नाटक की विकास यात्रा पर प्रकाश डालिए।

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 विलंब से प्रारंभ- हिन्दी को उत्तराधिकार रूप में संस्कृत तथा प्राकृत की प्रचुर नाट्य-साहित्य की संपत्ति प्राप्त थीकिन्तु इसका प्रयोग अनेक कारणों से उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व न हो सका। इसलिए हिन्दी-नाट्य-परंपरा का विकास विलंब से हुआ। मुसलमानों के आक्रमणों के कारण राजनैतिक अशांति और उथल-पुथल रही । इस्लाम-धर्म के प्रतिकूल होने के कारण नाटकों को मुगलकाल में उस प्रकार का कोई प्रोत्साहन नहीं मिला जिस तरह का प्रोत्साहन अन्य कलाओं को मुगल-शासकों से प्राप्त हुआ। यही वजह है कि मुगल-शासन के दो ढाई सौ वर्षों में भारतीय-परंपरा की अभिनयशालाओं अथवा प्रेक्षागारों का सर्वथा लोप ही हो गया। अभिनयशालाओं के अभाव में नाटकों का विकास किस प्रकार हो सकता थायही कारण है :

कि भारतेन्दु जी से पूर्व हिन्दी नाट्य-कला अविकसित ही रही। इसके अतिरिक्त नाटकीय कथोपकथन के समुचित विकास के लिए जिस विकसित गद्य की जरूरत थीउसका भी इस युग में अभाव था। हिन्दी-नाट्य-परंपरा का विकास दिखाने के लिए उसका काल-विभाजन निम्न प्रकार कर सकते हैं:

1. पूर्व भारतेन्दु युग (सन् 1867 से पूर्व),

2. भारतेन्दु युग (1867 से 1905),

3. संक्रांति युग (1905 से 1915),

4. प्रसाद युग (सन् 1915 से 1934) और

5. प्रसादोत्तर युग (सन् 1934…..)

पूर्व भारतेन्दु युग- भारत में अंग्रेजी का प्रभुत्व स्थापित होने पर उन्होंने अपनी सुविधा के लिए यहाँ अनेक वस्तुओं को आरंभ किया। उन्होंने अपने मनोरंजन के लिए अभिनयशालाओं का संयोजन कियाजो थियेटर के नाम से विख्यात हुई। इस ढंग का पहला थियेटर प्लासी के युद्ध से पूर्व कलकत्ता में बन गया थादूसरा थियेटर सन् 1795 ई. में लेफेड फेअर‘ नाम से खुला था। इसके बाद सन् 1812 ई. में एथीनियम‘ और दूसरे वर्ष चौरंगी‘ थियेटर खुला। इस प्रकार पाश्चात्य-नाट्यकला के संपर्क में सबसे पहले बंगाल आया और उसने उनके थियेटर के अनुकरण पर अपने नाटकों के लिए रंगमंच को नया रूप दिया। भारतेन्दु-युग से पूर्व के नाटकों को नाटकीय दृष्टि से सफल नहीं कहा जा सकता। यह कुछ कवियों का नाटक लिखने का प्रयास-मात्र थालेकिन वे पद्य-बद्ध कथोपकथन के अतिरिक्त कुछ नहीं कहे जा सकते । इन नाटकों में कुछ अनूदित और कुछ मौलिक थे। अनूदित नाटकों में कुछ तो नाटकीय काव्य हैं तथा कुछ गद्य-पद्य मिश्रित नाटक । बनारसीदास जैन द्वारा अनूदित समयसार‘ नाटक और हृदयराम द्वारा अनूदित हनुमन्नाटक‘ आदि नाटकीय काव्य हैं। मौलिक नाटकीय काव्यों में प्राणचंद्र चौहान कृत रामायण महानाटक‘ तथा कृष्णजीवन‘, लक्ष्मीराम-कृत करुणाभरण‘ आदि की गणना की जाती है । प्रायः देखा गया है कि हर साहित्य में नाटकों की उत्पत्ति इसी प्रकार नाटकीय काव्यों से हुई। कलात्मक दृष्टि से तत्कालीन अनूदित नाटकों में प्रबोध चंद्रोदय‘ का सर्वप्रथम स्थान है। इसका अनुवाद सन् 1643 ई. में हुआ था। दूसरा नाटक आनंद रघुनंदन‘ है । इसका रचनाकाल सन् 1700 ई. में माना जाता है । कला की दृष्टि से यह उच्चकोटि की रचना नहीं है। इन सभी मौलिक और अनूदित नाटकों की भाषा ब्रजभाषा है। इन सभी नाटकों को नाटक न कहकर नाटकीय-काव्य कहा जा सकता है । इसी परंपरा में आगे चलकर सन् 1841 ई. में भारतेन्दु के पिता गोपालचंद्र का नहुष‘ और सन् 1861 ई. में राजा लक्ष्मणसिंह-कृत शकुंतला‘ उल्लेखनीय हैं। नहुष‘ में नाटकीय तत्व अवश्य मिलते हैं। अतः हिन्दी नाटकों का आरंभ यहीं से मानना चाहिए । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी-नाटकों का सूत्रपात संस्कृत की परंपरा से हुआ। आगे चलकर हिन्दी-नाट्य-साहित्य के इतिहास में भारतेन्दु-युग आरंभ होने पर जब हिन्दी-नाटकों का संपर्क अंग्रेजी नाटकों से स्थापित हुआतब संस्कृत की नाट्य परंपरा के स्थान पर अंग्रेजी नाट्य परंपरा ने अपना स्थान बना लिया।

