कला एवं सौंदर्यशास्त्र के संप्रत्यय को स्पष्ट कीजिए। इनके माध्यमिक स्तर में शिक्षण के महत्त्व को बताइए।

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कला : संप्रत्यय

वर्तमान समय में कला का क्षेत्र व्यापक हो गया है क्योंकि इसमें जीवन के सभी तरह के अनुभवों को शामिल कर लिया गया है । इस विचार ने कला की भूमिका से संबंधित प्राचीन दृष्टिकोण को बदल दिया है। आज कला सिर्फ पेंटिंगशिल्पमूर्तिकला अथवा.भवन निर्माण से संबंधित विचार ही नहीं है बल्कि सभी तरह के अनुभवों को समझने तथा मापने का एक तरीका हैजिसमें हमारे दिन-प्रतिदिन के अनुभव भी शामिल होते हैं । इसके अन्तर्गत हम प्राकृतिकमानवीय तथा सामाजिक घटकोंउनके रंगोंगतिलय एवं सौंदर्य की बात करते हैं। सभी व्यक्ति दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाली अनंत वस्तुओं का चुनाव तथा मूल्यांकन करते हैं एवं कई छोटे-छोटे कार्यों में अपनी कलात्मक पसंद तथा नापसंद को प्रदर्शित करते हैं। यह हमारी सभी वस्तुओं जैसे- कमरे की सजावटपुस्तकोंखेलोंवस्त्रों आदि दैनिक उपयोग की वस्तुओं में परिलक्षित होती है। इसलिए कला एक सार्वभौमिक अनुभव हैयह सिर्फ कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है।

कला संबंधी दृष्टिकोण- प्राचीन काल से आधुनिक समय तक कला के संबंध में कई ‘कला‘ दृष्टिकोण विकसित हुए हैंजो अग्रवत हैं-

अनुकरण के रूप में- कला के विषय में सर्वाधिक प्रचलित विचार पुनर्जागरण काल में आयाजिसमें कला को प्रकृति का अनुकरण माना गया। यह विचार ग्रीक दर्शन से विकसित हुआ तथा बीसवीं शताब्दी तक इसी विचार ने विश्व के कलात्मक कार्यों को निर्देशित किया। आज भी कई स्थानों पर यह विचार अस्तित्व में है । ग्रीक दर्शन में प्रकृति के अनुकरण का अर्थ आदर्श तथा सर्वोच्च स्वरूप की नकल करना था। वस्तुतः प्रकृति के साथ प्रतियोगिता करनेउससे प्रेम करने तथा यहाँ तक कि उसकी पूजा करने की धारणाओं ने कई लोगों को प्रकृति की पुनः प्रस्तुति को प्रेरित किया। उस समय जो कलाकार प्रकृति को सिद्धस्थ रूप में पेश करना थावही सबसे उच्च कलाकार समझा जाता था । परिणामस्वरूप कला की प्रस्तुति में हस्त-कौशल प्रमुख उद्देश्य बन गया तथा युवा वर्ग हस्त-कौशल में निपुणता प्राप्त करने की तरफ प्रवृत्त हुआ। उस समय हस्त-शिल्प प्रकृति के स्वरूप की अभिव्यक्ति में कुशलता से संबंधित थाआज हस्तशिल्प का अर्थ अपने मूल रूप से भिन्न हो गया है । आधुनिक हस्त-शिल्प मात्र अनुकरणीय कला नहीं है बल्कि इसमें विभिन्न सामग्री द्वारा अलंकारिक तथा उपयोगी वस्तुओं को डालकर तैयार किया जाता है।

