शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन की विधियों की चर्चा करें।

Estimated reading: 4 minutes 158 views

 शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ :

शिक्षा मनोविज्ञान में अध्ययन तथा अनुसंधान हेतु सामान्य रूप से जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है, उनको दो भागों में विभाजित किया जा सकता है; यथा-

(अ) आत्मनिष्ठ विधियाँ :

(1) आत्मनिरीक्षण विधि 

(2) गाथा वर्णन विधि

(ब) वस्तुनिष्ठ विधियाँ :

(1) प्रयोगात्मक विधि

(2) निरीक्षण विधि

(3) जीवन-इतिहास विधि

(4) उपचारात्मक विधि

(5) विकासात्मक विधि

(6) मनोविश्लेषण विधि

(7) तुलनात्मक विधि

(8) सांख्यिकी विधि

(9) परीक्षण विधि

(10) साक्षात्कार विधि

(11) प्रश्नावली विधि

(12) विभेदात्मक विधि

(13) मनोभौतिकी विधि

प्रमुख विधियों का वर्णन इस तरह है-

(i) आत्मनिरीक्षण विधि :

आत्मनिरीक्षण विधि को अंतर्दर्शन, अंतर्निरीक्षण विधि भी कहते हैं। स्टाउट के अनुसार, अपनी मानसिक क्रियाओं का क्रमबद्ध अध्ययन ही अंतर्निरीक्षण कहलाता है। वुडवर्थ ने इस विधि को आत्मनिरीक्षण कहा है। इस विधि में व्यक्ति की मानसिक क्रियाएं आत्मगत होती हैं। आत्मगत होने से आत्मनिरीक्षण अथवा अंतर्दर्शन विधि ज्यादा उपयोगी होती है।

(1) परिचय- ‘आत्मनिरीक्षण’, मनोविज्ञान की परंपरागत विधि है। इसका नाम इंग्लैंड के विख्यात दार्शनिक लॉक से संबद्ध है, जिसने इसकी परिभाषा इन शब्दों में की थी-“मस्तिष्क द्वारा अपनी स्वयं की क्रियाओं का निरीक्षण।”

पूर्वकाल के मनोवैज्ञानिक अपनी मानसिक क्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करने हेतु इसी विधि पर निर्भर थे । वे इसका प्रयोग अपने अनुभवों का पुनःस्मरण तथा भावनाओं का मूल्यांकन करने हेतु करते थे। वे सुख तथा दुःख, क्रोध तथा शांति, घृणा तथा प्रेम के समय अपनी भावनाओं एवं मानसिक दशाओं का निरीक्षण करके उनका वर्णन करते थे।

(2) अर्थ- इन्ट्रोस्पैक्शन अर्थात् अंतर्दर्शन का अर्थ है- ‘to look within’ अथवा ‘Self-observation’, जिसका तात्पर्य है- अपने आप में देखना’ अथवा ‘आत्म-निरीक्षण’ । इसकी व्याख्या करते हुए बी.एन. झा ने लिखा है-“आत्मनिरीक्षण अपने स्वयं के मन का निरीक्षण करने की प्रक्रिया है। यह एक तरह का आत्मनिरीक्षण है, जिसमें हम किसी मानसिक क्रिया के समय अपने मन में पैदा होने वाली स्वयं की भावनाओं तथा सब तरह की प्रतिक्रियाओं का निरीक्षण, विश्लेषण एवं वर्णन करते हैं।”

(3) गुण-

(i) मनोविज्ञान के ज्ञान में वृद्धि- “मनोविज्ञान ने इस विधि का प्रयोग करके हमारे मनोविज्ञान के ज्ञान में वृद्धि की है।”

(ii) अन्य विधियों में सहायक- “यह विधि अन्य विधियों द्वारा प्राप्त किये गये तथ्यों, नियमों तथा सिद्धांतों की व्याख्या करने में मदद देती है।’

(iii) यंत्र तथा सामग्री की जरूरत नहीं- “यह विधि खर्चीली नहीं है, क्योंकि इसमें किसी विशेष यंत्र अथवा सामग्री की जरूरत नहीं पड़ती है।”

(iv) प्रयोगशाला की जरूरत नहीं : यह विधि बहुत सरल है, क्योंकि इसमें किसी प्रयोगशाला की आव कता नहीं है।

(4) दोष-

(i) वैज्ञानिकता का अभाव- यह विधि वैज्ञानिक नहीं है, क्योंकि इस विधि द्वारा प्राप्त निष्कर्षों का किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा परीक्षण नहीं किया जा सकता है।

(ii) ध्यान का विभाजन- इस विधि का प्रयोग करते समय व्यक्ति का ध्यान विभाजित रहता है, क्योंकि एक तरफ से उसे मानसिक प्रक्रिया का अध्ययन करना पड़ता है तथा दूसरी तरफ आत्मनिरीक्षण करना पड़ता है। ऐसी दशा में, जैसा कि डगलस तथा हॉलैंड ने लिखा है-“एक साथ दो बातों की तरफ पर्याप्त ध्यान दिया जाना असंभव है, अतएव आत्मनिरीक्षण वास्तव में परोक्ष निरीक्षण हो जाता है ।’

(iii) असामान्य व्यक्तियों तथा बालकों हेतु अनुपयुक्त- यह विधि असामान्य व्यक्तियों, असभ्य मनुष्यों, मानसिक रोगियों, बालकों तथा पशुओं के लिए अनुपयुक्त है, क्योंकि उनमें मानसिक क्रियाओं का निरीक्षण करने की क्षमता नहीं है।

(iv) मन द्वारा मन का निरीक्षण असंभव- इस विधि में मन के द्वारा मन का निरीक्षण किया जाता है, जो सर्वथा असंभव है। रॉस के अनुसार-“दृष्टा तथा दृश्य दोनों एक ही होते हैं, क्योंकि मन, निरीक्षण का स्थान तथा साधन-दोनों होता है।”

(v) मानसिक प्रक्रियाओं का निरीक्षण असंभव- डगलस तथा हॉलैंड के अनुसार-मानसिक दशाओं अथवा प्रक्रियाओं में इतनी शीघ्रता से परिवर्तन होते हैं कि उनका निरीक्षण करना प्राय: असंभव हो जाता है।

(vi) मस्तिष्क की वास्तविक दशा का ज्ञान- इस विधि द्वारा मस्तिष्क की वास्तविक दशा का ज्ञान प्राप्त करना असंभव है; उदाहरणार्थ-अगर मुझे क्रोध आता है, तो क्रोध का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने हेतु मेरे पास पर्याप्त सामग्री होती है लेकिन जैसे ही मैं ऐसा करने का प्रयत्न करती हूँ, मेरा क्रोध कम हो जाता है तथा मेरी सामग्री मुझ से दूर भाग जाती है । इस कठिनाई का अति सुंदर ढंग से वणन करते हुए जेम्स ने लिखा है- आत्मनिरीक्षण करने का प्रयास ऐसा है, जैसा कि वह जानने हेतु कि अंधकार कैसा लगता है, बहुत-सी गैस एकदम जला देना।”

(5) निष्कर्ष- निष्कष रूप में हम कह सकते हैं कि अपने दोषों से आत्मनिरीक्षण विधि का मनोवैज्ञानिकों द्वारा परित्याग कर दिया गया है। डगलस तथा हालैंड का मत है-“हालांकि आत्मनिरीक्षण को किसी समय वैज्ञानिक विधि माना जाता था, लेकिन आज इसने अपना अधिकांश सम्मान खो दिया है।”

