संवेगात्मक विकास से आप क्या समझते हैं? जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में संवेगात्मक विकास की स्थिति स्पष्ट कीजिए।

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 संवेगात्मक विकास :

संवेग से आशय- संवेग शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Emotion’ शब्द का हिन्दी रूपांतर है। अंग्रेजी का Emotion शब्द लैटिन भाषा के ‘इमोवर’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है भड़क उठना या उद्दीप्त होना । जहाँ तक जीव के शरीर के भड़कने एवं उद्दीप्त होने की स्थिति का प्रश्न है, संवेग तथा प्रेरणा में कोई अंतर नहीं है। संवेग भावों के अत्यंत निकट है। जब भाव या अनुभूति की मात्रा बढ़ जाती है तथा शरीर में उदीप्त स्थिति का कारण बनती है तब उसे संवेग कहते हैं। क्रोध, भय, ईर्ष्या, द्वेष, प्रेम, पीड़ा आदि को संवेगों के अंतर्गत रखा गया है । संवेगों का मानव व्यवहार में बड़ा महत्व है। ये हमारे व्यवहार को भी प्रेरित करते हैं। संवेगों का बच्चों के शारीरिक तथा मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। संवेगों का विकास होने पर अतिरिक्त शक्ति का संचार होता है तथा व्यक्ति ऐसे कार्य कर दिखाता है जो सामान्य अवस्था में संभव न हों । जैसे भय की परिस्थिति में तीव्र गति से काँटे,ऊंचे नीचे गड्ढों को लांघकर भागना आदि । वहीं दूसरी तरफ तीव्र संवेग मानसिक तनाव पैदा करके बच्चों के ध्यान को भंग कर देते हैं, जिससे अध्ययन में बाधा पैदा होती है।

शैशवावस्था- इस अवस्था में बच्चे के संवेग अधिक निश्चित तथा स्पष्ट हो जाते हैं। संवेगों की तीव्रता में कमी आने के कारण व्यवहार में भी परिवर्तन दिखाई देता है । बच्चा भय तथा क्रोध पर नियंत्रण करने लगता है। मानसिक विकास से पैदा समझ के कारण भाषा का विकास होता है। अतः अब वह क्रिया की बजाय अपने भावों को भाषा के माध्यम से प्रकट करता है। उत्तेजना पैदा करने वाली परिस्थितियों के प्रति सचेत हो जाता है। हास्यास्पद स्थिति से बचने के लिए बच्चा अपने संवेगों को परिवर्तित करने लगता है। इस अवस्था में क्रोध, भय, ईर्ष्या, द्वेष, हर्ष तथा प्रेम आदि संवेग पाये जाते हैं।

बाल्यकाल तथा संवेगात्मक विकास- शैशवावस्था में विकसित संवेगों की अभिव्यक्ति ही बाल्यकाल में होती है। इस काल में दुःख-सुख के संवेग बहुत प्रभावशाली होते हैं। बालक अपनी गलती पर दुःख तथा प्रशंसा पर आनंद का अनुभव करता है। इस अवस्था में बालक में सामूहिक भावना का विकास हो जाता है तथा वह अपने साथियों से प्रेम, घृणा, द्वेष एवं प्रतिस्पर्धा की भावना अभिव्यक्त करने लगता है।

बाल्यावस्था में बच्चों के संवेगों में स्थायित्व आ जाता है। बालक भय तथा क्रोध पर नियंत्रण करने लगता है। यद्यपि बालकों के संवेगों में उग्रता होती है, उनका रूप परिवर्तित होता रहता है तथा उनमें व्यक्तिगत भिन्नता पाई जाती है। इस अवस्था में बालकों में कई कारणों से संवेगात्मक अनुभव तथा प्रभाव के कारण कुछ दूषित प्रवृत्तियाँ एवं आदतें निर्मित हो जाती हैं, जैसे झूठ बोलना, गलतियों को छिपाना, दूसरे को चिढ़ाना तथा कष्ट पहुँचाना आदि।

किशोरावस्था- किशोरावस्था में संवेगों का विकास तीव्र गति से होता है। किशोरावस्था में शारीरिक तथा मानसिक विकास भी तीव्र गति से होते हैं अतः इस अवस्था में बच्चा समायोजन की समस्या अनुभव करने लगता है। इच्छा पूर्ति में बाधा, प्रतिकूल, पारिवारिक संबंध, स्वयं की अयोग्यता, नई परिस्थितियों में समायोजन न कर पाना आदि कारकों के कारण किशोरों में असंतुलित संवेगात्मक स्थिति पैदा होती है। शरीर के विकास से संवेगों का विकास प्रभावित होता है । स्वस्थ शरीर वाले किशोरों में संवेगात्मक अस्थिरता ज्यादा नहीं होती है जबकि निर्बल (अस्वस्थ) किशोर में संवेगात्मक अस्थिरता पाई जाती है। किशोर के ज्ञान, रुचियों तथा इच्छाओं की वृद्धि के साथ संवेगों को पैदा करने वाली घटनाओं की परिस्थिति में परिवर्तन आ जाता है।

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