कला का अर्थ तथा अभिप्राय के बारे में लिखो।

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कला सत्य की अनुकृति की अनुकृति है।” -प्लेटो

कला अनुकरणीय है।” -अरस्तु

कला आदिभौतिक सत्ता को व्यक्त करने का माध्यम है।” -हीगेल

कला बाह्य प्रभाव (इम्प्रेशन) की अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) है।”

अगर अपने भावों की क्रियारेखारंगध्वनि अथवा शब्द द्वारा इस तरह अभिव्यक्त किया जाए कि उसे देखने अथवा सुनने वाले में भी वही भाव पैदा हो जाएंतो उसको कला कहा जाएगा।”

हर महान् कला ईश्वरीय कृति के प्रति मानव-आलाद की अभिव्यक्ति है।” – रॉस

प्रत्येक महान् कला है।”

न तज्झानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।”

नाट्यशास्त्र में भरत मुनि ने स्पष्ट किया कि ऐसा कोई ज्ञान नहींकोई शिल्प नहींकोई विधा नहींजो कला नहीं।

कला के बारे में कहा गया है कि वह कला जो कलाकार की मौलिक रचना हो एवं जो इससे पहले न कभी थी एवं न कभी होगी।” “मनुष्य की रचनाजो उसके जीवन में आनन्द प्रदान करती हैकला कहलाती है।”

सत्यम् शिवम्सुन्दरम् की अभिव्यक्ति ही कला है।”

प्राचीन अर्थात् पुराण प्राचीनता का द्योतक है। ब्रह्मा के मुख से वेद तथा पुराण दो वा*मय तत्त्वों का आविर्भाव हुआ है ।

प्रायः पुराणों के पाँच लक्षण अलिखित हैं

(1) सर्ग तथा सृष्टि

(2) प्रतिसर्ग अर्थात् दृष्टि का विस्तार लय तथा पुनः सृष्टि

(3) सृष्टि की आदि वंशावली

(4) सूर्य तथा चन्द्र वंशों का इतिहास ।

नारदीय पुराण में उपलब्ध विष्णु पुराण का एक भाग है। नारदीय पुराण के अनुसार विष्णु पुराण में 23 हजार श्लोक होने चाहिए परन्तु अब सिर्फ हजार श्लोक हैं। बाकी 16 हजार श्लोक विष्णु धर्मोत्तर पुराण के हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण विष्णु पुराण का खिल है।

विष्णु धर्मोत्तर पुराण का उल्लेख अलबरूनी की किताबुल-हिन्द (1013 ई.)नारदीय पुराण (लगभग 1100 ई.)अद्भुत सागर (1168 ई.) एवं हेमाद्रि की चतुर्वर्ग चिन्तामणि (1260 ई) में हुआ है। इसलिए यह सबसे पहले का ग्रन्थ है । विष्णु धर्मोत्तर पुराण बहुत ही वृहद पुराण है।

इसकी उच्चतम काल सीमा निश्चित रूप से 1030 ई. के पूर्व निर्धारित की जा सकती।

जिसे हम चित्रकला कहते हैं वह असल में आलेख्य अथवा चित्राभास है।

हमारी भारतीय कला सिर्फ कला के लिए नहीं वरन् जीवन का एक मुख्य अंग है । कला जीवन के लिए मंगलमय हो अतः कला को धर्म के साथ जोड़ दिया गया है। भारतीय चित्रकला में अभिव्यक्ति कौशल का महत्त्वपूर्ण तत्त्व वर्ण विधान है। वर्ण ही विविध भावों को व्यक्त करते हैं तथा भावों का सृजन करते हैं। जिस तरह रेखाओं के द्वारा भावों को रूप दिया जाता है उसी तरह रंगों के द्वारा उसमें जीवन संचार किया जाता है तथा चित्र सृजनापूर्ण होती ।

चित्रकार को चित्र शुरू करने से पहले अपने गुरुजनों से आशीर्वाद लेना चाहिए तत्पश्चात् पूर्व दिशा में मुँह करके अपने इष्ट देवता को स्मरण करना चाहिए तब चित्र कार्य, पूर्ण करना चाहिए।

विष्णु धर्मोत्तर पुराण के 40वें अध्याय में चित्र बनाने के आठ आदर्श गुणों के साथ मुख्य तत्त्वों के बारे में बताया गया है जो अग्रलिखित हैं

1. रेखाएं सुरुचिपूर्ण तथा एक होनी चाहिए। रेखा तथा रंगों द्वारा भावों की अभिव्यक्ति दिखाई दे रही हो।