(ii)  प्रयोगात्मक विधि :

1. अर्थ- प्रयोगात्मक विधि एक तरह की नियंत्रित निरीक्षण विधि है। इस विधि में प्रयोगकर्ता स्वयं अपने द्वारा निर्धारित की हुई परिस्थितियों अथवा वातावरण में किसी व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है अथवा किसी समस्या के संबंध में तथ्य एकत्र करता है मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि का प्रयोग करके न सिर्फ बालकों तथा व्यक्तियों के व्यवहार का बल्कि ने चूहों, बिल्लियों आदि पशुओं के व्यवहार का भी अध्ययन किया है। इस तरह के प्रयोग का उद्देश्य बताते हुए क्रो तथा क्रो ने लिखा है-“मनोवैज्ञानिक प्रयोगों का उद्देश्य किसी निश्चित परिस्थिति अथवा दशाओं में मानव-व्यवहार से संबंधित किसी विश्वास या विचार का परीक्षण करना है।”

2. गुण-

(i) वैज्ञानिक विधि- यह विधि वैज्ञानिक है, क्योंकि इसके द्वारा सही आंकड़े तथा तथ्य एकत्र किये जा सकते हैं।

(ii) निष्कर्षों की जाँच संभव– इस विधि द्वारा प्राप्त किये गये निष्कर्ष सत्य तथा विश्वसनीय होते हैं।

(iii) विश्वसनीय निष्कर्ष- इस विधि द्वारा प्राप्त किये गये निष्कर्ष सत्य तथा विश्वसनीय होते हैं।

(iv) शिक्षा संबंधी समस्याओं का समाधान- इस विधि का प्रयोग करके शिक्षा संबंधी कई समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

(v) उपयोगी तथ्यों पर प्रकाश- क्रो तथा क्रो के अनुसार-इस विधि ने कई नवीन तथा उपयोगी तथ्यों पर प्रकाश डाला है, जैसे-शिक्षण हेतु किन उपयोगी विधियों का प्रयोग करना चाहिए? कक्षा में छात्रों की अधिकतम संख्या कितनी होनी चाहिए? पाठ्यक्रम का निर्माण किन सिद्धांतों के आधार पर करना चाहिए? छात्रों के ज्ञान का ठीक मूल्यांकन करने हेतु किन विधियों का प्रयोग करना चाहिए?

3. दोष-

(i) प्रयोग में कृत्रिमता स्वाभाविक- प्रयोग हेतु परिस्थितियों का निर्माण चाहे जितनी भी सतर्कता से किया जाये, लेकिन उनमें थोड़ी-बहुत कृत्रिमता का आ जाना स्वाभाविक है।

(ii) कृत्रिम परिस्थितियों का नियंत्रण असंभव तथा अनुचित- हर प्रयोग हेतु न तो कृत्रिम परिस्थितियों का निर्माण किया जाना संभव है तथा न किया जाना चाहिए, उदाहरणार्थ-बालकों में भय,क्रोध या कायरता पैदा करने हेतु परिस्थितियों का निर्माण किया जाना सर्वथा अनुचित है।

(iii) प्रयोज्य का सहयोग प्राप्त करने में कठिनाई- प्रयोज्य अर्थात् जिस व्यक्ति पर प्रयोग किया जाता है, उसमें प्रयोग के प्रति किसी तरह की रुचि नहीं होती है। अतः प्रयोगकर्ता को उसका सहयोग प्राप्त करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है ।

(iv) प्रयोज्य की मानसिक दशा का ज्ञान असंभव- जिस व्यक्ति पर प्रयोग किया जाता है, उसके व्यवहार का अस्वाभाविक तथा आडम्बरपूर्ण हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है अत: उसकी मानसिक दशा का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना प्राय: असंभव हो जाता है।

(v) प्रयोज्य की आंतरिक दशाओं पर नियंत्रण असंभव- प्रयोज्य की मानसिक दशाओं को प्रभावित करने वाले सब बाह्य कारकों पर पूर्ण नियंत्रण करना संभव हो सकता है, लेकिन उसकी आंतरिक दशाओं पर इस तरह का नियंत्रण स्थापित करना असंभव है। ऐसी स्थिति में प्रयोगकर्ता द्वारा प्राप्त किये जाने वाले निष्कर्ष पूर्णरूपेण सत्य तथा विश्वसनीय नहीं माने जा सकते हैं।

4. निष्कर्ष- अपने दोषों के बावजूद प्रयोगात्मक विधि को सामान्य रूप से अनुसंधान को सर्वोत्तम विधि स्वीकार किया जाता है। स्किनर का मत है- “कुछ अनुसंधानों हेतु प्रयोगात्मक विधि को बहुधा सर्वोत्तम विधि समझा जाता है।”

प्रयोगात्मक विधि से बालकों के असामान्य व्यवहारों को ज्ञात कर उनको सामान्य बनाने की दिशा में पर्याप्त काय किया जा सकता है। इस विधि के प्रयोग से समायोजन में मदद मिलती है।

(iii) बहिर्दर्शन अथवा निरीक्षण विधि :

1. अर्थ- ‘निरीक्षण’ का सामान्य अर्थ है- ध्यानपूर्वक देखना। हम किसी व्यक्ति के व्यवहार, आचरण, क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं आदि को ध्यानपूर्वक देखकर उसकी मानसिक दशा का अनुमान लगा सकते हैं। उदाहरणार्थ- यदि कोई व्यक्ति जोर-जोर से बोल रहा है तथा उसके नेत्र लाल हैं, तो हम जान सकते हैं कि वह क्रुद्ध है।

निरीक्षण विधि में निरीक्षणकर्ता, अध्ययन किये जाने वाले व्यवहार का निरीक्षण करता है तथा उसी के आधार पर वह विषय के बारे में अपनी धारणा बनाता है। व्यवहारवादियों ने इस विधि को विशेष महत्व दिया है।

कोलेसेनिक के अनुसार, निरीक्षण दो तरह का होता है- (i) औपचारिक तथा (ii) अनौपचारिक । औपचारिक निरीक्षण, नियंत्रित दशाओं में तथा अनौपचारिक निरीक्षण, अनियंत्रित दशाओं में किया जाता है । इनमें से अनौपचारिक निरीक्षण, शिक्षक हेतु ज्यादा उपयोगी है। उसे है कक्षा में तथा कक्षा के बाहर अपने छात्रों के व्यवहार का निरीक्षण करने के कई अवसर प्राप्त होते हैं। वह इस निरीक्षण के आधार पर उनके व्यवहार के प्रतिमानों का ज्ञान प्राप्त करके, उनको उपयुक्त निर्देशन दे सकता है।

2. गुण-

(i) बालकों का उचित दिशाओं में विकास- कक्षा तथा खेल के मैदान में बालकों के सामान्य व्यवहार, सामाजिक संबंधों एवं जन्मजात गुणों का निरीक्षण करके उनका उचित दिशाओं में विकास किया जा सकता है।

(ii) शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम आदि में परिवर्तन– विद्यालय में शिक्षक, निरीक्षक तथा प्रशासक, समय की माँगों एवं समाज की दशाओं का निरीक्षण करके शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण-विधियों, पाठ्यक्रम आदि में परिवर्तन करते हैं।