आज हम सभी जानते हैं कि अनुकरण को किसी भी तरह से पूर्ण कला नहीं माना जा सकता। उसमें साधनों पर ध्यान दिया गया है तथा कला के वास्तविक उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति‘ को छोड़ दिया गया है। वस्तुतः कला मानव की अंतः स्थिति-उसकी भावनाओंविश्वासोंसंदेहोंसंकल्पोंआशाओं तथा अभिलाषाओं की अभिव्यक्ति है। कलाकार अपनी उन आवश्यकताओं तथा इच्छाओं से प्रेरित होता है जो उसमें तात्कालिक तथा महत्त्वपूर्ण होते हैं। यह सिर्फ अपने अनुभवों पर ध्यान केन्द्रित करता है तथा उन्हें ही प्रगट करता है।

कलासौंदर्य के रूप में- कला को सौंदर्य के रूप में देखने की विचारधारा भी उतनी ही प्राचीन है जितनी कि अनुकरण की अवधारणा । उस समय यह विचार प्रमुख था कि कलाकृति वास्तविकता की प्रतिमूर्ति हो तथा उसके गुणों का निर्धारण उसके सौंदर्य के आधार पर किया जाए।

हालांकि सुंदरता कला का गुणधर्म है लेकिन फिर भी कला तथा सुंदरता पर्यायवाची नहीं बल्कि जीवन के सभी कार्यों हेतु प्रतिमान है । सुंदरता की अवधारणा हर व्यक्ति की अपनी होती है तथा समय-समय पर उसकी रुचियाँ बदलती रहती हैं। इसलिए सौंदर्य के विषय में कोई प्रतिमान निश्चित नहीं किया जा सकता। कला की शिक्षा प्रदान करते समय हमें हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बालक तथा प्रौढ़ सभी की सौंदर्य के विषय में अपनी धारणा है। बालक की रुचि शिक्षक जैसी हो यह जरूरी नहीं है तथा बालक का कार्य शिक्षक को सुंदर लगेगा या नहींयह बात बालक के विकास हेतु महत्त्वपूर्ण नहीं है। हमेंबालक की रचना की अध्ययन करते समय अपनी पूर्व धारणाओं को निकाल फेंकना चाहिए तथा उन्हें अपने विशिष्ट तरीके से स्वयं को अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करना चाहिए ।

कला विचारों के आदान-प्रदान के रूप में– कला के विषय में एक धारणा यह भी प्रचलित है कि कला संदेशवाहन का कार्य करती हैजिसे बुद्धि के द्वारा समझा जा सकता है। लेकिन वास्तव में कला हमारी बुद्धि से नहीं बल्कि भावनाओं से संबंधित है तथा पूर्णतया वैयक्तिक एवं विषयीकृत होती है। यह विचारों से स्वतंत्र जन्म लेती है तथा उनसे प्रभावित भी नहीं होती। किसी कलाकार का उद्देश्य कहानी सुनाना नहीं बल्कि अपने भावों को अभिव्यक्त करना होता है। अपनी भावनाओं का मूर्त रूप वह अपनी रचना में देखता है तथा उसके विषय में दूसरों से वार्तालाप करता है। लेकिन यह वार्तालाप विचारों का आदान-प्रदान नहीं वरन् रचना के विषय में होता हैजिसमें कलाकार दर्शक की सहभागिता प्राप्त करता है, कलाकृति का मूल्यांकन करता है तथा उसके भौतिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव का अनुभव करता है

कला मनोरंजन के रूप में- कुछ लोगों का विचार है कि कला का उद्देश्य मनोरंजन करना है। यह विचार सामूहिक कलात्मक साधनों हेतु प्रयोग किया जाता है जैसे-लोक संगीतदूरदर्शनरेडियोकॉमिक्स आदि जो मनोरंजन कार्यक्रम बनाते हैं लेकिन व्यंग्यसेक्सभय आदि का प्रदर्शन करके व्यक्ति की छिपी हुई भावनाओं को भड़काकर उनसे धन प्राप्त करते हैं एवं उन्हें सौंदर्य प्रधान बताकर जनता को गुमराह करते हैं। यह प्रवृत्ति बहुत हानिकारक है तथा आज शिक्षा को निगलने को आतुर है । यह व्यक्तियों को भटकाकर जीवन की वास्तविकताओं से दूर करते हैं जिससे वे स्वयं को रचनात्मक रूप में विकसित करने का अवसर खो देते हैं । कलात्मक अनुभव आनन्द देता है लेकिन यह उसका वास्तविक उद्देश्य नहीं है । कला संवेदनाओं को संज्ञाहीन बनाने का कोई नशा नहीं है बल्कि एक उद्दीपक है जो संवेदनाओं को जीवन हेतु उद्दीप्त करता है तथा जीवन में एक व्यवस्था लाता है जिससे प्रत्येक दिन ज्यादा अर्थपूर्ण तथा सौंदर्यात्मक बनता है ।

