विभिन्न अवस्थाओं में संज्ञानात्मक या ज्ञानात्मक विकास का वर्णन करो।

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 ज्ञानात्मक विकास एवं उसकी अवस्थायें :

1. ज्ञानात्मक विकास का स्वरूप एवं विशेषताएं- बहुतों में यह भ्रम् व्याप्त रहता है कि ज्ञानात्मक विकास एवं बौद्धिक विकास में कोई अन्तर नहीं है किन्तु दोनों में वही अन्तर है जो ज्ञान और बुद्धि में होता है । बुद्धि और ज्ञान में बहुत अन्तर है। ज्ञानात्मक विकास के स्वरूप आदि की व्याख्या से पूर्व ज्ञान और वृद्धि के स्वरूप में सूक्ष्म अन्तर की एक संक्षिप्त व्याख्या यहाँ अपेक्षित है।

ज्ञान अर्जित है किन्तु वृद्धि जन्मजात। हम संसार में बुद्धि लेकर जन्म लेते हैं किन्तु ज्ञान लेकर नहीं। जन्म के समय सभी ज्ञान-शून्य होते हैं। जन्म के समय सभी में केवल संवेदना करने मात्र या शक्ति वरदान रूप में (बुद्धिरूप) में प्राप्त रहती जिसके सहारे व्यक्ति बाह्य संसार के उद्दीपकों से संवेदनशील होकर तथा वातावरण से प्रभावित होकर प्रत्यक्षीकरण करना सीखता है। प्रत्यक्षीकरण ज्ञानयुक्त संवेदना है। प्रत्यक्षीकरण प्रत्येक तरह से ज्ञान का आधार होता है तथा प्रत्यक्षीकरण का आधार संवेदना है। वह बालक जिसके लिए सम्पूर्ण संसार एक अर्थहीन संवेदन था, वह आज परम पंडित, ज्ञानी तथा इस संसार के अनेक सूक्ष्म तत्त्वों का विश्लेषण करने वाला बन जाता है । यह ज्ञान कहाँ से प्राप्त किया गया? यह सम्पूर्ण ज्ञान बालक ने इसी संसार के वातावरण से प्राप्त किया, जिसका आधार संवेदना और प्रत्यक्षीकरण था। इस प्रकार ज्ञान अर्जित है किन्तु बुद्धि अर्जित नहीं है।

ज्ञानात्मक विकास के इस स्वरूप को यदि हम ध्यान से देखते हैं तो इसकी कतिपय विशेषताएं स्पष्ट हो जाती हैं। ज्ञानात्मक विकास की कुछ विशेषताओं को इस प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है।

(i) ज्ञानात्मक विकास एक मानसिक प्रक्रिया है।

(ii) इसमें बाह्य सूचनाओं को सिद्धान्त रूप में ग्रहण कर व्यावहारिक रूप में क्रियान्वयन की क्षमता विद्यमान रहती है।

(iii) ज्ञानात्मक विकास का स्वरूप वैयक्तिक होता है। यह वैयक्तिकता व्यक्ति के अनेक ज्ञान संचय एवं प्रक्रिया में देखा जाता है। जैसे-किसी मूर्त या अमूर्त ज्ञान के प्रयोग में, किसी प्रत्यक्षीकरण में, किसी प्रकार के ज्ञान को दूसरे क्षेत्र में स्थानान्तरित करने में, किसी ज्ञान की व्याख्या,करने में या किसी बिम्बों या प्रतीकों के उपयोग आदि में। ज्ञान की इन सभी परिस्थितियों में व्यक्ति की वैयक्तिकता कार्य करती है। इस वैयक्तिकता का कारण व्यक्ति के ज्ञानात्मक विकास के स्वरूप एवं परिस्थिति पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए फल शब्द एक उद्दीपक है।

‘फल’ बेचने वाला इसका प्रयोग सेव, केला, सन्तरा के रूप में करता है, तो परीक्षार्थी अपने परीक्षाफल के रूप में करता है। उसी तरह सन्त पाप-पुण्य के फल का प्रत्यक्षीकरण करता है तात्पर्य यह है कि ज्ञानात्मक विकास की यह एक विशेषता होती है कि उसमें वैयक्तिक गुण विद्यमान होता है।

