भारतीय समकालीन कला एवं कलाकार का वर्णन कीजिए।

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 रनवीर सिंह विष्ट (1928-1998)- सन् 1991 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री‘ की उपाधि से सम्मानित किए गए। इन्होंने अपने चित्रों को कई प्रदर्शनियाँ भारत में तथा अमेरिकामित्रहंगरीरूमानियापोलेण्डबुल्गारिया आदि में आयोजित की। यह अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार हैं। इन्होंने ज्यादातर रंग सपाट तथा सादा प्रयोग किए हैं। ललित कला अकादमी द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त कर चुके हैं। माउण्टेन-तथा माउण्टेन-II दोनों चित्र तैल रंगों द्वारा निर्मित हैं।

उन्होंने चित्र तथा मूर्ति चित्रणु को बराबर महत्त्व दिया। विण्टर फील्डक्लाउडी ईवनिंगक्रीयेशन आदि ज्यामितीय संयोजन हैं। पिकनिक डेसन्थाल परिवार आदि मानव जीवन के अनुशासनात्मक चित्र हैं। प्रमुख रूप से यह मूर्तिकार के रूप में जाने जाते हैं।

रणवीर सिंह विष्ट उत्तर प्रदेश के उन नवोदित कलाकारों में प्रमुख हैं जिन्होंने नई आस्था तथा नवीन कला प्रवृत्तियों को दिखाया है। वे लखनऊ आर्ट स्कूल से अपना कला प्रशिक्षण खत्म कर देश भ्रमण के लिए निकल पड़ेफिर लखनऊ आर्ट स्कूल में अपना कला प्रशिक्षण खत्म कर देश भ्रमण के लिए निकल पड़ेफिर लखनऊ आर्ट स्कूल में अध्यापक बने तथा फिर इसी आर्ट स्कूल में प्रिन्सिपल बने । ये फाबिन की तरफ अग्रसर हुए तथा सतत् प्रयोग करते रहे एवं राष्ट्रीय ललित कला अकादमी ने उन्हें नूतनवादी कलारों ने सम्मानित किया है। 1686 . में वे आर्ट कॉलेज से सेवानिवृत्त हो गए हैं।

बिष्ट के चित्रों में तकनीकी नवीनता तथा थीम्स (विषय) की मौलिकता है। उनकी कई प्रदर्शनियाँ भारत में तथा अमेरिका. मिस्र हंगरीरूमानिया. लखनऊपोलैण्डइलाहाबाददिल्ली आदि नगरों में हो चुकी है। उनके चित्रों में नल पर भीड़‘, भगवान युद्ध‘, ‘लाल पृष्ठभूमि पर वृक्ष‘, चेहरे श्रम आदि उल्लेखनीय हैं। यह एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार हैं । राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त कर चुके हैं। माउण्टेन-तथा माउण्टेन-II दोनों चित्र तैल रंगों द्वारा निर्मित । इन्हें राष्ट्रीय ललित कला अकादमी ने पुरस्कृत करके सम्मानित किया। प्रमुखतः रूप से यह मूर्तिकार के रूप में जाने जाते थे।

2. रामकुमार (1924)- रामकुमार का जन्म 1924 में शिमला में हुआ। भारत में सैलोज मुकर्जी एवं 1950-51 के मध्य पैरिस में फेरनाएण्ड लॉजर एवं एण्ड्ज लहोटे के अन्तर्गत शिक्षा ग्रहण करने वाले रामकुमार अपने तरह के अलग ही व्यक्तित्व थे। वे कहते हैं मैं जैसा हूँवैसा ही हूँ इसमें महानता वाली क्या बात है?’ साधारण व्यक्तित्व के असाधारण चित्रकार ने सब तरह के चित्रों को अपना बनाया। उनके बनारस के घाटस्टूडियोव्यक्ति चित्रणचित्र संयोजनमहिला आकृति चिन्ताग्रस्तविभिन्न आकारचित्र संयोजनएचिंगपैन एण्ड इंकविभिन्न आकाररंगों द्वारा सुन्दर संयोजनचर्चधनबाद के संयोजनभूतकाल की विदाईकला प्रदर्शनी मेंपरिवारगर्मी का एक दिनदो बहनेंस्वप्नरात्रिमहिलाशहरश्रद्धांजलिखामोशीवाराणसीस्मृतिशहर का दृश्यप्रतिबिम्ब,घरकाश्मीर का दृश्य,खण्डहरनदीछाया तथा प्रकाश के बीच इनके मुख्य चित्र है|