कला अभिव्यक्ति के रूप में- कला की विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम मानने की अवधारणा ने इस विचार को जन्म दिया कि कला अभिव्यक्ति है जिसमें हर दिन का संपूर्ण कार्य समाहित हैअर्थात् यह प्रतिदिन का अनुभव है जिसे दर्शाया जा सके तथा देखा जा सके। जब व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहता है तो उसका आधार उसकी कुछ अनुभूतियाँ तथा विचार होते हैं। इस तरह कुछ अंश में कला स्वत्व की खोज है। कला के अंतिम स्वरूप का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता,न ही इसके निर्माण की किन्हीं तार्किक तकनीकियों को विकसित किया जा सकताइसके कोई निश्चित प्रतिमान नहीं हैं तथा न ही इसके कोई प्रतिरूप ही बनाए जा सकते हैं। अभिव्यक्ति की शैली कलाकार की अपनी होती हैलेकिन यह उन्हीं गुणों तथा भावों को अभिव्यक्त करता है जो सभी लोगों में पाए जाते हैं । कलाकार ज्यादातर समय एकाकी रहता है लेकिन उसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी अभिव्यक्ति व्यक्तिगत होती है। वस्तुतः एक सच्चे कलाकारविचारक अथवा चिंतनशील व्यक्ति को ध्यानावस्था में रहने की जरूरत होती हैइस कारण वह एकाकी रहना पसंद करता हैलेकिन कुछ लोग उसकी इस जरूरत के कारण यह धारणा बना लेते हैं कि यह उस समाज का हिस्सा नहीं बनता जिसमें वह रहता है कला अभिव्यक्ति हैइस अवधारणा का विकास ।

आधुनिक कला के प्रयोगवादी आंदोलन से हुआ है। प्रयोगवादी कलाकार अपनी भावनाओं से संबंधित नवीन विचारों पर प्रयोग करता है तथा उसके विचार विज्ञानमशीनीकरणयातायातसंचार एवं आदिवासियों की संस्कृति की खोज आदि से संबंधित हो सकते हैं। प्रयोगवादी खोजों से कला के नए आदर्शों तथा मानकों का विकास हुआउदाहरणार्थ धनवादी कला का विकासजो बाद में अमूर्तकला की अंतर्राष्ट्रीय शैली के रूप में विकसित हुआभौतिकी में गति संबंधी खोजों ने कला में भी गति की धारणा को जन्म दिया एवं अन्य जैवकीय तथा अलौकिक विषयों की खोज हुई । बौद्धिक खोजों ने कला के स्वरूप को प्रभावित किया तथा कलाकार बौद्धिकता में जकड़ गयाजिससे स्वतंत्र होने हेतु उसने नई सामग्री एवं माध्यम चुना तथा कला को विषयीकृत बना दिया। बाद में विचारों का स्थान अंतःज्ञान ने ले लिया तथा कलाकारों ने विशिष्टीकरण को त्यागकर अपनी अनुभूतियों तथा विचारों को चित्रित करना शुरू कर दिया।