भारतेन्दु युग- हिन्दी-नाटकों की अविच्छिन्न परंपरा भारतेन्दु जी से शुरू होती है। आपके नाटक अभिनेय होते थे। इस समय नाटक की प्राचीन परंपराओं का त्याग होने लगा था। भारतेन्दु ने अपने पिता के अनुकरण पर नाटकों के अनुवाद किये और मौलिक नाटक भी लिखे । उन्होंने अपने नाटकों को प्राचीन लक्षणों के अनुकूल ही लिखने का प्रयत्न किया थापर उनके नाटकों पर स्पष्टतः बंगला तथा फारसी नाटक-शैली की छाप है। उन्होंने इन शैलियों को जान-बूझकर ग्रहण किया हो ऐसी बात नहीं हैपर इतना तो अवश्य है कि वे किसी न किसी रूप में उनसे प्रभावित अवश्य रहे और उसी दृष्टि से उन्होंने अपने नाटकों को रंगमंच के उपयुक्त बनाने का प्रयत्न किया । परिणामस्वरूप नाटकों की भारतीय परंपरा भारतेन्दु के नाटकों में पाश्चात्य परंपरा से अछूती न रह सकी । इस प्रकार उनके नाटकों ने सामयिक बनकर परवर्ती नाटककारों के सामने आधुनिक हिन्दी-नाटकों की रूपरेखा प्रस्तुत की और उस दिशा में दूसरों को बढ़ने के लिए प्रेरित किया। इस युग में अंग्रेजीबंगला और संस्कृत के नाटकों के सफल अनुवाद हुए। भारतेन्दु जी ने सन् 1925 ई. में प्रथम अनूदित नाटक विद्या सुंदर‘ हिन्दी को दिया। इसके पश्चात् मौलिक नाटक वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति‘, ‘प्रेम योगिनी‘, ‘सत्य हरिश्चंद्र‘, ‘चंद्रावली‘, ‘भारत दुर्दशा‘, ‘नीलदेवी‘, ‘अंधेर नगरी‘ आदि तथा अनूदित नाटक विद्या सुन्दर‘, ‘मुद्राराक्षस‘ आदि नाटक भारतेन्दु जी ने लिखे।