एक अच्छे चित्रकार रामकुमार कहानीकार हैं। शुरू में वे कहानियाँ ही लिखते थेयही कारण है कि मानवीय मूल्यों को उन्होंने बहुत निकटता से देखा है। गहरी अन्तर्दृष्टि उनके चित्रों की विशेष पहचान है। 1944-46 के मध्य रामकुमार ने शारदा उकील स्कूल ऑफ आर्टदिल्ली में शैलेश मुखर्जी से कला शिक्षण ग्रहण किया। रामकुमार के प्रारम्भिक चित्र आकृति मूलक हैं लेकिन बाद में उनके चित्र अमूर्त होते चले गये। उन्होंने स्वयं कहा है-यह अनायास ही हुआ था। मैंने ऐसा कुछ तय नहीं किया था कि आगे से आकृति मूलक काम नहीं करूंगा।” उनके चित्रों में आघात सहते जाने की छाया है स्वयं आक्रामक नहीं हैंइनकी आंखें सहानुभूति से ज्यादा एक संवेदनात्मक ऊर्जा की तलाश करती हुईलगती हैं यानि उनमें गहन उदासी तो हैएक छटपटाहट भी हैपरन्तु आत्मदया नहीं। कुमायूँ के पहाड़ी स्थलबद्रीनाथकेदारनाथराजस्थान आदि की यात्राओं ने ज्यादा प्रभावित किया। बनारस के घाटों के चित्रण रामकुमार की पहचान बन गये। बनारस में ही उन्होंने स्याहसफेद तथा मोमबत्ती के स्पर्श से कई चित्र बनाये । रामकुमार का कहना है, “रंगों के बस समय कोई बँधे-बँधाये अर्थ ही नहीं होतेलाल रंग भी उदास हो सकता है।” रामकुमार तैलजलीय एकैलिकपेंसिलस्याहीकलमखड़ियामोमबत्ती का प्रयोग करते हैं। उनके विषय आकृति मूलक तथा अमूर्त दोनों ही हैं। गोल लम्बे चेहरे की आंखें पूर्ण भाव प्रदर्शन करती हैं। पहाड़ों से झाँकते घरबनारस के घाटमन्दिरझोंपनीगंगा के घाट तथा बनारस की गलियाँ इनके विषय हैं। अभी हमें इस कलाकार से कई अपेक्षाएं हैं ।

इनकी अनेकानेक चित्र प्रदर्शनियाँ 1952-66 के बीच दिल्लीमुम्बई में हुई एवं 1951 में पेरिस के गैलरी बारबीजोन में,1955 में प्राग में,1958 में बाँसों एवं केकोव में,समूह प्रदर्शनियों में वेनिस बिनाले 1958 मेंटोकियो बिनोले 1957, 1959 मेंसाओ पाओलो विनाले 1961, 1965 मेंगैलरी सी.एन.ई. लन्दन 1958, ग्राहम गैलरी न्यूयार्क 1958, 1963, न्यूयार्क 1962, गैलरी रावेल न्यूयार्क 1964, कॉमनवेल्थ आर्टिस्ट 1961 लन्दनचल प्रदर्शनी यू.एस.ए. 1964, ललित कला अकादमी के पारितोषिक 1956, 1958, साओ पाओले बिनाले 1961 में विशेष सम्मान प्राप्त रामकुमार लघु कथाओं के लेखक भी हैं। इतना कार्य करने वाले चित्रकार लेखक सचमुच कला जगत के प्रेरक हैं।

3. राधामोहन (1997)- 1907 में जनवरी को पटना में जन्मे राधामोहन ने 1923-36 में मुन्शी महादेव लालपटना कलम से कला की शिक्षा ग्रहण की । फारसी भाषा में 1927 में स्नातक की उपाधि ग्रहण की। 1928-32 में पण्डित श्याम नारायण से संगीत की शिक्षा ग्रहण की। 1930 में बेगन लॉ का कार्य पटना हाई कोर्ट में किया एवं 1936 में बेगल तैल चित्रण बनाया। 1939 में पटना स्कूल ऑफ आर्ट की स्थापना की। 1940 में ग्लोरी ऑफ बिहार‘ (बिहार की गौरव गाथा) की प्रदर्शनी कासंचालन किया जिसे रामगढ़ में राष्ट्रीय कांग्रेस हेतु बनाया गया था। 1944-47 में कला को प्रोत्साहित करने के लिए लन्दन की संस्था का नेतृत्व किया एवं कई स्वतन्त्रता सेनानियों के व्यक्तित्व चित्र बनाये। 1945-48 तक पटना संग्रहालय, 1952 में शिल्प कला परिषद पटनापटना आर्ट स्कूल की बिहार सरकार द्वारा लेना, 1958 में बिहार राज्य गैलरी की स्थापना, 1967 में संस्थापक प्रेसीडेण्ट पटना आर्टस स्कूल से 29 वर्षों की सेवा के बाद, 1982 में बिहार राज्य सरकार द्वारा कांस्य पदक, 1985 में ऑल इण्डिया क्राफ्ट एण्ड आर्ट सोसायटी (आयोफेक्स) द्वारा रजत पदक एवं इन्होंने कई चित्र बनायेविशेषकर व्यक्ति चित्र । इनके कुछ विशेष चित्र इस तरह हैं-लोकनायक जयप्रकाश,महात्मा गाँधीलोकमान्य तिलकबाबू जयप्रकाश नारायणमाँ कविगुरु टैगोरराजेन्द्र प्रसादरानी एलिजाबेथमुन्शी महादेव लालराजा भैय्या पून्छवाले संगीतज्ञडॉ. कृष्ण सिन्हा (बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री)चित्रकार के पिताआचार्य बद्रीनाथ वर्मागुरु गोविन्द सिंहनानक सिंहगुरु महाराज चतुर्भुज सहायसंगीतज्ञ श्याम नारायणस्वयं का व्यक्ति चित्रचित्रकार की माँमित्रस्टडी मादि।

