सामाजिक सिद्धान्त एवं लैंगिक विकास के बारे में लिखो। ।

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 लैंगिक विकास एक सामाजिक सिद्धान्त है । लैंगिक रुप से यदि देखा जाए तो सम्पूर्ण समाज स्त्री एवं पुरुषों में व्यक्तित्व भिन्नताएँ भी देखने को मिलती हैं। यह व्यक्तिगत भिन्नताएँ शारीरिक संरचना तथा बुद्धि एवं ज्ञानोपार्जन के क्षेत्र में पायी जाती हैं । इसके साथ-साथ भूमिकाओं में भी भिन्नता पायी जाती है। शारीरिक संरचना के आधार पर अगर देखा जाए तो स्त्रियाँ कोमलांगी होती हैं, लेकिन सीखने के बहुत से क्षेत्रों में बालकों एवं बालिकाओं की क्षमताओं में बहुत अन्तर नहीं होता है। लैंगिक अन्तर के सम्बन्ध में किये गये अन्वेषण अभी विश्वासी परिणाम नहीं देते हैं। इसलिए इस सम्बन्ध में पूर्ण विश्वास के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है।

वर्तमान बुद्धि-परीक्षणों के आधार पर यह विश्वास किया जाता है कि दोनों लिंगों के औसत अंक लगभग समान ही होंगे, लेकिन यह भी देखा गया कि विभिन्नताओं का फैलाव दोनों लिंगों में विभिन्न होता है । बुद्धि-परीक्षाओं पर कुछ अंकों में जो दोनों लिंग प्राप्त करते हैं. हालांकि समानता होती है; लेकिन यह समानता परीक्षा के विभिन्न भागों पर हो, ऐसा नहीं हैं।

यह लगभग सामान्य रुप से देखा गया है कि भाषा भाग पर लड़कियों के प्राप्तांक लड़कों के प्राप्तांकों से ज्यादा होते हैं एवं लड़कों के प्राप्तांक गणित वाले भाग पर ज्यादा होते हैं। स्मृति के परीक्षणों में लड़कियाँ ज्यादा प्राप्तांक प्राप्त करती हैं।

सामान्य ज्ञानोपार्जन में प्राथमिक स्तर पर ज्यादातर यही पाया गया है कि बालिकाओं का स्तर बालकों से ज्यादा उच्च था। इस संबंध में फिफर का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है । पोयल महोदय का तो यह कहना है कि बालकों की शिक्षा बालिकाओं की शिक्षा शुरु करने के 6 माह बाद शुरु करनी चाहिए। बालकों के निम्न स्तर का कारण उनमें हकलाना एवं अन्य दोषों का होना दिया गया है। बालिकाओं की श्रेष्ठता का कारण वास्तव में उनका भाषा पर अधिकार होता है। वे बालकों की भाषा में श्रेष्ठता बहुत कम आयु से प्रकट करने लगती है। वह उससे पहले बातें करने लगती है तथा बोलती हैं। विद्यालयों में आने पर बालकों का विज्ञान संबंधी ज्ञान ज्यादा श्रेष्ठ दिखाई पड़ता है। शीघ्र ही वह गणित में भी श्रेष्ठता प्राप्त कर लेते हैं |

कार्टर महोदय के अध्ययन बताते हैं कि बालिकाओं को अध्यापक अपने परीक्षणों में उन प्राप्तांकों से ज्यादा अंक प्रदान करते हैं जो एक प्रमापीकरण किए हुए ज्ञानोपार्जन परीक्षण पर प्राप्त करेंगे। बालकों को अध्यापक अपने परीक्षणों में तुलनात्मक कम अंक प्रदान करते हैं। सोवल महोदय के अनुसार दोनों लिंगों के प्राथमिक स्तर अध्यापक बालिकाओं को ही ज्यादा प्रदान करते हैं। माध्यमिक स्तर पर स्त्रियाँ हमेशा बालिकाओं को ही ज्यादा अंक देती हैं, लेकिन पुरुषों के संबंध में प्रदत्त सामग्री इतनी निश्चित नहीं कि पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सके।