भारतेन्दु जी के समकालीन लेखकों में बद्रीनारायण प्रेमधन‘ का भारत सौभाग्य‘; प्रतापनारायण मिश्र के कलि प्रभाव‘, ‘गौ-संकट‘, ‘त्रिया तेल हमीर हठ चढ़े न दूजी बार‘ राधाकृष्णदासजी के महारानी पद्मावती‘ तथा महाराणा प्रताप‘ केशव भट्ट के सज्जादसम्बुज‘ ‘समवाद सौसन‘ आदि नाटक उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त श्रीनिवासदास के प्रणयी प्रणय‘, ‘मयंक मंजरी‘: सालिगराम का माधवानल कामकंदला‘ आदि नाटक भी पर्याप्त ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। इनमें से अधिकांश नाटकों का कलात्मकता की दृष्टि से कोई मूल्य नहीं है।

भारतेन्दु-युग में संस्कृत के प्रायः सभी अच्छे नाटकों के अनुवाद हुए । भवभूति कृत उत्तर रामचरित‘,’मालती माधव‘ तथा महावीर चरित‘ का हिन्दी में अनुवाद हुआ । सन् 1898 ई. में लाला सीताराम ने कालिदास के मालविकाग्नि मित्र‘ का हिन्दी-अनुवाद किया। इसके अलावा वेणी संहार‘, ‘मृच्छकटिक‘, ‘रत्नावली‘ तथा नागानंद‘ के भी हिन्दी अनुवाद हुए। इन संस्कृत के नाटकों के अतिरिक्त बंगला से भी नाटकों के अनुवाद हुए । माइकेल मधुसूदन कृत पद्मावती‘ तथा कृष्णा मुरारी‘ आदि के सफल अनुवाद सामने आये। इसी समय अंग्रेजी से भी अनुवाद् की परंपरा चल पड़ी । शेक्सपियर के मर्चेन्ट ऑफ वेनिस‘ का दुर्लभ बंधु‘, ‘वेनिस नगर का सौदागर‘ तथा वेनिस नगर का व्यापारी‘, ‘कमेडी ऑफ एरर्स‘ का भ्रमजालक‘, ‘एज यू लाइक इट‘ का मन भावना‘ तथा रोमियो एंड जूलियट‘ का प्रेम-लीला‘, ‘मैकबैथ‘ का साहसेंद्र साहस‘ के नाम से अनुवाद हुआ।

इस तरह नाटक-निर्माण की दृष्टि से भारतेन्दु-युग में नाटकों के प्राचीन विषयों की पुनरावृत्ति ही नहीं हुईअपितु कतिपय ऐसे नवीन विषयों को भी जन्म दिया गयाजो भावी हिन्दी-नाटककारों के लिए पथ-प्रदर्शक बन गये। इसमें संदेह नहीं कि कई कारणों से यह काल नाटक-रचना के लिए क्षणिक ही सिद्ध हुआ और अगले दस वर्षों में किसी महत्वपूर्ण नाटक की रचना न हो सकीफिर भी इसी काल ने प्रसाद-युग को जन्म दिया और यदि यह कहा जाये कि भारतेन्दु-काल में ही प्रसाद जी विद्यमान थे तो अत्युक्ति न होगी।

