सामाजीकरण करने वाले विभिन्न अभिकरणों (एजेंसीज) का वर्णन कीजिए।

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  सामाजीकरण की संस्थाएं

सामाजीकरण एक जटिल प्रक्रिया है। सामाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा ही नवजात शिशु सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित होता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक सामाजीकरण की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। अब हम उन संस्थाओं और साधनों का अध्ययन करेंगे जो बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक सामाजीकरण करती हैं। इस प्रकार की संस्थाओं में कुछ का प्रभाव सर्वाधिक होता हैं ? जबकि कुछ आंशिक रूप से व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। प्रभाव के आधार पर हम समाजीकरण की संस्थाओं को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं।


प्राथमिक संस्थायें

प्राथमिक संस्थायें साधारणत: प्राथमिक समूहों का ही संस्थात्मक रूप है । ये वे संस्थायें हैं जहां पर बालक का आरम्भिक स्तर का सामाजीकरण होता है, जिसमें उसके आधारभूत व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इन्हीं संस्थाओं से व्यक्ति द्वैतियक समूहों में सीखने के लिए आवश्यक ज्ञान को पाता है। संक्षिप्त में ये निम्नलिखित हैं:

परिवार-बालक संबंध

1. परिवार : सामाजीकरण का सबसे अधिक महत्वपूर्ण साधन – सामाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। बच्चों को जन्म लेते ही अपने परिवार के सदस्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है। जन्म के बाद के प्रथम तीन वर्ष मानवोचित गुणों के विकास के लिए अधिक महत्वपूर्ण होते हैं और इस अवधि में बालक का सम्पर्क उसके परिवार के सदस्यों से ही होता है। :

सामाजीकरण की प्रक्रिया में माता का प्रभाव बालक के ऊपर सर्वाधिक पड़ता है जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने अस्तित्व को मां के अस्तित्व में विलीन कर देता है। अर्थात् बच्चा अपने और माता के बीच कोई अन्तर नहीं समझता है। माता किस प्रकार दूध पिलाती है, कब पिलाती है इन सबका बच्चे पर प्रभाव पड़ता है। माता के द्वारा लाड़ प्यार भी इस प्रक्रिया के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है । आत्मा के विकास में माता ही सबसे महत्वपूर्ण है। किम्बाल यंग ने लिखा है कि परिवार के अन्तर्गत मौलिक अन्तः क्रियात्मक सांचा मां और बच्चे का होता है। पिता तथा बच्चों का सम्बन्ध भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता है। पिता परिवार का मुखिया होता है। वह बच्चों को अनुशासन एवं अन्य आवश्यक कार्यों की शिक्षा देता है । लड़के प्राय: प्रत्येक कार्य में अपने पिता के कार्यों का अनुसरण करते हैं।

बच्चों-बच्चों का सम्बन्ध भी महत्वपूर्ण हैं । प्रायः बच्चों का प्रभाव एक-दूसरे पर पड़ता है। यदि परिवार में बड़ा भाई या बहिन खराब काम करने लगते हैं तो उसका प्रभाव उनके छोटे भाई-बहिनों पर भी पड़ता है। इसी प्रकार यदि बड़े भाई-बहिन अच्छे हैं तो उसका प्रभाव छोटे पर भी पड़ता है। बच्चे आपसी व्यवहारों के द्वारा भी कुछ सीखते हैं।

पति-पत्नी के सम्बन्ध भी बच्चों के सामाजीकरण के लिए महत्वपूर्ण हैं। बच्चे भी अपने माता-पिता के व्यवहारों के आधार पर अपने भविष्य के सम्बन्ध में सोचते-विचारते हैं।

यदि माता-पिता में परस्पर सम्बन्ध मधुर नहीं है तो ऐसा देखा गया है कि उन परिवारों के बच्चे गृहस्थ-जीवन में प्रवेश कर सहयोगपूर्वक नहीं रह पाते । जिन परिवारों में माता-पिता के पारस्परिक सम्बन्ध उचित होते हैं अर्थात् सन्तुलित जीवन व्यतीत करते हैं वहां बच्चों का सामाजीकरण भी उचित रूप से होता है।

परिवार के सदस्यों के धार्मिक, राजनैतिक इत्यादि विचार भी बच्चों को प्रभावित करते हैं। इन्हीं सब कारणों से कहा जाता है कि व्यक्ति जो कुछ है वह अपने परिवार के कारण ही है। गोल्डस्टीन ने परिवार के सम्बन्ध में लिखा है, “परिवार वह झूला है जिसमें भविष्य का जन्म होता है और वह शिशु गृह हैं जिसमें नये प्रजातंत्र का निर्माण होता है । परम्परा के द्वारा परिवार का सम्बन्ध भूतकाल से होता है किन्तु सामाजिक उत्तरदायित्वों एवं सामाजिक विश्वासों के द्वारा परिवार भविष्य से सम्बन्धित होता है।”


परिवार बालक संबंध के मुख्य निर्धारक अग्रलिखित हैं-

2. माता-पिता की अभिवृत्तियाँ- परिवार तथा बालक के संबंध बहुत कुछ संरक्षकों की अभिवृत्तियों से प्रभावित एवं निर्धारित होते हैं। कुछ संरक्षकों में उनके बालकों के प्रति अभिवृत्तियों का निर्माण उनके जन्म लेने से पहले ही हो जाता है। पारिवारिक अभिवृत्तियों का निर्माण भी अधिगम के आधार पर होता है । संरक्षकों का यह अधिगम उनके अनुभवों, परम्पराओं तथा उनके संरक्षकों के शिक्षण के कारण होता है। अध्ययनों में यह देखा गया है कि ज्यादा आयु वाले संरक्षकों की बजाय कम आयु वाले संरक्षक बालक के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह उचित तरह से नहीं करते हैं। इसका प्रमुख कारण अपने नवीन दायित्वों के साथ समायोजन न कर पाना है।