इसी तरह पुरुष तथा स्त्री की भूमिका में भी भिन्नता होती है। स्त्री एवं पुरुषों को उनकी लैंगिक भिन्नता के कारण प्राचीन काल से ही उन्हें विविध स्तरों पर रखा गया है। उनकी सामाजिक स्थितियाँ एवं कार्य सदैव से ही भिन्न रहे हैं। वैसे लगभग सभी समाजों में पुरुषों की स्थिति स्त्रियाँ से ऊंची मानी जाती है। शारीरिक बल में पुरुषों से कमजोर होने के कारण एवं मातृत्व का भार उठाने के कारण बहुत से देशों में सेना में स्त्रियों की भर्ती नहीं की जाती है। प्राचीन काल में तो लगभग सभी देशों में सेना में स्त्रियों की भर्ती नहीं की जाती थी। कई देशों के संविधानों में भी लिंग भूमिका के आधार पर स्त्री एवं पुरुषों को भिन्न भिन्न स्तरों पर रखा गया है। समाज में सामान्य तौर पर दो ही लिंगों को मान्यता दी गई है स्त्री तथा पुरुष । हालांकि कुछ विद्वानों ने दो से अधिक लिंगों के बारे में भी दावा किया है ।


लिंग भूमिकाओं का अर्थ :

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लिंग भूमिकाओं को इस तरह परिभाषित किया है कि “व्यवहार गतिविधियों से ही सामाजिक रुप से लिंग भूमिकाओं का निर्माण होता है। एक समाज पुरुषों तथा महिलाओं हेतु जो उचित समझता है, उसी को जिम्मेदार बताता है।” हालांकि हुर लिंग अपनी भूमिकाओं का निर्माण करने हेतु जो कुछ भी कर रहे हैं वह किस हद तक उचित है यह नहीं कहा जा सकता है तथा किस हद तक उनकी भूमिकाओं का सामाजिक रुप से निर्माण हो रहा है यह भी नहीं कहा जा सकता है।

कुछ लोग समलैंगिकों को भी एक लिंग मानते हैं परन्तु डब्ल्यू.एस.ओ. के विपरीत है, कुछ लिंग अलग श्रेणियों के रुप में ट्रान्सजेण्डर एवं इन्टरसेक्स सहित कई सम्भव लिंग लिस्टिड हुए हैं। लिंग भूमिकाएँ सांस्कृतिक रुप से भी विशिष्ट होती हैं एवं अगर देखा जाए तो संस्कृतियों के आधार पर सिर्फ लिंग के दो भेद हैं-लड़का एवं लड़की । एन्ड्रोगाइनी एक तीसरे लिंग के रुप में प्रस्तावित किया गया है। कुछ समाजों में पांच से ज्यादा लिंग होने का दावा किया गया है एवं कुछ गैर पश्चिमी समाजों में तीन लिंग होने का दावा किया गया है-आदमी, औरत एवं तीसरे लिंग।

लिंग भूमिका के वर्गीकरण के अनुसार हर लिंग से कुछ सांस्कृतिक उम्मीदें होती हैं। इनसे भ्रमित नहीं होना चाहिए क्योंकि इन्ही सांस्कृतिक उम्मीदों से किसी लिंग की पहचान होती है। सांस्कृतिक उम्मीदों के अनुसार ही सामाजिक मानदण्ड निर्धारित होते हैं जो हर व्यक्ति अपने लिंग से जुड़े रहते हैं तथा हर व्यक्ति एक आन्तरिक भावना से अपने लिंग के मानदण्डों से जुड़ा रहता है। यही आन्तरिक भावना लिंग भूमिका की उत्पत्ति का कारण है। लिंग भूमिकाएँ आमतौर पर व्यवहार तथा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रतिबिम्बित करती हैं अथवा भेदभाव के लिए एक आधार के रुप में इसका प्रयोग किया जाता है। लिंग भूमिका का प्रयोग एक संस्था के रुप में एक अपमानजनक अर्थ में सन्दर्भित कर रहे हैं। इसका मुख्य कारण सामान्य तौर पर लिंग भूमिका करने के लिए सामान्य परतन्त्रता की भावना है। कई राष्ट्रों की महिलाओं से लिंग के आधार पर इतना भेदभाव किया जाता है कि उन्हें मतदान के अधिकार से भी वंचित रखा गया। है

