इन कलाओं की विभिन्न विधियों के द्वारा प्रयोग तथा अन्वेषण का वर्णन कीजिए- (i) चित्रकला, (ii) ब्लॉक पेंटिंग, (iii) कोलाज, (iv) मिट्टी के प्रतिरूप बनाना, (v) कागज काटना एवं मोड़ना।

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(i) चित्रकला :

किसी समतल धरातल जैसे दीवार लकड़ी के तख्तेकागजकैनवास आदि पर रंगों और रेखाओं की सहायता से लम्बाईचौड़ाईगोलायी और ऊंचाई को अंकित कर किसी रूप का आभास कराना चित्रकला है। मनुष्य जब अपने हृदय की भावनाओं को रेखा-रंग के द्वारा प्रकट कर उसमें सौंदर्य लाता है तो उसे चित्रकला कहते हैं।

चित्रकला के अंग होते हैं –

1. रूपभेद (दृष्टि का ज्ञान);

2. प्रमाण (ठीक अनुपातनाप और बनावट);

3. भाव (आकृतियों में दर्शक को चित्रकार के मन की भावना दिखाई दे)

4. लावण्य योजना-(कलात्मकता तथा सौंदर्य का समावेश);

5. सादृश्य (देखे हुए रूपों के समान आकृति);

6. वर्णिका भंग (रंगों तथा तूलिका के प्रयोग में कलात्मकता)।

चित्रकला के मुख्यतः ये तीन भाग हैं –

(1) वस्तु चित्र- इसमें व्यक्ति वस्तु के रूप आकार को तथा वह क्या कर रहा है इसे रेखाओं-रंगों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है ।

(2) चित्र संयोजक- इसमें विषय की प्रधानता होती है जैसे श्रृंगारपनघटमित्रता ।

(3) दृश्य चित्रण- प्रकृति के दृश्यों को पृष्ठभूमि के साथ (जैसे भूमिपहाड़पेड़.मकानजंगल) आदि के साथ चित्रित व रंजित किया जाता है।

चित्रकला में रेखाओं व आकृतियों के साथ रंग नियोजन का भी महत्त्व है। ये रंग नियोजन एकवर्गीयद्विवर्गीय तथा बहुवर्गीय रंग नियोजन हो सकते हैं। चित्रकला सीखने का प्रथम चरण कुलम/तूलिका साधना तथा रेखाएं खींचना है। द्वितीय चरण आकृति का रेखाओं द्वारा निर्माण है जिसमें अनुपात व सौंदर्य का ध्यान रखा जाता है। रंग संयोजन अंतिम चरण है।

(ii) ब्लॉक पेंटिंग :

15वीं शताब्दी तक यूरोप में ठप्पा छपाई का प्रचलन थाधीरे-धीरे उतार आया । चित्रकारों को चित्रकारी करने की अपेक्षा छापना अधिक सरल लगता था। इसलिए उन्होंने ठप्पों की खोज की क्योंकि इसकी बाह्य रेखाएं अधिकतर काली होती हैं । जिस स्थान पर रंग लगाना हैउस स्थान को छोड़कर बाकी स्थान पर गर्म पिघला मोम लगा दिया जाता है । मोम का लेप ठंडा होने पर कपड़े को रंग के घोल में डुबो देना चाहिए । मोम लगे स्थान पर रंग नहीं चढ़ताजब रंग ठंडा हो जाता है तो गरम पानी के घोल में उसे डाल दिया जाता है ताकि मोम निकल जाए। बाद में मलीठ पौधे के घोल में डाला जाता है ताकि लाल रंग और भी पक्का हो जाए।

छपाई उद्योग में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों में सबसे महत्त्वपूर्ण उपकरण है ठप्पा । इसे भांत भी कहा जाता है। ये लकड़ी तथा धातु के बने होते हैं । ठप्पे बनाने का कार्य मुख्य रूप से जयपुरपीठापुरचित्तौड़गढ़फर्रुखाबाद और आजमगढ़ में होता है । ठप्पे बनाने के लिए कई प्रकार की लकड़ियों का प्रयोग होता है । शीशमसागवानरोयड़ा और अरण्डू की लकड़ी मुख्य है। शीशम की लकड़ी ठोस होने के कारण गहरी खुदाई करने में कठिनाई होती है किन्तु ठोस होने के कारण इसका बना ठप्पा अधिक समय तक प्रयोग होता है। यह राजस्थान और उत्तर प्रदेश में पाई जाती है । इस लकड़ी का ठप्पा अधिकतर रेखा छपाई के काम में लिया जाता है दूसरे ठप्पों की अपेक्षा यह ज्यादा महँगा होता है ।