कुछ संरक्षक परिवार में बच्चों को उचित वातावरण प्रदान नहीं कर पाते हैं। उनकी अभिवृत्तियाँ सन्तुलित नहीं होती हैं। कभी-कभी वे बालकों का अति संरक्षण करते हैं। इसके कारण बालक को अति आश्रितता के लक्षण पैदा हो जाते हैं। अति संरक्षण का व्यवहार परिवार अथवा संरक्षकों द्वारा अपनाये जाने पर बालकों में शीघ्र परेशान होने, उत्तेजित होने, बेचैनी, एकाग्रता की कम योग्यता जैसे लक्षण पैदा हो जाते हैं। अति संरक्षण के कारण बालकों में कुछ अन्य लक्षण भी दिखाई देते हैं जो उसके भावी जीवन को प्रभावित करते हैं; जैसे- आत्मविश्वास में कमी होना, दूसरों से शीघ्र प्रभावित हो जाना, दूसरों पर अधिक आश्रित होना एवं अपनी आलोचना के प्रति संवेदनशील होना आदि । बालकों के व्यक्तित्व में जब यह लक्षण आ जाते हैं तो निश्चय ही इन लक्षणों के कारण उसके पारिवारिक संबंध बिगड़ जाते हैं। कुछ संरक्षक अथवा परिवार बालकों को अत्यधिक छूट दे देते हैं। इस तरह के परिवार तथा संरक्षक अपने बच्चों के प्रति ज्यादा सहनशील होते हैं। जो परिवार अथवा संरक्षक अपने बच्चों को ज्यादा छूट देते हैं, वे बच्चे शीघ्र ही नियंत्रण से बाहर हो सकते हैं। एक सीमा से ज्यादा छूट देने से भी रिश्ते बिगड़ जाते हैं। कुछ परिवार अथवा संरक्षक अपने बच्चों का तिरस्कार करते हैं। संरक्षकों का तिरस्कार बच्चों के आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाता है । इस सन्दर्भ में कुछ शोध कार्य हुए हैं जिनमें यह देखा गया है कि संरक्षकों का तिरस्कार बालकों में कई लक्षण पैदा करता है; जैसे-कुण्ठा, असहायता की भावना, कुसमायोजन, समाज विरोधी व्यवहार, आक्रामकता, निर्दयता, झूठ बोलने की आदत, ध्यान आकर्षित करने संबंधी क्रियाएँ, दिखावे की प्रवृत्ति आदि । तिरस्कार के कारण पैदा सभी लक्षण बालक के पारिवारिक संबंधों को प्रभावित करते हैं। इस तरह के लक्षणों से बालक के पारिवारिक संबंधों में कमी आती है।

कुछ परिवार तथा संरक्षक अपने बच्चों के साथ अधिक प्रभुत्वशाली अभिवृत्ति अपनाते हैं या अपने बच्चों को बहुत कठोर नियंत्रण में रखते हैं। इस तरह के वातावरण में बच्चे बहुत संवेदनशील हो जाते हैं। वे हीन भावनायुक्त, शर्मीले, शीघ्र भ्रमित होने वाले हो जाते हैं। ये लक्षण भी बालक के पारिवारिक संबंधों को बिगाड़ने में अपना सहयोग देते हैं।

कुछ संरक्षकों के द्वारा अपने बच्चों के साथ समानता आधारित व्यवहार नहीं किया जाता वरन् पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता है। एक अध्ययन में यह देखा गया है कि माँ अपने बेटे का अपनी बेटियों की बजाय ज्यादा पक्ष लेती है । पारिवारिक सदस्य सामान्यतौर पर उस बच्चे का अधिक पक्ष लेते हैं जो नियमित रुप से विद्यालय जाता है एवं अच्छी आदतों वाला होता है, दूसरों के साथ कम झगड़ता है एवं अपने बड़ों का कहना मानता के है । अध्ययन में यह भी देखा गया है कि पिता अपने बेटे की बजाय बेटी का ज्यादा पक्ष लेता है। माता-पिता उस बच्चे का भी ज्यादा पक्ष लेते हैं जो शारीरिक या मानसिक रुप से दोषयुक्त अथवा दुर्बल होता । माता-पिता जब अपने अन्य बच्चों की बजाय किसी एक का पक्ष लेते हैं तो अन्य बच्चों के साथ उनके पारिवारिक संबंध बिगडने लगते हैं।

संरक्षक की विभिन्न अभिवृत्तियों का प्रभाव तो बालकों के पारिवारिक संबंधों पर पड़ता ही है, साथ ही बालकों का व्यवहार भी संरक्षकों की अभिवृत्तियों से प्रभावित होता है । जब बालकों को अपने अभिभावकों से अनुकूल अभिवृत्ति प्राप्त होती है तो बच्चों में आनन्द, मित्रता, सहयोग तथा संरचनात्मकता जैसे लक्षण पैदा होते हैं। जब बालकों को अपने संरक्षकों से अनुकूल अभिवृत्ति प्राप्त नहीं होती है तब उनमें ऐसे लक्षण पैदा होते हैं जिनसे बालक के पारिवारिक संबंधों के बिगड़ने की सम्भावना ज्यादा होती है । हरलॉक ने संरक्षकों की सहनशीलता एवं बालकों की अहम् शक्ति के संबंध में लिखा है कि, “संरक्षकों में सहनशीलता जितनी ही ज्यादा होती है, बालकों की अहम् शक्ति उतनी ही ज्यादा होती है।”

