संवेगात्मक विकास के सिद्धान्तों का वर्णन करो।

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  संवेगात्मक विकास के सिद्धान्त :

बालकों में संवेगात्मक विकास की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण होती है। संवेगों के द्वारा बालक अपने जीवन में समायोजित ढंग से व्यवहार करता है। किन्तु संवेगात्मक अस्थिरता के कारण बालक का समायोजन दोषपूर्ण हो जाता है। किन्तु इस तथ्य पर मनोवैज्ञानिकों में मतभेद हैं कि बालक में संवेगों की उत्पत्ति किस आयु में होती है, और इनके विकास की प्रक्रिया किस प्रकार की है अर्थात् बालक में संवेग की उत्पत्ति कब होती है? तथा किस प्रकार बालक को किसी संवेग की अनुभूति होती है?

उक्त तथ्यों की व्याख्या करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने विचारों का वर्णन सैद्धान्तिक रूप से किया है। संवेगात्मक उद्भव एवं विकास के सिद्धान्तों का वर्णन निम्नवत है-

1. संवेग का दैहिक सिद्धान्त- संवेग के दैहिक सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक जेम्स लैंग द्वारा किया गया है। इस सिद्धान्त को मुख्य रूप से दैहिक परिवर्तन का सिद्धान्त भी कहा जाता है। दैहिक सिद्धान्त वास्तव में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक जेम्स एवं डेनमार्क के मनोवैज्ञानिक लैंग के विचारों का समन्वित स्वरूप है। इस सिद्धान्त के अनुसार संवेगात्मक अवस्था में बालक के शरीर में परिवर्तन होता है। भौतिक वातावरण में उपस्थित उद्दीपक बालक में एक प्रकार की भावात्मक मानसिक दशा उत्पन्न करते हैं जिसके परिणामस्वरूप बालक की दैहिक संरचना में परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार उत्पन्न दैहिक परिवर्तन से संवेगात्मक अवस्था की उत्पत्ति होती है।

संवेग के दैहिक सिद्धान्त के अनुसार-संवेगावस्था उत्पन्न होने के पहले बालक में दैहिक (शारीरिक) परिवर्तन का घटित होना स्वाभाविक है । उदाहरणार्थ जब बालक किसी भयावह उद्दीपक (जैसे-साँप, शेर, आग) को देखता है, तो इस उद्दीपक को देखने से बालक में एक विशिष्ट भावात्मक दशा का जन्म होता है जो उस भयावह उद्दीपक से बालक को दूर भागने की क्रिया करवाती है। बालक द्वारा भागने की क्रिया एक प्रकार का शारीरिक परिवर्तन है जिसके कारण बालक में भयपूर्ण या डरावनी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो ‘भय’ नामक संवेग की उत्पत्ति में आधार प्रदान करती है।

2. संवेग का केन्द्रीय सिद्धान्त- संवेग के केन्द्रीय सिद्धान्त का प्रतिपादन दो मनोवैज्ञानिकों कैनन एवं बार्ड द्वारा किया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार संवेग उत्पत्ति का कारण मस्तिष्क का हाइपोथैलेमस भाग होता है जो कि केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में अवस्थित होता है । इस सिद्धान्त को हाइपोथैलमिक या थैलमिक सिद्धान्त के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार सांवेगिक परिवर्तन तथा सांवेगिक अनुभूति दोनों बालकों में या प्राणी में एक साथ घटित होते हैं न कि सांवेगिक परिवर्तन (व्यवहार) पर सांवेगिक अनुभूति निर्भर करती है।

संवेग के केन्द्रीय सिद्धान्त के सन्दर्भ में मनोवैज्ञानिक मार्गन, किंग एवं स्कोपलर का कथन है कि, “संवेग के केन्द्रीय सिद्धान्त के अनुसार संवेग में होने वाली शा प्रतिक्रियाएं एवं अनुभव किया गया संवेग दोनों एक-दूसरे से स्वतंत्र होते हैं और दोनों की उत्पत्ति एक साथ होती है । इस सिद्धान्त के अनुसार प्राणी में संवेगों की उत्पत्ति निम्न प्रक्रियाओं का परिणाम होता है”

(i) संवेग की उत्पत्ति के लिए किसी उद्दीपक एवं ज्ञानेन्द्रिय उत्तेजन आवश्यक है।

(ii) ज्ञानेन्द्रियों से स्नायु आवेग हाइपोथैलमस से होता हुआ प्रमस्तिष्क बल्क में पहुँचता है।

(iii) प्रमस्तिष्क बल्क हाइपोथैलमस पर से अपना नियंत्रण कम कर देता है और कुछ विशेष परिस्थिति में ऐसे स्नायु आवेग को भी हाइपोथैलमस में भेजता है जिसकी उत्पत्ति विकल्प रूप में हुई होती है। इस प्रकार हाइपोथैलमस पूर्णरूप से सक्रिय हो जाता है ।

