भारतीय परम्परागत शिल्प तथा इसका शिक्षा में योगदान का वर्णन कीजिए।

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पिछवई चित्रकला- कृष्णभक्ति परम्परा के वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख तीर्थ नाथद्वारा की विशेष शैली है जो मथुरा में शुरु हुई एवं कालान्तर में मुगलों के डर से भागे हुए चित्रकारो ने उदयपुर में शरण ली तथा अपनी रिच्छवई कला को आगे बढ़ाया । कृष्ण की बाल लीलाओं पर आधारित पिछवई चित्रण मेवाड़ की लघु चित्रशैली का ही एक परिवर्तित स्वरूप है जिसमें सोने की कलम का काम इसे अन्य शैलियों से अलग करता है । बालकृष्ण एवं पूजन विधि के अनुरूप कपड़े पर चित्रण किया जाता है जिसे भगवान के स्वरूप के पीछे लगाने से इसका नाम पिछवई पड़ा तथा बाद में नाथद्वारा शैली‘ कहलाई 

2. स्टेन्सिल छायांकन आवश्यक सामग्री- दो समान आकारों के मोटे कागजप्लास्टिक शीटपेन्सिलकार्बन पेपरकटर अथवा ब्लेडरंगटूथब्रशप्लेट तथा पानी की जरूरत होगी।

विधि- काटे गये मछली के स्टेन्सिल वाले कागज को किसी अन्य कागज पर रखकर उसके चारों तरफ रेखा खींच दें। प्लेट में तैयार रंग को टूथब्रश की मदद से इसके ऊपर स्टेन्सिल से मछली तैयार करना चाहिए।

3. पिंगुली चित्रकला (चित्रकथी) – निरक्षर चित्रकारों द्वारा मिट्टी के रंगों से बने ये चित्र तकरीबन 60 से 400 वर्ष पुराने हैं एवं सिर्फ चार हजार चित्र मौजूद हैं। अगर अति शीघ्र इनका संरक्षण नहीं किया गया तो यह कला विलुप्त हो जायेगी। इन कथाओं के ज्यादातर चित्रों के विषय रामायण तथा महाभारत होते हैं एवं गा-गाकर चित्रों के माध्यम से उस प्रसंग को दर्शकों को दिखाया जाता है। महाराष्ट्र के पिंगुली स्थान पर इस समय परशुराम गंगावणे परिवार इस कला को जीवित रखे हैं हुए है।

4. मधुबनी (मिथिला) चित्रकला- मधुबनी या मिथिला कला के नाम से जानी जाने वाली कला बिहार की दरभंगा तथा मधुबनी ग्राम में पनपी । धार्मिक तथा सामाजिक मुख्य विषय बने । यह कला चार तरह की है-प्रथम-आकृतियों की बाह्य रेखा गाढ़ी स्याही से बनाई जाती है आन्तरिक भाग मुख्यतः लालनीलापीला तथा हरा होता है। द्वितीय- रेखांकन काला तथा कभी-कभी लालपृष्ठभूमि सफेद सूक्ष्म चित्रांकन होता है। तृतीय- गोधना एक ही शुभ प्रतीक को पूरे पाट पर गाय के गोबर का लेप करके बनाया जाता है। चतुर्थ- तांत्रिक चित्रण में प्रतीक तथा अनुष्ठान बनाये जाते हैं । प्रमुख चित्रकार कृष्णानन्दसीतारामपासवानविभा देवीउर्मिला देवी आदि प्रमुख हैं ।

5. पाट चित्रण- 19वीं शताब्दी में भारत के कुछ स्थानों में स्थानीय शैलियाँ पनप रहीं थीं जिसमें पाट चित्रकला का अलग ही स्थान है। पाट चित्रकला अति प्राचीन भारतीय लोक चित्रकला की शैली है। पाट का शाब्दिक अर्थ सतह से है जिस पर ग्रामीण चित्रकारों द्वारा अपने चित्र बनाये जाते हैं।