संक्रांति-युग- प्रसाद-युग के आरंभ होने के पहले यह दस वर्ष का काल बड़े महत्व का है । बंग-भंग के प्रश्नों को लेकर समस्त देश में राष्ट्रीय-आंदोलन हुए। इसका नाट्य-साहित्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इन दस-ग्यारह वर्षों का नाट्य-साहित्य भारतेन्दु-युग के नाट्य-साहित्य से कई बातों में भिन्न हो गया। इसका स्पष्ट प्रभाव ऐतिहासिकप्रेम-प्रधान तथा समस्यामूलक नाटकों पर पड़ा। कला की दृष्टि से नाटकों में किसी तरह की विशेषता न आ सकी । पौराणिक कथानकों को लेकर जो नाटक लिखे गयेउनमें महावीरसिंह कृत नलदमयंती‘, जयशंकर प्रसाद कृत करुणालय‘ और बद्रीनाथ भट्ट कृत कुरुवनदहन‘ अपना प्रमुख स्थान रखते हैं । ऐतिहासिक नाटकों में शालिगराम कृत कुरु-विक्रम‘, वृंदावनलाल वर्मा कृत सेनापति उदाल‘ और बद्रीनाथ भट्ट कृत चंद्रगुप्त‘ और तुलसीदास‘ अधिक प्रसिद्ध हैं। इन नाटकों में ऐतिहासिक घटनाओं के साथ भारतेन्दु-युग की अपेक्षा ऐतिहासिक वातावरण का चित्रण अधिक सफलता से किया गया । समस्या-प्रधान नाटक सामाजिक और राष्ट्रीय विचारों का समन्वय लेकर उपस्थित हुए। नाटकों में मिश्र-बंधुओं की सन् 1915 ई. की नेत्रोन्मीलन‘ रचना महत्वपूर्ण है । प्रहसनों में बद्रीनाथ भट्ट कृत चुंगी की उम्मीदवारी‘ अधिक प्रसिद्ध है।

इस संक्रांति युग में अनूदित नाटकों की परंपरा भी चलती रही। अंग्रेजीबंगला और संस्कृत से सफल अनुवाद होते रहे । बंगला से द्विजेन्द्रनाथ राय के नाटकों के अनुवाद हुए । इस प्रकार जब हिन्दी-नाटक संस्कृत तथा बंगला से अनुप्राणित हो रहे थेउसी समय रंगमंच के क्षेत्र से पारसी नाटक हमारे सामने आए । पारसी नाटक कंपनियों ने आकर्षक और मनोरंजक बनाकर हमारे सामने अपने नाटक उपस्थित किये। ये नाटक साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से ऊंचे न थेतथापि उनमें नाट्यकला का आकर्षण तो था ही। हिन्दी नाट्य-कला भी इस ओर झुकी । हिन्दी में इस प्रकार के नाटक उपस्थित करने का श्रेय नारायण प्रसाद बेताबपं. राधेश्याम कथावाचक और हरेकृष्ण जौहर को है।

संक्रांति-युग में नाटकों के क्षेत्र में कोई विशेष उन्नति तो नहीं हुई पर भाषा की दृष्टि से खड़ी बोली का प्रचलन हो गया। विषय-वस्तु में धार्मिकता का स्थान सामाजिकता और ऐतिहासिकता ने ले लिया। नाटककारों का दृष्टिकोण यथार्थवाद से प्रभावित हुआ। इस प्रकार संधि-काल के नाट्य-साहित्य में ऐसा परिवर्तन हुआ जो आगे चलकर प्रसाद-युग को महत्वपूर्ण बनाने में सहायक हो सका।

प्रसाद-युग- प्रसादजी ने हिन्दी-नाटकों को एक नई दिशा तथा नई गति प्रदान की। उनके मौलिक नाटकों ने न केवल लोगों के बंगला के प्रति आकर्षण का ही शमन किया वरन् उच्चकोटि का नाट्य-साहित्य भी हिन्दी को दिया। प्रसाद-युग नाट्य साहित्य की कई धाराओं को लेकर सामने आया। इस प्रकार भारतेन्दु काल में जिन नाटकीय प्रवृत्तियों का बीजारोपण हुआ थावे संधिकाल में अंकुरित होकर प्रसाद-युग में कतिपय नवीन चेतनाओं और नवीन विचारधाराओं को लेकर आगे बढ़ीं । प्रसाद-युग में नाटकों पर शेक्सपियर की नाट्य-कला का विशेष प्रभाव पड़ा। हिन्दी के नाटककारों को प्रारंभ में संस्कृत नाट्य-साहित्य से जो प्रेरणा मिलीवह भारतेन्दु काल में पाश्चात्य नाट्य-कला से आंशिक रूप में प्रभावित होकर प्रसाद-युग में एकदम बदल गई।

