समाजीकरण क्या है ? इसकी प्रक्रिया की विवेचना कीजिए।

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जन्म के समय बालक न तो सामाजिक होता है और न असामाजिक । समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा नवजात बालक सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित होता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के अभाव में समाज व संस्कृति अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकती। जिन व्यक्तियों को मानव का संसर्ग नहीं मिला, वे या तो नष्ट हो गये और यदि वे कुछ दिनों जीवित भी बचे रहे तो उनका व्यक्तित्व विघटित पाया गया। एक सामाजिक प्राणी बनने तथा मानवीय व्यवहारों को सीखने के लिए यह आवश्यक है, व्यक्ति समाज में रहे । सामाजिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में ही मानव की कल्पना की जा सकती है। यदि समाजीकरण की प्रक्रिया से व्यक्ति नहीं गुजरता है तो वह भी एक पशु की तरह बना रहेगा और शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा। समाजीकरण से हमारा अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसमें व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों अथवा समूहों से अन्तःक्रिया करता हुआ अपने को सामाजिक परम्पराओं और संस्कृति के अनुकूल बनाता है और अपने को सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करता है।


समाजीकरण की परिभाषायें

समाजीकरण की प्रमुख परिभाषाएं निम्न हैं :-

1. अकोलकर- “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति परम्परा से चले आ रहे व्यवहार के प्रतिमानों को अपनाता है।”

2. किम्बाल यंग- “समाजीकरण से अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिससे व्यक्ति सामाजिक एवं सांस्कृतिक समाज में प्रवेश करता है और जिससे वह समाज का और उसके विभिन्न समूहों का सदस्य बन जाता है तथा उस समाज के मूल्यों एवं मानों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित होता है।

3. जानसन- “समाजीकरण वह शिक्षण है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने के योग्य बनाता है।”

4. गिलिन तथा गिलिन- “समाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसके द्वारा व्यक्ति समूह के माप-दण्ड के अनुसार समूह का एक क्रियाशील सदस्य बनता है, समूह की कार्य विधियों से सहमति प्रकट करता है, इसकी परम्पराओं का ध्यान रखता है और सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करते हुए यदि अपने सहयोगियों की प्रशंसा नहीं तो काफी सीमा तक धैर्य की भावना अवश्य विकसित करता है।”

5. किंग्सले डेविस- “समाजीकरण से अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसमें कि एक व्यक्ति को सामाजिक व्यक्ति या समाजीकृत बनाया जाता है।”

6. फिशर- “समाजीकरण एक व्यक्ति एवं उसके अन्य मित्रों के बीच एक दूसरे को प्रभावित करने की प्रक्रिया है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप सामाजिक व्यवहार के ढंग स्वीकार किये जाते हैं और उनके साथ सामंजस्य स्थापित किया जाता है।”


समाजीकरण की विशेषताएं

समाजीकरण की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

(1) समाजीकरण व्यक्ति को सामाजिक परम्पराओं, प्रथाओं, रूढ़ियों, मूल्यों, आदर्शों तथा विपरीत सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन सिखाता है।

(2) समाजीकरण द्वारा संस्कृति, सभ्यता तथा अन्य अनगिनत विशेषताएं पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होती हैं और जीवित रहती हैं ।

(3) मात्र जैविकीय प्राणी से सामाजिक प्राणी बनने हेतु ही समाजीकरण की आवश्यकता होती है।

(4) समाजीकरण समाज में कुछ सीखने की प्रक्रिया है, जो व्यक्ति को सामाजिक भूमिका के निर्वाह योग्य बनाता है।

(5) समाजीकरण का कार्य समाज में रहकर ही हो सकता है, समाज से अलग नहीं ।

(6) मानव की मूल प्रवृत्तियां समाजीकरण विकसित होती हैं।

(7) समाजीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति में ‘स्व’ का विकास करती है, जिससे व्यक्तित्व का विकास होता है।


समाजीकरण की प्रक्रिया

उक्त परिभाषाओं से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि समाजीकरण एक प्रक्रिया है और प्रक्रिया निरन्तर चलने वाली क्रिया है। समाजीकरण की प्रक्रिया भी बाल्यावस्था से आरम्भ होकर मृत्यु तक निरन्तर चलने वाली एक घटना है। नवजात शिशु को सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करने के अनेक स्तर होते हैं। ये स्तर विभिन्न आयु खण्डों में विभक्त रहते हैं ।

प्रो. जानसन ने समाजीकरण की प्रक्रिया को चार स्तरों में विभाजित किया है। ये स्तर निम्नलिखित हैं-

1. मौखिक अवस्था यह प्रारम्भिक अवस्था है। यह स्तर सामान्यतया आयु के एक-डेढ़ वर्ष तक ही रहता है। इस समय बच्चे की आवश्यकता जैवकीय एवं मौखिक होती है। इस समय बच्चा परिवार में अपनी माँ के अतिरिक्त और किसी को नहीं पहचानता। वास्तव में इस समय बच्चे और माँ के कार्यों में कोई अन्तर नहीं होता। बच्चा माँ के साथ एकरूपता स्थापित करता है और माँ में ही विलीन हो जाता है। इस अवस्था में बालक सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संकेत देना सीख जाता है ।

