बहुत कुछ कक्षा अध्यापक की अभिवृत्तियों से प्रभावित होता है एवं इस बात से भी प्रभावित होता हे कि कक्षा अध्यापक कक्षा में कौन-सी अनुशासन विधि अपनाता है । इस तरह कक्षा के वातावरण से भी शिक्षक तथा छात्र संबंध प्रभावित होते हैं।


शिक्षक की अपेक्षाएँ एवं शैक्षिक उपलब्धि

कुछ शिक्षक छात्रों से बहुत अपेक्षाएँ रखते हैं कि उनकी शैक्षिक उपलब्धि उच्च हो । शिक्षक के इस व्यवहार से भी छात्र का व्यक्तित्व प्रभावित होता है। इस दिशा में हुए अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ छात्र ऐसे होते हैं जिनकी कक्षा में उपलब्धि उनकी योग्यताओं को देखते हुए अपेक्षाकृत कम होती है, जबकि शिक्षक को उनसे ज्यादा अपेक्षाएँ होती हैं। कई बार छात्रों की यह शैक्षिक उपलब्धि परिस्थितिजन्य होती है। अक्सर यह देखा गया है कि जब किसी छात्र के किसी परिवारीजन की मृत्यु हो जाती है तो छात्र को एक स्कूल से निकालकर दूसरे स्कूल में से डाला जाता है। छात्र को कोई तीव्र संवेग पैदा करने वाला अनुभव होता है। ऐसी स्थिति में छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि प्रभावित हो जाती है तथा कम रह जाती है। छात्र की कम शैक्षिक उपलब्धि का कारण विद्यालय, घर अथवा स्वयं छात्र भी हो सकता है। जब छात्र की पढ़ने में रुचि नहीं होती है तथा पढ़ने से उसमें विद्रोही भावना पायी जाती है तो भी उसकी शैक्षिक उपलब्धि प्रभावित होकर कम रह जाती है। कुछ छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि उनकी योग्यताओं की तुलना में ज्यादा अच्छी होती है । बहुधा ऐसे छात्रों को पढ़ने हेतु ज्यादा सुविधाएँ प्राप्त होती हैं उन्हें अच्छे शिक्षकों से सीखने की सुविधा भी प्राप्त होती है तथा अपने शिक्षकों की आकांक्षाओं से ज्यादा शैक्षिक उपलब्धि प्राप्त करते हैं।


स्कूल के बाहर होना
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किशोरावस्था में स्कूल समय पर कुछ किशोर स्कूल के बाहर विविध तरह की असामाजिक एवं अपराधिक गतिविधियों में भी संलग्न रहते हैं। इस समय कुछ किशोर स्कूल से भाग जाते हैं एवं स्कूल के बाहर सिनेमा देखना जुआ खेलना, ड्रग्स लेना एवं अन्य कई तरह की गतिविधियाँ अपने साथी-समूह के साथ करते हैं। कई बार अभिभावकों एवं अध्यापकों को इन सब की जानकारी भी नहीं होती है, क्योंकि अभिभावक ज्यादातर यह समझते हैं कि इस समय उनका बच्चा विद्यालय में पढ़ रहा होगा तथा शिक्षक यह समझते हैं कि बच्चा अपने घर में होगा, विद्यालय आया ही नहीं होगा। ऐसे किशोर समय का विशेष ध्यान रखते हैं तथा समय पर अपने घर पहुँच जाते हैं । इस तरह वे विद्यालय समय में ही टोली बनाकर या अन्य असामाजिक तत्वों के साथ मिलकर विद्यालय के बाहर विविध अराजक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। कई किशोर दूसरों को डराना, धमकाना,रेगिंग करना तथा सताने जैसे कार्य भी करते हैं। कुछ किशोर धनी मानी परिवारों के बिगड़े बच्चे होते हैं जिनका विद्यालय में प्रभुत्व होता है, वे भी इस तरह की गतिविधियों में संलग्न रहते हैं।