(iv) चूँकि ज्ञानात्मक विकास सभी प्रकार के ज्ञान से सम्बन्ध रखता है इसलिए यह एक अत्यन्त पेचीदी मानसिक प्रक्रिया है। इसका विस्तार संवेदना से प्रारम्भ होकर तर्क एवं निर्णय के संतुलित ज्ञान तक फैला है । संवेदना से तर्क एवं निर्णय के बीच प्रत्यक्षीकरण,प्रतिमायें, स्मृति, कल्पना, चिन्तन आदि मानसिक प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं। ज्ञानात्मक विकास में ये सभी प्रक्रियायें श्रृंखलाबद्ध रूप में विद्यमान रहती हैं

(v) किन्तु ज्ञानात्मक विकास अत्यन्त जटिल होते हुए भी अपनी चयनात्मकता की विशेषता के कारण अपनी दुरूहता कम किए हुए है। अर्थात् वातावरण में विद्यमान अनेक उद्दीपकों में से अपने प्रयोजन के अनुकूल उन्हीं उद्दीपकों को चुनता है जिनकी उसे तत्काल आवश्यकता होती है। इसी प्रकार ज्ञान का विशाल भण्डार मस्तिष्क में विद्यमान है किन्तु उद्दीपकों के अनुसार जिसकी आवश्यकता पड़ती है, मस्तिष्क उसी ज्ञान को चुनकर प्रयोग करता है। मनोविज्ञान का प्रवक्ता “ज्ञानात्मक विकास” पर व्याख्यान देते समय सन्दर्भित विषयवस्तु से सम्बन्धित ज्ञान को ही चुन-चुन कर प्रस्तुत करता है। अर्थात् जिस किसी ज्ञान की इकाई की आवश्यकता होती है, ज्ञानात्मक पक्ष उसे अति चेतना के पटल पर तैराने लगता है।

इस प्रकार ज्ञानात्मक विकास व्यक्ति के विभिन्न प्रकार के व्यवहारों का नियन्त्रण एवं संचालन करता है। व्यक्ति कब कैसा व्यवहार करता है या करेगा, यह ज्ञानात्मक विकास की परिधि पर आधारित होता है। अर्थात् वातावरण में विद्यमान उद्दीपकों और उनके प्रति की जाने वाली व्यक्ति की अनुक्रियाओं के बीच ज्ञानात्मक भण्डार विद्यमान रहकर उचित अनुक्रिया का संचालन करता है।

2. ज्ञानात्मक विकास की अवस्थायें- विकास की अवस्थाओं के सन्दर्भ में डॉ. अर्नेस्ट जोन्स का एक वाक्य उद्धृत करने से विषयवस्तु अधिक बोधगम्य हो सकती है । “मानव विकास की स्पष्ट चार परिभाषित अवस्थायें हैं : शैशवावस्था, पाँच वर्ष की आयु तक, बाल्यावस्था, बारह वर्ष की आयु तक, किशोरावस्था, अठारह वर्ष की आयु तक, तथा अन्तिम, परिपक्वावस्था या प्रौढ़ावस्था”। डॉ. जोन्स का यह वाक्य स्पष्ट करता है कि बालक के विकास की अवस्थायें उसकी आयु के अनुसार होती हैं- शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था एवं प्रौढ़ावस्था। यद्यपि यह विभाजन अत्यन्त पुराना पड़ गया है क्योंकि विकास का क्रम निरन्तर चलता है। इनमें कोई विभाजन रेखा नहीं खड़ी की जा सकती। अर्थात् एक बालक अपनी पाँच वर्ष की अवस्था तक शिशु है तथा छठे वर्ष में प्रवेश करते ही बाल्यावस्था के सभी लक्षणों को छोड़कर किशोरावस्था के लक्षणों से परिपूर्ण हो जाता है-ऐसी प्रक्रिया स्वाभाविक नहीं प्रतीत होती।

जीन पियाजे ने अपनी ज्ञानात्मक अधिगम के सिद्धान्त में ज्ञानात्मक विकास को निम्न चार भागों में विभाजित किया है