आधुनिक कला की एक विशेषता उसकी शैलीतकनीकी तथा प्रवृत्ति की विविधता हैक्योंकि उसका संबंध तात्कालिकता से है। इस आंदोलन का प्रभाव हमारी जीवन शैली तथा वातावरण पर भी पड़ा है। इसने समाज को नई धारणाएं दी हैं तथा कलाकार को नवीन खोजों के योग्य बनाया है। प्रयोग तथा अनुसंधान के महत्त्व को बताकर आधुनिक कला ने हमें कला को अभिव्यक्ति के मूल्य के रूप में समझने का अवसर दिया।

आजकल विद्यालयों में कला का विकास तथा वृद्धि के साधन के रूप में देखा जाने लगा है। भावनात्मक विकासजीवन शैली तथा सामूहिक वृत्ति संबंधी प्रयोगवादी विचारों ने कला की शिक्षा पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव छोड़ा है । अब कला को अभिव्यक्ति के माध्यम के साथ-साथ जीवंत जीवनयापन तथा मानव विकास के निर्देशक के रूप में भी देखा जाता है।

कला एवं संस्कृति– कलात्मक प्रवृत्ति गहन रूप से हमारी संस्कृति से संबंधित होती है। हमारे रुझान के पीछे हमारे परिवेश का प्रभाव होता है जो हमारे तर्क को गहन दृष्टि प्रदान करता है। जब बालक विद्यालय में आता है तब तक वह अपने माता-पिता तथा मित्रों आदि की प्रवृत्ति को अपना चुका होता है। उसकी संस्कृति उसे पहल ही बता चुकी होती है कि क्या मूल्यवान हैतथा यही मूल्य उसकी आवश्यकताओंरुचियों तथा आंतरिक इच्छाओं पर छाए रहते हैं। अतः हमें उन सामान्य विचारों तथा मूल्यों को जानना चाहिए एवं यह भी खोज करनी चाहिए कि बालक में क्या विशिष्ट है। हमें अपने मस्तिष्क को खुला रहकर कलात्मक निर्णय लेने चाहिए और यह जानना चाहिए कि बालक का उद्देश्य क्या था एवं उसने उसे कितने अच्छे ढंग से अभिव्यक्त किया है।

कलाकार की कला पर उसके अपने व्यक्तित्व तथा सामाजिक मूल्यों और मान्यताओं की छाप होती है । सौंदर्य ज्ञान का आधार उस देश की नैतिक,सामाजिक एवं सांस्कृतिक मान्यताएं होती हैं। इसलिए किसी कलाकृति को समझने हेतु उस देश तथा काल की सामाजिक सांस्कृतिक मान्यताओं को समझना जरूरी है।

आधुनिक कला तथा लोक कला- आधुनिक कला वैविध्यपूर्ण है। इसमें कई तरह की प्रवृत्तियाँ दिखाई पड़ती हैं –

1. कुछ कलाकृतियाँ प्रकृति के बाह्य संसार की अनुकरणीय प्रवृत्ति को इन पर यथार्थवाद तथा प्रकृतिवाद का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

2. कुछ कलाकृतियों पर अध्यात्मवाद तथा भविष्यवाद का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। ये बाह्य संसार से आध्यात्मिक मूल्यों की तरफ प्रतिक्रिया को बताती हैं।

3. कुछ कलाकृतियाँ कलाकार की अनुभूतियों तथा व्यक्तिगत संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती हैं।

4. कुछ कलाकृतियाँ कलाकार के विशिष्ट कौशल को प्रदर्शित करती हैं जिनमें उसकी विविध कलात्मक सामग्री के गुणों तथा उनके प्रयोगों की समझ परिलक्षित होती है।

लोक कलाआदिकालीन व्यक्तियों की कला का विकसित रूप हैयह प्रकृतिवादी शैली में प्रकट हुईजिसमें बहिर्मुखी भावनाएं मौजूद हैं। लोक कलाकार अपनी भावनाओं को किसी वस्तु के माध्यम से दर्शाते हैंतथा भावनाओं एवं वस्तु में ऐक्य इतना ज्यादा होता है कि रचनाकार अपने व्यक्तित्व तथा वस्तु में अंतर करने में असमर्थ रहता है। भारतवर्ष में लोक कलाएं बहुत समृद्ध हैं। राजपूत शैलीराजस्थानी शैलीमेवाड़ शैलीकांगड़ा शैलीमुगलकालीन शैली आदि कलाएं कला जगत् पर अपनी विशिष्ट छाप रखती हैं।