19वीं एवं 20वीं शताब्दी तक दुनिया के कई हिस्सों में महिलाओं को मतदान का अधिकार नहीं दिया गया। 21 वीं शताब्दी में कुछ राष्ट्रों में महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता एवं सुरक्षा का अधिकार दिया गया। समाज में कुछ ऐसे समूह भी मौजूद हैं जो सामाजिक एवं स्थापित मानदण्डों के अनुरुप नहीं हैं तथा नकारात्मक रुप से लिंग भूमिकाएँ कर रहे हैं। कुछ पश्चिमी देशों में समलैंगिक होने के लिए दबाव डाला जाता है जैसे मॉर्गन पर्याप्त समलैंगिक न होने हेतु अमेरिका के सीमा शुल्क से दूर कर दिया गया है । होमोफोविक उत्पीड़न में समलैंगिकों के द्वारा राजनीतिक शरण की माँग की गयी है। यह तो तय है कि समलैंगिक के रुप में लिंग भूमिकाओं के मानक पश्चिमी गर्भाधान के अनुरुप नहीं है। समलैंगिकों की दुर्दशा लिंग भूमिकाओं के सन्दर्भ में ही है। ईरान देश के एक समलैंगिक मोहम्मद ने कहा कि “वह किसी भी प्रकार से स्त्री नहीं था, जब वह समलैंगिक था।”

इसके बावजूद कुछ व्यक्तियों हेतु लिंग भूमिकाएँ एक सकारात्मक प्रभाव प्रदान कर सकती हैं। कई लिंग भूमिकाएँ हानिकारक लिंग के लिए लकीर के फकीर हो सकती हैं, इस तथ्य के बावजूद लिंग भूमिकाओं को एक सामाजिक संरचना के रुप में स्वीकार कर लिया गया है तथा लिंग के व्यवहार को आत्मसम्मान की वृद्धि के साथ जोड़ा गया। निर्धारित लिंग भूमिकाओं को पूरा करने को आत्म सन्तुष्टि के रुप में देखा जाता है। जो निर्धारित लिंग भूमिकाओं के अनुरुप आत्म नहीं हैं वे तटस्थ लिंग के रुप में पहचाने जाते हैं। वे स्वयं को समाज से अपने को अलग अनुभव करते हैं तथा उन्हें ऐसा भी प्रतीत होता है कि वे सामान्य नहीं हैं एवं उनका व्यवहार समाज के निर्धारित मानकों के अनुरुप नहीं है।


लिंग भूमिकाओं को प्रभावित करने वाले कारक :

1. लिंग पहचान को प्रभावित करने वाले हारमोनल कारक- जैविक कारक बच्चों के शारीरिक विकास को आकार प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। उदाहरण के लिए लड़के तथा लड़कियाँ लैंगिक अंगों के साथ जन्म के साथ ही भिन्नता लिए हुए होते हैं एवं जन्म के बाद भी उनकी यह भिन्नता बनी रहती है। परिपक्वावस्था पर उनमें दूसरे लिंग की विशेषताएँ पैदा होती हैं । प्राकृतिक रुप से शरीर में कुछ रासायनिक कम्पाउण्ड होते हैं जिन्हें हम हारमोन कहते हैं वे ही शारीरिक भिन्नता हेतु उत्तरदायी होते हैं। ।