पाट चित्रकला को हम अग्रलिखित भागों में विभाजित कर सकते हैं

1. उड़ीसा तथा बंगाल की पाट चित्रकला- उड़ीसा तथा बंगाल के पाट चित्रों के विषयवस्तु अक्सर महाकाव्यों तथा पुराणों से लिये जाते हैं। सामाजिक घटनाओं जैसे जोगाई माधाईमहिला द्वारा पति की झाडू से पिटाईमोची आदि विषय भी लिये जाते हैं। ज्यादातर उड़ीसा में कृष्णबलराम सुभद्रा एवं पश्चिमी बंगाल में कालीघाट चित्रण‘ के नाम से जानी जाने वाले चित्रों के विषय कालीशिव आदि होते हैं। इस कला में काली मोटी रेखाओं के साथ लाल रंग का प्रयोग किया जाता है। पाट चित्रकला को प्रायः विविध भागों में विभाजित किया जाता है जैसे कि जादनो पाटचौकोस पाटयम पाटजादू पाट आदि । कृष्णलीलाचैतन्य लीलाआदि की कथाएं इनके प्रिय विषय हैं । बंगाल के यामिनी राय कालीघाट सादगी सावित्री तथा सत्यवान के पट चित्रों से प्रभावित होकर विश्व विख्यात चित्रकार को तथा उन्होंने उन चित्रकारों से रंगों का चटकीलापन एवं रेखांकन सीखा तथा उससे अपने चित्रों को सँवारा ।

6. फड़ चित्रकला- राजस्थान में लोक देवताओं के कथा गायन की परम्परा को अपने साथ जोड़कर फड़ चित्रकला का जन्म हुआ। कथा गायन के इस रूप में गायक अपने गायन को आधार देने हेतु एक चित्रित पर्दा उपयोग में लाता है। इसी पर्दे को फड़ कहा जाता है। इस पर्दे में लोक देवताओं के जीवन के विविध प्रसंगों को चित्रित किया जाता है। राजस्थान के लोक देवता के आधार पर फड़ का नाम होता है जैसे देव नारायण का फड़ या पाबू जी का फड़। चटख रंगों का प्रयोग किया जाता है एवं विशेष रूपरेखा की वजह से इनकी पहचान अलग ही है। अब यह कला सिर्फ राजस्थान के भीलवाड़ा गाँव तक ही सीमित रह गई है। इसके कला के मुख्य चित्रकार दुर्गेश जोशीराजेन्द्र कुमार जोशीशान्ती लाल जोशीश्रीलाल जोशी हैं। ये में भोपाभोपी कहलाते हैं।

गायक राजस्थान पाबूजी का फड़- विवाह के समय बीच में उठकर गौओं की रक्षा करने वालेपाबूजी राठौड़ मारवाड़ के एक महावीर हुए हैं। कई विरुदावली उनके बहादुरी के मारवाड़ में गाए जाते हैं। मारवाड़ के भोपे चित्रांकित परदों के सामने पाबूजी राठौड़ के गीत गाते हैं। घूमघूम कर राजपूत शैली के फड़ के सम्मुख अनुसूचित जाति के ये भोपे अपने नायक के गुणों को घूम-घूम कर गाते हैं। लोकनायकों की शौर्य राजस्थान में फड़ चित्रों में रामदेवपागजीदेवनारायण आदि गाथाएं चित्रित की गई हैं। रामकृष्ण की लीलाओं का वर्णन भारत के साथ अन्य क्षेत्रों में भी खूब हुआ है । इसके अलावा दुर्गा सप्तशतीसाँझीआदि का चित्रण भी किया जाता है। राजस्थान में बनी ठणी शैली को भी खूब पसन्द किया जाता है। लोक चित्रकला में राधाकृष्ण चित्रण एवं फड़ में भी यह चित्रण बहुत प्रसिद्ध है।

7. सहारिया- मुस्लिम विजेताओं ने जब दिल्ली के आस-पास रहने वाले लोगों को वहाँ से भगा दिया तो इन लोगों ने वनों में अपना आश्रय लेना शुरू किया। विशेषकर मध्य प्रदेश के लोग जंगल में शेरों के साथ रहने के कारण ये शेरिया कहलाए तथा बाद में यही शेरिया बिगड़कर सहरिया‘ बन गये तथा यहाँ की कला भी सहरिया के नाम से जानी जाने लगी। आज भी यहाँ के जनजाति अपनी टोटमी देवताओं की पूजा करते हैं लेकिन अब ये हिन्दू देवी-देवताओं को मानने लगे तथा स्वयं को हिन्दू भी कहने लगे। गणेशहनुमान के सुन्दर चित्र तीज-त्यौहारों में अपने घरों को साफ-सुथरी दीवारों में वनस्पति रंगों द्वारा खजूर के पत्ते के बीच के हिस्से से बनाई गई तूलिका से सुसज्जित करने लगे। इस कार्य के प्रमुख चित्रकार मुरैना के बाली बाईभन्तीडाखाबाईहरिदास माहौरकमला बाईकेसर बाई हैं जो इस कला को जीवित रखे हुए हैं