निष्कर्ष :

अच्छे कला शिक्षण हेतु यह जरूरी है कि हम अपनी संस्कृति तथा प्रकृति से संबंधित कला की उस सामान्य धारणा को समझेंजिसमें हमारे बच्चों में कलात्मक वृत्ति का विकास होता है । इस प्रयत्न से हमें यह भी ज्ञात होगा कि क्या व्यर्थ तथा अनुपयोगी हैजिसे छोड़ने में बालकों की मदद की जानी चाहिए। आधुनिक कलात्मक प्रवृत्तियाँ बालकों हेतु एक चुनौती है तथा उनमें सौंदर्यात्मक आवश्यकताओं को उद्दीप्त करती हैं। इस कार्य को प्रभावशाली ढंग से करने हेतु हमें नई चीजों को देखना चाहिएनए विचारों तथा प्रवृत्तियों को ग्रहण करने हेतु तत्पर रहना चाहिए तथा उनके कला पर पड़ने वाले प्रभाव को मापना चाहिए। हमें मस्तिष्क में हमेशा यह बात याद रखनी चाहिए कि कलात्मक अनुभव अन्य अनुभवों की तरह हमेशा बदलते रहते हैं। यह नवीन धारणाओं तथा भावनाओं से ठोस रूप में सामंजस्य स्थापित करते हैंसक्रिय कल्पना को जन्म देते हैं तथा कलाकृति के रूप में हमारे समक्ष प्रकट होते हैं । कलात्मक रचना का कार्य कभी भी निश्चित नियमों तथा सिद्धान्तों में नहीं बाँधा जा सकताइसी कारण उसको पुनर्निर्मित नहीं किया जा सकता। अतः कला का कार्य एक नया प्रारंभ हैनई समस्या है तथा एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए नई चुनौती है।

सौंदर्यशास्त्र : संप्रत्यय

अभिनव गुप्त का सौन्दर्यशास्त्र- भरत मुनि के बाद भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की स्थापना में अगर किसी एक का नाम लिया जाए तो वह है अभिनव गुप्त । उनके बाद के विद्वान् रसशास्त्रियों ने उनके विचारों का अनुमोदन ही किया। सिर्फ महिम भट्ट तथा पण्डितराज जगन्नाथ को छोड़कर किसी भी पश्चिमी सौन्दर्य चिन्तक से उनकी तुलना करने पर उनका पलड़ा ही भारी रहता है।

अभिनव गुप्त बहुशास्त्र चिन्तक हुए। उनके लिखे पैंतालीस (45) ग्रन्थ अब तक उपलब्ध हैं। उनके चिन्तक के मूल विषय मीमांसा तथा सौन्दर्य-दर्शन हो रहे । इन्होंने पुराने विचारों की विवेचना के साथ अपने नये विचार भी दिये।

अभिनव गुप्त के सौन्दर्यशास्त्र सम्बन्धी विचार उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ अभिनव-भारती‘ में मिलते हैं। उसके रचना काल को तीन भागों में बाँटा जाता है- तान्त्रिकआलंकारिक तथा दार्शनिक । सौन्दर्यशास्त्र सम्बन्धी उनकी अभिनव भारती‘, ‘ध्वन्यालोग लोचन‘ मध्य भाग की रचना है। विविध विषयों जैसे संगीतनृत्यलयतालअभिनयआदि की विशद विवेचना उनकी बौद्धिक सामर्थ्य का परिचय देती है ।