(iv) हाइपोथैलमस के सक्रिय होने पर स्नायु आवेग दोनों दिशाओं अर्थात् ऊपर प्रमस्तिष्क बल्क एवं नीचे आन्तरिक अंगों व बाह्य शारीरिक अंगों की ओर एक साथ जाते हैं। स्नायु आवेग के प्रमस्तिष्क बल्क में पहुँचने से संवेग की उत्पत्ति होती है और जब स्नायु आवेग आन्तरिक अंगों एवं माँसपेशियों में पहुँचता है तो संवेगात्मक व्यवहार या शारीरिक परिवर्तन होता है।

अतः संवेगात्मक व्यवहार एवं संवेगों की उत्पत्ति विषयक यह सिद्धान्त आधुनिक समय में संवेग का प्रमुख सिद्धान्त माना जाता है। इस सिद्धान्त का सारभूत तथ्य यह है कि मस्तिष्क का हाइपोथैलमस या थैलमस भाग ही संवेगों की उत्पत्ति का केन्द्र बिन्दु है ।

3. संवेग का जैवकीय सिद्धान्त- संवेग के जैवकीय सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रसिद्ध व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक जे.बी. वाटसन के द्वारा किया गया है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वाटसन ने अपने प्रायोगिक अध्ययनों से स्पष्ट किया है कि जन्म के समय शिशुओं में भय, क्रोध एवं प्रेम नामक तीन मौलिक संवेग पाये जाते हैं। इन्हीं तीन मौलिक संवेगों से अन्य संवेगों की उत्पत्ति व विकास होता है। वाटसन ने अपना प्रयोग कुछ नवजात शिशुओं एवं कुछ माह के बच्चों पर प्रयोग करके अपने उक्त तथ्य की पुष्टि की। भय, संवेग के प्रगटीकरण के लिए भयावह उद्दीपकों यथा तीव्र आवाज, डरावनी वस्तुओं का प्रयोग वाटसन ने किया। परिणामतः निरीक्षण किया गया कि तीव्र आवाज होने से शिशु का सांस रोक लेना, रोना, चिल्लाना, हाथ-पैर पटकना आदि सभी शिशुओं में नहीं पायी जाती, जिसकी पुष्टि इन्होंने अपने अध्ययन परिणामों से की है। इरविन्द ने अपने अध्ययनों से स्पष्ट की कि सभी शिशुओं में भयावह उद्दीपक के प्रति भयपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं पायी जाती । मैलजैक ने अपने अध्ययन से स्पष्ट किया कि शिशुओं में मौलिक संवेग जन्म से नहीं पाये जाते बल्कि शिशुओं में जन्म के समय एक प्रकार की सामान्य उत्तेजना विद्यमान रहती है।

4. संवेग का विकासवादी सिद्धान्त- संवेग के विकासवादी सिद्धान्त के अन्तर्गत मुख्य रूप से मनोवैज्ञानिक ब्रिजेज एवं बनहम द्वारा शिशुओं पर किये गये प्रयोग उल्लेखनीय हैं। इन सिद्धान्तवादियों के अनुसार जन्म के समय बालक (शिशु) में किसी प्रकार का संवेग उपस्थित नहीं होता बल्कि शिशु में केवल सामान्य उत्तेजना ही विद्यमान रहती है। शिशु में संवेगात्मक प्रतिक्रियाएं तीन माह की अवधि से विकसित होती हैं। इस समय शिशु को कष्ट एवं आनन्द की अनुभूति होती है जिसके कारण बालक द्वारा की गयी प्रतिक्रियाओं रोने, चिल्लाने आदि से माँसपेशीय तनाव की उत्पत्ति होती है। शिशु अपनी पेशीय लोचकता के कारण मुस्कराने की प्रतिक्रिया करता है। 6 माह की अवधि में कष्ट नामक संवेग से भय, घृणा एवं क्रोध संवेगों की उत्पत्ति होती है। एक वर्ष की अवस्था के शिशुओं में उल्लास एवं वयस्कों के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। डेढ़ वर्ष की आयु में ब्रिजेज के अनुसार बालक में अन्य बालकों के प्रति प्रेम एवं घृणा की उत्पत्ति होती है और दो वर्ष की अवधि में बालक में खुशी (आनन्द) संवेग की उत्पत्ति हो जाती है। इस प्रकार सभी महत्त्वपूर्ण संवेगों की उत्पत्ति बालक में 2 वर्ष की आयु तक हो जाते हैं। सभी संवेगों की उत्पत्ति एवं विकास परिपक्वता एवं अभिगम का परिणाम होता है। इन्हीं के आधार पर संवेगों एवं संवेगात्मक व्यवहारों में परिवर्तन परिवर्द्धन एवं परिमार्जन होता रहता है।

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