इसी प्रकार गुरुजन की लकड़ी सवाई माधोपुर (राजस्थान) के जंगलों से प्राप्त होती है । यह गहरी खुदाई के लिए उपयुक्त होती है क्योंकि यह लकड़ी मुलायम होती है। खुदाई करने से पूर्व लकड़ी को पूर्णतया (चार साल) सुखाया जाता है । इसका बना ठप्पा विशेष रूप से रेखा या बहुत घुमावदार भांत की छपाई के काम में आता है।

शीशम की लकड़ी के बने ठप्पे से अलिजराइन का कार्य करते समय एक असुविधा होती है कि इन ठप्पों पर बहुत जल्दी ही रंग की पर्त जम जाती है और अगर काम करते-करते कुछ समय रुकना पड़ता है तो यह पर्त आगे छपाई करने पर रेखा को माटा बना देती है और पूर्णतया रंग नहीं चढ़ पाता है । इसे ठीक करने के लिए ठप्पे को फिर से किसी गीले कपड़े या पानी से साफ करने के बाद छपाई शुरू की जाती है लेकिन गुरजन की लकड़ी पर ऐसी पर्त नहीं बनती है और न ही किसी प्रकार की असुविधा होती है । शीशम की लकड़ी से बने ठप्पे रासायनिक होते हैं तथा बाद में कुछ मोटी भांत के ठप्पों में आर-पार छेद निकाल देते हैंजिसके कारण छपाई करते समय बुलबुले न हों। गद के छापे में या जहाँ ज्यादातर मात्रा में खाली स्थान होवहाँ गाढ़ा कपड़ा या नम्दा चिपकाया जाता है जिसके कारण रंग भांत के सभी भागों में बराबर लग जाता है और छपाई समान रूप से हो जाती है । ठप्पों के नामजैसे-रेखचिराईगदडट्टाहाशियाबूटीबूटापारचा बेलजालगोला आदि होते हैं। इनमें रंगों के आधार पर ठप्पे बनाए जाते हैं। एक भांत में जितने रंग का प्रयोग होता है उतने ही ठप्पे बनाए जाते हैं।

सागवान की लकड़ी विशेष रूप से अच्छी तरह सुखाई गईठप्पा बनाने के लिए उपयुक्त मानी जाती है। इस पर भी रासायनिक रंगों तथा कास्टिक का तीव्र प्रभाव नहीं पड़ता है किन्तु अधिक समय पानी में रहने पर यह खराब हो जाती है । ठप्पे की कीमत उसके भांत के आधार पर निर्भर करती है। इन स्थानों के बने ठप्पे अन्य छपाई केन्द्रों में भी बेचे जाते हैं।

ठप्पे बनाना- ठप्पे अनेक तरह के होते हैं जिनमें से कुछ स्थाई तथा कुछ अस्थाई होते है।

स्थाई ठप्पे- विभिन्न धातुओं (पीतललोहेआदि) तथा लकड़ी के द्वारा तैयार किए जाते हैं। इन धातुओं पर मीनाकारी की तरह गुदाई करके डिजाइन बनाई जाती है फिर उस डिजाइन को काटकर उभारा जाता है फिर लकड़ी पर छपाई की जाती है।

(2) अस्थाई ठप्पे- आलूभिण्डीसेब तथा अन्य फलों पर डिजाइन या शब्द लिखकर छपाई का कार्य किया जाता है। इसी तरह टाट को भी विभिन्न आकारों में काटकर भी छपाई का कार्य किया जाता है।

(iii) कोलाज :

“विभिन्न अनुपयोगी वस्तुओं या कागज को गोंदफैवीकॉल तथा अन्य चिपकाने योग्य पदार्थ से कोई कलात्मक आकार या रुप प्रदान करना ही कोलाज है।” इसके अन्तर्गत सभी के कागजकपड़ेतीलियाँमाचिससिगरेट की डिब्बियाँटूटे हुए विभिन्न काँचमिट्टी की वस्तुएँ तथा अन्य अनुपयोगी वस्तुएँ आती हैं । इन सभी को गोंद,फैवीकाल अथवा अन्य चिपकाने योग्य पदार्थ से चिपकाकरलगाकरउभारकर अपनी इच्छानुसार अन्तराल में इस प्रकार संयोजित किया जाये कि किसी भी प्रकार के कलात्मक रुप की अभिव्यक्ति हो सके । इसे ही कोलाज का नाम दिया गया है । यह आधुनिक काल की एक प्रचलित शैली है।