प्रसाद-युग में कई पौराणिक नाटक लिखे गये। मैथिलीशरण गुप्त का तिलोत्तमा‘, कौशिक का भीष्म तथा गोविन्दबल्लभ पंत का वरमाला‘ विशेष महत्वपूर्ण हैं । ऐतिहासिक नाटकों के अतिरिक्त बेचन शर्मा उग्र‘ का महात्मा ईसा‘,प्रेमचंद का कर्बला‘, मिलिन्द का प्रताप प्रतिज्ञा‘,उदयशंकर भट्ट का विक्रमादित्य‘ तथा सेठ गोविन्ददास का हर्ष‘ उल्लेखनीय हैं । राष्ट्रीय धारा में प्रेमचंद का संग्राम‘ उत्कृष्ट नाटक है । समस्या-प्रधान नाटकों में लक्ष्मीनारायण मिश्र के सन्यासी‘, ‘राक्षस का मंदिर‘ और मुक्ति का रहस्य‘ नवीन चेतना को लेकर उपस्थित हुए । वर्तमान युग की उलझती हुई समस्याओं के कारण यह परंपरा विकसित ही होती चली गई। में प्रसाद अनुवाद भी हुए । सत्यनारायण ने भवभूति कृत मालती माधव‘ और गुप्त जी ने भास के स्वप्नवासवदत्ता‘ का अनुवाद किया। अंग्रेजी नाटकों में शेक्सपियर के ओथेलो‘ का अनुवाद हुआ। रूसी लेखक टॉलस्टाय के तीन नाटकों के अनुवाद तलवार की करतूत‘, ‘अंधेरे में उजाला‘ और जिंदा लाश‘ के नाम से प्रकाशित हुए। बेल्जियम के प्रसिद्ध कवि मारिस मेटरलिंक की दो छोटी नाटिकाओं का हिन्दी-अनुवाद पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी -युग ने किया।

प्रसादजी स्वयं एक युग-सृष्टा थे। उनके नाटकों का विषय बौद्धकालीन-स्वर्णिम अतीत है। उनके नाटकों में द्विजेन्द्रलाल राय और रवि बाबू की सी दार्शनिकता और भावुकता मिलती नाटक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं। नाटकीय विधान में प्रसाद जी ने अपने नाटकों को सर्वथा रूढ़िवादी परिपाटी से पृथक्रखा। उन्होंने प्राचीनता के स्वरूप को ही ग्रहण किया। हम उनके नाटकों में प्राच्य और पाश्चात्य नाट्य-कला का समन्वय पाते हैं। नाटक-रचना की दृष्टि से भारतेन्दु युग की अपेक्षा प्रसाद युग ज्यादा सफल है। प्रसाद रहा। भारतेन्दु जी जहां अपने युग के नेता थेवहां प्रसाद जी अपने युग के नेता न हो सकेउनकी नाट्य-कला अपने समकालीन नाटककारों को समान रूप से प्रभावित न कर सकी। वैज्ञानिक सुधारों और राजनीतिक हलचलों के कारण प्रसाद-युग का कलाकार स्वतंत्र चेता हो गयो था । प्रसाद जी की रचनाएं व्यक्तिगत साधना का परिणाम थीइसलिए प्रसाद अपने क्षेत्र में अकेले ही रहे।

प्रसादोत्तर युग (आधुनिक काल) – सन् 1934 ई. से हिन्दी नाट्य-साहित्य के आधुनिक युग का प्रारंभ होता है। इस युग में नाट्य-साहित्य के नवीन प्रयोग हुए । फ्रायड के सिद्धांतों की धूम मची हुई थी। इस समय पाश्चात्य साहित्य में एक नवीन युग का प्रारंभ हुआ। ऑस्कर वाइल्डवर्जीनिया वुल्फएच.जी. वेल्सगाल्सवर्दी आदि की रचनाओं में प्रत्येक समस्या बुद्धिवाद तथा उपयोगितावाद की कसौटी पर कसी गई । नाट्य-साहित्य में इव्सन के समस्या-प्रधान नाटकों की धूम थी। ये सभी प्रभाव आधुनिक काल में हिन्दी नाट्य-कला पर पड़े। सबसे पहले लक्ष्मीनारायण मिश्र ने इन प्रभावों को अपने समस्या-प्रधान नाटकों में ग्रहण किया। उनके नाटकों में नारी समस्या को प्रमुख स्थान मिला।

