चित्रकला की काँगड़ा, नायक, मराठा तथा जौनपुर शैलियों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।

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मुगल काल में चित्रकला की मुगल शैली‘ ने अत्यधिक प्रगति की पर राजपूत चित्रकला मुगल चित्रकला से कम विकसित होते हुए भी कम महत्वपूर्ण नहीं थीं। मुगल काल में इसका भी पर्याप्त विकास हुआ । इस काल में विभिन्न क्षेत्रों में विकसित चित्रकला शैलियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है –

काँगड़ा चित्रकला शैली :

कॉगड़ा चित्रकला शैली का प्रचलन मुगल काल के अन्तिम वर्षों में हुआ । सर यदुनाथ सरकार के शब्दों में, “यह शैली (काँगड़ा शैली) हिन्दू विषयों से संबंधित इण्डो सरासेन (हिन्दू मुस्लिम) शैली का पश्चातकालीन हिन्दू शुद्ध रूप है 

मुगल शासन के अन्तिम वर्षों में यूरोपीय प्रभाव ने भारतीय चित्रकला को विकृत कर दिया था। उत्तरी भारत के मैदानी भाग पूर्णतया यूरोपीय प्रभाव में आ गये थे पर पहाड़ी क्षेत्र अभी भी सुरक्षित था । गढ़वाल की पहाड़ियों में ही काँगड़ा शैली का प्रादुर्भाव हुआ। यह विशुद्ध भारतीय चित्रकला शैली थी। काँगड़ा शैली का सर्वाधिक प्रसिद्ध चित्रकार गढ़वाल निवासी भोलाराम था। भोलाराम का रंगों का प्रयोग बहुत ही सुन्दर है। उसने अपनी पूची के माध्यम से पशुओं तथा पेड़-पौधों आदि का बहुत ज्यादा वारीकी तथा सुन्दरता के साथ प्रस्तुतीकरण किया.। उसके रात्रि के चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस तरह चित्रकला की काँगड़ा शैली विशुद्ध चित्रकला शैली का पहाड़ी रूप है ।

नायक चित्रकला शैली :

विजयनगर साम्राज्य दिल्ली सल्तनत की भाँति एक केन्द्रीकृत राज्य था। साम्राज्य के अन्तर्गत नायक शक्तिशाली वर्ग था। राजा द्वारा सेनापतियों को निश्चित करके एवज में कुछ क्षेत्र प्रदान किये जाते थे। ये सेनापति ही नायक कहलाते थे। नायकों का यह वर्ग वंशानुगत भूभागीय स्वामी था। विजयनगर साम्राज्य में करीब 200 नायक थे। साम्राज्य की सेवा हेतु नायक अपनी सेना रखते थे। इन नायकों ने जहाँ एक तरफ आर्थिक प्रगति के लिये प्रयास कियेवहीं दूसरी तरफ सांस्कृतिक उपलब्धियों की ओर भी ध्यान दिया।

विजयनगर के शासक अपने कला प्रेम हेतु विख्यात थे। नायकों ने सुन्दर इमारतों का निर्माण कराया। मन्दिरों की संख्या इतनी ज्यादा थी कि विजयनगर को मन्दिरो का नगर‘ कहा जाता था। नायकों के संरक्षण में फलीभूत चित्रकला शैली नायक शैली कहलायी।

विजयनगर चित्रकला के बेजोड़ नमूने अनेगुड़ी में स्थित उचमप्प मठ की छतों में हैं। चित्रों के आभूषण तथा मुकुट आदि मूरतों से ही हैं। घोड़े पर सवार कुछ स्त्रियाँ इतने तंग वस्त्रों में बतलायी गई हैं कि उनके अंग-प्रत्यंग का उभार स्पष्ट दिखाई देता है। आज भी यह प्रभाव  लाने हेतु ऐसा ही किया जाता है। स्त्रियों की आँखें लम्बी हैं तथा ललाट एवं नाक एक सीध में दिखलाई पड़ती है । वक्षस्थल उभरा हुआ दिखलाया गया हैकिसी बड़े गोलाकार फल अथवा बड़ी गोलाकर मिठाई के सदृश । पुरुषों के विभिन्न अंगों की बलवान एवं चंचल आकृतियाँ भी बड़ी सजीवता के साथ चित्रित हैं। जानवरों तथा उन पर सवारों एवं प्राकृतिक दृश्यों के चित्र भी लुभावने हैं। उत्तर विजयनगर चित्रकला के नमूने लेपाक्षी मन्दिर में हैंजहाँ महाभारत तथा पुराण की घटनाएँ चित्रित हैं।

मराठा चित्रकला शैली :

मराठा चित्रकला शैली या दक्षिणी चित्रकला शैली प्रारम्भिक मुगल शैली की ही समकालीन थी। इसका आरम्भ 1560 में उस समय हुआ जबकि मुगल चित्रकला शुरू हुई थी। इस शैली के चित्रकारों ने फारसी चित्रकलापूर्ववर्ती सल्तनत चित्रकला तथा देशं की प्रारंभिक चित्रकला की भी कुछ विशेषताओं का अपनी कला में समावेश किया।

मराठा चित्रकला शैली का विकास विशेषरूप से बीजापुर तथा गोलकुण्डा में हुआ। इनमें भी बीजापुरी चित्रकला को सर्वश्रेष्ठ माना गया। इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय (1580-1627) के संरक्षण में बीजापुरी चित्रकला ने आशातीत प्रगति की । इस काल में बीजापुरगोलकुण्डा तथा अहमदनगर राज्यों में सर्वोत्कृष्ट कृतियों की रचना की गई। इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय अत्यधिक सुसंस्कृत और कलात्मक अभिरुचि का व्यक्ति था। वह सम्भवतः एक चित्रकार भी था।

हालांकि शुरू में मराठा शैली का विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ पर सत्रहवीं शताब्दी में इस चित्रकला पर मुगल चित्रकला शैली के रंगों तथा तकनीक का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। आसफजाही वंश के अन्तर्गत हैदराबादी चित्रकला में मुगल चित्रकला शैली का ही अनुसरण किया जाता रहा ।

जौनपुर की चित्रकला शैली :

मलिक सरवर जौनपुर में शर्की वंश का संस्थापक था एवं शर्की वंश का महानतम शासक इब्राहिम थाजिसके शासन काल में जौनपुर ने सांस्कृतिक क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति की । सल्तनतकालीन चित्रकला के कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं। हालांकि अमीर खुसरो के कथन से पता चलता है कि शासक वर्ग चित्रकला के शौकीन होते थे। इस काल में ईरान में शीराज नामक स्थान में चित्रकला की एक समृद्ध शैली विकसित हो रही थी। पन्द्रहवीं सदी में अन्य प्रान्तों के साथ-साथ जौनपुर में भी साहित्य तथा कला ने बहुत प्रगति की । परिणामस्वरूप बहुत से विद्वान तथा चित्रकार शीराज से आकर यहाँ बस गये। इस तरह जौनपुर की चित्रकला शैली ईरानी तथा पश्चिम भारतीय चित्रकला शैलियों का सम्मिश्रण थी।

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