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययनों के आधार पर यह कहा है कि समलिंगी हारमोन लैंगिक अंगों में भिन्नता दिखाने में असमर्थ होता है तथा यह हारमोन लगभग परिपक्वता काल में पैदा होता है एवं इसका लिंग पहचान आकार में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। लड़कों में एनड्रोगेन लड़कियों की बजाय ज्यादा होता है, कुछ लड़के तथा लड़कियाँ ऐसी परिस्थितियों में जन्म लेते हैं जिसे कनजेनीटल एड्रीनल हाइपरप्लासिया कहा जाता है जिससे उच्च स्तर पर एन्ड्रोगेन हारमोन पैदा होता है एवं वे अपने सहपाठियों से प्रभावित नहीं होते हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया तथा कहा कि जिन बच्चों में एन्ड्रोगेन अतिरिक्त मात्रा में होता है वह उनके व्यवहार को प्रभावित करता है। जो लड़के ज्यादा एन्ड्रोगेन रखते हैं वे पुरुष साथियों से सामान्य व्यवहार करते हैं तथा उनके साथ खेलते हैं एवं जिन लड़कियों में एन्ड्रोगेन का स्तर उच्च होता है वे ज्यादा लिंग रुढियों से ग्रसित पुरुषों के लक्षण वाली होती हैं तथा वे अपनी समआयु की सहपाठियों से ज्यादा संबंधित होती हैं। जो लड़कियाँ सी.ए.एच. के साथ अतिरिक्त जेनीटलिया के साथ जन्म लेती हैं वे पुरुषों की तरह दिखाई देती हैं। वैसे तो वे लड़कियाँ ही होती हैं लेकिन इन बालिकाओं में पुरुष जननांग दिखाई देता है। लड़कियों के वास्तविक लिंग का निर्धारण जैनिटिकली होता है। महिलाओं में X क्रोमोसोम पाये जाते हैं जबकि पुरुषों में X तथा Y क्रोमोसोम्स पाये जाते हैं जो लिंग निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

बेशक CAH युक्त लड़कियों में शल्य क्रिया के बाद जननांग मुख्यतः स्त्रियों जैसे दिखाई देते हैं लेकिन उनमें लक्षण पुरुषों जैसे ही बने रहते हैं। वे पुरुष संगी-साथियों के साथ खेलना पसन्द करते हैं। वे परम्परागत पुरुषों की भाँति क्रियाकलाप एवं खेल पसन्द करते हैं जैसे ब्लॉक, कार, मॉडल, स्पोर्ट आदि । वे शारीरिक रुप से सक्रिय एवं क्रोधित स्वभाव के भी होते हैं जो लड़कियों सी.ए.एच. युक्त होती हैं वे लड़कियों वाले खेल खेलना पसन्द नहीं करती हैं। वे लड़कियों के परम्परागत खेलों जैसे माता बनना, दुल्हन बनना आदि को खेलना पसन्द नहीं करती हैं वे शारीरिक रुप से कैसी दिखाई देती हैं इसकी भी उन्हें ज्यादा परवाह नहीं होती है जितना उनकी उम्र की दूसरी लड़कियाँ करती हैं। अन्य शब्दों में, उच्च स्तर पर पुरुष हारमोन लड़कियों के व्यवहार को काफी प्रभावित करते हैं।

2. लिंग पहचान को प्रभावित करने वाले सामाजिक तथा पर्यावरणीय कारक- बहुत से अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि लिंग पहचान के विकास में बच्चों का पालन-पोषण तथा सामाजिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। इस बात को बच्चों की रुचि, महत्त्व, व्यवहार, उनकी पूर्ण सोच मध्यावस्था की पूर्व अवस्था में उन्हें दी गयी शिक्षा उनके माता-पिता द्वारा दिया गया या ऐसा व्यक्तित्व जिससे वे प्रभावित होते हैं एवं शिक्षा पर निर्भर करता है।

वे बच्चे जिन्हें यह सिखाया जाता है कि अमुक-अमुक कार्य उनके लिए ठीक अथवा उचित हैं क्योंकि वे लड़के हैं या लड़की हैं। जीवन के, पश्चकाल में इन शिक्षाओं से प्रभावित होते हैं। उदाहरण के तौर पर ऐसा देखा गया है कि लड़कियाँ जिन्हें यह बताया जाता है कि लड़के ज्यादातर गणित में उनकी बजाय अच्छे होते हैं, गणित को नापसन्द करती हैं एवं उनकी इस विषय में रुचि भी नहीं रहती है। वे यह मानने लग जाती हैं कि वे इस विषय में अच्छी नहीं हैं तथा गणित के टेस्ट एवं गृहकार्य प्रोजेक्ट में बहुत खराब प्रदर्शन करती हैं।