3. परिवार का आकार, बनावट तथा अन्तःक्रियाएँ- संरक्षकों की अभिवृत्तियों के अतिरिक्त परिवार का आकार तथा बनावट भी एवं भाई-बहनों के परस्पर संबंध भी परिवार तथा बच्चे के संबंधों को प्रभावित करते हैं। अगर परिवार एकांकी है एवं उसमें पति-पत्नी और उनके बच्चे ही शामिल हैं तो भाई-बहनों का आपसी प्रेम तथा लगाव भी परिवार और बच्चे के संबंधों पर प्रभाव डालता है । अध्ययनों में यह भी देखा गया है कि बड़े परिवारों की बजाय छोटे परिवारों में पारिवारिक संबंध ज्यादा अच्छे होते हैं। छोटे परिवारों में ज्यादातर माता-पिता एवं भाई-बहन रोते हैं। अत: पारिवारिक अन्तःक्रियाएँ भी कम होती हैं।

4. भाई-बहनों के संबंध- अध्ययनों में देखा गया है कि भाई-बहनों में सर्वाधिक अच्छे संबंध उस समय होते हैं जब भाई-बहनों में आयु संबंधी कोई अन्तर नहीं होता है। भाई-बहनों में आयु संबंधी अन्तर जितना ज्यादा होता है उनके आपसी संबंधों के खराब होने की सम्भावना उतनी ही ज्यादा होती है। अध्ययनों में देखा गया है कि बहनों में जितनी ईर्ष्या होती है उतनी दो भाइयों में एवं एक भाई-बहन में नहीं होती है। लड़के अपनी बहनों की बजाय अपने भाइयों से ज्यादा लड़ाई करते हैं। भाई-बहनों में अगर स्नेह है, वह एक-दूसरे के साथ खेलते हैं, वह एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं एवं एक-दूसरे की मदद् करते हैं तो इस अवस्था में बच्चे के पारिवारिक संबंध अच्छे रहते हैं। लेकिन भाई-बहनों में स्नेह नहीं पाया जाता है, वे एक-दूसरे की मदद नहीं करते हैं एवं एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते हैं, एक-दूसरे पर आक्रमण करते हैं एवं एक-दूसरे को चोट पहुँचाने का प्रयत्न करते रहते हैं, इस अवस्था में पारिवारिक संबंध भी अच्छे नहीं होंगे। भाई-बहनों में जब भी मनमुटाव वाले संबंध होंगे, पारिवारिक संबंधु भी तब खराब होंगे। बालकों के बीच ईर्ष्या एवं मनमुटाव को प्रारम्भ से ही प्यार से अथवा डाँटकर खत्म कर देना चाहिए जिससे पारिवारिक संबंध खराब न हो सके ।

5. परिवार की व्यवस्था- पारिवारिक संबंध परिवार की व्यवस्था से भी प्रभावित होते हैं। परिवार की व्यवस्था संबंधी मुख्य कारक इस तरह हैं-

(i) माता-पिता का व्यवसाय- पारिवारिक संबंधों पर प्रभाव डालने वाला यह एक महत्त्वपूर्ण कारक है । पिता के व्यवसाय का च्चों से प्रत्यक्ष संबंध होता है। बच्चों की सामाजिक प्रतिष्ठा ज्यादातर पिता के व्यवसाय से जुड़ी होती है। कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ बच्चे अपने पिता के व्यवहार को बताने में शर्म महसूस करते हैं। उनकी अपने परिवार, पिता एवं स्वयं के प्रति विपरीत अभिवृत्तियाँ बनी होती हैं जिससे पारिवारिक संबंधों के खराब होने की संभावना ज्यादा होती है। माता का व्यवसाय भी बच्चों के व्यवहार को प्रभावित करता है। माँ अगर किसी व्यवसाय में संलग्न है तो छोटे बच्चों को ज्यादातर समय घर में अकेले गुजारना पड़ता है जिससे उनमें अप्रसन्नता का भाव पैदा हो जाता है। यह भावनाएँ उस समय तीव्र हो जाती हैं जब उनके दोस्तों के घरों में उनकी माताएँ उनकी देखभाल हेतु फरमाइशों को पूरा करने हेतु समय उपलब्ध रहती हैं। इस अवस्था में भी पारिवारिक संबंधों के बिगड़ने की संभावना ज्यादा होती है ।

(ii) परिवार का सामाजिक स्तर- परिवार का सामाजिक स्तर भी पारिवारिक संबंधों को प्रभावित करता है। मध्यवर्गीय परिवारों में बालकों से बहुत ज्यादा आशाएँ बाँध ली जाती हैं एवं परिवार के बच्चों पर सामाजिक अनुरुपता स्थापित करने पर जोर दिया जाता है । बालकों पर इस बात का भी दबाव रखा जाता है कि वे कोई ऐसा कार्य न करें जिससे परिवार की बदनामी हो। बच्चों पर संरक्षकों द्वारा परिवार का सामाजिक स्तर बनाये रखने हेतु जो दबाव पड़ता है, उसके कारण पारिवारिक संबंधों में मनमुटाव आ जाता है। परिवार का सामाजिक स्तर अगर बच्चे के साथियों के पारिवारिक स्तर से निम्न होता है तो बच्चे को शर्म महसूस होती है एवं अगर बच्चे का सामाजिक स्तर साथियों के सामाजिक सतर से उच्च होता है तो उसे गर्व की अनुभूति होती है। बच्चों में यह शर्म एवं गर्व की भावना उनके पारिवारिक संबंधों को प्रभावित करती है।