2. रंगों का उपयुक्त प्रयोग हो जिसके द्वारा प्रकाश तथा छाया तत्त्व स्पष्ट दिखाई दे रहे हों।

3. चित्र में भूषण होने चाहिए ताकि वह रमणीय लगे।

4. रंगों का मिश्रण प्रभावशाली हो एवं रंग चित्र विषय के अनुसार प्रयोग किये गये हों।

ये चार चित्र के मूल तत्त्व हैं अतः चित्र ऐसा बनाना चाहिए जो सभी को अच्छा लगे ! चित्र इतना चिकनाचमकदार होना चाहिए कि वह सजीव प्रतीत हो । ऐसा लगे कि आकृतियाँ मुस्करा रही हों एवं साँस ले रही हों ।

विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अध्याय 27 में श्लोक संख्या आठ से सोलह तक रंगों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।

चित्र की सफलता उसकी पृष्ठभूमि पर किये गये रंग योजना पर निर्भर करती हैइससेही चित्र में सौन्दर्य आता है।

अध्याय 10 के 17 से 24 तक के श्लोकों में पृष्ठभूमि में मिश्रित रंग योजना के बारे में अवगत कराया गया है ।

मिश्रण तीन तरह के हो सकते हैं

(1) दुर्वा कुरप्रीत, (2) कपित्थहरित, (3) मुद्गश्याम ।

जैसे- जब इसमें श्वेत अधिक होता हैतो शुद्ध होता है। जब नीला होता है तो निलाम्यधिक होता है।

अध्याय के 41 श्लोक में पाँचवें श्लोक में रंगवर्तना के बारे में बताया गया है। इसका अर्थ रंग लगाना अथवा लेप करना अथवा पट लेप करना।

वर्तना तीन तरह की होती है –

(1) पत्रजा, (2) हैरिकजा, (3) बिन्दुजा।

1. पत्रजा से अभिप्राय वह चित्र है जो लहरियेदार रेखाओं से बनता है।

2. हैरिकजा में वर्तना धारियों के रूप में दी जाती है।

3. बिन्दुजा में बिन्दु द्वारा रेखाएं दी जाती हैं।

विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अध्याय 40 में चित्र भित्ति किस तरह तैयार की जानी चाहिएउसके ऊपर किस तरह का लेप करना चाहिएचित्र खींचने तथा रंग भरने की विधि मूल तथा मिश्रित रंगआदि के बारे में पूर्ण विस्तार से बताया गया है।

प्राचीन काल में विविध देशों में विविध तरह के पदार्थ मिलते थे तथा (धातु) पदार्थों से रंग बनाने के लिए पत्र विन्यास की विधि के अनुसार पदार्थ को बहुत पतला कर बालू के साथ मिश्रण कर दिया जाता था एवं बाद में पानी में घोलकर बहुत सूक्ष्म चूर्ण प्राप्त करने के बाद जिस द्रव्य में जरूरत होती थीघोल लेते थे। वे बहुत सुन्दर तथा टिकाऊ होते थे। सैंकड़ों सालों तक उनका कुछ नहीं बिगड़ता था।

हजारों साल हो जाने के बाद अजन्ता के चित्रों को देखकर आश्चर्य होता है कि वे पहली शताब्दी ईसा पूर्व से सातवीं शताब्दी तक बने होने के बावजूद इनके रंग अभी तक उखड़े नहीं हैं वरन् सुन्दर लगते हैं।

उस समय चित्रों के ऊपर विशेष तरह की पॉलिश भी की जाती थी जिससे उनके ऊपर वायुमण्डल का प्रभाव भी पड़ता था एवं चित्र रंग स्थायी बने रहते थे।

प्राचीनकाल में अग्रलिखित सामग्री के आधार पर ही रंग बनाये जाते थे

(1) कनक (सोना), (2) रजत (चाँदी), (3) ताम्र (ताँबा), (4) अभ्रक (धुडधुड़), (5) राजवर्त (लाजवर्द), (6) सिन्दूर (लाल शीशा), (7) त्रिपु (शीशा), (8) सुधा (चूना), (9) लाधा (लाख), (10) हिंगुलक (सिन्दूर), (11) नील, (12) हरनालआदि ।

विष्णु धर्मोत्तर पुराण में मूल रंग पाँच माने गये हैं- श्वेत (सफेद)रकत (लाल)पीत (पीला)कृष्ण (काला)हरित (हरा)।

जहाँ अभिनय में लाल तथा हरे रंग को मूल माना गया है वहाँ चित्र में विलोम (आंवले का रंग) तथा नील को इनके मूल स्थान पर माना गया है ।