बच्चे निरीक्षण तथा अनुकरण के द्वारा वे सब सीखते हैं जो उनके प्राथमिक संरक्षक (माता-पिता) करते हैं, वे उन सबकी नकल करते हैं एवं आत्मासात करते हैं, जो वे देखते हैं तथा तब वे उसे अपने जीवन में उसी प्रकार दोहराते हैं। इस तरह वे आत्मनिर्भर बनते हैं। बच्चे अपने माता-पिता को देखते हुए बड़े होते हैं तथा अपनी परम्परागत लिंग संबंधी भूमिकाओं को निभाते हैं। सामान्य तौर पर वे प्रौढ़ होने पर भी वैसी ही भूमिका निभाते हैं जो उनके साथियों के माता-पिता द्वारा निभायी जाती हैं जो अपेक्षाकृत कम परम्परागत होते हैं

3. समलैंगिक, उभयलिंगी तथा सम्मोहित लैंगिक युवा- जैविक तथा सामाजिक परिस्थितियाँ बताती हैं कि ज्यादातर लड़के प्राथमिक तौर पर पुरुष लिंग के पहचान के साथ विकसित होते हैं एवं ज्यादातर लड़कियाँ प्राथमिक तौर पर स्त्रियोचित लिंग पहचान के साथ विकसित होती हैं। उनका रुढ़िगत व्यवहारों के कारण उनका व्यवहार बचपन से ही उनके अनुभवों के आधार पर परिवर्तित हो सकता है। यह जरुरी है कि वे अपने लिंग के साथ आराम अनुभव करें एवं कम से कम तनाव अनुभव करें। उन्हें अपनी लैंगिक पहचान प्राकृतिक तथा सामान्य तौर पर स्वीकार करनी चाहिए। यह सोचना जरुरी है कि वे सामाजिक तथा लैंगिक रुप से क्या करना चाहते हैं तथा एवं वे करना चाहते हैं उसका प्रभाव उनके परिवार एवं समाज पर क्या पड़ेगा? क्या परिवार तथा समाज उन्हें इस रुप में स्वीकार करेगा? उन्हें यह नहीं पता होगा कि जो वे नहीं हैं उसे दिखाने में वे कभी भी आत्मविश्वासी नहीं रह सकते हैं।

बहुत कम लड़के तथा लड़कियाँ ऐसे होंगे जिन्हें इस तरह का अनुभव होगा। इस तरह के युवा एक अलग तरह का अनुभव करते हैं एवं सामाजिक अपेक्षाओं से बाहर निकलकर समलिंगी तथा सम्मोहित लैंगिक युवा की अपनी छवि को स्वीकार कर पाते हैं एवं इस नयी लैंगिक पहचान के साथ समाज के समक्ष जाते हैं। जो बच्चे समलिंगी के रुप में विकसित होते हैं वे लैंगिक पहचान हेतु लैंगिक वरीयता अनुभव उस लिंग को देते हैं जिसके प्रति वे आकर्षित होते हैं। इसका तात्पर्य यह है अगर वे यह अनुभव करते हैं कि वे लड़के हैं तो वे लड़कों के साथ ज्यादा आरामदायक एवं सामान्य व्यवहार करते हैं एवं अगर वे अपने आप को लड़की अनुभव करते हैं तो वे लड़कियाँ के समूह में ज्यादा आरामदायक एवं सामान्य अनुभव करते हैं अर्थात् वे समलिंगी साथियों के साथ यौनिक क्रियाओं हेतु ज्यादा आकर्षित होते हैं।

सामान्य परिस्थितियों में किशोर ज्यादातर विपरीत यौन के साथियों की तरफ लैंगिक क्रियाओं हेतु आकर्षित होते हैं। सम्मोहित युवा ज्यादातर विपरीत लिंग पहचान के साथ विकसित होते हैं। वे शारीरिक रुप से पुरुष हो सकते हैं लेकिन वे आन्तरिक रुप से अपने आप को महिला समझते हैं, अथवा वे शारीरिक रुप से महिला हो सकते हैं परन्तु वे अपने आप को पुरुष अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों को ही भविष्य में गे, लेसवियन, उभयलिंगी, क्वशनिंग, इण्टरसेक्स एवं ट्रान्सजनरेटिड बच्चे कहा जाता है।


