संवेगों के नियन्त्रण के बारे में लिखो।

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हर सामाजिक समूह बालकों से यह अपेक्षा करता है कि वह संवेगों पर नियन्त्रण करना सीखेंगे। सम्भवतः इसी कारण बालकों के संवेगों को उचित दिशा में नियन्त्रित करना आवश्यक है । हर अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि जब एक बार संवेगात्मक व्यवहार प्रतिमानों को बालक अच्छी तरह सीख लेता है तो उनका छोड़ना उसके लिए कठिन होता है। साथ ही साथ उनको संशोधित करना भी कठिन होता है। संवेगात्मक नियन्त्रण में सुखात्मक तथा दुःखात्मक, दोनों तरह के संवेगों को नियन्त्रित करना होता है। सुखात्मक संवेगों को उचित दिशा प्रदान करने की आवश्यकता होती है जबकि दुःखात्मक संवेगात्मक को एक विशिष्ट ढंग या समाज द्वारा मान्य ढंग से व्यक्त करना सीखने या सिखाने की जरूरत होती है। संवेगों को नियन्त्रित करने के कुछ लोकप्रिय तथा प्रमुख उपाय निम्न प्रकार से हैं-

(1) शमन- यह एक तरह की मानसिक मनोरचना है जिसके द्वारा व्यक्ति अप्रिय, दु:खद तथा कष्टकारी घटनाओं, विचारों, इच्छाओं एवं प्रेरणाओं आदि को चेतना से जान-बूझकर निकाल देता है । इस मनोरचना के द्वारा व्यक्ति दुःख तथा अप्रिय लगने वाली अनुभूतियों को इस मनोरचना के द्वारा बाहर निकाल देता है। उदाहरण के लिए, अगर सुबह-सुबह दूध वाले से झपड़ में बहुत क्रोध आया, यह बहुत बुरा लगा तो इस बात को दिमाग से यह कहकर निकाल दिया जो हुआ सो हुआ, दूध वाला ही बेवकूफ है एवं इस तरह का विचार करके किसी अन्य कार्य में जुट जाएं।

(2) संवेगात्मक शक्ति को समाज द्वारा स्वीकृत ढंग से व्यक्त करना- इस ढंग को मार्गान्तरीकरण भी कह सकते हैं। इसमें बालक को इस तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वह अपने संवेगों का प्रकाशन इस ढंग से करता है कि लोग उसे पसन्द करने लग जाते हैं; उदाहरण के लिए भय संवेग को इस तरह मार्गान्तरित किया जा सकता है कि बालक बुरे कार्यों को करने से डरने लग जाए।

(3) अध्यवसाय- बालकों के संवेगों को नियन्त्रित करने का एक ढंग यह है कि बालकों में संवेगों के पैदा होने तथा व्यक्त करने का समय ही न मिले। इसके लिए जरूरी है कि बालकों को पढ़ने-लिखने अथवा किसी अन्य लाभदायक काम में व्यस्त रखा जाए। जब बच्चे अपनी रुचि के अनुसार कुछ कार्यों को करने में व्यस्त रहते हैं तब उनमें संवेग कम पैदा होते हैं।

(4) विस्थापन- पेज के अनुसार, यह वह मनोरचना है जिसमें किसी वस्तु या विचार से सम्बन्धित संवेग किसी अन्य वस्तु अथवा विचार में स्थानान्तरित हो जाता है । उदाहरण के लिए, एक बन्ध्या स्त्री दूसरे बच्चे से प्रेम करे या कोई अपनी स्त्री से क्रोधित हो लेकिन अपनी स्त्री पर क्रोध व्यक्त न करके अपने कुत्ते अथवा किसी पर क्रोध व्यक्त करे।

(5) प्रतिगमन- कोलमैन (1974) के अनुसार अहम्, एकता तथा संगठन को बनाए रखने हेतु एवं तनाव को दूर करने के लिए, जब व्यक्ति कम परिपक्व प्रत्युत्तरों का सहारा लेता है तो यह मनोरचना प्रतिगमन कहलाती है। इस मनोरचना में बालक अपने से कम आयु के बालकों जैसे व्यवहार कर अपने संवेगात्मक तनाव को दूर करता है । उदाहरण के लिए बालक ईर्ष्या तथा क्रोध को तोड़-फोड़ या बिस्तर पर पेशाब करके व्यक्त करे तो यह प्रतिगमन है ।

(6) संवेगात्मक रेचन- रेचन का अर्थ है शमित संवेगों को मुक्त करना। संवेगात्मक रेचन के दो प्रकार हैं-

(क) शारीरिक रेचन- शारीरिक रेचन का अर्थ है संवेगों के कारण उत्पन्न शारीरिक शक्ति का व्यय होना । बालकों में संवेगों के कारण पैदा शारीरिक शक्ति का व्यय मुख्यतः तीन तरह से होता है जैसे विभिन्न खेलों द्वारा (दौड़ना, कूदना, तैरना आदि), चिल्लाने के द्वारा या जोर से हँसने के द्वारा। लेकिन जोर से चिल्लाकर या हँसकर संवेगों द्वारा पैदा शारीरिक शक्ति को व्यय करने के तरीके समाज द्वारा अधिक मान्य नहीं हैं।

(ख) मानसिक रेचन- इसमें बालक संवेगों द्वारा पैदा शक्ति का व्यय उन परिस्थितियों तथा व्यक्तियों के प्रति अपनी अभिवृत्तियों को बदल कर करता है जिनके कारण संवेग पैदा हैं। मानसिक रेचन हेतु संवेगात्मक सहनशीलता जरूरी है। एक अध्ययन में यह देखा गया है कि ज्यादातर बच्चे अपने संवेगों के कारण पैदा शक्ति को निकालने के लिए दिवास्वप्नों का सहारा लेते हैं। मानसिक रेचन बालक उस समय उपयोग में लाता है जब बालक में मानसिक योग्यताओं का विकास पर्याप्त मात्रा में हो जाता है, विशेष रूप से कल्पना का विकास हो जाता है।

अध्ययनों में देखा गया है कि बालक जो संवेगात्मक रेचन सीख जाते हैं, उन्हें उनके संवेगों से सन्तुष्टि ही प्राप्त नहीं होती है, वरन् उन्हें उनके समूह से अनुमोदन भी मिलता है ।

बालकों में संवेगात्मक रेचन निम्न तरह से मददगार हो सकते हैं-

(1) बालकों को प्रतिदिन कुछ मेहनत का काम अथवा खेल खेलने चाहिए ।

(2) माता-पिता को चाहिए कि बालक के साथ स्वस्थ सम्बन्ध रखें तथा बालक को इस बात का प्रशिक्षण दें कि वह किस तरह अपनी समस्याओं का समाधान करे।

(3) माता-पिता को चाहिए कि वह बालकों की संवेगात्मक समस्याओं को सुनें तथा उन्हें समझाएं कि वह किस तरह के संवेगों को अपनाएं ।

(4) बच्चों को हँसमुख बनाकर संवेगात्मक रेचन सम्भव है।

(5) बच्चों को सिखाया जाए कि वह किन परिस्थितियों में चिल्लाकर अथवा जोर से बोलकर उत्पन्न संवेगों से छुटकारा पाएं ।

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