स्कूली समय में स्कूल से बाहर रहने वाले बालक ज्यादातर व्यक्तिगत संघर्ष में लिप्त रहते हैं। वे लोगों को डराना, धमकाना, गाली-गलौच करना, मारपीट करना एवं हत्या जैसे कार्य भी कर सकते हैं। इन बालकों में घृणा, द्वेष, क्रोध जैसी भावनाएँ ज्यादा होती हैं। कभी-कभी बालक सामूहिक रुप से टोली बनाकर भी संघर्ष करते रहते हैं। इन बालकों का ज्यादातर समय आवारागर्दी करने एवं दूसरों को परेशान करने में व्यतीत होता है । यह बालक विविध गतिविधियों; जैसे- पढ़ाई पर ध्यान न देना तथा दूसरों को सताना, धमकाना, मादक द्रव्य पदार्थों का सेवन कुरना तथा अन्य सीधे-सादे बच्चों को इन व्यसनों में धकेलना आदि गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। कई बार इन बालकों एवं किशोरों को राजनैतिक पार्टियों का सहारा भी पाप्त होता है अथवा किसी राजनीतिज्ञ का कोई रिश्तेदार या सदस्य इनकी टोली का सदस्य होता है जिससे डर अथवा भय का भाव इनमें नहीं पाया जाता है। यह बालक प्रत्यक्षतः अनुशासनहीनता से जुड़ जाते हैं ।तथा स्कूलों में हड़ताल कराना एवं शिक्षकों को डराना-धमकाना भी कार्य यह करते हैं। इन बालकों के कारण विद्यालय का नाम खराब होता है तथा स्कूल की पढ़ाई अस्त-व्यस्त हो जाती है एवं कभी-कभी स्कूली सम्पत्ति भी ये नष्ट कर देते हैं। जिससे स्कूलों में व्यवस्था एवं अनुशासन बनाये रखना कठिन हो जाता है।


अधिक आयु के अधिगमकर्ता

विद्यालयों में कुछ छात्र ज्यादा आयु के होते हैं। ऐसे छात्र या तो कई बार फेल हो चुके होते हैं अथवा देर से शिक्षा ग्रहण करते हैं। इन छात्रों की आयु अन्य छात्रों से ज्यादा होती । ये छात्र विद्यालय अपनी कक्षा के अन्य बालकों से शारीरिक रुप से ज्यादा बलिष्ट होते हैं एवं असामाजिक गतिविधियों में भी संलग्न होते हैं । वे कक्षा के कमजोर अपने से कम शक्तिशाली एवं छोटे साथियों का मजाक उड़ाते हो । कई बार वे खुदभी मजाक के पात्र बन जाते हैं लेकिन ज्यादातर ये कक्षा के अन्य छात्रों पर प्रभुत्व जमाने का प्रयत्न करते हैं। ज्यादा आयु के अधिगमकर्ता का उचित तरह से कक्षा में समायोजन नहीं हो पाता है। उनसे अन्य कक्षा के बालक कम अन्तःक्रिया करते हैं। ऐसे बच्चे अगर सीधे-साधे होते हैं तो कक्षा के अन्य छात्र इनका मजाक उड़ाते हैं एवं अगर तेजतर्रार होते हैं तो वे अपने सहपाठियों पर अपना प्रभुत्व जमाने का प्रयत्न करते हैं, दोनों ही स्थितियों में उनका उचित तरह से कक्षा में समायोजन नहीं हो पाता है। कई बार ज्यादा आयु के अधिगमकर्ता विद्यालय प्रशासन के ही पुत्र तथा पुत्रियाँ होते हैं। ऐसी स्थिति में वे सभी पर अपना रौब जमाते हैं। ज्यादा आयु के अधिगमकर्ता अन्य सामान्य बच्चों से भिन्न लगते हैं। ऐसे बच्चे पढ़ने में कोई खास नहीं होते हैं। ऐसे बच्चे ज्यादातर भिन्न समूहों में निवास करते हैं।

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