रुढिप्रद धारणा :

लिंग भूमिका में हालांकि लिंग संबंधी भूमिकाएँ जुड़ी होती हैं। हर लिंग से समाज की कुछ अपेक्षाएँ होती हैं जिन्हें उस लिंग के व्यक्ति को पूरा करना पड़ता है। स्त्री हो या पुरुष सभी से समाज की अपेक्षाओं के अनुरुप व्यवहार की आशा की जाती है परन्तु साथ ही समाज की कुछ रुढ़िगत धारणाएँ भी हर लिंग से जुड़ी होती हैं जैसे पुरुष घर का वारिस होता है । पिता का पिण्डदान बेटा ही करता है, पुरुष घर का कर्ताधर्ता होता है। महिला पुरुष के अधीन होती है। महिलाओं को पुरुष की आज्ञाओं का पालन करना चाहिए एवं महिलाओं को अपने घर एवं परिवार को ही अपनी सारी दुनिया समझना चाहिए। महिलाओं से वंश नहीं चलता, स्वर्ग प्राप्ति हेतु बेटा होना जरुरी है जो पुरुष स्त्रियोचित व्यवहार करते हैं उनमें जेनेटिक प्राबलम होती है एवं उनमें प्रजनन क्षमता नहीं होती है। समलिंगी पुरुष घृणा के पात्र हैं आदि इसी तरह की अनेकों रुढिप्रद भावनाएँ हर लिंग भूमिका के साथ जुड़ी होती हैं, साथ ही समाज के अनुरुप आचरण न करने वाले लिंग की सामाजिक प्रतिष्ठा का स्तर निम्न माना जाता है। समाज की आकांक्षाओं के अनुरुप व्यवहार करने वाले को ही समाज में सम्मान की प्राप्ति होती है। उभयमुखी अथवा समलिंगी के वार में होने पर परिवार को समाज के समक्ष शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है, क्योंकि ऐसे संबंधों को समाज स्वीकार नहीं करता तथा न ही यह मानता है कि यह प्राकृतिक रुप से ऐसे हैं अथवा जैविक रुप से हारमोन व्यवधान के कारण इनका हर तरह का व्यवहार है वरन् ऐसे व्यवहार वाले व्यक्तियों को समाज अपने में से एक नहीं मानता है, इसी कारण लोग अगर परिवार में ऐसा व्यक्ति कोई होता है तथा परिवार को उसकी जानकारी होती भी है तो भी उसे समाज के सामने स्वीकार नहीं किया जाता है ।


लिंग भूमिका तशा खेल का मैदान :

खेल के मैदान में भी लिंग भूमिका का विशेष महत्त्व होता है। पुरुषों से ज्यादातर शक्ति की अधिकता वाले खेलों को खेलने की उम्मीद की जाती है। पुरुषों से जितनी ज्यादा शारीरिक बल वाले खेलों को खेलने की अपेक्षा रखी जाती है, उतनी बालिकाओं या महिलाओं से नहीं। क्रिकेट, फुटबॉल, वेट लिफ्टिग, मुक्केबाजी कुश्ती, दौड़ आदि खेल खेलने की अपेक्षा पुरुषों से रखी जाती है। अगर कोई महिला इन खेलों को खेलने का प्रयत्न करती है तो समाज उसे स्वीकार नहीं करता है तथा कदम-कदम पर उसके समक्ष चुनौतियाँ उत्पन्न की जाती हैं ।

मेरीकॉम इसी तरह की महिला थी जिन्होंने पुरुषों के अधिकार क्षेत्र के खेल खेलने का प्रयत्न किया। अगर कोई बालिका इस तरह के खेल में रुचि लेती है तो उसे तत्काल यह जता दिया जाता है कि वह लड़की है तथा यह खेल पुरुषों के खेल हैं इसलिए उसे यह खेल नहीं खेलना चाहिए। इस तरह खेल के मैदान में भी लिंग भेद स्पष्ट रुप से दिखाई देता है जो कि समाज की रुढ़िप्रद धारणा एवं पूर्व धारणाओं पर आधारित सोच को व्यक्त करता है

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