(iii) विद्यालयों में वांछनीय परिवर्तन- डगलस तथा हॉलैंड के अनुसार- “निरीक्षण के कारण प्राप्त होने वाली खोजों के आधार पर विद्यालयों में कई वांछनीय परिवर्तन किये गये हैं।”

(iv) बाल-अध्ययन हेतु उपयोगी- यह विधि बालकों का अध्ययन करने हेतु विशेष रूप से उपयोगी है। गैरेट ने यहाँ तक कह दिया है-“कभी-कभी बाल-मनोवैज्ञानिक को सिर्फ यही विधि उपलब्ध होती है।”

3. दोष-

(i) प्रयोज्य का अस्वाभाविक व्यवहार- जिस व्यक्ति के व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है वह स्वाभाविक ढंग का परित्याग करके कृत्रिम तथा अस्वाभाविक विधि अपना लेता है।

(ii) असत्य निष्कर्ष- किसी बालक अथवा समूह का निरीक्षण करते समय निरीक्षणकर्ता को कई कार्य एक साथ करने पड़ते हैं, जैसे-बालक के अध्ययन किये जाने के कारण को ध्यान में रखना, विशिष्ट दशाओं में उसके व्यवहार का अध्ययन करना, उसके व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारणों का ज्ञान प्राप्त करना, उसके व्यवहार के संबंध में अपने निष्कर्षों का निर्माण करना आदि-आदि। इस तरह निरीक्षणकर्ता को एक साथ इतने विभिन्न तरह के कार्य करने पड़ते हैं कि वह उनको कुशलता से नहीं कर पाता है। फलस्वरूप उसके निष्कर्ष साधारणतः सत्य के परे होते हैं।

(iii) आत्मनिष्ठता- आत्मनिरीक्षण विधि के समान इस विधि में भी आत्मनिष्ठता का दोष माना जाता है।

4. निष्कर्ष- निरीक्षण विधि में दोष भले ही हों, लेकिन शिक्षक तथा मनोवैज्ञानिक हेतु इसकी उपयोगिता पर संदेह करना अनुचित है। क्रो तथा क्रो का मत है-“सतर्कता से नियंत्रित की गई दशाओं में भली-भाँति प्रशिक्षित तथा अनुभवी मनोवैज्ञानिक अथवा शिक्षक अपने निरीक्षण से छात्र के व्यवहार के बारे में बहुत-कुछ जान सकता है।”

(iv) मनोविश्लेषण विधि :

इस विधि का जन्मदाता वायना का विख्यात चिकित्सक फ्रायड था। उसने बताया कि व्यक्ति के ‘अचेतन मन’ का उस पर बहुत प्रभाव पड़ता है। यह मन उसकी अतृप्त इच्छाओं का पुंज होता है तथा लगातार क्रियाशील रहता है। फलस्वरूप, व्यक्ति की अतृप्त इच्छाएं अवसर पाकर प्रकाश में आने की चेष्टा करती हैं, जिससे वह अनुचित व्यवहार करने लगता इस विधि के द्वारा व्यक्ति के ‘अचेतन मन’ का अध्ययन करके, उसकी अतृप्त इच्छाओं की जानकारी प्राप्त की जाती है। तदुपरांत, इन इच्छाओं का परिष्कार अथवा मार्गान्तरीकरण करके व्यक्ति का उपचार किया जाता है तथा इस तरह उसके व्यवहार को उत्तम बनाने का प्रयत्न किया जाता है ।

इस विधि की समीक्षा करते हुए वुडवर्थ ने लिखा है-“इस विधि में बहुत समय लगता है । अतः इसे तब तक शुरू नहीं करना चाहिए, जब तक रोगी इसको अंत तक निभाने के लिए तैयार न हो, क्योंकि अगर इस बीच में ही छोड़ दिया जाता है, तो रोगी पहले से भी बदतर हालत में पड़ जाता है। मनोविश्लेषक भी इस विधि को ‘आरोग्य’ प्रदान करने वाली नहीं मानते हैं, लेकिन इसके कारण कई अस्त-व्यस्त चिकित्सा-पूर्व की स्थिति से अच्छी दशा में व्यवहार करते देखे गये हैं।”

(v) जीवन-इतिहास विधि :

“जीवन-इतिहास द्वारा मानव-व्यवहार का अध्ययन ।”

बहुधा मनोवैज्ञानिक का अनेक प्रकार के व्यक्तियों से पाला पड़ता है। इनमें कोई अपराधी, कोई मानसिक रोगी, कोई झगड़ालू, कोई समाज-विरोधी कार्य करने वाला और कोई समस्या बालक होता है। मनोवैज्ञानिक के विचार से व्यक्ति का भौतिक, पारिवारिक या सामाजिक वातावरण उसमें मानसिक असंतुलन उत्पन्न कर देता है, जिसके फलस्वरूप वह अवांछनीय व्यवहार करने लगता है। इसका वास्तविक कारण जानने के लिए वह व्यक्ति के पूर्व-इतिहास की कड़ियों को जोड़ता है। इस उद्देश्य से वह व्यक्ति, उसके माता-पिता, शिक्षकों,सम्बन्धियों, पड़ोसियों, मित्रों आदि से भेंट करके पूछताछ करता है। इस प्रकार, वह व्यक्ति के वंशानुक्रम, पारिवारिक और सामाजिक वातावरण, रुचियों क्रियाओं,शारीरिक स्वास्थ्य, शैक्षिक और संवेगात्मक विकास के सम्बन्ध में तथ्य एकत्र करता । इन तथ्यों की सहायता से वह उन कारणों की खोज कर लेता है, जिनके फलस्वरूप व्यक्ति मनोविकारों का शिकार बनकर अनुचित आचरण करने लगता है। इस प्रकार, इस विधि का उद्देश्य-व्यक्ति के किसी विशिष्ट व्यवहार के कारण की खोज करना है। क्रो व क्रो ने लिखा है-“जीवन इतिहास-विधि का मुख्य उद्देश्य किसी कारण का निदान करना है।”

(vi) उपचारात्मक विधि :

“आचरण सम्बन्धी जटिलताओं को दूर करने में सहायता।”

उपचारात्मक विधि का अर्थ और प्रयोजन स्पष्ट करते हुए स्किनर ने लिखा है-उपचारात्मक विधि साधारणतः विशेष प्रकार के सीखने, व्यक्तित्व या आचरण-सम्बन्धी जटिलताओं का अध्ययन करने और उनके अनुकूल विभिन्न प्रकार की उपचारात्मक विधियों का प्रयोग करने के लिए काम में लाई जाती है। इस विधि का प्रयोग करने वालों का उद्देश्य यह मालूम करना होता है कि व्यक्ति की विशिष्ट आवश्यकताएं क्या हैं, उसमें उत्पन्न होने वाली जटिलताओं के क्या कारण हैं और उनको दूर करके व्यक्ति को किस प्रकार सहायता दी जा सकती है?