8. ब्रज की स्वर्ण चित्रकला- स्वर्ण तथा बहुमूल्य रत्नों की चित्रों में अलंकृत करने की कला को ब्रज की स्वर्ण चित्रकला कहा गया है।

प्रथमतः केनवास पर पेन्सिल से चित्रण करकेतेल रंगों से परिपूर्ण करके उसे स्वर्ण एवं बहुमूल्यों को चिपकाया जाता है । यह विधा राजस्थानी चित्रकला से निकल कर बाद में ब्रज में सम्मिलित कर ली गयी है-इस विधा में कान्हाई तथा उनके पुत्रगण एवं कृष्ण तथा गोविन्द इस विधा के ब्रज के चित्रकार हैं।

9. कलमकारी- कपड़े पर वाँस के नुकीले कलम से कपड़े पर चित्रकारी करना आन्ध्र प्रदेश को कलमकारी कहलाती है। इस विधा में गाढे वनस्पति रंगों जैसे लौह समान कालालाल तथा नीले रंगों का प्रयोग किया जाता है । वनस्पति को सुखाकर रंग बनाया जाता है माड़ को पीने हेतु नदी के पानी का प्रयोग किया जाता है। बाद में चित्र को गुड़ के घोल में डुबोया जाता है इसमें काला रंग स्थायी हो जाता है। पहले आकृति बनाकर फिर कपड़े को एक रंग में रंगा जाता है। स्त्रियों की आकृति हेतु पीलादेवता नीलादानव लाल तथा हरे रंग के बनाये जाते । महाकाव्य इसके प्रिय विषय होते हैं। इसके प्रमुख कलाकार टी. मोहनश्री कलाहस्ती हैं।

10. हागर गुंडगी (मैसूर शैली) – मैसूर की पारम्परिक कला की नकल के द्वारा इस पारम्परिक कला का जन्म हुआ। पुराण पर आधारित देवी-देवताओं के विषय बहुत कम रंगों का प्रयोग करके बनाये जाने लगे। स्वर्ण पत्रों का प्रयोग करके सजावट की जाती है । विजय एवं गुलवर्ग कर्नाटक के प्रमुख चित्रकार हैं।

11. बार्ली चित्रकला- महाराष्ट्र के ठाणे जिले के डहानु नामक स्थान में वार्ली जनजातियों का निवास स्थान है । विवाह के अवसर पर पूजा स्थल के पास की दीवारों पर गोबर से लेपकर उस पर जीवन चक्रऋतु चक्रदेवी-देवताफसल कटाईनृत्य एवं दैनिक जीवन के चित्रों को पिसे हुए चावल से बनाया जाता है। आजकल यह चित्रण कागज पर सफेद पोस्टर रंगों से होने लगा है । बाँस की तूलिका से चित्रकारी की जाती है। 

12. काष्ट मूर्तिकला- प्राचीन समय में काष्ठ की मूर्तियों को बनाने की परम्परा हमारे देश में थी। काष्ठ का प्रयोग जहाँ स्थापत्य में होता था वहाँ मूर्ति शिल्प में होता है। भारतीय काष्ठ शिल्प हिन्दूमुस्लिमईसाई एवं बौद्ध धर्म के अनेकानेक तरह के शिल्प की रचना की जाती है। दक्षिण भारत में तकरीबन समस्त नन्दिरों में काष्ठ की मूर्तियों का प्रचलन हो गया है। उड़ीसा के मन्दिर में कृष्णबलराम सुभद्रा को काष्ठ प्रतिमा हैं। टूल्स द्वारा बनाने के बाद इन पर खनिज पदार्थों एवं वनस्पति से बनाये गये रंगों से पूर्ण किया जाता है। अर्जुन कृष्णघोड़ाभैंसामुर्गागरुणहाथीगणेशराजारानीहिन्दू देवी-देवता के बनाये जाते हैं। इन मूर्तिशिल्प पर द्रविड़ कला एवं उनके स्थापत्य का प्रभाव है ।

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