कोलाज को निम्नलिखित दो रुपों में स्पष्ट किया जा सकता है –

1. पेपर कोलाज- सभी प्रकार के रंगीन एवं सादे कागज के द्वारा पेपर कोलाज बनाया जाता है। कागजों को लेही तथा गोंद से चिपकाकर कलात्मक रुप प्रदान किया जाता है। इस प्रकार के कलात्मक रुपों के लिये पूर्व में विचार कर हम कोई भी डिजाइन (आलेखन) मानवाकृतिपशु-पक्षीप्रकृति आदि को कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों द्वारा बना सकते हैं। दूसरे प्रकार के पेपर कोलाज के लिये बड़े-बड़े आकार के कागजों को चिपकाकर कोई भी आधुनिक कला का रुप भी सृजित किया जा सकता है। इसमें संयोजन की बहुत अधिक सम्भावनाएँ हैं।

2. मिश्रित कोलाज- मिश्रित कोलाज में हम कागजों के साथ अन्य उपयोगी वस्तुएँ मिलाकरचिपकाकर एवं जोड़कर विभिन्न अनुपयोगी वस्तुओं को कलात्मक रुप प्रदान कर सकते हैं। लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों को रंगकरजलाकर अन्य वस्तुएँजैसे- शीशाचीनी-मिट्टी के टुकड़े तथा शीशी के ढक्कनों को इस प्रकार संयोजित करना कि कोई विशेष रुप का सृजन हो सके वह मिश्रित कोलाज के अन्तर्गत आता है। इसमें विभिन्न प्रकार की प्लास्टिक वस्तुएँ और मोमजामा के थैले तथा धागे आदि को भी जलाकरभिगोकर चिपकाया अथवा जोड़ा जा सकता है। इनमें भी संयोजन की बहुत सम्भावनाएँ हैं। कोलाज कई प्रकार से बनाये जा सकते हैं। यह निम्नलिखित हैं –

(1) कागजों द्वारा (रंगीनसादे कागज)।

(2) धागे और कपड़ों द्वारा ।

(3) विभिन्न प्रकार के शीशेचीनी-मिट्टी के टुकड़ों द्वारा ।

(4) विभिन्न लकड़ी के टुकड़ों द्वारा ।

(5) बाजार में उपलब्ध सजावट की सामग्री द्वारा

(6) लकड़ी को जलाकर ।

(7) प्लास्टिक की थैलियों द्वारा तथा

(8) विभिन्न प्रकार के अनाज के दानों को लगाकर (चिपकाकर) कोलाज बनाना ।

(iv) मिट्टी के मॉडल (प्रतिरूप) :

मृण शिल्प का निर्माण भारत में प्राचीन काल से होता आ रहा है । इनका समय-समय पर रूप बदलता रहा है। सभ्यता के विकास के साथ मृणशिल्प का निर्माण भी पर्याप्त मात्रा में होता रहा। कलाकार मिट्टी के माध्यम से अपने मनोभावों को प्रकट कर वास्तविक रूप देता है मृणशिल्प निर्माण के लिए चिकनी मिट्टी जैसी साधारण सामग्री के साथ रूलरहथौड़ाकैंची और आरी जैसे साधारण औजार आवश्यक हैं। इनमें रंगों का भी प्रयोग किया जाना चाहिए।

उपरोक्त सामग्री द्वारा इनसे दैनिक उपयोग के काम में आने वाली वस्तुएं मानवाकृति और दैवीय आकृतियाँ इत्यादि बनाए जा सकते हैं।

मिट्टी प्रतिरूप की आवश्यकता – विद्यालय स्तर पर बालकों में रुचि व सृजनशीलता रखने के लिए और उसे विकासशील बनाए रखने के लिए मृणशिल्प कला की अति आवश्यकता है। इसमें बुद्धिमान एवं कमजोर (पिछड़े हुए) दोनों ही प्रकार के छात्रों के लिए चिकनी मिट्टी से प्रतिरूप बनाने से बालक अपनी अभिव्यक्ति की शक्तियों और शारीरिक योग्यताओक्षमताओं का विकास करते हैं –

