निम्नलिखित कलाओं के शास्त्रीय एवं क्षेत्रीय रूपों के जीवंत एवं रिकॉर्ड प्रदर्शन में छात्राध्यापकों की देखने और सुनने की उपादेयता पर प्रकाश डालिए- (1) संगीत और नृत्य (2) नाटक (3) कठपुतली

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 निष्पादन या प्रदर्शनात्मक कलाओं के शास्त्रीय तथा प्रचलित आम क्षेत्रीय रूप-दोनों का महत्त्व यह है कि ये देखने-सुनने वाले असंख्य लोगों का निरंतर मनोरंजन करते और उन्हें संदेश देते हैं । इन कलाओं में प्रमुख हैं संगीत (गायन तथा वादन)नृत्यनाटककठपुतली आदि । कला के ये रूप अपना सांस्कृतिकसाहित्यिकसामाजिक तथा भावात्मक महत्त्व रखते हैं। वर्तमान में इन कलाओं के जीवंत (लाइव) रूप तथा रिकॉर्ड किया हुआ रूप-ये दो रूप प्रचलन में हैं। जीवंत रूप शताब्दियों से प्रचलित परम्परागत रूप है तथा वीडियो/टेपरिकॉर्डर या प्रिंट मीडिया आदि में इनका रिकॉर्ड किया हुआ. रूप आधुनिक समय की देन है।

छात्राध्यापकों के लिए बालकों के व्यक्तित्व के सांस्कृतिकसाहित्यिककलात्मक एवं सौंदर्यात्मक रूप की शिक्षा विशेष महत्त्व रखती है क्योंकि छात्राध्यापक भविष्य के शिक्षक हैं तथा अपने विद्यालयीन सेवाकाल में उन्हें छात्रों में कलात्मक सांस्कृतिक रुचि उत्पन्न करनेअभ्यास कराने तथा विद्यालय में सांस्कृतिक साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन करने का महत्त्वीय उत्तरदायित्व है। अतः इन कला-रूपों को देखने-सुनने का तथा इनमें सहभागिता के द्वारा छात्राध्यापकों में रुचिकौशलनिष्पादन तथा कला की बारीकियों को समझने की विशेष उपादेयता है।

(1) संगीत और नृत्य- सजीव तथा रिकॉर्ड किये हुए संगीत (गायन-वादन) और नृत्य को देखना व सुनना एक रोचक तथा ज्ञानवर्द्धक प्रक्रिया है। इससे छात्राध्यापकों में नृत्य एवं संगीत के बारे में व्यापक ज्ञान प्राप्त होता है। शिक्षक का दायित्व अपने छात्रों को इस ज्ञान से अवगत कराना तथा नृत्य संगीत को देखने व सुनने का व्यवस्था करना होता है । समय-समय पर नृत्य तथा संगीत के कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं जिसमें अनेक वादक व नर्तक अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। छात्रों/छाध्यापकों को इन सजीव प्रस्तुतियों को देखने व सुनने के अवसर मिलने चाहिए । इनसे ज्ञान के साथ कलाओं की समीक्षात्मक समझ भी दर्शकों/श्रोताओं में उत्पन्न होती है । अनेक कारणों से सजीव आयोजनों में छात्राध्यापकों को हमेशा ले जाना संभव नहीं होता अत: यदि सीड़ी/कैसूलों/वीडियो/टी.वी. आदि में रिकॉर्ड किये हुए कलारूपों को दिखाना-सुनाना भी महत्त्वपूर्ण है । देखने-सुनने के बाद छात्राध्यापकों में कला रूपों पर पृथक-पृथक परिचर्चा या संवाद या आयोजन किया जाना चाहिए ताकि कला की बारीकियों तथा गुणों आदि का समीक्षात्मक कौशल भी छात्राध्यापकों को अर्जित हो सके।