श्वेत पाँच तरह का होता है –

1.रुवम (स्वर्ग जैसा सफेद)।

2. दन्तगोरी (हाथी दाँत जैसा सफेद)।

3. स्फुट चन्दन गौरी (टूटे हुए चन्दन जैसा सफेद)।

4. शरद् घन (शरद् ऋतु के बादल जैसा श्वेत)।

5. चन्द्रक गौरी (शरद ऋतु के जैसा श्वेत)

काला बारह तरह का होता है –

1. रक्त श्याम (लाली लिये हुए काला)।

2.मुद्ग श्याम (मुद्ग दाल जैसा काला)।

3.दूर्वांकुर श्याम (दूर्वा घास जैसा काला)।

4.पाण्डु श्याम (हल्के पीले रंग का काला)।

5.हरित् श्याम (हरा रंग लिए हुए काला)।

6.प्रियंगु श्याम (प्रियंगु बेल के जैसा काला)।

7.कपि श्याम (बन्दर के मुँह का सा काला)।

8.नीलोत्पल श्याम (नीलकमल जैसा काला)।

9.पीत श्याम (गहरा पीला रंग लिए हुए काला)।

10. चाष् श्याम (चाव पक्षी जैसा काला)।

11. रक्तोत्पल (लाल कमल जैसा काला)।

12. घनश्याम (बादलों जैसा काला)।

चित्रकला में रंगों का प्रयोग भावों के अनुकूल ही किया जाता हैजैसे- क्रोध में लालनारंगी एवं चटख रंगों का प्रयोग।

करुण भाव में-पीला तथा पीलापन लिए श्वेत रंग का प्रयोग होता है।

रेखा की तरह रंगों के भी विविध स्वरूप हैं –

(1) लाल रंग– उत्तेजनाक्रोधयुद्धओसआदि का प्रतीक है

(2) श्वेत रंग- शान्तिएकताकरुणास्वच्छता एवं उज्ज्वलता।

(3) पीला रंग- प्रकाशसामीप्यकरुणगर्वतेज ।

(4) हरा रंग- शिथिलताविश्रामसुरक्षामनोहरता एवं प्राकृतिक सुन्दरता का प्रतीक

(5) नीला रंग- शीतलताराजस्वसत्यताआनन्द आदि दर्शाता है

(6) काला रंग- अवसादभय तथा कठोरता का अनुभव करता है।

चित्रकार अपने विवेकानुसार भाव तथा कल्पना एवं रंगों का विभाजन करके हजारों तरह के रंग बना सकता हैजैसे-नील एवं पीत के मिश्रण से पलाश रंग बनता है।

रंगों का प्रयोग सिर्फ रूप में निखार को ही नहीं वरन् हमारी मानसिक अनुभूतियों को भी अभिव्यक्त करता है। जिस तरह रूप विन्यास चित्र को विषय तथा साकार रूप देता है उसी तरह उन भावों को भी सजीव करता है जो भाव चित्रकार के मन से निकलकर दर्शक के मन तक जाते हैं जिससे साधारण मानव भी चित्र के प्रति स्वतः आकर्षित हो जाता है।

सौन्दर्यशास्त्र का स्कूल सैकेण्डरी का माध्यम :

सौन्दर्यशास्त्र- सौन्दर्यशास्त्र वह शास्त्र है जिसमें सौन्दर्य का अध्ययन होविवेचना होदर्शन का मुख्य उद्देश्य सत्यम् शिवम् सुन्दरम् पर विस्तृत अध्ययन है। दर्शनशास्त्र की वह शाखा जो सत्य की खोज तथा विमर्श करती है। तर्कशास्त्र अथवा Logic कही जाती हैजो शाखा शिवं अथवा कल्याण का अध्ययन करे वह नीतिशास्त्र अथवा Ethics कही जाती है तथा जो सुन्दर को अध्ययन का विषय बनाएउसे सौन्दर्यशास्त्र सुन्दरता का दर्शन है सुन्दर कलाओं में प्रकट होता है इसलिए यह कला का दर्शन है।

भारतीय वा*मय में काव्यशास्त्र को सौन्दर्यशास्त्र (एस्थेटिक्स) की आधारशिला माना गया है। काव्य में सौन्दर्य के विभिन्न रूप आते हैंजैसे-अलंकारध्वनि रसगुण औचित्य आदि सौन्दर्य आत्मगत हैं। सौन्दर्य की अभिव्यक्ति आत्मा की अभिव्यक्ति है। सौन्दर्य दर्शन को दो रूपों में-रस तथा अलंकार माना। रस‘ सौन्दर्य का उन्नत रूप उसकी आत्मा है । ललित कलाओं में रस आनन्द के रूप में प्रकट होता है।