(i) संवेदी पेशीय अवस्था

(ii) पूर्व क्रियात्मक अवस्था

(iii) मूर्तु क्रियात्मक अवस्था

(iv) औपचारिक क्रियात्मक अवस्था

1. संवेदी पेशीय अवस्था- संवेदी-पेशीय से तात्पर्य संवेदना तथा शारीरिक क्रियाओं से है अर्थात् इस अवस्था में बालक संवेदना तथा अपनी अव्यवस्थित शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से ज्ञान का आभास मात्र प्राप्त करता है। पियाजे के अनुसार यह अवस्था दो वर्ष तक रहती है। जान पी. डिसेको इस अवधि को आधा वर्ष घटा कर डेढ़ वर्ष ही कहता है किन्तु इस विवाद से तथ्य में अन्तर नहीं आता है। ज्ञानात्मक विकास की इस अवस्था के बारे में जान पी. डिसेको ने लिखा है “ज्ञानात्मक अवस्था का प्रथम काल संवेदी-पेशीय काल है जो लगभग डेढ़ वर्ष पर समाप्त हो जाता है। इस अवधि के पूर्वार्द्ध भाग में बालक की सम्पूर्ण क्रियाएं शरीर से सम्बन्धित ही होती हैं। उत्तरार्द्ध भाग में वह ऐसे व्यावहारिक बौद्धिक तरीकों का विकास करता है जिससे वह बाह्य जगत के पदार्थों के साथ क्रिया अपने शरीर से अलग बाह्य पदार्थों की ओर नहीं होती किन्तु आधी अवधि के बाद (जन्म के लगभग दस माह बाद) वह बाह्य पदार्थों के प्रति भी क्रियात्मक चेष्टा करने लगता है। अत: यह अवस्था सहज क्रियाओं तथा बाह्य पदार्थों के प्रति उत्पन्न संवेदना का होता है जिसके माध्यम से बालक सभी कर्मेन्द्रियों की संवेदना प्राप्त करता है जैसे गन्ध, स्वाद, ध्वनि, स्पर्श, पदार्थों का अवलोकन आदि । इन सभी संवेदनाओं की बार-बार आवृत्ति से उन उद्दीपकों की विशेषताओं का धीरे-धीरे उसे ज्ञान प्राप्त होने लगता है जिसकी मात्र वह अनुभूति कर सकता है, उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकता। इस अवस्था में बालक अपनी क्रियाओं से ही अपने में मस्त रहता है। इस प्रथम अवस्था को विकास-क्रम के अनुसार मेरी ऑन स्पेन्सर पुलास्की ने निम्न छ: अवस्थाओं में विभाजित किया है।

पहली अवस्था (0 से 1 मास तक) – यह पूर्ण स्वकेन्द्रित अवस्था है जिसमें बालक अपने आत्म तथा बाह्य वास्तविकता में भेद नहीं करता । यहाँ तक कि वह अपने स्व से अनभिज्ञ रहता है।

दूसरी अवस्था (1 से 4 मास तक) – संयोगवश कभी-कभी नयी अनुक्रिया का सूत्रपात हो जाता है जो पूर्णरूप से सहज क्रियाओं से सम्बन्धित रहती है। बालक अपने हाथ-पैर को बार-बार तेजी से हिलाते-डुलाते रहने के कारण अचानक कभी मुँह में पड़ जाता है और वह उसे पीने लगता है। यह क्रिया सुनिश्चित नहीं बल्कि संयोगवश ही होती है।

तीसरी अवस्था (4 से 8 मास तक) – इस अवधि में नयी-नयी अनुक्रियाओं के सूत्र बनने लग जाते हैं तथा वह ऐच्छिक रूप से उनकी पुनरावृत्ति करने लगता है ताकि वातावरण में कुछ रूचिकर परिवर्तन हो।

चौथी अवस्था (8 से 12 माह तक) – इस अवधि में शिशु की अधिकांश क्रियाएं जानबूझ कर होने लगती हैं तथा शिशु अपेक्षाकृत अधिक क्रियाशील हो जाता है। उसमें प्रत्यक्षीकरण की क्षमता का विकास हो जाता है तथा वह अपने समीप के अवरोध उत्पन्न करने वाली वस्तुओं को खींचने तथा हटाने लगता है। वह माँ-बाप के हाथ को भी आशा से पकड़ता है कि वह जो चाहता है उसे मान लिया जाये। इसी अवस्था में सामने से एकाएक हटा ली गई वस्तु या खिलौनों को खोजने की प्रवृत्ति का विकास प्रारम्भ हो जाता है।

पाँचवीं अवस्था (12 से 18 माह तक) – इस अवधि में बालक अपनी क्रियाओं के प्रयोग में और अधिक जागरूक हो जाता है। बहुत से उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शिशु विभिन्न प्रकार के तरीकों को खोज लेता है। एक पदार्थ को बार-बार एक स्थान पर गिराते-गिराते फेंकना सीख जाता है। यदि किसी वस्तु को बिस्तर के नीचे गिरा दिया जाये तथा पुन: उसे उस स्थान से हटाकर दूसरे बिस्तर के नीचे रख दिया जाये तो इस अवस्था में शिशु दूसरा वाला बिस्तर हटाने लगता है। यह इसलिए नहीं करता कि वस्तु रखते हुए देख लिया है बल्कि वह सर्वप्रथम पहले बिस्तर के नीचे ही खोजता है। पहले बिस्तर के नीचे वस्तु न मिलने पर ही दूसरे बिस्तर के पास जाकर खोजने की प्रक्रिया करता है। अर्थात् इस अवस्था में शिशु में इतनी चिन्तन शक्ति का विकास हो गया होता है कि यदि वस्तु यहाँ नहीं है तो अन्यत्र कहीं अवश्य होगी। इस प्रकार इस अवस्था के अन्त तक वह स्थान, समय, कार्य, कारण का सम्बन्ध तथा नकल की प्रवृत्ति का ज्ञान उपलब्ध कर लेता है।

