विभिन्न सन्दर्भो से बच्चों के विषय में आँकड़ों के एकत्रीकरण के बारे में लिखो।

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 बाल विकास का अध्ययन क्षेत्र मनोविज्ञान के विकास के साथ-साथ धीरे-धीरे विस्तृत होता जा रहा है । बाल विकास के अध्ययनों में आँकड़ों का एकत्रीकरण करने हेतु कुछ विशेष विधियों का प्रयोग किया जाता है। मनोविज्ञान की सभी अध्ययन विधियाँ बाल-क्षेत्र की । समस्याओं का अध्ययन करने हेतु उपयोगी नहीं हैं। कुछ अध्ययन विधियों का महत्त्व ज्यादा है क्योंकि भिन्न-भिन्न आयु के बच्चों की समस्याएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं एवं उनके लिए आँकड़ों का एकत्रीकरण भी भिन्न-भिन्न तरीकों से किया जाता है। उदाहरण के लिए नवजात शिशुओं की एवं गर्भकालीन शिशु की विकास समस्याओं का अध्ययन करने के लिए हमें निरीक्षण तथा प्रयोगात्मक विधि को अपनाना होगा। इसके साथ-साथ व्यक्तिगत इतिहास विधि का भी प्रयोग कर सकते हैं।

बच्चों की समस्याओं का अध्ययन करने हेतु प्राकृतिक निरीक्षण, साक्षात्कार, बच्चों के सन्दर्भ में निकले जनरल एनसीडोन्टल रिकार्ड एवं चिकित्सीय विधियाँ ज्यादा उपयोगी हो सकती हैं। बड़े बच्चों का अध्ययन करने हेतु साक्षात्कार विधि एवं चिकित्सीय विधियाँ ज्यादा उपयोगी हो सकती हैं। छोटे शिशुओं का अध्ययन ज्यादातर प्राकृतिक निरीक्षण पद्धति एवं बच्चों के सन्दर्भ में प्रकाशित जनरल, पत्रिकाओं आदि से भी किया जाता क्योंकि इन जनरल एवं पत्रिकाओं में विविध नवीन शोध कार्यों का विवरण दिया गया होता है ।


बाल अध्ययन विधियाँ :

बच्चों के विषय में आँकड़ों का एकत्रीकरण करने हेतु अग्रलिखित विधियों का प्रयोग किया जाता है-

1. प्राकृतिक निरीक्षण विधि :

बाल आँकड़ों के एकत्रीकरण हेतु इस विधि का प्रयोग प्राचीन काल से किया जा रहा है । इस विधि का उपयोग छोटे बच्चों तथा शिशुओं की समस्याओं के अध्ययन हेतु किया जाता है । इस विधि का सर्वप्रथम प्रयोग जर्मनी में हुआ। अमेरिका में वाटसन ने इस विधि का उपयोग बालकों के प्राथमिक संवेगों के अध्ययन में किया। गेसेल ने 1925 में इस विधि में Moving Picture Camera का प्रयोग किया तथा व्यवहार चित्रों के विश्लेषण से बालकों के सम्बन्ध व्यवहार के में शुद्ध परिणाम प्राप्त किए।

प्राकृतिक रुप से निरीक्षण करने हेतु निरीक्षणकर्ता कक्ष से बाहर रहकर ही बालकों का निरीक्षण करता है। इस तरह के निरीक्षण में यह व्यवस्था होती है कि बालक निरीक्षक को न देख पाए एवं निरीक्षक ही बालक को देख पाए । कक्ष के उपयोग से वातावरण की बाधाएँ तथा निरीक्षक की उपस्थिति का प्रभाव नहीं पड़ता है। प्राकृतिक निरीक्षण करते समय बच्चों को यह ज्ञात नहीं होना चाहिए कि कोई उनका निरीक्षण कर रहा है। इसमें बालक के व्यवहार से संबंधित किसी परिस्थिति विशेष का सविस्तार अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए बालक के झगड़े की परिस्थिति का अध्ययन झगड़ा कितनी देर, किन परिस्थितियों में तथा क्यों हुआ? यह जरुरी है कि प्राकृतिक निरीक्षण करते समय एवं आँकड़ों का संकलन करते समय निरीक्षण विधि के सैद्धान्तिक पक्ष को समझ लिया जाए।