अभिनव गुप्त सौन्दर्यशास्त्री थे। सौन्दर्य का इन्होंने विभिन्न परिचय दिया जैसे ऐतिहासिकमनोवैज्ञानिकतार्किक तथा दार्शनिक-से विवेचन किया। कला का लक्ष्य‘ तथा

अर्थ-सिद्धान्त पर महत्त्वपूर्ण मत दिये । सौन्दर्यशास्त्र के विवेचन उन्होंने नाट्यशास्त्र तथा काव्य के अन्तर्गत किया। अपने रस-सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने रस‘ की पूरी ऐतिहासिक व्याख्या

आनन्दवर्धन का सौन्दर्यशास्त्र- भारतीय सौन्दर्य चिन्तकों में आनन्दवर्धन एक मुख्य नाम है । इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ का नाम ध्वन्यालोक‘ है । अभिनव गुप्त ने इसकी लोचन‘ नाम से कीयह ध्वन्यलोक‘ भारतीय काव्यशास्त्र का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें काव्य सौंन्दर्य की दार्शनिक तथा सटीक व्याख्या मिलती है। आनन्दवर्धन पहले लेखक थे जिन्होंने अपनी पूर्ववर्ती काव्य परम्पराओं की समीक्षा की तथा उन्हें एक सूत्र में बाँधा । यह संस्कृत सूत्रों के रूप में लिखा गया ग्रन्थ है। आनन्दवर्धन के अनुसार ध्वनि तथा मूल‘ सिद्धान्त है-काव्य ।

कला एवं सौंदर्यशास्त्र के माध्यमिक स्तर में शिक्षण का महत्त्व :

विद्यालय में कला विषय के अध्ययन की आवश्यकता एवं महत्त्व क्यों है इसका स्पष्टीकरण कला शिक्षण के उद्देश्यों से स्वतही हो जाता है। यही कारण है कि वर्तमान समय में कला विषय को विद्यालय में उपयुक्त स्थान दिया गया है। कला सृजन या कलाकृति का अध्ययन करने वाला बालक अपने आसपास के वातावरण को सुन्दरतम बनाकर अपनी प्रतिभा का परिचय देते हैं। कला के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से बालक को बहुत कुछ सिखाया जाता है अतः हम कह सकते हैं कि कला शिक्षा बालक की प्रतिभा को उभारती है। कला शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्न बिन्दुओं के माध्यम से दिखाया जा सकता है

(1) आत्माभिव्यक्ति एवं सृजनात्मकता का विकास- बालक एक सृजनात्मक प्राणी होता है। विविध कलाओं के माध्यम से उसे अपनी आत्म-अभिव्यक्ति एवं सृजनात्मकता को विकसित करने का अवसर प्राप्त होता हैजैसे-विद्यालय पत्रिका । इस पत्रिका में बालक को बौद्धिक क्षमता एवं सृजनात्मक क्षमता का प्रदर्शन होता है क्योंकि इसमें कलात्मक चित्रोंलेखोंकविताओं आदि का लेखन एवं चित्रण होता है ।

(2) गहन चिन्तन का विकास- कला के माध्यम से बालक में गहन चिन्तन एवं मनन का विकास होता है क्योंकि बालक जब किसी भी कला का निर्माण करता है तो उससे पूर्व वह उस पर गहन चिन्तन करता है कि उसे क्या करना हैकैसे करना हैकब करना है तथा कहाँ करना है आदि । उपर्युक्त बातों पर विचार करने के उपरान्त ही वह कार्य आरम्भ करता है ।

(3) प्राचीन संस्कृति एवं परम्परा का ज्ञान– कला (संगीत नृत्यसाहित्यमूर्तिचित्र एवं वास्तु) के द्वारा बालकों के प्राचीन परम्पराओं एवं संस्कृति से सम्बन्धित ज्ञान विकसित होता है साथ ही दृश्य एवं अदृश्य वस्तुओं की अभिव्यक्ति भी सम्भव होती है। कला के माध्यम से प्राचीन जीवन सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके द्वारा बालक को अपने पूर्वजों के विषय मेंप्राचीन संगीतसाहित्य तथा प्राचीन विचारधाराओं का भी ज्ञान प्राप्त होता है।