2 – छठी अवस्था (1 1/2 वर्ष से 2 वर्ष तक) – संवेदी-पेशीय अवस्था की इस अवधि में शिशु विभिन्न प्रकार की क्रियाओं की कल्पना करने लगता है तथा उन्हें क्रियान्वित भी करने लगता है । शिशु का यह कार्य उसी प्रकार होता है जिस प्रकार कोहलर का चिंपैजी अधिगम के सूझ के सिद्धान्त में किसी उद्देश्य की प्राप्ति में साधनों का प्रयोग करता है। 1963 में जीन पियाजे ने स्वयं इसी तरह के व्यवहारों का वर्णन अपनी पुत्री जैक्विलिन के बारे में करते हुए लिखा है कि किस प्रकार उसकी पुत्री ने छिपायी गयी मुद्रा को पाने का प्रयास किया। पियाजे महोदय ने मुद्रा को अपने हाथ में लेकर अपना हाथ गद्दे के नीचे रखा । पुनः हाथ को बाँधे (मुट्ठी) हुए गद्दे से बाहर निकाल लिया। उसने पुन: अपने हाथ को तुरन्त एक कपड़े में लपेट कर छिपा लिया तथा पुन: बाहर निकाल लिया । मुद्रा ढूँढ़ने की भावना से पुत्री ने अपने पिता के हाथ न देखकर पहले गद्दे के नीचे, फिर उस कपड़े में देखा तथा मुद्रा पाकर प्रसन्नता व्यक्त की। इस प्रकार पियाजे ने अपनी पुत्री के इस तरह के कई व्यवहारों का अध्ययन किया तथा निष्कर्ष निकाला कि इस अवधि में शिशु में इस प्रकार की कल्पनात्मक प्रक्रिया के विकास में ज्ञानात्मक आत्मसात करने की शक्ति तथा ज्ञानात्मक समायोजन की प्रक्रिया कार्यरत रहती है । इस प्रकार संवेदी-पेशीय अवस्था की यह अन्तिम अवधि है जिसमें शिशु कल्पना, चिन्तन तथा स्थूल निर्णय की शक्ति को सामान्य स्तर पर विकसित कर लेता है।
 

2. पूर्व क्रियात्मक अवस्था- जान पी. डिसेको ने पियाजे महोदय को उद्धृत करते हुए लिखा है- “ज्ञानात्मक विकास की दूसरी अवस्था डेढ़-दो वर्ष की आयु से प्रारम्भ होकर बालक के सात-आठ वर्ष की आयु तक चलती है। पियाजे इसे बुद्धि-प्रदर्शन अवधि कहता है क्योंकि बालक वास्तविकता को भाषा एवं मानसिक प्रतिमाओं के रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता अर्जित कर लेता है। बालक के लिये यह अवधि जादूमय प्रतीत होती है क्योंकि इस अवधि में वह शब्द, चित्र संवेग, कल्पना तथा स्वन आदि सभी को बाह्य जगत के यथार्थ ही अंश मानता है।’

पुलास्की ने इस अवस्था को विकासक्रम की दृष्टि से निम्न अवस्थाओं में विभाजित किया है:

पूर्व सम्प्रत्यात्मक अवस्था- यह अवधि दो से चार वर्ष तक चलती है। इस अवधि में प्रत्यक्ष ज्ञान में स्थिरता आती है तथा उन्हें बालक चित्र खींचने, भाषा, स्वप्न तथा प्रतीकात्मक खेलों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। प्रारम्भ में सम्प्रदायों के निर्माण में अति सामान्यीकरण करता है जैसे सभी कुत्तों को अपना ही कुत्ता कहता है। इस अवधि में मूर्त सम्प्रदायों का निर्मित होना प्रारम्भ होता है।

