एक छात्राध्यापक के रूप में अभिनय एवं प्रस्तुति हेतु आप एक मंच की स्थापना की योजना कैसे बनाएंगे, विवरण दीजिए। 

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शिक्षक संस्था के किसी सांस्कृतिक तथा वार्षिकोत्सव पर या कार्यशाला में विद्यार्थी द्वारा प्रदर्शन पर प्रस्तुति की तैयारी के लिये मंचीय योजनाव्यवस्थावेशभूषारूपरेखामेकअप और प्रकाश व्यवस्था करने की प्रक्रिया को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।

(1) दरवाजे को सजाना- विद्यालय के मुख्य द्वार पर विद्यालय का नाम सुन्दर अक्षरों में लिखा होना चाहिए। मुख्य दरवाजे से मंचीय स्थल तक एवं प्रधानाचार्य कक्ष तक लाल मिट्टी (बजरीनुमा या बारीक पत्थर जाली) डालनी चाहिए। उसके दोनों ओर गमलों में लगाये हुए पौधे रखे जाने चाहिये । विद्यालय के भवनों की सफेदी एवं दरवाजेखिड़कियों आदि पर अच्छा रंग कर देना चाहिये । विद्यालय के मुख्य द्वार तथा उत्सव स्थल पर वस्त्र पर उत्सव का नाम आदि लिखकर लगा देना चाहिये । इसके साथ ही छोटी-छोटी झुण्डियों तथा रंगीन कागजों को फर्रियों से द्वार को सजाया जाता है। पत्तियों की बन्दनवार भी बाँधी जा सकती है

(2) मंच-सज्जा करना- विद्यालय में प्रत्येक उत्सव पर मंच को साज-सज्जा (सजावट) मुख्य कार्य होता है । मंच के ऊपर शामियाना लगा दिया जाता है। उसके नीचे मजबूत कड़े तख्ते लगाकर उसको रस्सी से बाँध देना चाहिये। उसके ऊपर दरी बिछा देनी चाहिये । दरियों के ऊपर सफेद चादर बिछानी चाहिये । मंच पर उत्सव से सम्बन्धित लिखा हुआ वस्त्र लगाना चाहिये । मंच के सामने मुख्य अतिथिअध्यक्ष तथा प्रधानाचार्य आदि के लिये अच्छी कुर्सियाँदरियाँ अथवा सोफे और अन्य अतिथियों एवं छात्रों के बैठने की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिये। मंच पर प्रकाशमाइक (ध्वनि विस्तारक) एवं जलपान की समुचित. व्यवस्था होनी चाहिये। मंच पर अल्पना‘ अथवा रंगोली‘ बनायी गयी हो तो यह सुन्दर एवं शुभ दिखायी देती है। मंच के नीचे एवं पार्श्व (साइड में) सुन्दर पौधों के गमले भी रखने चाहिये।

जिस प्रकार हम अपने घर में अपने बैठक के कक्षशयन कक्षरसोई आदि को उसमें काम आने वाले विभिन्न फर्नीचर एवं संसाधनों से सुसज्जित करते हैंउसी प्रकार जिस मंच पर नाटक खेला जाता हैउसे नाटक की आवश्यकतानुसार दृश्य-बन्धों के द्वारा सज्जित किया जाता है। इसे मंच सज्जा कहते हैं। जिस प्रकार एक वास्तु शिल्पकार और आन्तरिक सज्जाकार (आर्किटेक्ट तथा इन्टीरियर डेकोरेटर) भवन के बाह्य स्वरूप एवं आन्तरिक सज्जा की योजना तैयार करते हैं उसी प्रकार मंच सज्जाकार (स्टेज डिजाइनर) नाटक के उद्देश्योंदृश्यों की माँग आदि को ध्यान में रखकर मंच सज्जा की योजना तैयार कर मंच निर्माण करते हैं । मंच सज्जा के माध्यम से नाटक की माँग के अनुरूप नाट्य पर्यावरण तथा अभिनय हेतु वातावरण तैयार होता है। नाटक की मंच सज्जा ही नाटक के प्रधान मूल्यों को उभारती है तथा नाटक के मूल भाव को स्पष्ट रूप प्रदान करती है। नाटक के विभिन्न पात्र मंच-सज्जा के भीतर ही अपनी क्रियाएं करते हैं। अच्छी एवं प्रभावी मंच सज्जा अभिनेता को सक्रिय एवं प्रभावी मंचीय क्रियाओं हेतु सहयोग प्रदान करती है । नाटक में जैसे दृश्य-बन्ध होंगे उसी अनुरूप मंच की सज्जा की जायेगी। यदि कार्य व्यापार बैठक के कमरे में चल रहा है तो उसकी माँग के अनुरूप फर्नीचर और अन्य आन्तरिक सज्जा की सामग्री का उपयोग किया जाएगा। यदि मंच पर दृश्य बस स्टॉप काबगीचे काझील के किनारे काखेल के मैदान का अथवा अन्य कहीं का है तो दृश्य के अनुरूप मंच सज्जा की जायेगी।