2. शैशव अवस्था इस स्तर का आरम्भ सामान्यतया डेढ़ वर्ष की आयु से होता है। इस स्तर में बच्चे से यह अपेक्षा की जाने लगती है कि शौच सम्बन्धी क्रियाओं को सीखकर स्वयं करे। मिट्टी लगने पर हाथ साफ करना, आग से दूर रहना, कपड़े गन्दा न करना आदि की भी शिक्षा दी जाने लगती है। इस अवस्था में बच्चा माँ से प्यार की इच्छा को ही नहीं रखता है बल्कि स्वयं भी माँ को स्नेह देने लगता है। बच्चे को सही व गलत काम के बारे में निर्देश दिया व जाता है। सही काम के लिए बच्चे को प्यार किया जाता है और गलत काम के लिए डाँट-फटकार की जाती है। यहीं से बच्चा अपने परिवार और संस्कृति के समान मूल्यों के अनुसार व्यवहार करना आरम्भ कर देता है।

3. अन्तर्निहित अवस्था या तादात्मीकरण – इस अवस्था का आरम्भ तीन-चार वर्ष की अवस्था से होता है और बारह-तेरह वर्ष की अवस्था तक रहता है। इस अवस्था में वह पूरे परिवार से सम्बद्ध हो जाता है। इस स्तर पर बच्चे के सामाजिक वातावरण का क्षेत्र अति व्यापक है । वह स्वयं चल फिर कर परिवार एवं समाज के अन्य सदस्यों से अपनी मित्रता करने लगता है। उसकी शौच आदि की आदतें नियमित एवं नियन्त्रित होने लगती हैं। इस अवस्था में बालक यौन व्यवहार से भी थोड़ा-थोड़ा परिचित होने लगता है और उसमें स्वयं में भी अव्यक्त रूप से यौन भावना का विकास होने लगता है और सम्भवतया इसीलिए इसको अन्तर्निहित अवस्था भी कहा जाता है। बच्चा इस स्तर पर अपने लिंग के अनुसार व्यवहार करना प्रारम्भ कर देता है और धीरे-धीरे अपने लिंग के बारे में पूर्ण जागरूक हो जाता है और उसी के अनुरूप विभिन्न सामाजिक गुणों को सीखता है। इस स्तर पर बालक स्कूल जाना आरम्भ कर देता है

4. किशोरावस्था – इस स्तर का आरम्भ सामान्यतः 12-13 वर्ष की आयु से होता है और 21 वर्ष की उम्र तक रहता है। समाजशास्त्रियों तथा मनोवैज्ञानिकों ने इस स्तर को बहुत महत्वपूर्ण माना है। इस स्तर में व्यक्ति में स्वयं सीखने की जिज्ञासा जागृत हो जाती है। उसके विचारों में कुछ क्रम और तर्क आने लगते हैं तथा वह संवेदनशील हो जाता है। मित्रता की भावना इस काल में कुछ दृढ़ हो जाती है। इस स्तर में किशोर एक ओर अधिक-से-अधिक स्वतन्त्रता चाहता है तो दूसरी ओर परिवार व विभिन्न समूहों द्वारा उसके सभी व्यवहारों पर उचित नियन्त्रण रखा जाता है । यह स्तर सामाजिक और मानसिक रूप से सबसे अधिक तनावपूर्ण होता है। इस अवस्था में अनेक शारीरिक परिवर्तन भी होते हैं और उन परिवर्तनों से अपना अनुकूलन करने के लिए व्यवहारों के नये तरीके भी सीखने पड़ते हैं। यह स्तर विस्तृत जगत के सदस्यों के व्यवहारों से भी प्रभावित होता है। परिवार के साथ-साथ शिक्षण संस्था, खेल-कूद के साथी, पड़ौस तथा समाज के नये तथा अपरिचित सदस्यों के सम्पर्क में आता है तथा समायोजन करता है ।

जानसन के अनुसार किशोरावस्था समाजीकरण का अन्तिम चरण है, परन्तु वास्तविकता यह है कि वयस्क होने के बाद भी मृत्युपर्यन्त समाजीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। यह अवश्य है कि किशोरावस्था के पश्चात् यह प्रक्रिया उतनी कठिन नहीं रह जाती है।


समाजीकरण की प्रक्रिया के कारक

जन्म काल से मृत्युपर्यन्त समाजीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। यह समाजीकरण की प्रक्रिया ही है. जो नवजात शिशु को सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करती है। समाजीकरण से बच्चे सामाजिक आदर्शों, मूल्यों, मान्यताओं, रूढ़ियों आदि से अपना सामन्जस्य करते हैं और उसी की मर्यादाओं के साथ अपना आत्मसात करते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया में निम्नलिखित कारक निरन्तर योगदान देते रहते हैं-