प्राकृतिक निरीक्षण विधि से आँकड़ों का एकत्रीकरण करते समय अगर शिशु बहुत होते हैं तो उनके हाव-भाव एवं गतिविधियों का बहुत बारीकी से अध्ययन करना चाहिए। प्राकृतिक निरीक्षण विधि में अध्ययन बहुत सावधानी से किया जाता है। नेत्रों का पूरी तरह उपयोग होता है, अध्ययन करने वाला निरीक्षण प्रत्यक्ष रुप से अध्ययन में भाग लेता है। इस विधि द्वारा किसी भी अध्ययन की प्राथमिक सामग्री प्राप्त की जा सकती है तथा साथ-साथ नियंत्रित निरीक्षण विधि की मदद से महत्त्वपूर्ण आँकड़े एकत्रित किये जा सकते हैं। इस विधि की मदद से बच्चों के सामूहिक व्यवहार का भी अध्ययन किया जा सकता है । प्राकृतिक निरीक्षण एक तरफ आँकड़ों के एकत्रीकरण की विधि है तो दूसरी तरफ इस विधि का उपयोग एक स्वतन्त्र विधि के रुप में भी किया जाता है तथा साथ-साथ एक सहायक विधि के रुप में भी किया जाता है। जहाँ सामूहिक व्यवहार के अध्ययन की जरुरत होती है वहाँ इस विधि का उपयोग बहुधा प्राथमिक आँकड़ों को एकत्रित करने हेतु किया जाता है। जैसे-अधिगम से संबंधित अध्ययन, प्रत्यक्षीकरण, अभिप्रेरणा, व्यक्तित्व, संवेग,नेतृत्व, बालकों का सामाजिक विकास, सामूहिक व्यवहार आदि । यह एक महत्त्वपूर्ण विधि है। इसकी मदद से मनोविज्ञान की विविध समस्याओं को प्राथमिक निरीक्षण के आधार पर चुनते हैं। इस विधि का उपयोग उस समय ज्यादा किया जाता है जब किसी अध्ययनकर्ता को इस विधि के आधार पर उपकल्पनाएँ बनानी हों। यह अन्य विधियों की बजाय आसान विधि है। इसके परिणाम वस्तुनिष्ठ होते हैं। ऐसे परिणामों पर निरीक्षणकर्ता के विचारों तथा भावनाओं का प्रभाव नहीं पड़ता है परन्तु इस सन्दर्भ में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का मानना है कि निरीक्षण विधि में निरीक्षणकर्ता की मनोवृत्तियों तथा पक्षपातों का प्रभाव निरीक्षणों पर पड़ता है।

प्राकृतिक निरीक्षण विधि को सरल या अनियंत्रित निरीक्षण विधि भी कहते हैं। यह निरीक्षण विधि का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार है। यंग के अनुसार, “अनियंत्रित निरीक्षण में हमें वास्तविक जीवन परिस्थितियों की सूक्ष्म परीक्षा करनी होती है जिसमें विशुद्धता के यन्त्रों का प्रयोग अथवा निरीक्षित घटना की सत्यता की जाँच का कोई प्रयत्न नहीं किया जाता है।

जब किसी घटना या व्यवहार का निरीक्षण प्राकृतिक परिस्थितियों में ज्यों का त्यों किया जाए एवं प्राकृतिक परिस्थितियों पर कोई बाह्य दबाव अध्ययनकर्ता द्वारा न डाला जाय तो इस तरह के निरीक्षण को प्राकृतिक अथवा अनियंत्रित निरीक्षण कहते हैं।