(iii) टूटे परिवार- परिवार का ढाँचा पति तथा पत्नी दोनों से मिलकर बनता है। लेकिन इनमें से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाये या तलाक हो जाये तो पारिवारिक ढाँचा बदल जाता है। उस स्थिति में वह परिवार टूटा परिवार कहलाता है । टूटा परिवार उस परिवार को भी कह सकते हैं जब पिता ज्यादा दिनों तक परिवार के बाहर रहते हैं तथा बच्चे नाना अथवा बाबा के साथ या किसी अन्य रिश्तेदार के साथ रहते हैं। ऐसे परिवारों में ज्यादातर आर्थिक समस्याएँ ज्यादा होती हैं । टूटा परिवार वह भी हो सकता है जब माँ न हो तथा पिता को ही बच्चे का पालन-पोषण करना पड़े या जब पिता न हो एवं माता को ही घर और बाहर दोनों ही जिम्मेदारियाँ उठानी पड़े। इस तरह टूटे परिवार की समस्याएँ भी पारिवारिक संबंधों को प्रभावित करती हैं। सौतेली माता अथवा सौतेले पिता का व्यवहार भी बच्चे के पारिवारिक संबंधों को बदल देता है।

(iv) रिश्तेदार- पारिवारिक संबंधे को रिश्तेदार भी प्रभावित करते हैं। रिश्तेदारों के किसी परिवार में आने पर परिवार की स्त्री पर कार्य का बोझ बढ़ जाता है । रिश्तेदारों की देखभाल करना माता का कार्य होता है। बच्चों को भी यह सिखाया जाता है कि रिश्तेदारों का सम्मान है करो। रिश्तेदारों के कारण परिवार तथा बच्चों के संबंध में मनमुटाव तब पैदा हो जाता है वह बच्चों पर अपने प्रभुत्व जमाना चाहते हैं या बालक की आलोचना करते हैं।

(v) दोषयुक्त बच्चे- परिवार में जब कोई बच्चा कुसमायोजित होता है अथवा किसी शारीरिक अथवा मानसिक विकृति से युक्त होता है तो इस प्रकार के बच्चों की देखभाल करने में माता को ज्यादा समय व्यय करना पड़ता है एवं उस बच्चे पर ज्यादा धन भी खर्च करना पड़ता है। परिवार में बड़े बच्चे को इस तरह के बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी दी जाती है जिसे वे लेना नहीं चाहते हैं। इसके कारण मनमुटाव की स्थिति पैदा हो जाती है। कभी-कभी कुसमायोजित बालक आक्रामक रुख अपना लेते हैं। कभी दूसरों को परेशान करते, चिढ़ाते एवं छेड़छाड़ भी करते हैं। कई बार चीजों की तोड़-फोड़ भी करते हैं। इस स्थिति में भी पारिवारिक संबंध बिगड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है । कुछ असमायोजित बच्चे अर्तमुखी व्यक्तित्व के होते हैं। कुसमायोजित बालक भी पारिवारिक संबंधों को दोषपूर्ण बना देते हैं।

6. पारिवारिक कार्य के प्रत्यय- पारिवारिक कार्यों के कुछ मुख्य प्रत्यय इर तरह हैं- (i) अभिभावक संप्रत्यय- अभिभावक अथवा संरक्षक वह व्यक्ति होता है जो बच्चों को जन्म देता है अथवा उनकी देखभाल करता है। इस देखभाल की जरुरत उस समय अधिक होती है जब बच्चे छोटे होते हैं। वे अभिभावक अथवा संरक्षक अच्छे कहलाते हैं जो अपने बच्चों को अधिक से अधिक सुविधाएँ प्रदान करते हैं। कार्य की दृष्टि से देखा जाये तो संरक्षकों के दो तरह के प्रत्यय होते हैं-

(अ) परम्परागत, (ब) विकासात्मक ।

(अ) परम्परागत प्रत्यय- इस प्रकार के प्रत्यय युक्त अभिभावक प्रभुत्वशाली भूमिका का निर्वाह करते हैं। अपनी प्रभुत्वशाली भूमिका के आधार पर वह बालकों को धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों को सीखने हेतु बाध्य करते हैं।

(ब) विकासात्मक प्रत्यय- इस तरह के प्रत्यय वाले अभिभावक अनुमति युक्त भूमिका का निर्वाह करते हैं। बच्चे उन अभिभावकों को ज्यादा अच्छा मानते हैं जो उनकी मदद करते हैं एवं उन्हें सुविधाएँ प्रदान करते हैं और उन अभिभावकों को बुरा समझते हैं जो उनकी मदद नहीं करते हैं एवं उन्हें निराश करते हैं। सहायक, अनुभूतियुक्त, अच्छा अनुशासन, प्यार करने वाले, हैं आदर्श, उत्तम प्रकृति युक्त, स्नेहपूर्ण बातचीत करने वाले, सहानुभूतिपूर्ण तथा घर को खुशहाल रखने वाले अभिभावकों को बच्चे अच्छा अभिभावक मानते हैं। इसके विपरीत, दण्ड देने वाले, तनाव एवं अशान्ति पैदा करने वाले, दोषारोपण करने वाले, आलोचना करने वाले, दोस्तों के साथ खेलने से मना करने वाले, खेलों में कम रुचि लेने वाले, दुर्घटना होने पर बच्चे को डाँटने वाले, कम स्नेह करने वाले, बालकों पर दबाव रखने वाले अभिभावकों को बच्चे बुरा अभिभावक समझते हैं।