1. पालन-पोषण- पालन-पोषण प्रणाली समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रथम चरण है । पालन-पोषण प्रणाली बच्चे को अत्यधिक प्रभावित करती है। बच्चे का पालन-पोषण किस ढंग से हो रहा है, उसकी सुख-सुविधाओं के लिए कैसा वातावरण प्रदान किया जाता है इसी के अनुरूप बच्चों में भावनाओं, रूचियों एवं अनुभूतियों का विकास होता है। अगर माता नियन्त्रित और सामाजिक रूप से बच्चों को दूध पिलाती है, खाना खिलाती है तो बच्चे में समय के अनुसार खाने-पीने, पेशाब-पखाना करने की आदत पड़ जाती है । यदि प्रारम्भ में बच्चे की देखभाल ठीक ढंग से नहीं हो पाती तो उसे सदैव अनेक अभावों का सामना करना पड़ता है तो उसमें प्रायः समाज विरोधी भावना विकसित होने की सम्भावना रहती है।

2. सहानुभूति- सहानुभूति से बच्चे में प्रेम और अपनत्व की भावना का विकास होता है तथा वह अपने पराये को पहचानने में समर्थ होता है। यदि बालक के साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार नहीं किया जाता तो उसमें भय और घृणा की भावना का विकास होगा जो उसको विचलनकारी बना सकता है। बच्चा अपने माता-पिता, परिवार, पड़ौसी, दोस्त से सहानुभूतिपूर्वक बर्ताव के कारण उनमें विश्वास करता है, उनको अपना समझता है और उनके व्यवहारों को अपनाने की कोशिश करता है।

3. सामाजिक प्रशिक्षण- बच्चों का सामाजीकरण सामाजिक प्रशिक्षण के द्वारा भी होता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है वह अपने समाज के मूल्यों, आदर्शों, मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार करना सीखने लगता है तथा परिस्थितियों के साथ सामन्जस्य करने लगता है।

4. अनुकरण- अनुकरण के द्वारा भी बच्चा सीखता है। बालक के समाजीकरण में अनुकरण का बहुत अधिक महत्व होता है क्योंकि आरम्भ से ही वह दूसरों का अनुकरण करके अनेक बातों को सीखता है । इसलिये अनुकरण को सामाजीकरण का महत्वपूर्ण तत्व कहा जाता है। जैसा घर और समाज के लोग बोलते-चालते और व्यवहार करते हैं, बच्चे उसी का अनुकरण करते हैं और फिर वैसा ही व्यवहार करते हैं।

5. आत्मीकरण- माता-पिता, परिवार और पड़ौस के स्नेह, प्रेम और सुन्दर व्यवहारों के कारण बच्चा उनको अपना रक्षक, शुभ-चिन्तक, हित-चिन्तक समझने लगता है। ऐसा समझकर वह अपने माता-पिता, परिवार और समाज के साथ आत्मीकरण कर लेता है और उनके आदर्शों को सीखता है।

6. परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण- सामाजिक जीवन में प्रत्येक परिस्थिति में समान व्यवहार से काम नहीं चलता। अलग-अलग प्रकार की परिस्थितियों में अलग-अलग प्रकार के व्यवहार की आवश्यकता होती है। एक ही प्रकार की परिस्थितियों में भी समय-समय और स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार की भूमिकाएं अदा करनी होती हैं। प्रत्येक परिस्थिति में एक समान व्यवहारों से लक्ष्यों की पूर्ति नहीं हो पाती है। ऐसी स्थिति में मनुष्यों को बहुत कुछ प्रत्यक्ष जीवन में घटित घटनाओं से सीखना पड़ता है ।

7. निर्देश- निर्देश के द्वारा भी प्रभावित होकर समाज की मनोवृत्ति, प्रेरणा, विश्वास, आदर्श, जीवन प्रणाली, व्यवाहार प्रणाली आदि को सीखता है।

8. सहयोग- सामाजीकरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया वस्तुतः सहयोग पर आधारित है। समाज व्यक्ति को सामाजिक बनने में सहयोग देता है। समाज की सहयोगी भावना व्यक्ति को सामाजिक बनने में सहयोग देती है। व्यक्ति अपने साथ जब अन्य लोगों का सहयोग पाता है तो वह दूसरों के साथ स्वयं भी सहयोग करने लगता है। फलस्वरूप मनुष्य की सामाजिक प्रवृत्तियां संगठित होती हैं।

9. पारस्परिक व्यवहार- दूसरों के सम्पर्क में आने के बाद व्यक्ति उनसे प्रभावित होता है और साथ-साथ अन्य लोगों को प्रभावित भी करता है। अपने प्रति दूसरों के जिस व्यवहार । को वह स्वयं पसन्द करता है, उसी प्रकार का व्यवहार दूसरों के प्रति भी करता है।

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