इसे देखने-सुनने में संगीत व नृत्य कला के शास्त्रीय तथा क्षेत्रीय रूपों को सम्मिलित किया जाना चाहिए संगीत में शास्त्रीय संगीत की

1. हिन्दुस्तानी संगीत तथा

2. कर्नाटक संगीत

इन दोनों को सम्मिलित किया जाना चाहिए। हिन्दुस्तानी संगीत में सितारतबलासरोद व सारंगीवीणाशहनाई आदि का प्रयोग तथा ख्यालध्रुपदगजलतराना आदि गाया जाता है। कर्नाटक संगीत भारत के दक्षिण भाग के आंध्रप्रदेशकर्नाटककेरलतमिलनाडु में प्रचलित है जिसमें भक्तिरस प्रधान है । इस संगीत में छोटे समूह द्वारा वायलिन के संगत से मृदंगतम्बूराघटमबाँसुरीवीणा आदि से संगति दी जाती है।

शास्त्रीय संगीत जटिल होता है तथा सुगम संगीत

1. लोकगीत,

2. भक्तिगीत,

3. देशभक्ति गीत,

4. जनजाति तथा

5. रजवाड़ी गीत

के रूप में गायन/वादन में क्षेत्रीय स्थानों पर आयोजित होते हैं| बंगाल प्रान्त का रवीन्द्र संगीत भी क्षेत्रीय रूप है|

नृत्य को इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है –

1. शास्त्रीय नृत्य

2. लोक नृत्य तथा

3. आधुनिक या समसामयिक नृत्य

सुसम्बद्ध लय व संगीत के साथ अकेले या अन्य सहयोगियों के साथ थिरकन को नृत्य कहते हैं। नृत्य के एकल या सामूहिक आयोजनों में अलग-अलग भाव भंगिमा तथा अंगसंचालक को देखना-सुनना व समझना चाहिए । क्षेत्रीय व प्रांतीय नृत्यों में कश्मीर का रोफ नृत्यपंजाबी भांगड़ाउड़ीसा का दुर्गा नृत्यपश्चिमी बंगाल का गंजन नृत्यअसम का बोडोमिजोरम का खुवाललय (बांस नृत्य) महाराष्ट्र का काला नृत्यगुजरात का गरबाराजस्थान का घूमर आदि विख्यात है। शास्त्रीय नृत्यों में भरतनाट्यमकथकलिमणिपुरीकत्थकओडिसीकुचिपुडीमोहनी अट्टम आदि आते हैं।

छात्राध्यापकों को उक्त सभी रूपों का जीवंत या रिकॉर्ड किये हुए रूप दिखाकर उनकी अलग-अलग विशेषताओं पर चर्चा आदि कहानी चाहिए।

(2) नाटक- भारत नाटक काव्य का रूप रहे हैं जो रचना श्रवण द्वारा नहीं अपितु दृष्टि द्वारा दर्शकों के मन में रसानुभूति करते थे तब नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता आती थी । अभिनय होने से पूर्व नाटकों में (मंगलाचरण नांदी) होती थी जिसे पूर्वरंग कहते हैं। पूर्वरंग के उपरांत प्रधान नट या सूत्रधार आकर सभा की प्रशंसा करता था तथा नटनटीसूत्रधार रजवाड़ी गीत के रूप में गायन/वादन में क्षेत्रीय स्थानों पर आयोजित होते हैं । बंगाल प्रांत का रवीन्द्र संगीत भी क्षेत्रीय रूप है।