यह विधि विद्यालयों की निम्नलिखित समस्याओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुई हैं-

(1) पढ़ने में बेहद कठिनाई अनुभव करने वाले बालक, (2) बहुत हकलाने वाले बालक, (3) बहुत पुरानी अपराधी प्रवृत्ति वाले बालक, (4) गम्भीर संवेगों के शिकार होने वाले बालक ।

(vii) विकासात्मक विधि :

“बालक की वृद्धि और विकास-क्रम का अध्ययन।”

इस विधि को जेनेटिक विधि भी कहते हैं। यह विधि, निरीक्षण विधि से बहुत-कुछ मिलती-जुलती है । इस विधि में निरीक्षक, बालक के शारीरिक और मानसिक विकास एवं अन्य बालकों और वयस्कों से उसके सम्बन्धों का अर्थात् सामाजिक विकास का अति सावधानी से एक लेखा तैयार करता है। इस लेखे के आधार पर वह बालक की विभिन्न अवस्थाओं की आवश्यकताओं और विशेषताओं का विश्लेषण करता है। इसके अतिरिक्त, वह इस बात का भी विश्लेषण करता है कि बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और व्यवहार-सम्बन्धी विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण का कया प्रभाव पड़ता है। यह कार्य अति दीर्घकालीन है, क्योंकि बालक का निरीक्षण उसके जन्मावस्था से प्रौढ़ावस्था तक किया जाना अनिवार्य है। दीर्घकालीन होने के कारण यह विधि महँगी है और यही इसका दोष है । गेरेट का यह कथन सत्य है- “इस प्रकार के अनुसंधान का अनेक वर्षों तक किया जाना अनिवार्य है। इसलिए, यह बहुत महँगा है।”

(vii) तुलनात्मक विधि :

“व्यवहार-सम्बन्धी समानताओं और असमानताओं का अध्ययन ।”

इस विधि का प्रयोग अनुसंधान के लगभग सभी क्षेत्रों में किया जाता है। जब भी दो व्यक्तियों या समूहों का अध्ययन किया जाता है, तब उनके व्यवहार से सम्बन्धित समानताओं और असमानताओं को जानने के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि का प्रयोग करके अनेक उपयोगी तुलनायें की हैं, जैसे-पशु और मानव-व्यवहार की तुलना, प्रजातियों की विशेषताओं की तुलना, विभिन्न वातावरणों में पाले गये बालकों की तुलना, आदि। इन तुलनाओं द्वारा उन्होंने अनेक आश्चर्यजनक तथ्यों का उद्घाटन करके हमारे ज्ञान और मनोविज्ञान की परिधि का विस्तार किया है।

(ix) सांख्यिकी विधि :

“समस्या से सम्बन्धित तथ्य एकत्र करके परिणाम निकालना।”

यह विधि आधुनिक होने के साथ-साथ अत्यधिक प्रचलित है। ज्ञान का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हो, जिससे इसकी उपयोगिता के कारण इसका प्रयोग न किया जाता हो । शिक्षा और मनोविज्ञान में इसका प्रयोग किसी समस्या या परीक्षण से सम्बन्धित तथ्यों का संकलन और विश्लेषण करके कुछ परिणाम निकालने के लिए किया जाता है। परिणामों की विश्वसनीयता इस बात पर निर्भर रहती है कि संकलित तथ्य विश्वसनीय हैं या नहीं।

(x) परीक्षण विधि :

“व्यक्तियों की विभिन्न योग्यतायें जानने के लिए परीक्षा।”

यह विधि आधुनिक युग की देन है और शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न उद्देश्यों से इसका प्रयोग किया जा रहा । इस समय तक अनेक प्रकार की परीक्षण विधियों का निर्माण किया जा चुका है, जैसे-बुद्धि परीक्षा, व्यक्तित्व-परीक्षा, ज्ञान-परीक्षा, रुचि-परीक्षा आदि। इन परीक्षाओं के परिणाम पूर्णतया सत्य, विश्वसनीय और प्रामाणिक होते हैं। अत: इनके आधार पर परिणामों का शैक्षिक, व्यावसायिक और अन्य प्रकार का निर्देशन किया जाता है।

(xi) साक्षात्कार विधि :

“व्यक्तियों से भेंट करके समस्या-सम्बन्धी तथ्य एकत्र करना।”

इस विधि में प्रयोगकर्ता किसी विशेष समस्या का अध्ययन करते समय उससे सम्बन्धित व्यक्तियों से भेंट करता है और उनसे समस्या के बारे में विचार-विमर्श करके जानकारी प्राप्त करता है, उदाहरणार्थ, “कोठारी कमीशन” के सदस्यों ने अपनी रिपोर्ट तैयार करने से पूर्व भारत का भ्रमण करके समाज-सेवकों, वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों, विभिन्न विषयों के विद्वानों और शिक्षा मे रुचि रखने वाले पुरुषों और स्त्रियों से साक्षात्कार किया। इस प्रकार, कमीशन’ ने कुल मिलाकर लगभग 9,000 व्यक्तियों से साक्षात्कार करके, शिक्षा की समस्याओं पर उनके विचारों की जानकारी प्राप्त की।

(xii) प्रश्नावली विधि :

“प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करके समस्या-सम्बन्धी तथ्य एकत्र करना।”

कभी-कभी ऐसा होता है कि प्रयोगकर्ता किसी शिक्षा-समस्या के बारे में अनेक व्यक्तियों के विचारों को जानना चाहता है। उन सबसे साक्षात्कार करने के लिए उसे पर्याप्त धन और समय की आवश्यकता होती है । इन दोनों में बचत करने के लिए वह समस्या से सम्बन्धित कुछ प्रश्नों की प्रश्नावली तैयार करके उनके पास भेज देता है। उनसे प्राप्त होने वाले उत्तरों का वह अध्ययन और वर्गीकरण करता है । फिर उनके आधार पर अपने निष्कर्ष निकालता है, उदाहरणार्थ, ‘राधाकृष्णन कमीशन’ ने विश्वविद्यालय शिक्षा से सम्बन्धित एक प्रश्नावली तैयार करके शिक्षा-विशेषज्ञों के पास भेजी। उसे लगभग 600 व्यक्तियों के उत्तर प्राप्त हुए, जिनको उसने अपने प्रतिवेदन के लेखन में प्रयोग किया।

इस विधि के दोषों का उल्लेख करते हुए क्रो एवं क्रो ने लिखा है-“इस विधि को बहुत वैज्ञानिक नहीं समझा जाता है। सम्भव है कि प्रश्न सुनियोजित, पर्याप्त विवेकपूर्ण या निश्चित उत्तर प्रदान करने वाले न हों। सम्भव है कि उत्तर देने वाले व्यक्ति प्रश्नों के गलत अर्थ लगायें और ठीक उत्तर न दें, जिसके फलस्वरूप संकलित आंकड़ों की विश्वसनीयता कम हो सकती है । सम्भव है कि जिन व्यक्तियों के पास प्रश्नावली भेजी जाये, उनमें से बहुत-से उनको वापस न करें।”

(xiii) विभेदात्मक विधि :

“वैयक्तिक भेदों का अध्ययन तथा सामान्यीकरण।”

प्रत्येक बालक दूसरे से भिन्न होता है। यह भिन्नता ही उसके व्यवहार के निर्देशित करती है । इससे व्यक्ति की पहचान बनती है। शिक्षा मनोविज्ञान कक्षा-शिक्षण के दौरान वैयक्तिक मदों की अनेक समस्याओं से जूझता है । शिक्षक को शैक्षिक कार्य का संचालन करने से वैयक्तिक भेद विशेष कठिनाई का अनुभव कराते हैं

विभेदात्मक विधि वैयक्तिक भिन्नताओं के अध्ययन पर बल देती है और बालकों की समस्याओं का समाधान करती है। इस विधि में अध्ययन की अन्य विधियों तथा तकनीकों का सहारा लिया जाता है। प्राप्त परिणामों के विश्लेषण द्वारा सामान्य सिद्धान्त का निरूपण किया जाता है।