प्राकृतिक निरीक्षण विधि की विशेषताएँ- प्राकृतिक निरीक्षण विधि से अग्रलिखित लाभ हैं-

(1) समाज विज्ञानों हेतु यह एक उपयोगी विधि है।

(2) प्राकृतिक निरीक्षण विधि बच्चों की समस्याओं के संबंध में ऑकड़ों का संकलन करने हेतु बहुत उपयोगी है।

(3) इस विधि द्वारा ऑकड़ों का एकत्रीकरण आसानी से किया जा सकता है ।

प्राकृतिक निरीक्षण विधि की सीमाएँ- प्राकृतिक निरीक्षण विधि की मुख्य सीमाएँ इस तरह हैं-

(1) इस विधि द्वारा विश्वसनीय परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि बहुधा हम घटना की सूक्ष्मता से जाँच किए बगैर ही परिणाम स्वीकार कर लेते हैं।

(2) निरीक्षणकर्ता की भावनाओं तथा विचारों के प्रभाव के कारण भी दोषपूर्ण परिणाम प्राप्त हो सकते हैं क्योंकि अध्ययनकर्ता पर इस विधि में कोई नियंत्रण नहीं होता है।

(3) बहुधा एक ही घटना का निरीक्षण करके भिन्न-भिन्न निरीक्षणकर्ता भिन्न-भिन्न निष्कर्ष निकालते हैं। इस विधि द्वारा प्राप्त निष्कर्ष भी अप्रमाणित एवं वस्तुनिष्ठता रहित होते हैं।


2. साक्षात्कार :

आँकड़ों के एकत्रीकरण में साक्षात्कार विधि का भी काफी उपयोग किया जाता है साक्षात्कार विधि का उपयोग काफी दिनों से होता चला आ रहा है । आधुनिक युग में इस विधि का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इसमें साक्षात्कारकर्ता तथा सूचनादाता दोनों ही आमने-सामने बैठते हैं एवं साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता से अध्ययन समस्या के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । आइजनेक (1972) के अनुसार, “साक्षात्कार वह साधन है जिसके द्वारा मौखिक या लिखित सूचना प्राप्त की जाती है। इस विधि में साक्षात्कार करने वाला व्यक्ति सूचनादाता को सामने बिठाकर सूचनादाता से समस्या के संदर्भ में सूचना लिखित या मौखिक दोनों प्रकार के प्रश्नों द्वारा प्राप्त करता है। मनोविज्ञान में इस विधि का उपयोग स्वतन्त्र विधि के रुप में किया जाता है। आँकड़ों का एकत्रीकरण भी इस विधि के माध्यम से किया जाता है यह विधि बहुत छोटे बच्चों हेतु उपयोगी नहीं है। कुछ बड़े बच्चों एवं किशोरों हेतु ज्यादा उपयोगी है। इस विधि का उपयोग स्वतन्त्र विधि के रुप में भी किया जा सकता है तथा सहयोगी विधि के रुप में भी किया जा सकता है। इस विधि का प्रयोग कई तरह के अध्ययनों हेतु किया जाता है । बालकों पर इस विधि का प्रयोग आँकड़ों के एकत्रीकरण हेतु सफलतापूर्वक किया जा सकता है। बहुत छोटे शिशु जो साक्षात्कार नहीं दे सकते हैं ऐसे शिशुओं हेतु निरीक्षण विधि ज्यादा उपयोगी मानी जाती है। इस विधि का उपयोग किसी समस्या के सन्दर्भ में प्राथमिक सूचना एकत्र करने हेतु भी किया जाता है। इस विधि का उपयोग मनोविज्ञान की सामान्यतः समस्त क्षेत्रों से संबंधित शाखाओं में किया जाता है। अन्य शाखाओं की बजाय औद्योगिक मनोविज्ञान, असामान्य मनोविज्ञान एवं समाज मनोविज्ञान में इस विधि का उपयोग ज्यादा किया है । प्राय: देखा जाता है कि अध्ययन के प्रारम्भिक स्तर पर अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि ज्यादा उपयोगी होती है एवं अध्ययन के द्वितीय स्तर पर जब अध्ययनकर्ता को तुलनीय सूचना की जरुरत होती है तब प्रामाणिक साक्षात्कार विधि ज्यादा उपयोगी होती है।