शास्त्रीय नृत्यलोक नृत्य तथा आदि परस्पर खेले जाने वाले काव्य नाटक का प्रस्तावकवि वांश आदि वर्णन करते अंश नाटक का प्रस्तावना कहलाता है परंतु आजकल देशभाषाओं में जो नाटक लिखे-खेले जाते हैं उनमें संस्कृत नाटक के उक्त नियमों का पालन अनावश्यक समझा जाता है। संस्कृत नाटकों का युग ढलने लगा तब चौदहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक उसका स्थान विभिन्न भारतीय भाषाओं में लोक नाटकों (फोक थियेटर) ने लिया। ये लोकनायक भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते हैं-रामलीला (उत्तरी भारत)जात्रा (बंगालबिहार)तमाशा (महाराष्ट्र)नौटंकी (उत्तर प्रदेशराजस्थानपंजाब)भवई (गुजरात)थेरूबुडू (तमिलनाडु)नाचा (छत्तीसगढ़) आदि। रंगमंचीय नाटकएकांकीभारत में हिन्दी आदि भाषाओं में आधुनिक पठनीय तथा लघुनाटकप्रहसननुक्कड़ नाटकरेडियो नाटकटेलीविजन नाटक आदि इतिहासधर्मसमाजआदि के केन्द्रित लिखे व प्रदर्शित किये जाते हैं।

नाटक में रंगमंच व्यवस्था के अतिरिक्त गतिहावभाव या मुद्रामूकाभिनयवातावरण निर्माण,पात्र व चरित्रअभिनय,संवाद आदि को महत्त्व दिया जाता है । पात्र की वेशभूषारंगमंचीय व्यवस्था आदि भी महत्त्व रखती है।

प्रकाश छात्राध्यापकों के लिए नाटक के सैद्धान्तिक तथा प्रायोगिक ज्ञान के लिए आधुनिक तथा लोक नाटकों को सजीव देखना तथा उनकी रिकॉर्डिंग सुनना आवश्यक है। इनसे नाटक व रंगमंच का सैद्धान्तिक तथा प्रायोगिक ज्ञान छात्राध्यापकों को प्राप्त होता है तथा वे नाटकों की बारीकियों से देख-सुनकर परिचित हो जाते हैं। नाटक देखने के बाद उसकी विशेषताओं पर परिचर्चा छात्राध्यापकों में होनी चाहिए।

(3) कठपुतली- कठपुतली कठ (लकड़ी) आदि से निर्मित तथा सूत्र (या किसी अन्य युक्ति के सहारे) हाथ पैरों आदि की हलचल करने वाले गुड्डे-गुड्डियों के पुतले हैं जो नाटकीय रूप में अपना संदेश प्रदर्शित कर लोगों (दर्शकों) का मनोरंजन व ज्ञानरंजन कहते हैं। इन कठपुतलियों का सूत्र संचालन सूत्रधार के हाथों में होता है। कठपुतली की कला 64 कलाओं में परिगणित होती है।

कठपुतली नृत्य का सांस्कृतिक महत्त्व है तथा शताब्दियों तक कठपुतली आम जनता में मनोरंजन के लिए प्रयुक्त होती रही है ।

छात्राध्यापकों के लिए कठपुतली का सजीव प्रदर्शन या वीडियोग्राफी देखना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि प्राथमिक-माध्यमिक स्तर के बालकों में इसके आयोजन व मंचन से अनेक कथाऔं आदि का ज्ञान बालकों को प्रदान किया जा सकता है । कठपुतली के भिन्न-भिन्न प्रकार के खेल मनोरंजन भी करते हैं तथा छोटे छात्रगण तो इसे बड़े चाव से बार-बार देखते व आनंदित होते हैं। कठपुतली खेल संदेश देनेकिसी सामाजिक बुराई को दूर करनेइतिहास की घटनाओं का ज्ञान करानेपौराणिक या लोक कथाएं प्रदर्शित करने आदि का शिक्षाप्रद खेल भी है ।

कठपुतली का निर्माण करना, उसके खेल के लिए संचालन करना आदि हेतु छात्राध्यापकों को कठपुतली खेलों का जीवंत या रिकॉर्डिंग किया हुआ अंश देखना सुनना तथा प्रत्येक खेल के उपरांत उसकी विशेषताओं उपयोगिता पर परिचर्चा करना उपयोगी सिद्ध होता है।

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