भारतीय सौन्दर्यशास्त्र :

भरत मुनि का रस सिद्धान्त- भारतीय सौन्दर्यशास्त्र में रस‘ केन्द्रीय महत्त्व रखता है। कला चाहे कोई भी हो-नाट्यकाव्यसंगीतवाद्य अथवा चित्रकला रस‘ सभी में व्याप्त है सभी का सार है।

भरत मुनि ने अपने प्रसिद्ध नाट्यशास्त्र‘ में रस‘ की व्याख्या दी है। एक तरह से भारतीय सौन्दर्यशास्त्र में मनोविज्ञान की व्याख्या लाने वाले भरत मुनि प्रथम थे। उनके अनुसार नाट्य दृश्य तथा श्रव्यचित्र एवं वाणी दोनों को समाहित करता है। नाट्य में काव्यसंगीतनृत्यअभिनय का समावेश होता है। सौन्दर्यशास्त्र को भरत मुनि का सबसे बड़ा योगदान उनका रस सिद्धान्त है । रस‘ कलात्मक अनुभव हैजिसके मूल में मानव की मौलिक वृत्ति भाव‘ है सौन्दर्य की आत्मा है। सौन्दर्य के बाहरी रूपाकार को कोई भी पा सकता हैलेकिन आत्मा रूपी रस तक रसिका ही पहुंच सकता है।

भारतीय कला में चित्र षडंग- भारत में चित्रकला या कोई अन्य कला को सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं माना गया है। सामान्य जीवन तथा संस्कृति से कला का गहरा सम्बन्ध है । कला तथा शिल्पकला प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित है। वास्तव में षडंग भारतीय शिल्प के छ: अंग हैं। चित्रकला उसका महत्त्वपूर्ण अंग है कला के तीन भेद किये गये हैं-शिल्पचित्र तथा स्थापत्य ।

षडंग का सूत्र है –

रूप भेदाः प्रमाणानि भावलावण्य योजनम् ।

सद्रश्यं वर्णिक्मम् इति चित्तम् षडंग्कम ।।

चित्र के छ: अंग हैं –

1. रूप-भेद, 2. प्रमाण, 3. भाव, 4. लवण्य योजना, 5. सादृश्य, 6. वार्णिका भंग।

पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र :

प्लेटो- प्लेटो का दर्शन आदर्शवाद‘ अथवा आईडियलिज्म‘ कहलाता है। प्लेटो परम पिता परमेश्वर को सबसे बड़े सौन्दर्य मान मानते हैं क्योंकि सत्यम् शिवम् सुन्दरम् परमेश्वर से उपजते हैं। संसार की सारी वस्तुएं सुन्दर हैं क्योंकि यह ईश्वर का ही रूप हैं। प्लेटो को अपने गुरु के ही नहींसभी युगों के सबसे महान् विचार वाले दार्शनिक माने जाते हैं। प्लेटो के कला से सम्बन्धी विचार उनकी पुस्तकों Dialogues-Symposium, Republic Phachiras में पाये जाते हैं।

प्लेटो के अनुसार सौन्दर्य– प्लेटो के अनुसार सौन्दर्य निराकार परम‘ है। पलेटो केअनुसार सुन्दर है सत्ता है जो सुन्दर है वही शिव है । सत्यम् शिवम् सुन्दरम् तीनों एक ही हैं । जो मात्र बाहर से हो नहीं भीतर से सुन्दर है।

प्लेटो के अनुसार भौतिक सौन्दर्य में दो गुण जरूरी हैं- सन्तुलन तथा उपयोगिता । श्रवण तथा दृष्टि द्वारा सुन्दरता को पहचाना जाता है। सबसे सुन्दर वस्तु वह है जो आकर्षक होदेखने में सुन्दर होहमारी इन्द्रियों को सुखद अनुभव हो।

प्लेटो ने कहा है जिसमें निर्माण की क्रिया हो वही कला है।” प्लेटो चित्रकला को प्रकृति का अनुकरण मानते हैं। ईश्वर ने स्वयं प्रत्ययों के संसार की रचना की है। चित्रकार अपने चित्र में लोहार द्वारा प्रत्यय की गई तलवार अथवा हथोड़े को अपने मस्तिष्क में तलवार के चित्र । इसलिए कला अनुकरण का अनुकरण हुआ ऐसी कला न सुन्दर न उपयोगी होगी। प्लेटो के अनुसार कला यूनानी चित्रकला से ज्यादा उपयोगी ज्यादा उन्नत हुई। कला भावों को जाग्रत करने सच्ची कला है । जो जीवन में उपयोगी हो वही सच्ची कला की नकल है ।