साक्षात्कार विधि के प्रकार :

1. प्रामाणिक साक्षात्कार विधि- साक्षात्कार की इस विधि के द्वारा अध्ययन करते समय अध्ययन समस्या के सम्बन्ध में विविध तरह के प्रश्न पहले से ही तैयार कर लिये जाते हैं अध्ययन इकाइयों से पहले निश्चित क्रम के अनुसार ही प्रश्नों को उसी क्रम में पूछा जाता है । अध्ययनकर्ता को प्रश्नों के क्रम तथा प्रश्नों की संख्या आदि को नहीं बदलना होता है । प्रामाणिक साक्षात्कार विधि अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि की बजाय ज्यादा विश्वसनीय है क्योंकि यह विधि अपेक्षाकृत ज्यादा शुद्ध है एवं इससे विश्वसनीय परिणाम प्राप्त होते हैं। इस विधि की मदद से तुलना भी आसानी से की जा सकती है।

2. अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि- अप्रामाणिक साक्षात्कार में अध्ययन समस्या के सम्बन्ध में प्रश्न पहले सेही तैयार नहीं किये जाते हैं तथा न ही प्रश्नों की संख्या निश्चित होती है। अध्ययनकर्ता अध्ययन समस्या के सम्बन्ध में कोई भी प्रश्न पूछने हेतु स्वतन्त्र होता है। अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि ज्यादा विश्वसनीय नहीं होती है फिर भी इस विधि द्वारा प्रयोज्य को समझने का ज्यादा अवसर रहता है क्योंकि इसमें प्रश्न किसी भी तरह से पूछ सकते हैं। देखा गया है कि किसी अनुसंधान अथवा अध्ययन के प्रारम्भिक स्तर पर अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि उपयोगी होती है जबकि अध्ययन के द्वितीय स्तर पर जब अध्ययनकर्ता को तुलनीय एवं सूचना की आवश्यकता होती है तब प्रामाणिक साक्षात्कार विधि ज्यादा उपयोगी होती है।


साक्षात्कार विधि की विशेषताएँ 
:

(1) इस विधि द्वारा हम उन समस्याओं एवं घटनाओं का अध्ययन कर सकते हैं जिनको हम देख भी नहीं सकते हैं या जिनका निरीक्षण विधि द्वारा अध्ययन नहीं किया जा सकता है।

(2) इस विधि द्वारा गत घटनाओं का अध्ययन आसानी से किया जा सकता है । बहुत सी बाल-मनोविज्ञान की घटनाएँ ऐसी हैं जिनका वैयक्तिक रुप से निरीक्षण सम्भव नहीं है।

(3) साक्षात्कार विधि में अगर अध्ययनकर्ता प्रशिक्षित होता है एवं उपयुक्त नियंत्रण के साथ प्रदत्त सामग्री एकत्रित करता है तो उसे विश्वसनीय परिणाम प्राप्त होते हैं।

(4) क्योंकि साक्षात्कार ऐतिहासिक तथा संवेगात्मक पृष्ठभूमि में सम्पादित किया जाता है। इसलिए इस विधि द्वारा जो सामग्री प्राप्त की जाती है. वह अन्य विधियों द्वारा प्राप्त नहीं होती है ।

(5) बाल-मनोविज्ञान में विविध मनोवैज्ञानिक व्याधियों के निदान में यह विधि उपयोगी है।


साक्षात्कार की सीमाएँ :

(1) अध्ययनकर्ता हेतु साक्षात्कार के लिए व्यक्तियों को तैयार करने में कठिनाई होती है क्योंकि या तो समय का अभाव होता है अथवा जो समय अध्ययनकर्ता चाहता है उस समय पर लोगों के पास खाली समय नहीं होता है।