(ii) माता-पिता का प्रत्यय- एक मध्यवर्गीय परिवार में माता वह स्त्री होती है जिसका विकासात्मक कार्य होता है। वह अपने पति की सहायता से बच्चों का पालन-पोषण करती है बच्चों की दृष्टि में माता वह स्त्री है जो उनका पालन-पोषण करती है। उन्हें प्यार करती है तथा उनकी शैतानियों को सहन करती है एवं संकट के समय उनकी मदद करती है। पारिवारिक संबंधों में मनमुटाव तब पैदा होता है जब माता-पिता अपने प्रत्ययों के अनुसार कार्य नहीं करते हैं। एक मध्यवर्गीय बालक हेतु पिता वह व्यक्ति है जो बच्चों को शीघ्र समझ लेता है, बच्चों का साथी होता है, बच्चों को शिक्षा देता है, उनके विकास हेतु समय-समय पर निर्देश देता है।

(iii) बालक प्रत्यय- एक अच्छा बालक वह माना जाता है जो अपने माता-पिता या संरक्षक की आज्ञा का पालन करता है, उनका सहयोग करता है, उन्हें खुश रखता है तथा सीखने के लिए तत्पर रहता है। बच्चे अपनी भूमिका के संबंध में क्या प्रत्यय बनायेंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि बालक के प्रति संरक्षकों के क्या प्रत्यय हैं। अगर संरक्षक बालक को आश्रित समझते हैं तो बालक भी यह भूमिका सीख सकता है

(iv) रिश्तेदारों का प्रत्यय- हालांकि बालकों के जीवन पर रिश्तेदारों का बहुत कम प्रभाव पड़ता है। इसलिए रिश्तेदारों के संबंध में बच्चों में प्रत्यय अनुभवों के आधार पर बनते हैं । बच्चे अपने दादा-दादी, नाना, नानी आदि जिसके भी सम्पर्क में जितना ज्यादा आते हैं, उनके संबंध में प्रत्यय भी उतनी ही शीघ्र बनते हैं।

इसलिए समस्त प्रत्ययों का बच्चे के पारिवारिक संबंधों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, एक बच्चा स्वयं को अच्छा समझता है तथा उसके माता-पिता उसे खराब समझते हैं तो पारिवारिक संबंधों के बिगड़ने की सम्भावना बढ़ जाती है । उसी तरह अगर एक माँ अपने बच्चों के लिए बहुत कुछ करती हैं तथा बच्चे उसका तिरस्कार करते हैं तो भी पारिवारिक संबंध बिगड़ सकते हैं।

7. एक संरक्षक हेतु वरीयता- बालकों में प्रायः देखा गया है कि कभी उनके लिए उनकी माँ ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है तो कभी पिता। अगर बालक अपनी माँ को ज्यादा वरीयता देता है तो निश्चय ही वह अपने पिता को कम पसन्द करेगा। इसी तरह अगर वह अपने पिता को ज्यादा वरीयता देता है तो वह अपनी माँ को कम पसन्द करेगा। दोनों ही स्थितियों में बालक के पारिवारिक संबंधों के बिगड़ने की सम्भावना रहती है।

अध्ययनों में यह देखा गया है कि बालक अपने संरक्षक को वरीयता अग्र कारणों से देते हैं-

(i) संरक्षकों में जो संरक्षक बालक के साथ ज्यादा खेलता है बालक उसको वरीयता देता है।

(ii) संरक्षकों में से जो संरक्षक बालक के साथ ज्यादा समय व्यतीत करता है, बालक उसे ज्यादा वरीयता देता है।

(iii) संरक्षकों में से जो संरक्षक बालक का ज्यादा पक्ष लेता है बालक उसे ज्यादा वरीयता देता है।

(iv) संरक्षकों में से जो संरक्षक बालक से कम आशाएँ रखता है, बालक उसे ज्यादा वरीयता देता है।

(v) संरक्षकों में से जो संरक्षक बालक को ज्यादा स्नेह देता है, बालक उसे ज्यादा वरीयता देता है।

(vi) संरक्षकों में से जो संरक्षक बालक की ज्यादा देखभाल करता है, बालक उसे sज्यादा वरीयता देता है।

(vii) संरक्षकों में से जो संरक्षक बालक पर ज्यादा नियंत्रण रखता है, उसे ज्यादा दण्ड देता है एवं अनुशासन में रखता है, बालक उसे ज्यादा वरीयता देता है।

हालांकि बच्चों की वरीयता एक संरक्षक से दूसरे संरक्षक पर बदलती रहती है। इससे पारिवारिक संबंधों पर प्रभाव पड़ता है ।


पैतकात्मकता

अभिभावक एवं बालक का संबंध बहुत नजदीक का होता है। परिवार में विविध संबंध होते हैं, इन्हें पारिवारिक संबंध कहा जाता है। परिवार में बच्चों के साथ माता-पिता, भाई-बहनों के संबंध भी आते हैं। माता-पिता अपने नवजात शिशु की परवरिश करते हैं इससे ही संबंधों का विकास होता है। नवजात शिशु अपने अभिभावकों पर पूर्णतः आश्रित होता है, लेकिन आयु बढ़ने के साथ-साथ उसकी आश्रितता कम होती जाती है तथा प्रौढ़ावस्था तक यह आश्रितता पूर्णतया खत्म हो जाती है। बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण माता-पिता की परवरिश पर निर्भर करता है। परवरिश में माता-पिता का निर्देशन एवं अभिवृत्तियाँ प्रमुख रुप से आ जाती हैं। बालक को शैशवकाल से ही अच्छाइयों की तरफ प्रवृत्त करना ज्यादा सरल होता है। शुरु में ही स्नेहपूर्ण वातावरण में परवरिश करने पर एवं मनमुटाव तथा कलह एवं संघर्ष की स्थिति पैदा न होने देने पर पारिवारिक संबंध अच्छे बने रहते हैं। माता-पिता में अगर ज्यादा मात्रा में लड़ाई-झगड़ा होता है तो वे कितना भी प्रयास क्यों न करें उनके पुत्र तथा पुत्रियों में मधुर संबधों का निर्माण नहीं हो सकता है ।