(4) कल्पना शक्ति का विकास- यद्यपि सभी बालकों में कल्पनात्मक शक्ति होती है तथापि कला के माध्यम से इस शक्ति का विकास होता है । कला के द्वारा बालक को कल्पना के. अवसर एवं साधन उपलब्ध कराए जाते हैं। कल्पना ही बालक को उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करती है एवं जीवन में सृजनशीलता का भी विकास करती है। उदाहरण के लिए-पक्षियों की तरह उड़ने की कल्पना के कारण ही हवाई जहाज का आविष्कार हो सका। चाँद को छूने की कल्पनापक्षियों के समान उड़नेनाचनेगाने एवं आवाज निकालने की कल्पना आदि सभी वर्तमान में साकार रूप ले चुकी हैं।

(5) भावनात्मक शक्ति का विकास- कला के माध्यम से मानव की असीमित भावनाओं का प्रदर्शन होता है । बालकों में आगे बढ़ने की भावनाकलाकार या खिलाड़ी बनने की भावना को उत्तम कार्यों की ओर जोड़ने हेतु कला के द्वारा नवीन अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं जिससे कलात्मक कार्य करते-करते उन्हें भावनात्मक अनुभूति का विकास होता है। जैसे-धार्मिक एवं राष्ट्रीय संगीत के द्वारा देश प्रेम की भावनाओं का विकास होता है

(6) व्यक्तित्व एवं चरित्र निर्माण- संगीतनृत्यनाटक,खेल एवं विविध प्रतियोगिताओं आदि में बालक मिलकर कार्य करते हैं इससे उनमें मित्रता एवं सहयोग की भावनाओं का विकास होता है। संगीत चित्रों एवं मूर्ति आदि में लीन होने से उनमें एकाग्रता एवं श्रम की आदतों का विकास होता है। अतः कला शिक्षा के द्वारा मानव में नैतिकताप्रेमदयामैत्री एवं सहानुभूति जैसे गुणों का विकास होता है जो कि किसी मानव के व्यक्तित्व एवं चरित्र निर्माण के लिए आवश्यक होता है।

(7) स्वच्छता एवं सौन्दर्यानुभूति का विकास– मनुष्य की आत्मा में सुन्दरता विद्यमान होती है । कला के द्वारा सौन्दर्यानुभूति की विकास करने में सहायता मिलती है । कला के माध्यम से बालकों के द्वारा पुराने व अनुपयोगी वस्तुओं से उपयोगी वस्तुओं का निर्माण कर उन पर रंग करके उसे सुन्द्र एवं आकर्षक बनाया जा सकता है । इससे जहाँ एक ओर पुराना एवं अनुपयोगी सामान का प्रयोग हो जाता है वहीं दूसरे आरे उपयोगी एवं सुन्दर वस्तुओं का निर्माण भी हो जाता है।

(8) खाली समय का सदुपयोग- कहा जाता है कि समय ही सबसे बड़ा धन है। मानव मस्तिष्क सदैव कार्य करता रहता है । बालकों को कलात्मक क्रियाओं से आनन्द का अनुभव होता है साथ ही वे खेल-खेल में विभिन्न प्रकार के कार्य करना भी सीख लेते हैं। नए-नए चित्रमॉडलखिलौने इत्यादि बनाकर वे जहाँ एक ओर समय का सदुपयोग करते हैं वहीं दूसरी ओर उनमें कार्य के प्रति दृढ़ता भी बढ़ती है।

इस प्रकार शिक्षा में कला के माध्यम से बालकों में विद्यमान प्रतिभाओंगुणों एवं शक्तियों को विभिन्न प्रकार से विकसित किया जा सकता है। इससे बालकों के सभी अंगों के विकास में सहायता मिलती है ।

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