(2) जब समस्या का संबंध व्यक्तियों के संवेगात्मक पहलुओं से होता है तो लोग अपने व्यक्तिगत जीवन के संबंध में जानकारी देना नहीं चाहते हैं । अध्ययनकर्ता लोगों की गुप्त बातों को इस विधि द्वारा तभी ज्ञात कर सकता है जब उसे साक्षात्कार प्रविधि का पूरा पूरा ज्ञान हो।

(3) अप्रामाणिक साक्षात्कार के द्वारा जो प्रदत्त सामग्री प्राप्त होती है वह कई बार पक्षपातपूर्ण होती है अर्थात् उस पर व्यक्ति की इच्छाओं, भावनाओं, प्रेरणाओं, संवेगों तथा अभिवृत्तियों आदि का प्रभाव पड़ता है।

(4) सूचना एवं समस्या के संबंध में जो जानकारी देता है उसकी पुष्टि करना कठिन होता है। उसकी पुष्टि तब तक नहीं की जा सकती है जब तक कि प्रतिदर्शन न किया गया हो तथा प्रतिदर्श की संख्या ज्यादा न हो।

(5) साक्षात्कार के द्वारा शुद्ध एवं विश्वसनीय सामग्री तब तक एकत्र नहीं की जा सकती जब तक कि साक्षात्कारकर्ता को इस विधि का पूरा-पूरा न हो।

(6) साक्षात्कार का समय अगर कम होता है तो समस्या के सम्बन्ध में उचित प्रपत्र सामग्री एकत्र की जा सकती है।

(7) सूचनादाता अध्ययनकर्ता से अथवा साक्षात्कार के वातावरण से भयभीत भी हो सकता है तथा ऐसी अवस्था में वह सही प्रत्युत्तर नहीं देता है।

(8) साक्षात्कारकर्ता को प्रयोज्य की मौखिक रिपोर्ट पर आश्रित रहना पड़ता है। प्रयोज्य को अध्ययनकर्ता के सामने बोलने में कठिनाई हो सकती है।

3. बच्चों के बारे में जर्नलों पर विचार :

छोटे बच्चों का अध्ययन करने हेतु समाचार-पत्र, दैनिक-पत्र, डायरी, जर्नल आदि का भी उपयोग आँकड़ों के एकत्रीकरण के रुप में किया जाता है। इन प्राथमिक सूचनाओं से हमें बच्चों के बारे में बहुत-से तथ्यों का पता चलता है। जैसे- बाल मजदूर बच्चों की संख्या, बच्चों के प्रति होने वाले अमानवीय कार्यों, बच्चों को हानिकारक रसायनों के कारखानों में उनके मालिकों को बेच देना एवं अन्य अमानवीय कृत्यों हेतु उन्हें विवश करना आदि। समाचार-पत्र भी आमतौर पर विविध खबरों के माध्यम से लोगों का ध्यान इस तरफ खींचते हैं। प्राथमिक सूचनाओं के रुप में ये आँकड़े हमें यह बताते हैं कि समाज में बच्चों की स्थिति क्या है एवं उनकी समस्याओं का निवारण किस तरह किया जा सकता है। मानवाधिकार संस्थान एवं अन्य बाल संरक्षण का कार्य करने वाली संस्थाएँ तथा सरकार इन आंकड़ों के माध्यम से बच्चों की स्थिति से अवगत होती है एवं विविध शोध कार्यों के माध्यम से एवं जनसंचार माध्यमों के द्वारा इनकी वास्तविक स्थिति को समाज के सामने लाया जाता है। बच्चों की समस्याओं का अध्ययन करने हेतु यह एक उपयोगी विधि है जिसका उपयोग बाल कल्याण के क्षेत्र में किया जाता है।

4 (i) कहानी विधि :