(3) बिजली की झालर तैयार करना- बिजली की झालर से भी विद्यालय के विभिन्न उत्सवों पर अच्छी सजावट की जाती है । ये झालर छात्रों के सहयोग से ही तैयार की जा सकती है। इसके लिए बिजली के तार एवं विविध रंगों के बल्ब अथवा मास्टर बल्ब भी लगा देते हैंजिससे कि कुछ समय बल्ब जले और बन्द होकर पुनः अपने आप ही जल जाये । इस प्रकार जलना एवं बुझना अनवरत चलता रहे तो सुन्दर प्रतीत होता है ।

(4) प्रकाश व्यवस्था एवं उसका प्रभाव- मंचीय प्रकाश के दो मुख्य कार्य होते हैं-पहला दृश्यता उत्पन्न करना अर्थात् मंच को सन्तुलित रूप में इस प्रकार से प्रकाशित करना कि मंच पर प्रदर्शित प्रत्येक वस्तु प्रेक्षागृह में दूर तक बैठे दर्शकों को बिना किसी कठिनाई के स्पष्ट दिखाईदे । दूसरानाटक हेतु वातावरण एवं भावावस्था (मूड) का निर्माण करना । प्रकाश का आज के रंगमंच पर अत्यधिक प्रभाव है । समुचित प्रकाश के प्रभाव से किसी भी नाटक को प्रभावी बना सकते हैं या फिर उसके प्रभाव को नीचे भी गिरा सकते हैं। नाटक के भाव एवं केन्द्रीय विचारपात्रों की विभिन्न भावावस्थानाटक की अभिव्यंजना अथवा मंचीय वातावरण के निर्माण में प्रकाश प्रभाव की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । प्रकाश प्रभाव के माध्यम से ही विभिन्न समय जैसे-उषा काल,प्रात:कालदोपहरसांयकाल अथवा रात्रि का आभास दिया जा सकता है । प्रकाश के विभिन्न स्रोतों जैसे-सूर्यचाँददीपकअग्नि आदि का प्रभाव तथा विभिन्न प्रकार की मौसमी अवस्था जैसे तेज धूपमेघाच्छादित वातावरणतूफानआंधी आदि के प्रभाव भी दर्शाये जा सकते हैं। इसी प्रकार वर्ष के विभिन्न काल जैसे-वर्षा कालग्रीष्म ऋतुशीत ऋतु तथा बसन्त ऋतु आदि को विभिन्न घटते-बढ़ते प्रकाश के माध्यम से प्रदर्शित करना आदि प्रकाश प्रभाव के द्वारा सम्भव हैं। बिजली का कड़कनाइन्द्र धनुष का बननाबाढ़ का आनाआग लगनाबर्फ का तूफान आदि के प्रभाव भी हम रंगमंच पर प्रकाश के माध्यम से प्रदर्शित कर सकते हैं। प्रकाश व्यवस्था नाटक की भावावस्थामूल विचार शैली तथा वातावरण को अभिव्यक्त करने वाली होनी चाहिए । प्रकाश की चमक एवं मध्यमताविभिन्न प्रकार के रंगों का उपयोग तथा प्रकाश का मंच पर वितरण आदि के द्वारा मंच पर मनचाहे प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। सामान्यतः चमकीले एवं गर्म रंग प्रसन्नता एवं उल्लास को प्रदर्शित करते हैंजबकि ठण्डे रंग तथा प्रकाश की न्यून मात्रामलिन. धुंधलता तथा निराशायुक्त वातावरण सृजित करता है इस प्रकार प्रकाश प्रभावनाटक के मूल भाव तथा शैली को सुस्पष्ट रूप से प्रदर्शित करने में सहयोग करता है । आधुनिक नाट्य मंचनों में प्रकाश प्रभाव का अत्यधिक प्रयोग किया जाता है।