प्रत्यक्षात्मक अवस्था- यह अवधि 4 वर्ष से 7 वर्ष या 8 वर्ष तक चलती है। इस अवधि में पूर्व तार्किक चिन्तन का उदय होता है अर्थात् तार्किक चिन्तन के आधारभूत अथवा सहायक तत्त्वों का विकास प्रारम्भ होता है । त्रुटि एवं प्रयास के माध्यम से वह सम्प्रदायों के सही सम्बन्धों की खोज करने लगता है। ज्ञानात्मकता के इसी पक्ष के विकास के कारण वह कभी-कभी कहता है कि चाचा जी आज नये पोशाक में पहचान में नहीं आ रहे हैं। वह न पहचानने के स्वरूप को भी पहचान लेता है। इस अवस्था में बालक में समानता एवं असमानता का बोध होने लगता है। वह समान पदार्थों को एक जगह तथा असमान को दूसरे जगह रखने लगता है। इसके लिए तर्क भी प्रस्तुत करने लगता है। वैसे बालक प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया में पदार्थ के सम्पूर्ण अंगों का प्रत्यक्षीकरण न कर आंशिक प्रत्यक्षीकरण ही कर पाता है।

3. मूर्त क्रियात्मक अवस्था- ज्ञानात्मक विकास की अवस्था की यह अवधि बालक के 7.8 वर्ष की आयु से प्रारम्भ होकर 11, 12 वर्ष की आयु तक चलती है। बालक इस अवधि में सामान्य तार्किक चिन्तन करने लगता है किन्तु अभी उसका चिन्तन मूर्त पदार्थों के सन्दर्भ में ही होता है अब दो पदार्थों के समानता तथा असमानता के कारणों पर भी प्रकाश डालने में सक्षम हो जाता है। कार्य-कारण सम्बन्ध का ज्ञान भी इस अवस्था में विकसित होने लगता है। कार्य-कारण सम्बन्धों में ज्ञान के आधार पर बालक में निर्णय शक्ति का भी विकास होने लगता है। चूँकि इस अवधि में बालक अपने को कार्यों में व्यस्त रखने की क्षमता विकसित कर लेता है। इसलिए जीन पियाजे ने इस अवधि को क्रियात्मक अवस्था कहा है ।

इस अवधि में तर्क चिन्तन का विकास तो होता है किन्तु वे मूर्त वस्तुओं को एक सामान्य विहंग में निरीक्षण ही कर पाते हैं। उनकी सूक्ष्मता पर उनका ध्यान नहीं जाता। जीन पियाजे ने इस अवस्था के बालकों के विषय में उनके क्रम में रखने एवं उनका आदान-प्रदान करने की क्रिया के कारण परिलक्षित होती है किन्तु वे इन तथ्यों की व्याख्या नहीं कर सकते । इस प्रकार हम देखते हैं कि इस अवस्था का बालक मूर्त तथा अमूर्त चिन्तन एवं तर्क के बीच उलझा सा रहता है ।

4. औपचारिक क्रियात्मक अवस्था- यह किशोरावस्था के उदय की अवस्था है। इस अवस्था में शारीरिक एवं मानसिक दोनों पक्षों में आमूलचूल परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन इतना अचानक होता प्रतीत होता है कि स्वयं बालक भी उन परिवर्तनों के प्रति समायोजित होने में कठिनाई महसूस करता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसे तूफानी अवस्था कहा है तथा कुछ ने इसे मानसिक उथल-पुथल की अवस्था के रूप में वर्णित किया है । ज्ञानात्मक विकास की अवस्था के सन्दर्भ में यह अवस्था 11, 12 वर्ष की आयु के पश्चात् से प्रारम्भ होकर 15, 16 वर्ष की आयु तक चलती है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्था का आंकलन 13 वर्ष की आयु से 19 वर्ष की आयु के बीच किया है।

इस अवस्था में बालक अमूर्त चिन्तन के प्रति प्रौढ़ की भाँति क्षमता अर्जित करने लगता है। कभी-कभी वह प्रौढ़ को किसी विशेष समस्या पर समुचित राय देने की भी क्षमता का विकास करने लगता है। किशोर बालक अपनी इस अवस्था में किसी विचार के प्रति सिद्धान्त निर्माण करने तथा वर्तमान संसार की क्रिया-कलापों की आलोचना करने के लिए अनेक सम्भव तरीकों का तथा अन्य विकल्पों की संकल्पना करने लगता है। उसकी मानसिकता इतनी प्रगतिशील प्रतीत होने लगती है कि वह तात्कालिक सामाजिक मूल्यों एवं प्रतिमानों की खुलकर आलोचना करता है।

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