मनोवैज्ञानिकों ने अनेक परीक्षाओं की रचना विभेदात्मक विधि के आधार पर की है। कैटल ने विभेदात्मक परीक्षण की रचना तथा विश्लेषण में पर्याप्त सहयोग दिया है। यह विधि के ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्ष का विशेष रूप से अध्ययन करती है।

(xiv) मनोभौतिकी विधि :

“मन तथा शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन ।”

मनोभौतिकी या मनोदैहिकी का सम्बन्ध मन तथा शरीर की दशा से है। मनुष्य का व्यवहार उसके परिवेश, क्रिया-प्रतिक्रिया तथा आवश्यकता से संचालित होता है। वह व्यवहार ही मनुष्य के भावी संसार का निर्माण करता है। आइजनेक के शब्दों में-“मनोभौतिकी का सम्बन्ध जीवित प्राणियों की उस अनुक्रिया से है जो जीव पर्यावरण की ऊर्जात्मक पूर्णता के प्रति करता है।”

मनोभौतिकी वास्तव में भिन्नता, उद्दीपक के सीमान्त, उद्दीपक समानता तथा क्रम निर्धारण आदि समस्याओं से जूझती है। इन समस्याओं को हल करने के लिए मनोभौतिकी के अन्तर्गत अनेक विधियों को विकसित किया गया है। ये विधियाँ हैं-

1. सीमा विधि (i) निरपेक्ष सीमान्त, (ii) भिन्नता सीमान्त

2. शुद्धाशुद्ध विषय विधि

3. मध्यमान अशुद्ध विधि

इन विधियों में आकस्मिक तथा सतत अशुद्धियों की सम्भावना रहती है। चल अशुद्धियाँ भी हो जाती हैं। इन अशुद्धियों का प्रयोग नियन्त्रण की सावधानियों के द्वारा रोका जा सकता है।


शिक्षा मनोविज्ञान की अन्य विधियाँ :

1. कालानुक्रमिक विधि यह एक समय अवधि शोध विधि है जिसे Lantrock (2006) ने इस तरह परिभाषित किया है- “कालानुक्रम शोध विधि में एक ही व्यक्ति का एक समयावधि तक सामान्यतः कई वर्षों अथवा उससे भी ज्यादा समय तक अध्ययन किया जाता है।” कालानुक्रमिक विधि के अध्ययन में अग्रांकित बातें स्पष्ट होती हैं-

(1) इससे एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के सिर्फ एक ही समूह का अध्ययन किया जा सकता है।

(2) अध्ययन को थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल में दोहराया जाता है । अध्ययनकर्ता अपने उद्देश्य के अनुसार अध्ययन को दोहराने की संख्या निर्धारित करता है। अध्ययन को कितनी बार दोहराया जाए, दो अध्ययन के मध्य का समय अन्तराल कितना हो, इसके लिए कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं है । इसका निर्णय अध्ययनकर्ता अध्ययन की जाने वाली समस्या के स्वरुप है एवं अध्ययन के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करता है ।

इस विधि का प्रयोग छात्रों में होने वाले परिवर्तनों के तुलनात्मक अध्ययन हेतु किया जाता है । इस विधि का प्रयोग पेशीय विकास, भाषा विकास, संज्ञानात्मक विकास, व्यक्ति विकास, चिन्तन क्षमता का विकास आदि हेतु किया जाता है। कासपी, एल्डर एवं बेम के अनुसार, “कुछ नोवैज्ञानिकों ने यह पता लगाने का प्रयास किया कि जो बच्चे बहुत शर्मीलापन दिखलाते हैं, वयस्क होने पर भी क्या वे ऐसा ही व्यवहार करते हैं एवं यह भी जानने की कोशिश करते हैं कि किस प्रकार की अनुभूति से व्यक्तित्व में स्थायित्व आती है अथवा परिवर्तन आता है एवं ज्यादा आक्रामकता एवं गैर मिलनसार व्यवहार का परिणाम लम्बी अवधि के समायोजन पर क्या पड़ता है।”

इस अध्ययन में 8 वर्ष के बालकों का चयन करके उनका अध्ययन भिन्न-भिन्न बालकों में 30 वर्ष की उम्र तक किया गया। परिणाम में पाया गया कि उक्त दोनों व्यक्तित्व शैली वयस्कावस्था में भी स्थायी रुप से बनी रहती हैं। अर्थात् ऐसे बच्चे वयस्क होने पर भी वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा वे बचपन में करते थे। कुछ ही बालक ऐसे होते हैं जिनके व्यवहार में परिवर्तन आता है। जैसे जो बच्चे आक्रामक थे, शैतान थे, वह वयस्क होने पर अपने कार्यस्थल पर अपने सहकर्मियों से लड़ते-झगड़ते थे। वे बालक जो गैर मिलनसार रहे हैं, वे प्रायः देर से शादी करते पाए गए तथा वे अपनी जीवनवृत्ति को काफी देर से सँवार पाए।

हरलॉक (2004) के अनुसार, “इस विधि के अन्तर्गत निश्चित रुप से अध्ययन एक ही प्रयोज्यों पर लम्बे समय चलता है तथा इनमें यह देखा जाता है कि व्यक्तिगत प्रतिमान किस तरह स्थिर हैं एवं इनमें कब तथा कैसे परिवर्तन होते हैं एवं इन परिवर्तनों हेतु क्या उत्तरदायी है।

इस प्रणाली में एक ही आयु-स्तर के बालक समूह को चुना जाता है, फिर समूह के बालकों की आयु के बढ़ने के साथ-साथ उनकी मानसिक तथा शारीरिक योग्यताओं के विकासक्रम का निरीक्षण एवं मापन किया जाता है तथा अन्त में इस तरह प्राप्त आँकड़ों के आधार पर विकासक्रम को ज्ञात कर लिया जाता है। इस प्रणाली की मदद से शारीरिक ऊंचाई, वजन, बुद्धि-लब्धि, भाषा का विकास, सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास आदि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए, अगर हम बालकों में भाषा के विकास का अध्ययन करना चाहते हैं, तो एक वर्ष की आयु के सिर्फ 100 बच्चों को चुनकर हर 6 महीने बाद उनके भाषा-विकास का निरीक्षण एवं मापन करेंगे, जैसे-जैसे इन बच्चों की आयु बढ़ती जायेगी, प्रत्येक महीने बाद अध्ययनकर्ता इन बच्चों का भाषा से संबंधित क्रमिक विकासों का निरीक्षण तथा मापन करता जायेगा। हालांकि इस प्रणाली में समय ज्यादा लगता है फिर भी इस प्रणाली की मदद से बुद्धि एवं व्यक्तित्व आदि से संबंधित विकासात्मक क्रमों पर कई अध्ययन किये गये हैं। एक अध्ययन (J. Macfar Lane, ct . al. 1954) में 21 महीने से 14 वर्ष की आयु के बालकों के समायोजन में आने वाली बाधाओं का अध्ययन किया गया। एक अध्ययन (L. Sontag ct. al. 1958) में यह देखा गया कि माता-पिता की अभिवृत्तियों तथा व्यवहार का प्रभाव बालक के शीलगुणों एवं बुद्धि आदि के विकास पर किस प्रकार पड़ता है ? इस समस्या का अध्ययन इस विधि द्वारा किया गया।


कालानुक्रमिक विधि के उपयोग :

