शैशवावस्था से किशोरावस्था तक बालक के सामाजिक विकास का वर्णन कीजिए।

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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जन्म से ही वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज के बगैर नहीं कर पाता है। अच्छा सामाजिक जीवन व्यतीत करने हेतु उसमें सामाजिक गुणों का विकास होना आवश्यक है। विभिन्न व्यक्तियों के पारस्परिक व्यवहार में उसका सामाजिक विकास दिखाई देता है।

शैशवावस्था- 2 माह के पूर्व बालक जो प्रतिक्रिया करता है, उसे सामाजिक प्रतिक्रिया के नहीं कहा जा सकता है, पर 2 माह के बाद शिशु जो प्रतिक्रियायें करता है, उसे सामाजिक प्रतिक्रिया कहा जा सकता है। 2 वर्ष का बच्चा अकेले खिलौने से खेलता है। तीन वर्ष की आयु में दूसरे बच्चों के साथ खेलता है, सामूहिक खेलों में भाग लेता है तथा तब वह अपनी आयु समूह की छोटी सी दुनिया का सदस्य बन जाता है। इस अवस्था में अधिकतर बच्चे एक सा ही सामाजिक व्यवहार करते हैं । लड़के तथा लड़कियों के सामाजिक विकास में विशेष अंतर नहीं होता है। लड़कियाँ गुड़ियां खेलती हैं। लड़के अनुकरणात्मक खेल खेलते हैं।

बाल्यावस्था- इस अवस्था में बच्चे सामाजिक दायरे में ज्यादा आनंद का अनुभव करते हैं। बाल्यावस्था में सामाजिक विकास पर खेलों एवं स्कूल के वातावरण का प्रभाव पड़ता है। अत: उस अवस्था में बच्चों को ऐसे खेल खिलाने चाहिए जो सामूहिकता को प्रोत्साहित करें तथा विद्यालय में भी सामूहिक कार्यों को करने की व्यवस्था होनी चाहिए। इस अवस्था के बच्चों में सहभागिता की भावना पैदा हो जाती है। वह अपने समूह के सदस्यों के प्रति स्नेह, प्रेम, सहयोग की भावना प्रकट करने लगता है। उसके साथ ही बच्चे में सहनशीलता की भावना भी बढ़ जाती है।

किशोरावस्था- जब बच्चे किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं, तो उनमें शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक विकास के साथ-साथ सामाजिक विकास की प्रक्रिया भी चलती रहती है। किशोरावस्था में बच्चे में विविध रुचियों का विकास होने से वह किसी एक टोली में संबंधित नहीं रहता है वरन् विभिन्न रुचियों तथा दृष्टिकोण वाले अनेक समूहों से संबंध बढ़ाने लगता है। 14 वर्ष की आयु के बाद मित्रों की संख्या घटकर सीमित रह जाती है। इस अवस्था में बालकों की बालिकाओं से एवं बालिकाओं की बालकों से मित्रता बढ़ाने की इच्छा प्रबल हो जाती है। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण बढ़ जाने के कारण वे अपनी वेशभूषा तथा बनाव श्रृंगार पर अधिक ध्यान देने लगते हैं। किशोरों का अपने माता-पिता से किसी न किसी विषय पर मतभेद् चलता रहता है। माता-पिता इस अवस्था में बच्चों जैसा व्यवहार करते हुए उसे सदैव उपदेश देते रहते हैं तथा उन कार्यों के लिए उसे मना करते हैं, जो वे स्वयं करते हैं, इससे किशोरों के मन में कई बार तनाव तथा विरोध की भावना उत्पन्न होती है। किशोर भावी व्यवसाय के बारे में चिंतित रहते हैं एवं इन व्यवसायों में उपलब्ध होने वाली सफलता अथवा असफलता उनके सामाजिक विकास को प्रभावित करती है।

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