1. मिट्टी से प्रतिरूप बनाना छात्रों में आंतरिक क्षमताओं को मूर्त रूप से अभिव्यक्त करने वाला होता है।

2. संवेदना से क्षुब्ध ग्रसित बालकों को कार्य में लगाने के लिए यह एक आदर्श माध्यम है।

3. मृणशिल्प से छात्रों में कला के प्रति रुचि उत्पन्न होती है।

4. मृणशिल्प प्रतिरूप बनाने में छात्र में रुचिशील व सृजनशील गुणों का विकास होता है।

5. मिट्टी के प्रतिरूप बनाते समय बालक अपने मनोभावों को वास्तविक रूप देता

6. इसके द्वारा छात्रों में सौन्दर्यानुभूति में वृद्धि होती है।

7. खाली समय में मिट्टी के प्रतिरूप बनाने में समय का सदुपयोग कर हाथों में कुशलता और दक्षता का विकास करता है।

मिट्टी तैयार करने की विधि – मृणशिल्प बनाने के लिए तालाब या पोखर के किनारे की मिट्टी उपयुक्त रहती है । उसको अच्छी तरह से कूटकर छान लिया जाता है। इसके पश्चात् मिट्टी के बीच घेरा बनाकर उसमें पानी डाल दिया जाता है। अच्छी तरह से गल जाने पर उसे आटे की तरह सख्त गूंथ लिया जाता है । इस प्रकार से यह मिट्टी मृणशिल्प बनाने के लिए तैयार हो जाती है। मिट्टी तैयार हो जाने पर उसे सांचों में डालकर विविध रूपकारों की रचना कर इनमें सौन्दर्य परिपूर्ण नक्काशी की जाती है।

(v) कागज काटना और मोड़ना  :

कागज शिल्प से आशय कागज के माध्यम से शिल्पाकृति बनाना है। कागज शिल्प के द्वारा बालक सहज ढंग से आकृति निर्माण करसीखने की ओर अभिप्रेरित होते हैं। कागज शिल्प में मुख्यतः कागज काटनाचिपकाना तथा उस पर पेंटिंग कर आकर्षक स्वरूप प्रदान करना शामिल है ।

इसके लिए आवश्यक सामग्री-रंगीन कागजपुराने अखबार,प्लास्टिक पेपर,बांस पेपरसाधारण अबरी पेपर वेलवेट पेपर आदि हो सकते हैं।

कागज शिल्प का महत्त्व – कागज शिल्प का शिक्षा को रुचिकर बनाने में विशेष महत्त्व हे । इससे बालक कुशल हस्तकला एवं ज्ञानइन्द्रियों के समन्वय रूप में कार्य करने की दक्षता में वृद्धि होती है।

कागज साधारण रूप से बालकों को सुगमता से सुलभ हो जाते हैं इसलिए बालक शिल्प को बार-बार उन पर अभ्यास कर एक कुशल शिल्पकार बन जाते हैं। कागज शिल्प से परिचित हो जाने पर छात्र एवं छात्राएं विद्यालय एवं घर को सजाने में संवारने में विभिन्न– पोस्टरकैलेण्डर आकर्षक चार्ट इत्यादि तैयार कर सजावट कर सकते हैं। तीज त्यौहारोंराष्ट्रीय पर्वो पर अपने घरविद्यालयों एवं सामुदायिक भवन पर बेल-बूटेकागज के फूल आदि शिल्पाकृति बनाकर सजावट कर सकते हैं ।

कागज मोड़करकाटकर शिल्पाकृति बनाने के लिए रंगीन कागजों का प्रयोग होता है। इसके लिए सबसे पहले आयताकार लम्बे कागज को बेलनाकार में मोड़ेंगे। इसके बाद कागज के आधे से अधिक भाग को पत्ते के आकार में काटेंगे व धीरे-धीरे घुमाते हुए बाहर की ओर उभारेंगे। यदि उसे इसी प्रकार रखा जाए तो पेड़ की आकृति होगी और यदि दबा दिया जाए तब फूल की आकृति होगी। इसी प्रकार अन्य आकृति जैसे चिनार का वृक्षकमल का फूलगुलाब का फूलसीढ़ी आदि बना सकते हैं।


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