(1) इस विधि में बच्चों के एक समूह का अध्ययन चलता रहता है इसलिए इस विधि में प्रतिदर्श त्रुटियों की सम्भावना बनी रहती हैं तथा न ही प्रतिदर्श की समस्या रहती है।

(2) इस प्रणाली की मदद से व्यक्तिगत स्तर पर हर बालक का अध्ययन होता रहता है तथा साथ ही साथ समूह स्तर पर भी बालक का अध्ययन होता रहता है ।

(3) इस विधि में विकास प्रक्रियाओं का अनुमानात्मक ज्ञान प्राप्त न होकर शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है।

(4) विकास प्रक्रियाओं के संबंधों का अध्ययन करना अपेक्षाकृत आसान होता है ।

(5) सामाजिक-सांस्कृतिक अथवा वातावरण संबंधी परिवर्तनों का बालक के व्यवहार अथवा विकास पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन इस प्रणाली द्वारा किया जा सकता है ।

(6) किसी निश्चित अवधि में बालक के विकास के गुण एवं मात्रा आदि का ज्ञान भी इस प्रणाली द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

गुण-

(1) इस विधि में सेम्पल को तुच्छ एवं समान रखने से संबंधित समस्या अपने आप ही खत्म हो जाती है, क्योंकि व्यक्तियों का सिर्फ एक ही समूह होता है जिसे भिन्न भिन्न समय अन्तरालों पर अध्ययन किया जाता है।

(2) इस विधि में कारण परिणाम संबंध यथार्थ रुप में व्याख्या करने में काफी मदद मिलती है क्योंकि अध्ययन भिन्न-भिन्न छात्रों की भिन्न-भिन्न विकासात्मक अवस्थाओं में किया जाता है।

(3) इस विधि द्वारा व्यवहारों तथा मानसिक प्रक्रियाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन क्रमबद्ध रुप से किया जाना असम्भव नहीं होता।

दोष-

(1) इस विधि में समय ज्यादा लगता है एवं धन भी काफी खर्च करना पड़ता है क्योंकि अध्ययन लम्बे समय तक जारी रहता है।

(2) जब अध्ययन लम्बे समय तक चलता है तो उसकी महत्ता घटती जाती है। कई कारणों जैसे- माता-पिता की अनुभूति, स्थानान्तरण, बीमारी आदि से बालक दुबारा तथा तिबारा के अध्ययन में सम्मिलित नहीं हो पाता।

(3) इस प्रणाली द्वारा अध्ययन करने में अगली विकास अवस्था का अध्ययनकर्ता को वर्षों तक इन्तजार करना पड़ता है ।

(4) मूल प्रतिदर्श जिसका अध्ययन किया जा रहा है, उसको बनाये रखना अथवा स्थिर रखना कठिन होता है । बहुधा श्रमिक समय लगने के कारण अध्ययन कुछ समय तक एक प्रयोगकर्ता करता है तथा फिर दूसरा, तीसरा आदि ।

(5) इसमें बालकों के एक समूह पर बार-बार अध्ययन किया जाता है इसलिए वह अपने अनुभव का विशेष लाभ उठाकर अनावश्यक रुप से अपने निष्पादन को उन्नत बना लेते हैं। इससे परिणाम में अन्तर आ जाता है ।

2. अनुप्रस्थ काट विधि :

इसमें अनुसंधानकर्ता कई तरह के समूह बनाते हैं। यह विधि कालानुक्रमिक विधि के विपरीत विधि है। इसमें अनुसंधानकर्ता समूहों का निर्माण उम्र एवं सामाजिक, आर्थिक स्तरों के आधार पर करता है। इन सभी समूहों का अध्ययन एक समय में एक साथ किया जाता है तथा व्यवहार का मापन तुलनात्मक आधार पर होता है। उदाहरण- एक शिक्षक 4th, 8th, 12th के छात्रों के आत्मसम्मान का अध्ययन इस तरह से करता है कि वह तीनों ही कक्षाओं के छात्रों का समूह बनाकर एक साथ आत्मसम्मान का अध्ययन एक बार में कर निष्कर्ष निकालता है।

इस उपागम को समकालीन उपागम एवं प्रतिनिध्यात्मक उपागम भी कहा जाता है। विकास के अध्ययन में प्रथम दृष्टिकोण यह अपनाया जाता है कि भिन्न-भिन्न आयु स्तरों के व्यक्तियों अथवा बालकों पर विकास के किसी पक्ष के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन में भिन्न-भिन्न आयु स्तरों के अलग-अलग प्रतिनिधिपूर्ण प्रतिदर्शों के समूहों को लेकर विकास का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अनुप्रस्थ काट उपागम में भिन्न-भिन्न आयु स्तरों के अलग-अलग समूहों को एक साथ लेकर अध्ययन किया जाता है।

हरलॉक के अनुसार, “विकास की अलग-अलग अवस्थाओं में एक ही तरह की योग्यताओं की तुलना द्वारा अध्ययन समकालीन अध्ययन कहलाता है।“

समाकालीन उपागम में भिन्न-भिन्न आयु स्तरों के बालकों के समूहों का निरीक्षण सामान्यतः एक ही समय में किया जाता है। समूह से प्राप्त आँकड़ों के औसत को उस आयु स्तर का प्रतिमान अथवा मानक समझा जाता है।

सालबर्ग एवं उसके साथियों के अनुसार, “हर सर्वेक्षण में एक ही समय में भिन्न-भिन्न आयु वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों के समूह से आँकड़े प्राप्त करना समकालीन उपागम कहलाता है।”

उदाहरण के लिए अगर अध्ययनकर्ता को किशोरावास्था तक के बालकों में चिन्ता का अध्ययन करना है तो समकालीन उपागम के अन्तर्गत विविध आयु वर्ग के बालकों के प्रतिनिधित्वपूर्ण प्रतिदर्शों के समूह (उदाहरणस्वरुप 6 वर्ष, 12 वर्ष, 18 वर्ष आदि) लेकर उनकी चिन्ता का मापन एक साथ ही एक ही समय में किया जायेगा। इस तरह आँकड़े एकत्रित करके औसत के आधार पर परिणाम निकाले जायेंगे।

इस उपागम द्वारा न तो इस बात की जानकारी होती है कि किसी बालक में विकास अथवा ह्रास की गति किस तरह की है एवं न ही विकास के संबंध में पूरी तस्वीर स्पष्ट रुप से सामने आ पाती है।

हरलॉक ने भी अपने अध्ययनों के आधार पर कहा कि विकासात्मक समस्याओं में प्रतिनिध्यात्मक उपागम द्वारा प्राप्त आँकड़ों से विकासात्मक प्रवृत्ति. अथवा झुकाव एवं अन्त:वैयक्तिक अस्थिरता का सही ज्ञान नहीं हो पाता है। इसका कारण यह है कि इस उपागम से प्राप्त आँकड़े निश्चित बिन्दु अथवा अवस्था से संबंधित होते हैं। यही कारण है कि विकास की सम्पूर्ण जानकारी अथवा सम्पूर्ण प्रक्रिया की सही जानकारी इस उपागम से नहीं मिल पाती है

गुण- अनुप्रस्थ काट विधि के अग्रलिखित गुण होते हैं-

(1) यह विधि कम खर्चीली है क्योंकि इसमें अध्ययन एक ही बार में पूरा हो जाता है।

(2) इस विधि में शिक्षक को लम्बे समय तक समूह से सहयोग की जरुरत नहीं पड़ती है।

(3) आँकड़ों को लम्बे समय तक संग्रह करने की जरुरत नहीं होती है।

(4) इस विधि में समय कम लगता है क्योंकि समूह का एक ही बार में अध्यापन कर लिया जाता है।