आधुनिक युग के प्रथम उत्थान-काल (सन् 1934-1942 ई) में पौराणिक धारा के अंतर्गत भी लिखे गये । उदयशंकर भट्ट की राधा‘ इस क्षेत्र में विशिष्ट रचना है। अन्य पौराणिक आख्यानों पर आधारित उदयशंकर भट्ट कृत अंबा‘, ‘सागर विजय‘, ‘मत्स्यगंधा‘ और विश्वामित्र‘ उल्लेखनीय हैं । कला की दृष्टि से उग्र जी का गंगा का बेटा‘ महत्वपूर्ण नाटक है । ऐतिहासिक क्षेत्र में हरिकृष्ण प्रेमी ने अधिकारपूर्ण नाटक लिखे । अन्य ऐतिहासिक नाटकों में उदयशंकर भट्ट का दाहर‘ गोविंदवल्लभ पंत के राजमुकुट‘ और अंत:पुर का छिद्र‘ उपेन्द्रनाथ अश्क‘ का जय-पराजय‘, हरिकृष्ण प्रेमी के रक्षा-बंधन‘, ‘शक्ति-साधना‘, ‘प्रतिशोध‘, ‘स्वप्न-भंग‘, ‘आहुति‘ और सेठ गोविन्ददास का शशिगुप्त‘ उल्लेखनीय हैं। पंत जी का ज्योत्स्ना‘ नाटक प्रतीकवादी है । इस युग में एकांकी नाटकों की रचना भी हुई। भुवनेश्वर का एकांकियों का संग्रह कारवां‘ के नाम से प्रकाशित हुआ । रामकुमार वर्मा कृत पृथ्वीराज की आंखें‘,रेशमी टाई तथा चारुमित्रा‘, उदयशंकर भट्ट कृतअभिनव एकांकी‘ तथा स्त्री हृदय‘ और अश्क जी कृत देवताओं की छाया में‘ विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।

द्वितीय उत्थान काल (सन् 1942 से) में नाटक के क्षेत्र में ऐतिहासिक और सामाजिक नाटकों की रचना विशेष रूप से हुई। स्वतंत्रता प्राप्त होने पर कतिपय राष्ट्रीय भावना प्रधान नाटक भी लिखे गये। इस दिशा में सेठ गोविन्ददास के ‘पाकिस्तान’ और ‘सिद्धांत स्वातंत्र्य विशेष महत्व के हैं। ऐतिहासिक नाटकों में प्रेमी जी के ‘मित्र’, ‘विष-पान’, ‘उद्धार’ तथा ‘शपथ’ लक्ष्मीनारायण मिश्र का ‘गरुड़ध्वज’, ‘वत्सराज’ तथा ‘दशाश्वमेघ’, बेनीपुरी का ‘संघमित्रा’ और ‘सिंहलविजय’, वृंदावनलाल वर्मा का पूर्व की ओर’, ‘बीरबल’, ‘झांसी की रानी’, ‘कश्मीर का कांटा’, ‘शिवाजी’, चतुरसेन शास्त्री का ‘अजीतसिंह’ तथा ”राजसिंह’ आदि प्रसिद्ध हैं। बाल-साहित्य में अच्छे एकांकी नाटकों की रचना हुई । रेडियो में भी प्राय: एकांकी नाटक प्रसारित होते रहते हैं। शिक्षा-संस्थाओं और सांस्कृतिक आयोजनों के अवसर पर हिन्दी रंग-मंच की बढ़ती हुई मांग के कारण हमारा एकांकी नाट्य-साहित्य पर्याप्त विकसित होता जा रहा है ।

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