बच्चे की परवरिश किस वातावरण में की जा रही है इसका बालक के व्यक्तित्व पर बहुत प्रभाव पड़ता है । बालकों को अतिसंरक्षित वातावरण प्रदान करने पर बालकों में उतावलापन, आश्रितता एवं एकाग्रता की कमी जैसी कुमजोरियाँ पैदा हो जाती हैं । उसी तरह अधिक छूट देने पर बच्चे नियंत्रण से बाहर चले जाते हैं। तिरस्कारपूर्ण अभिवृत्तियाँ अपनाने पर आक्रामकता, निर्दयता तथा कुसमायोजन तथा समाज विरोधी व्यवहार आदि प्रवृत्तियाँ बच्चे के व्यक्तित्व पर अपना प्रभाव डालती हैं। प्रभुत्वशाली माता-पिता कठोर अनुशासन अपनाते हैं। इस वातावरण में बालक की परवरिश करने पर बच्चों में अति संवेदनशीलता, अधिक शर्मीलापन, हीनता की भावना पैदा हो जाती है। पक्षपात करने वाले माता-पिता के बच्चों के मन में भी भावना प्रन्थियाँ पैदा हो जाती हैं। छोटे परिवारों में बच्चों की परवरिश अच्छी तरह से हो जाती है। ऐसे परिवार अपने बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हैं जबकि संयुक्त परिवारों में जिन बच्चों की परवरिश होती है उन बच्चों को कर्ता की मनमानियों का सामना करना पड़ता है। जिन बच्चों की परवरिश अनुकूल वातावरण में होती है उनमें आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान की भावना तीव्र होती है । भिन्न-भिन्न आकार के परिवारों में बच्चों की परवरिश भी भिन्न-भिन्न तरह की होती समाजशास्त्रियों के अनुसार मध्यम आकार का परिवार सर्वश्रेष्ठ होता है। ऐसे परिवार में बच्चे सीमित होते हैं। छोटे परिवारों में बच्चों की परवरिश स्वतन्त्र वातावरण में होती है। इसलिए संबंधों के उत्तम रहने की सम्भावना ज्यादा होती है। जिन परिवारों का सामाजिक, आर्थिक स्तर अच्छा होता है उन परिवारों के बच्चों को सभी जरुरी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। ऐसे बच्चों की परवरिश अच्छे माहौल में होने से उनके माता-पिता के साथ अच्छे संबंध बनते हैं। टूटे परिवारों में अधिकतर आर्थिक समानताएँ बनी रहती हैं। इस कारण इन परिवारों में बच्चों की परवरिश उतनी अच्छी तरह से नहीं होती है।

इसलिए परिवार एवं बाल संबंधों पर माता-पिता द्वारा की गई बच्चे की परवरिश भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती है।

माता-पिता का बच्चों के साथ संबंध भी वैयक्तिक पहचान प्राप्त करने में बहुत सहायता करता है । बाल्यावस्था में जिन बच्चों को उनके माता-पिता संवेगात्मक रुप से बढ़ावा देते हैं एवं खोज करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। उन बालकों में एक स्वस्थ तरह का अत्म विकसित होता है। जब वयःसंधि अवस्था में परिवार तथा बच्चों को एक सुरक्षित आधार प्रदान किया जाता है जिससे बाह्य संसार में विश्वास के साथ वे आगे बढ़ सकें तो ऐसे किशोरों के पहचान संबंधी विकास में तीव्रता आ जाती है। जो किशोर अपने माता-पिता से जुड़ा हुआ अनुभव करते हैं तथा साथ-साथ उनको अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता होती है तो इसके कारण ऐसे किशोर स्वस्थ एवं अनुकूलित तरह की पहचान का निर्माण करते हैं।

ऐसे किशोर जिन्हें अपने माता-पिता का कम स्नेह प्राप्त होता है वे अपने माता-पिता से तिरस्कृत अथवा अस्वीकृत प्रकार के होते हैं अथवा वे स्वयं अपने माता-पिता से दूरी बनाये रखते हैं, Identity Diffusion Status वाले होते हैं। ऐसे किशोरों को अपनी पहचान स्थापित करने में बहुत ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है।


बाल पोषण अभ्यास

बालक के पारिवारिक संबंध इस बात पर निर्भर करते हैं कि बालक का पालन-पोषण किस विधि से किया जा रहा है एवं बालक अपने पालन-पोषण को किस रुप में देखता है। बाल पोषण अभ्यास की मुख्य विधियाँ अनलिखित हैं-

1. प्रभुत्वपूर्ण विधि- इस विधि में अभिभावक बालक के साथ बहुत सख्तीपूर्ण व्यवहार करते हैं तथा बालक को समय-समय पर शारीरिक दण्ड भी देते हैं। इस तरह के वातावरण में पोषित बच्चों में बात न मानने की प्रवृत्ति विकसित हो सकती है जिसके कारण पारिवारिक संबंधों के बिगड़ने की ज्यादा सम्भावना होती है ।