बाल-मनोविज्ञान की प्राचीन विधियों में कहानी विधि का विशेष महत्त्व है। इस विधि में बालक अथवा बालकों के व्यवहारों का समय-समय पर निरीक्षण किया जाता है एवं इन निरीक्षणों के आधार पर कुछ नियमों का प्रतिपादन अध्ययनकर्ता कर लेता है। आँकड़ों के एकत्रीकरण हेतु यह एक महत्वपूर्ण विधि मानी जाती है। कहानियों के माध्यम से छोटे बच्चों के विषय में विविध जानकारियाँ अर्जित की जा सकती हैं। कहानी का लेखा-जोखा रखना भी जरुरी होता है । वीरता, साहस भरी कहानियाँ बालक के विकास पर अच्छा प्रभाव डालती हैं। प्राचीन काल से परियों की कहानियाँ नानी एवं दादी के द्वारा सुनाई जाती थीं तथा बच्चे उनसे प्रभावित होते थे। कहानियों के द्वारा बच्चे की कल्पना शक्ति, स्मृति, चिन्तन आदि का विकास होता है।

(ii) वर्णनात्मक कथाएँ :

बाल-मनोविज्ञान की यह भी प्राचीन विधि है। इस विधि में भी वर्णनात्मक कथाएँ सुनायी जाती हैं। इन वर्णनात्मक कथाओं का बालकों पर काफी प्रभाव पड़ता था। ये कहानियाँ लम्बी होती थीं एवं इनको दो अथवा तीन दिन में पूरा किया जाता था। इन कहानियों में किसी वीर पुरुष, राजा, परी आदि का वर्णन होता था। कहानियाँ इस तरह सुनायी जाती थीं कि बच्चे कहानी के नायक अथवा नायिका से प्रभावित हो जाते थे एवं उन गुणों को अपने व्यक्तित्व में ढालने का प्रयत्न करते थे। कल्पनाशीलता, स्मृति, चिन्तन, एकाग्रता हेतु यह कहानियाँ काफी प्रभावी थीं तथा बच्चों पर काफी अनुकूल प्रभाव इनसे पड़ता था।


5. निदानात्मक विधि :

जी. लेस्टर एण्डर्सन ने इस विधि के विषय में कहा है, “प्राय: विशिष्ट अधिगम, व्यक्तित्व अथवा आचरण संबंधी जटिल ग्रंथियों के अध्ययन हेतु यह विधि प्रयोग की जाती है तथा इसमें विचाराधीन समस्या के अनुकूल विविध निदानात्मक कार्य पद्धतियों एवं प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है। उनका लक्ष्य इस बात को पहचानना अथवा ज्ञात करना होता है कि उनके पात्र की विशिष्ट आवश्यकताएँ क्या हैं? यह ग्रन्थि किस कारण या किन कारणों से पैदा हुई हैं एवं पात्र को इसमें क्या सहायता दी जानी चाहिए।

स्किनर ने निदानात्मक प्रणाली के विषय में कहा है, “उपचारात्मक विधि साधारणतया विशेष तरह से सीखने, व्यक्तित्व या आचरण संबंधी जटिलताओं का अध्ययन करने तथा उनके अनुकूल विभिन्न तरह की उपचारात्मक विधियों का प्रयोग करने के काम में लायी जाती है इस विधि का प्रयोग करने का प्रमुख उद्देश्य यह है कि व्यक्ति की विशिष्ट आवश्यकताएँ क्या हैं, उनमें उत्पन्न विसंगतियों तथा जटिलताओं के क्या कारण हैं एवं उनके निराकरण हेतु पात्र को क्या मदद पेश की जा सकती है ? निदानात्मक विधि का प्रयोग उन बच्चों को मदद देने के लिए किया जाता है जिन बच्चों को पढ़ने में कठिनाई होती है अथवा हकलाने वाले या वाणी दोष से प्रभावित होते हैं या ठीक से बोल नहीं पाते हैं या जो बालक अपराधी होते हैं अथवा संवेगात्मक रुप से अस्थिर होते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि विशिष्ट तरह के बालकों की समस्याओं के निदान हेतु इस विधि का प्रयोग किया जाता है।