दोष- – इस विधि के अग्रलिखित दोष हैं –

(1) इस विधि से छात्र के व्यवहार एवं विकास में होने वाले परिवर्तन को न तो ठीक से मापा जा सकता है तथा न ही अध्ययन किया जा सकता है।

(2) इस विधि से समूह में होने वाले परिवर्तन की दिशा का ज्ञान नहीं होता है क्योंकि यह अध्ययन भिन्न-भिन्न समय पर न करके एक ही समय पर किया जाता है।

(3) इस विधि में भी दस्ता प्रभाव दिखाई पड़ता है। यह बात तब पैदा होती है जब अनुप्रस्थ काट विधि में जो प्रयोज्यों के समूह होते हैं उनका आपसी उम्र विभेद ज्यादा होता है ।

उदाहरण- एक समूह 5 वर्ष के छात्रों का है तथा दूसरा 20 वर्ष के छात्रों का है, अब जब तुलना की जायेगी तो वह तुलना सार्थक नहीं होगी क्योंकि दोनों उम्र समूह की सामाजिक तथा आर्थिक पृष्ठभूमि तथा व्यवहार में अन्तर होगा।

3. आनुक्रमिक डिजाइन विधि :

इस विधि में अनुप्रस्थ काट विधि तथा कालानुक्रमिक विधि का मेल दिखाई देता है । यह डिजाइन पर आधारित विधि है। इस विधि में शोधकर्ता विविध आयू के अथवा वर्ग के समूह का चयन करके दस्ता समूह का निर्माण करता है तथा इनका एक ही समय में अध्ययन किया जाता है।

उदाहरण- अनुसंधानकर्ता तीन वर्गों 6, 7, 8 से तीन दस्ता समूह का निर्माण करके उनके संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन दो वर्षों तक (अर्थात् एक अभी तथा दूसरा एक वर्ष बाद) कर सकते हैं। इसमें पहला दस्ता समूह को वर्ग 6 से एवं फिर वर्ग 7 में जाने पर दूसरा दस्ता समूह को वर्ग 7 में और फिर वर्ग 8 में जाने पर एवं तीसरा दस्ता समूह को वर्ग 8 में तथा फिर 9 में जाने पर किया जा सकता है।

लाभ- इस विधि से अग्रलिखित लाभ होते हैं-

(1) यह डिजाइन अपने आप में निपुण है। जरुरत पड़ने पर उक्त अध्ययन में अध्ययनकर्ता 4 वर्ष तक हर दस्ता समूह का अध्ययन 2 वर्ष हेतु कर सकता है।

(2) इस विधि में एक ही आयु के बालकों का तुलनात्मक अध्ययन कर यह जाँच की जा सकती है कि दस्ता प्रभाव पैदा हो रहा है अथवा नहीं।

(3) इस विधि से अध्ययनकर्ता अपने अध्ययन अपने परिणाम की जाँच कर सकता है कि वह सही है अथवा गलत । इसके लिए वह कालानुक्रमिक एवं अनुप्रस्थ काट विधि से निकले निष्कर्ष की अपने परिणाम से तुलना कर सकता है।

दोष- (1) इस विधि में समय ज्यादा लगता है।

(2) यह विधि बहुत खर्चीली है।

(3) इस विधि के आधार पर प्राप्त परिणाम के बारे में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या अध्ययन से प्राप्त विकासात्मक परिवर्तन दस्ता समूह से परे भी सामान्यीकृत किया जा सकता है।

(4) इन दोषों के बावजूद भी यह विधि शिक्षा मनोविज्ञान में काफी लोकप्रिय है क्योंकि यह कालानुक्रमिक विधि एवं अनुप्रस्थ काट विधि दोनों की जरुरतों को पूरा करती है। है

4. दस्ता विधि :

दस्ता प्रभाव में जन्मे व्यक्तियों के समूह को दस्ता समूह कहा जाता है। इस तरह अध्ययन में उन छात्रों का अध्ययन किया जाता है जो एक ही समयावधि में विकसित हुए हों जो एक विशेष सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक अवस्था से प्रभावित हुए हों । इसके कारण छात्रों के एक दस्ता से प्राप्त परिणाम दूसरे छात्र जो किसी दूसरे दस्ते में पले-बढ़े तथा विकसित हुए थे, पर लागू नहीं होता। इससे क्रॉस पीढ़ी समस्या भी पैदा हो जाती है ।

लाभ- इस विधि से अग्रलिखित लाभ हैं-

(1) यह विधि बहुत खर्चीली नहीं है।

(2) इसमें अध्ययन एक ही में पूरा हो जाता है ।

दोष- इस विधि से अग्रलिखित दोष हैं-

(1) अगर प्रयोज्य के समूहों का आपसी उम्र विभेद ज्यादा होता है तो दस्ता प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

(2) हर दस्ता समूह का अध्ययन लम्बे समय तक किया जा सकता है

5. जीवन कथा विधि :

किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा किसी व्यक्ति के जीवन-संबंधी बातों को लिखकर प्रकट की गई रचना कथा विधि कहलाती है। सामान्यतः इस तरह जीवन कथाएँ बड़े तथा प्रसिद्ध व्यक्तियों है जैसे-प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक, क्रान्तिकारी, नेतागण, वीर पुरुष तथा महिलाएँ, धार्मिक पुरुष, कलाकार, लेखक, वैज्ञानिक, गणितज्ञ आदि हेतु लिखी जाती हैं। इन रचनाओं में व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व की झाँकी मिलती है एवं उसके माध्यम से उसके व्यक्तित्व की परख की जा सकती है। बहुत से साहित्यकारों के विषय में लिखी गई जीवन कथाएँ जैसे मैथिलीशरण गुप्त’ व्यक्तित्व तथा कर्त्तव्य- जैसी रचनाएँ उनके व्यक्तित्व तथा जीवन दर्शन को हमारे सामने लाने में काफी सहायता कर सकती हैं। इसी तरह ‘इन्दिरा प्रियदर्शिनी’ जैसी जीवन कथाओं से व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व की छवि बनाने में काफी मदद मिलती है।

गुण- जीवन कथा विधि के अग्रलिखित गुण हैं-

(1) यह कम खर्चीली विधि है।

(2) इनसे किसी व्यक्ति के विषय में काफी सूचनाएँ प्राप्त हो जाती हैं जिससे किसी महान व्यक्ति को समझना बहुत सरल हो जाता है ।

दोष- जीवन कथा विधि के अग्रलिखित दोष हैं-

(1) इस विधि में सुनी-सुनाई बातों का ज्यादा प्रयोग किया जाता है

(2) व्यक्ति अपने बुरे पक्ष को प्रकट नहीं करते हैं

6. व्यक्तिगत अध्ययन विधि :