(5) संगीत एवं ध्वनि प्रभाव- नाटक में ध्वनि प्रभाव का उपयोग दर्शक के संवेगों एवं भावात्मक क्रियाओं को उभारने के लिए किया जाता है । यह एक प्रभावी माध्यम भी है। सामान्य ध्वनि प्रभाव जो कि वास्तविक वातावरण के निर्माण हेतु आवश्यक हैजैसे-चिड़ियों का चहचहानाटेलीफोन की घंटी का बजनाहवा के चलने की आवाज तथा बर्तनों के खड़खड़ाने की आवाज आदि को अतिरिक्त विशिष्ट रूप से भावों की उत्पत्ति एवं वातावरण बनाने के लिए प्रारम्भिक रूप से तैयार किया जाता हैजैसे- -तूफान आनाशुद्ध होनाभूकम्प आनाहवाई जहाज का गिरनाविस्फोट होना तथा इससे उत्पन्न अफरा-तफरी का वातावरण हम विभिन्न प्रकार के ध्वनि प्रभाव के द्वारा उत्पन्न कर सकते हैं । यदि पूर्व में रिकॉर्ड किये गये संगीत से पृष्ठभूमि संगीत प्रभाव दिया जाता है तो वह भी ध्वनि के प्रभाव के अन्तर्गत आता है । किसी भी प्रकार का ध्वनि प्रभाव होउसके दो मूल कार्य होते हैं । पहला भावों की उत्पत्ति करना और दूसरा इससे उस नाटक की नाट्य प्रस्तुति शैली का निर्धारण होता है । यह ध्वनि प्रभाव प्रदर्शन में भी सहयोग करती है। ध्वनि प्रभाव का उपयोग करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ध्वनि का प्रभाव इतना तीव्र न हो कि जिससे अभिनयकर्ता को व्यवधान होध्वनि प्रभाव सन्तुलित एवं आवश्यकता अनुसार पात्र-चरित्र एवं स्थिति को देखकर देना चाहिये। ध्वनि प्रभाव को धीरे-धीरे बढ़ाना एवं घटाना चाहिये। ध्वनि प्रभाव अभिनयकर्ता के अभिनय एवं संवाद को जोड़ने वाली कड़ी है। अतः इसका प्रयोग समुचित रूप से अवश्य करना चाहिये । सामान्यत: कथानक को आगे बढ़ाने के लिये संगीत-गायन को भी माध्यम के रूप में उपयोग किया जा सकता है,जो घटनाक्रमसमय और पृष्ठभूमि को भी स्पष्ट (अभिव्यक्त) करने में सक्षम होता है।

(6) मुखौटे- नाट्य मंचन में मुखौटों की भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। किसी विशेष पात्र की भूमिका को अभिनीत करने के लिये इस पात्र के मुखौटे का अभिनयकर्ता द्वारा प्रयोग किया जाता है ताकि नाटक में सजीवता झलक सके। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में रामलीला और रासलीला जैसे नाट्य मंचों में रावणहनुमानसुग्रीव एवं दानव के अभिनय के लिये मुखौटे. प्रयुक्त किये जाते हैंजिनसे नाटक और भी अधिक आकर्षक हो जाता है। इसी प्रकार अन्य अभिनयों में भी पात्रों के अनुसार मुखौटे लगाकर नाट्य मंचन को सजीव और रोचक बनाया ।

(7) वेशभूषा- वेशभूषा नाट्य मंचन का एक महत्त्वपूर्ण भाग है । नाटक में अभिनय करने वालों को वेशभूषा के आधार पर ही पहचान लिया जाता है कि वे किस पात्र का अभिनय कर रहे हैंविभिन्न नाटकों के पात्रों के अनुकूल वेशभूषा का प्रयोग किया जाता है । बहुत-सी वेशभूषाएं अपने रंगों और बनावट में अत्यन्त सुन्दर लगती हैंजिससे नाटक में रोचकता आती हैं और दर्शक भरपूर आनन्द लेते हैं।

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