कार्यप्रणाली

इस विधि की कार्यप्रणाली को प्रायः दो भागों-निदान एवं उपचार में विभक्त किया जा सकता है।

(अ) निदान के लिए उपाय- समस्यात्मक व्यवहार के उचित निदान हेतु अग्रलिखित उपाय काम में लाये जा सकते हैं-

(i) सर्वप्रथम समस्यात्मक बालक की ठीक तरह से डॉक्टरी परीक्षा करायी जाना चाहिए।

(ii) समस्यात्मक व्यवहार के मूल कारणों का पता लगाने में समस्यात्मक बालक के जीवन-इतिहास से मदद लेने का प्रयत्न करना चाहिए ।

(iii) योग्यताओं तथा रुझानों की जाँच करनी चाहिए। बुद्धि एवं उपलब्धि परीक्षाओं, रुचि, अभिरुचि तथा व्यक्तिगत परीक्षण आदि निदानात्मक उपायों की मदद लेनी चाहिए।

(iv) निदानात्मक साक्षात्कार द्वारा समस्यात्मक व्यवहार के निदान में पर्याप्त मदद मिलती है। इसलिए इस तकनीक का भी प्रयोग किया जाना चाहिए ।

(ब) उपचार हेतु उपाय- निदानात्मक उपायों की सहायता से समस्या के कारणों का पता लगाने के बाद उपचार की व्यवस्था करना भी जरुरी है। इस व्यवस्था द्वारा समस्यात्मक बालक के व्यवहार में अनुकूल परिवर्तन लाना होता है ।

इस कार्य हेतु अग्रलिखित उपाय अपनाए जा सकते हैं-

(1) वातावरण में जरुरी सुधार लाना चाहिए। बालक के असन्तुलित व्यवहार एवं असमायोजन हेतु वातावरण बहुत उत्तरदायी होता है। इसलिए उसमें पर्याप्त सुधार लाने के लिए अग्रलिखित कदम उठाने चाहिए-

(i) ऐसे बालकों को असन्तोषजनक वातावरण से निकाल कर सन्तोषजनक तथा प्रेरणात्मक वातावरण में रखा जाना चाहिए।

(ii) बच्चे को मनोरंजन,खेलकूद एवं अपनी योग्यता एवं रुचि, अभिरुचि के अनुकूल कार्य करने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने चाहिए।

(iii) ऐसे बच्चों के प्रति माता-पिता, शिक्षक एवं समाज के अन्य सदस्यों के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाया जाना चाहिए।

(2) समस्यात्मक बालक के दृष्टिकोण में बदलाव लाना चाहिए। समस्याग्रस्त बालक के व्यवहार में परिवर्तन लाने हेतु एक तरह से उसके सम्पूर्ण जीवन दर्शन में परिवर्तन लाने की जरुरत होती है जिससे यह उचित व्यवहार करने में सक्षम हो सके। इसके लिए कुछ अग्रलिखित विधियाँ अपनायी जाती हैं-

(अ) मनोविश्लेषण विधि

(ब) मनोवैज्ञानिक परमर्श तथा उपचार

(स) आत्म-सुझाव, सम्मोहन आदि तकनीकें।

निदानात्मक विधि की विशेषताएँ- इस विधि की मुख्य विशेषताएँ अनलिखित हैं-

(1) उपचारात्मक उपाय देने से पहले समस्याएँ ज्ञात करने हेतु इस विधि का प्रयोग करना अपरिहार्य है।

(2) बालकों की शैक्षिक समस्याओं का समाधान करने में निदानात्मक विधि बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

निदानात्मक विधि की सीमाएँ- इस विधि की अग्रलिखित सीमाएँ हैं-

(1) इस विधि का प्रयोग कुशल मनोचिकित्सक ही कर सकते हैं।

(2) यह विधि कम समसय, श्रम एवं धन की दृष्टि से अत्यधिक व्ययसाध्य है।


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