केस शब्द का प्रयोग हम जीवन में कई अर्थों में करते हैं। डॉक्टर रोगी के कष्ट की जानकारी के लिए, वकील मुवक्किल की पैरवी के लिए, क्लर्क फाइलों में पड़े केसों का निपटान करने हेतु । इन सभी परिस्थितियों में केस शब्द का प्रयोग ऐसे विषय अथवा व्यक्ति हेतु किया जाता है जिसकी छानबीन की जाती है तथा जिसका निरीक्षण किया जाता है जिससे व्यक्ति को समस्यात्मक स्थिति से निकाला जा सके । मनोविज्ञान विषय में भी केस शब्द इसी भाव में प्रयुक्त किया जाता है। यहाँ पर ऐसे व्यक्ति की मदद का प्रयत्न किया जाता है जो किसी मनोवैज्ञानिक समस्या से ग्रसित होता है। उसका इस समस्या के संबंध में भली तरह अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन में उसका अतीत, वर्तमान परिस्थितियाँ एवं भविष्य की सम्भावनाएँ देखी जाती हैं। सामान्यतः व्यक्तिगत अध्ययन कहा जाता है। व्यक्तिगत अध्ययन मुख्य रुप से दो उद्देश्यों के लिए किए जाते हैं-

(1) व्यवहारात्मक समस्याओं का निदान एवं उपचार करने हेतु ।

(2) ज्यादा उत्तम मार्गदर्शन एवं परामर्श देने हेतु ।

एक प्रयोज्य के रुप में कोई भी व्यक्ति को, चाहे वह सामान्य हो अथवा उसका व्यक्तित्व पक्ष- शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक आदि में सामान्य से ऊपर या नीचे हो, व्यक्तिगत अध्ययन के विषय के रुप में या प्रयोज्य के रुप में चुना जा सकता है । इसलिए व्यक्तिगत अध्ययन को सिर्फ समस्यात्मक या विशिष्ट बालकों तक सीमित रखने की जरुरत नहीं होती है। एक सामान्य व्यक्ति का भी अध्ययन किया जा सकता है। फिर भी ज्यादा जरुरतमंद व्यक्तियों की मदद पहले करनी चाहिए। अतः अग्रांकित व्यक्तियों का अध्ययन किया जाता है-

(1) सृजनात्मक व्यक्तित्व

(2) मेधावी व प्रतिभाशाली

(3) पिछड़े हुए बच्चे

(4) कामुक, व्यसनी एवं समाज विरोधी व्यक्तित्व

(5) अपराधी बालक या अपराधी वयस्क

(6) शारीरिक, सामाजिक, संवेगात्मक एवं शैक्षिक समस्याओं से ग्रसित व्यक्तित्व । इस विधि को प्रयोग में लाने के लिए सर्वप्रथम उस व्यक्ति विशेष के साथ आत्मीयता तथा घनिष्ठता बढ़ाने का प्रयत्न किया जाता है जिसका हमें व्यक्तिगत अध्ययन करना है। यह स्पष्ट है कि ऐसा अध्ययन व्यक्ति के व्यवहार को उचित रुप से जानने संबंधी कारणों का पता लगाने तथा फिर उसे उचित सम्भव परामर्श और मदद प्रदान करने के लिए ही किया जाता है इस अध्ययन में हमें व्यक्ति को सम्पूर्ण रूप से जानना होता है। उसके अतीत एवं वर्तमान की जानकारी प्राप्त करनी होती है और उसके सम्पूर्ण परिवेश के परिप्रेक्ष्य में उसके व्यवहार को परखना होता है। इस तरह का अध्ययन बहुत ही गम्भीर और गहन होता है। इस तरह के अध्ययन हेतु एक विशेष तरह के प्रारुप का प्रयोग करना काफी सुविधाजनक होता है। इसके व्यवहार का अध्ययन करने के कार्य को विश्वसनीय बनाने में काफी मदद प्राप्त हो सकती है।

व्यक्तिगत अध्ययन पद्धति के गुण :

(1) इस अध्ययन पद्धति में किसी एक बालक के व्यवहार से जुड़ी समस्त बातों का उसके सम्पूर्ण रुप एवं परिवेश में अध्ययन किया जाता है। इस तरह का गहन अध्ययन करने का श्रेय सिर्फ इसी विधि से प्राप्त है। ऐसे अध्ययन से व्यवहार तथा उसके कारणों की तह तक पहुँच पाना सम्भव हो सकता है।

(2) समस्यात्मक एवं असमायोजित व्यवहार से ग्रसित बालकों के व्यवहार का अध्ययन कर उन्हें उनके समायोजन में उचित मदद प्रदान करने के कार्य में यह विधि एक सशक्त एवं सफल भूमिका निभा सकती है।

(3) इस अध्ययन पद्धति के द्वारा कई ऐसी छिपी हुई बातों एवं अवचेतन व्यवहार की परतों को उतारा जा सकता है जिनके विषय में किसी अन्य व्यवहार जाँच विधि द्वारा मदद नहीं मिलती है।

(4) इस विधि में अध्ययन का क्षेत्र काफी विस्तृत होता है। बहुत से लोगों एवं बहुत तरह के रिकार्ड एवं सूचना स्त्रोतों का इसमें उपयोग कर विश्वसनीय जानकारी एकत्र करने का प्रयत्न किया जाता है। इसलिए इसक अध्ययन के परिणाम परिश्रम से तैयार होने के कारण, ज्यादा विश्वसनीय एवं यथार्थ सिद्ध हो सकते हैं।

व्यक्तिगत अध्ययन पद्धति के दोष :

इस अध्ययन पद्धति के मुख्य दोष इस तरह हैं-

(1) व्यक्तिगत अध्ययन में सूचना स्त्रोत बहुत ज्यादा क्षेत्र में फैले हुए होते हैं। इतनी ज्यादा सूचनाएँ एकत्र करना सहज नहीं है।

(2) व्यक्तिगत अध्ययन कार्य एक तकनीकी कार्य है। इसे ठीक तरह सम्पादित करने हेतु अच्छी तरह प्रशिक्षण लेने की जरुरत रहती है।

(3) प्राप्त सूचनाओं एवं सामग्री के आधार पर व्यवहार के कारणों की उचित व्यवस्था तथा फिर सर्वमान्य नियम स्थापित करने के कार्य में अध्ययनकर्ता को काफी कठिनाई आती है एवं बहुधा गलत विश्लेषण की ही सम्भावना ज्यादा रहती है।

(4) इस विधि में नियंत्रित अथवा व्यवस्थित परिस्थितियों में अध्ययन होना सम्भव नहीं होता। इसलिए वैज्ञानिकता अथवा प्रामाणिकता का इस तरह के अध्ययन में लगभग अभाव सा ही पाया जाता है।

(5) इस विधिक का प्रयोग क्षेत्र भी सीमित है। प्रायः समस्यात्मक बालकों अथवा व्यक्तियों के व्यवहार अध्ययन क्षेत्र में ही इसका प्रयोग किया जाता है ।

(6) जिन स्त्रोतों एवं साधनों का उपयोग इस विधि में सूचना इकट्ठी करने हेतु किया जाता है उनकी विश्वसनीयता एवं वस्तुगतता के बारे में किसी भी प्रकार की गारन्टी नहीं दी जा सकती। बहुधा इसमें त्रुटि की ही अधिक अशंका रहती है।

उपर्युक्त दोषों तथा कमियों के बावजूद व्यक्तिगत अध्ययन का महत्त्व कम नहीं है । व्यक्तियों को उनके सम्पूर्ण रुप से जानने, समझने तथा उनके व्यवहार संबंधी मूल कारणों का पता लगाने में इस विधि का कोई मुकाबला नहीं है। इसलिए व्यवहार के अध्ययन में इस विधि को सदैव उपयुक्त स्थान दिया जाना चाहिए ।

Leave a Comment

CONTENTS