टालस्टॉय टालस्टॉय स्वयं एक कलाकार और लेखक में टालस्टॉय के कला माजी विचार उनकी पुस्तक “What is Art” में मिलते हैं। ये कला को केवल सुख बिलाम का आनन्द का साधन नहीं मानते उनके अनुसार कला अपने हृदयाघात भावों को दूसरों के हृदय में पैदा करना ही कला है। जो कला प्रभावित तो करे लेकिन अन्दर भावना नहीं है। वह कला का विक्रय रूप है।

सर्वश्रेष्ठ कला वह कला है जिसमें व्यक्त भावनाएं छुपी हैं । जो करुणा तथा प्रेम को दर्शाती है। टालस्टाय के अनुसार कला के द्वारा मानव दृष्टि को व्याप्त होना चाहिए कला में सत्यंशिवंसुन्दरम् को जरूरी मानते हैं । इनके अनुसार भाषा‘ के समान कला भी आदान-प्रदान की साधन है । पूर्णता की तरफ अग्रसर होना प्रगति में भाषा एवं कला माध्य है प्रभाविता की सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त है-कलाकार की सच्चाई तथा ईमानदारकलाकार को प्रकट की गई भावनाएं शुद्ध हैं उत्कृष्ट हैं। उनमें सच्ची अभिव्यक्ति है तो वे तुरन्तसुननेदेखनेपढ़ने वाले पर प्रभाव डालेगी।

अभिनव गुप्त का सौन्दर्यशास्त्र- भरत मुनि के बाद भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की स्थापना में अगर किसी एक का नाम लिया जाए तो वह है अभिनव गुप्त। उनके बाद के विद्वान रसशास्त्रियों ने उनके विचारों का अनुमोदन ही किया। सिर्फ महिम भट्ट तथा पण्डितराज जगन्नाथ को छोड़कर किसी भी पश्चिमी सौन्दर्य चिन्तक से उनकी तुलना करने पर उनका पलड़ा ही भारी रहता है ।

अभिनव गुप्त बहुशास्त्र चिन्तक हुए। उनके लिखे पैंतालीस (45) ग्रन्थ अब तक उपलब्ध हैं। उनके चिन्तक के मूल विषय मीमांसा तथा सौन्दर्य-दर्शन हो रहे । इन्होंने पुराने विचारों की विवेचना के साथ अपने नये विचार भी दिये।

अभिनव गुप्त के सौन्दर्यशास्त्र सम्बन्धी विचार उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ अभिनव भारता‘ में मिलते हैं। उसके रचना काल को तीन भागों में बाँटा जाता है-तान्त्रिकआलंकारिक तथा दार्शनिक । सौन्दर्यशास्त्र सम्बन्धी उनकी अभिनव भारती‘, ‘ध्वन्यालोग लोचन‘ मध्य भाग की रचना है। विविध विषयों जैसे संगीतनृत्यलय,तालअभिनयआदि की विशद विवेचना उनकी बौद्धिक सामर्थ्य का परिचय देती है।

अभिनव गुप्त सौन्दर्यशास्त्री थे। सौन्दर्य का इन्होंने विभिन्न परिचय दिया जैसे ऐतिहासिकमनोवैज्ञानिकतार्किक तथा दार्शनिक-से विवेचन किया। कला का लक्ष्य तथा अर्थ-सिद्धान्त पर महत्त्वपूर्ण मत दिये । सौन्दर्यशास्त्र के विवेचन उन्होंने नाट्यशास्त्र तथा काव्य के अन्तर्गत किया।

अपने रस-सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने रस‘ की पूरी ऐतिहासिक व्याख्या दी।

आनन्दवर्धन का सौन्दर्यशास्त्र- भारतीय सौन्दर्य चिन्तकों में आनन्दवर्धन एक मुख्य नाम है । इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ का नाम ध्वन्यालोक‘ है । अभिनव गुप्त ने इसकी लोचन‘ नाम से कीयह ध्वन्यलोक‘ भारतीय काव्यशास्त्र का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें काव्य सौन्दर्य की दार्शनिक तथा सटीक व्याख्या मिलती है। आनन्दवर्धन पहले लेखक थे जिन्होंने अपनी पूर्ववर्ती काव्य परम्पराओं की समीक्षा की तथा उन्हें एक सूत्र में बाँधा । यह संस्कृत सूत्रों के रूप में लिखा गया ग्रन्थ है । आनन्दवर्धन के अनुसार ध्वनि तथा मूल‘ सिद्धान्त है- काव्य ।

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