2. प्रजातांत्रिक विधि- इस विधि में अभिभावक बालक को विविध आदतें सिखाने में ज्यादा अनुमति देने वाले अथवा छूट देने वाले होते हैं। अभिभावक उदारता का प्रदर्शन करते हैं एवं दण्ड कम देते हैं । वे बालक की योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार उसे प्रशिक्षण देते हैं। अगर बाल-पोषण विधि प्रजातान्त्रिक वातावरण से संबंधित है तो बालक में स्वतन्त्र चिन्तन, ज्यादा सृजनात्मकता, ज्यादा सहयोग जैसे लक्षण पैदा हो सकते हैं। इन लक्षणों की उपस्थिति से बालक के पारिवारिक संबंध अच्छे हो सकते हैं । इस विधि से बच्चों में अनुशासनहीता विकसित नहीं होती है।

3. अनुमतिपूर्ण विधि- इस विधि में अभिभावक बालक को उतनी ही छूट देते हैं जितना बालक चाहता है अथवा जितनी छूट से बालक खुश हो जाता है । इस विधि के अनुयायी अभिभावक यह समझते हैं कि बालक जब अपने किये गये बुरे कार्यों का परिणाम भोगता तो स्वयं ही सुधर जायेगा। एक अध्ययन में यह देखा गया है कि सिर्फ अत्यधिक शिक्षक माता-पिता ही अनुमतिपूर्ण विधि को ज्यादा अपनाते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बच्चे पर माता-पिता तथा परिवार के अन्य सभी सदस्यों का प्रभाव पड़ता है।

2. पास-पड़ौस- चार्ल्स कूले के अनुसार “पास-पडौस अत्यधिक महत्वपूर्ण समूह है जो व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित एवं निर्देशित करता है। व्यक्ति केवल अपने आदर्शों, मूल्यों । तथा विचारों का पालन नहीं करता, बल्कि उसे पूडौसियों के आदर्शों, मूल्यों तथा विचारों के साथ अनुकूलन करना पड़ता है। इस प्रकार पास-पड़ौस व्यक्ति की अनुकूलन क्षमता को बढ़ाकर उसे सामाजीकरण में योगदान देते हैं।

3. नातेदारी समूह- नातेदारी समूह में वे लोग आते हैं जो जन्म या विवाह के आधार पर हमसे सम्बन्धित हैं। अतः भाई-बहिन, जीवन-साथी, साले-साली, सास-ससुर और उनके भी दूर के सम्बन्धी हमारे सम्बन्धी हो जाते हैं। इनमें से प्रत्येक से हम एक जैसा व्यवहार नहीं करते । किसी से हंसी मजाक के संबंध हैं तो किसी से परिवार के सम्बन्ध हैं या फिर किसी से माध्यमिक सम्बन्ध हैं। इन सबके अलग-अलग सम्बन्ध प्रतिमान हैं। अत: हमें इनको सीखना पड़ता है। हम इनसे कुछ सीखते हैं।

4. मित्रों का समूह- कुछ बड़ा होने पर बालक अन्य बच्चों के साथ खेलता है। यहां भी कुछ यही बातें सीखता है और आदतें डालता है । वह विभिन्न संस्कृतियों और नियन्त्रणों में पले बच्चों के साथ रहकर समाज से अनुकूलन करना सीखता है। चूंकि एक ही आयु समूह के बच्चे एक ही ढंग से क्रियायें और प्रतिक्रियाएं करते हैं, इसलिए आदतों के बनने में दूसरा महत्वपूर्ण प्रभाव इन सभी साथियों का होता है ।

मित्रों के समूह में पहुंचने पर बच्चे का सम्पर्क विभिन्न आदर्शों, रूचियों और स्वभाव के अन्य साथियों से होता है। इस प्रकार बच्चा दूसरे स्वभाव के बच्चों से अनुकूलन एवं समायोजन करना सीखता है। अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण एवं दमन करना सीखता है। भिन्न समूह में ही बच्चा आज्ञापालन एवं अनुशासन सीखता है ।

5. विवाह- विवाह यों तो नातेदारी सम्बन्धों का ही प्रकार है, लेकिन इसका अन्य सम्बन्धों में विशिष्ट स्थान है। अन्य सम्बन्ध जीवन को इतना अधिक प्रभावित नहीं करते जितना कि वैवाहिक सम्बन्ध । विवाह से पूर्व पति तथा पत्नी दोनों के अपने अलग मूल्य तथा आदर्श हो सकते हैं, परन्तु विवाह पश्चात् दोनों को एक दूसरे के साथ सामंजस्य एवं अनुकूलन करना पड़ता है । यह अनुकूलन जितना सफल एवं प्रभावशाली होता है, उन दोनों का वैवाहिक जीवन भी उतना ही सफल होता है। इनके अतिरिक्त विवाह व्यक्ति में उत्तरदायित्व, कर्त्तव्य एवं त्याग की भावना को बढ़ावा देता है यह सभी दशायें सामाजीकरण में सहायक होती हैं।


द्वैतियक समूह

आधुनिक समाज में द्वैतियक समूहों के विकास के सामाजीकरण के साधनों में निरन्तर वृद्धि हो रही है। प्रत्येक द्वैतियक समूह का निर्माण कुछ न कुछ उद्देश्यों को लेकर होता है और एक विशेष प्रकार की शिक्षा प्रदान करता है। संक्षेप में, हम कुछ प्रमुख द्वैतियक समूहों का उल्लेख करेंगे:

1. आर्थिक संस्थाएं- आर्थिक संस्थाएं हमारे जीवनयापन की दिशा का निर्धारण करती हैं। समाज में विद्यमान आर्थिक संस्थाएं व्यक्ति के व्यवहारों, आदर्शों एवं मूल्यों को प्रभावित करती हैं। उदाहरणार्थ पूंजावादी अर्थव्यवस्था व्यक्तियों में व्यक्तिवादिता एवं तीव्र प्रतिस्पर्धा की भावना को प्रेरित करती है, जबकि समाजवादी अर्थ व्यवस्था पारस्परिक सहयोग तथा समष्टिवादी प्रवृत्तियों के विकास में सहायक होती है। अर्थ व्यवस्थाओं के अतिरिक्त व्यवसाय भी व्यक्तियों में विशिष्ट प्रकार के व्यवहार प्रतिमानों तथा प्रवृत्तियों को विकसित करने में सहायक होते हैं, प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी व्यवसाय को अपनाता है और प्रत्येक व्यवसाय के कुछ आदर्श व्यवहार प्रतिमान होते हैं, जिनको अपनाने का प्रयास उन व्यवसायों से सम्बन्धित प्रत्येक व्यक्ति करता है।

2. धार्मिक संस्थाएं- धर्म सामाजीकरण की एक महत्वपूर्ण संस्था है। धर्म के कारण व्यक्ति का सामाजिक व्यवहार सन्तुलित होता है। धार्मिक संस्थाएं हमें ईश्वर के बोध से अवगत कराती हैं, हमारे विश्वासों को दृढ़ करना सिखाती हैं। सामाजीकरण में धार्मिक संस्थाओं के महत्व को स्पष्ट करते हुए मैलिनोवस्की ने लिखा है, संसार में मनुष्यों का कोई भी समूह धर्म के बिना नहीं रह सकता चाहे वह कितना ही जंगली क्यों न हो।’ धार्मिक संस्थाएं व्यक्ति में आदर्श, नैतिकता, सच्चरित्रता तथा सहनशीलता जैसे आदर्श गुणों का विकास करके उसे प्रत्येक परिस्थिति में अनुकूलन करने के लिए तैयार करती हैं

3. शैक्षणिक संस्थाएं- शिक्षण संस्थाओं में स्कूल, महाविद्यालय व विश्वविद्यालय प्रमुख हैं। शिक्षण संस्थाओं में ही मित्र समूह बनते हैं। स्कूल का वास्तविक प्रभाव बालक पर किशोरावस्था में प्रवेश करने के बाद प्रारम्भ होता है। इस समय में बच्चे में नवीन विचारों का प्रादुर्भाव होने लगता है और स्कूल में उसे पुस्तकों के अध्ययन से सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त होता में बालक विभिन्न धर्मों, जातियों, वर्गों तथा संस्कृतियों के बच्चों के सम्पर्क में आता है, जिससे उसके दृष्टिकोण का विस्तार होता है।

4. राजनैतिक संस्थाएं- आधुनिक जटिल समाजों के सामाजीकरण में राजनैतिक संस्थाएं अत्यधिक महत्वपूर्ण होती हैं। राजनैतिक संस्थाएं हमें राजनैतिक ढांचे व समाज दर्शन को समझाने में सहायक होती हैं। विधानसभा, सरकार और राजनैतिक दल हमें सम सामयिक गतिविधियों और समाज की दिशा को समझाते हैं। ये संस्थाएं व्यक्ति को शासन, कानून तथा अनुशासन से परिचित कराती हैं और व्यक्ति को अधिकार व कर्त्तव्य का ज्ञान कराकर उसका मार्ग प्रदर्शित करती हैं।

5. जाति तथा वर्ग- जाति तथा वर्ग बालक के सामाजीकरण में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करते हैं। प्रत्येक जाति व वर्ग अपने सदस्यों पर खान-पान, रहन-सहन तथा सामाजिक सहवास के सम्बन्ध में अनेक नियमों को प्रत्यारोपित करते हैं। उन नियमों का पालन करना व्यक्ति के लिए अनिवार्य होता है, क्योंकि इनकी अवहेलना करने पर व्यक्ति को सामाजिक तिरस्कार एवं अपमान सहना पड़ता है। इसी प्रकार प्रत्येक वर्ग का रहन-सहन का अपना विशिष्ट स्तर होता है। व्यक्ति समाज में अपने आदर एवं सम्मान को बनाये रखने के लिये उन व्यवहार के तरीकों एवं रहन-सहन को अपने वर्ग के अनुरूप ही रखता है।

6. सांस्कृतिक संस्थाएं- सांस्कृतिक संस्थाएं व्यक्ति को उसकी संस्कृति से परिचित कराती हैं, जिससे व्यक्ति उनसे अनुकूलन करके अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है ।

7. व्यवसाय समूह- जहां व्यक्ति व्यवसाय करता है, वहां भी उसका सामाजीकरण होता है । दफ्तर या फैक्ट्री में व्यक्ति अपने से छोटों, अपने से बड़ों और अपने से बराबर वालों से व्यवहार करना सीखता है।

उक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि बालक के सामाजीकरण में प्रत्येक साधन का अपना-अपना विशेष महत्व है। सामाजीकरण की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है। किंग्सले डेविस ने लिखा है, “आधुनिक समाज को अभी भी सामाजीकरण की मूलभूत समस्याओं का समाधान बचपन एवं यौवन के प्रत्येक स्तर पर करना है। निश्चित ही यह नहीं कहा जा सकता कि कोई भी समाज व्यक्ति के सामर्थ्य का पूरा उपयोग करता है। सामाजीकरण की उन्नति मानव प्रकृति तथा मानव समाज के भावी परिवर्तनों की अधिकाधिक सम्भावना प्रस्तुत करती है।’

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