4. रामकिशोर यादव- आगरा के प्रतापपुरा इलाके में रामकिशोर यादव भक्ति चित्रों हेतु अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। भारत सरकार के सीनियर फैलाशिप 1991 में एवं विजिटिंग फैलो 1998 में ब्रिटिश काउन्सिललन्दन में प्राप्त कर अन्तर्राष्ट्रीय बिनाले बुल्गारियाअनेकानेक भागीदारीवर्ल्ड इन एडलन्दनफ्रांसमास्कोपेरिसबुल्गारियान्यूजर्सीयू.एस.ए. अनेकानेक सम्मान ताशकन्द 1997, वृद्धजन सम्मान समितिआगरा 1999, कलाभूषण ललित कला संस्थान 2005, आयोफेक्स 1999, जयपुर 1999, उज्जैन 2003, न्यू दिल्ली 2008, विदेश कला भ्रमणजर्मनीफ्रांस 1984, इंग्लैण्ड,बेल्जियमस्विट्जरलैण्ड 1987, इंग्लैण्ड,लन्दन 1988; यू.एस.ए.फ्रांसइंग्लैण्ड 1994, इंग्लैण्ड तथा उजबेकिस्तान 1997, देश-विदेश में कई कला प्रदर्शनीउस समय मुर्निकादिल्ली में रहकर साधना के साथ-साथ कला साधना भी कर रहे हैं

5. आर.बी. भास्करन (1942-1974)- 1942 में जन्मे आर.बी. भास्करन एक दार्शनिक चित्रकार हैं। उन्होंने अपना सारा जीवनमनुष्य जीवन को समझने में व्यतीत कर दिया। उन्नति तथा मृत्यु उनके चित्रों के विषय होते थे । मनुष्य के जीवन में लिंगत्रिशूलमन्दिरसर्प का क्या महत्त्व है। उन्होंने अपने विकास‘ नामक चित्र श्रृंखला में जीवन तथा मृत्यु में क्या निकटता हैउसे दर्शाया है । उन्होंने चिड़ियों की चहचहाहटबिल्ली की हिलती मूंछों को चारकोल से बनाया है। उन्होंने अपनी शादी का चित्र तैल में बनाया । इसका माप 118 × 113 सेमी हैजिसे उन्होंने 1981 में बनाया था। 1982 में उन्हें ललित कला अकादमी द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया । भारत सरकार के संस्कृत विभाग की तरफ से इन्हें 1979-81 तथा 1984-86 का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया।

6. रनदा उकील- भारत में ऑल इण्डिया फाइन आर्टस एण्ड क्राफ्ट सोसाइटी (आयोफेक्स) को दिल्ली में 1926 में स्थापित करने में उकौल बन्धु रनदाशारदावरदा का नाम हमेशा लिया जायेगा।

7. सुरेन्द्र कुमार भारद्वाज (1938)- हरियाणा के कलाकार के रूप में प्रसिद्ध भारद्वाज 1938 में लाहौर में जन्मेइनके चित्रों का प्रमुख विषय शहरी चित्रण‘ रहाइन्होंने भारत तथा क्यूबामैक्सिको में प्रदर्शनियों में भाग लियापंजाब ललित कला अकादमीराष्ट्रीय प्रदर्शनियाँ आदि में कई पुरस्कार प्राप्त किए।

8. सुधीर खास्तगीर- सुधीर खास्तगीर, 24 सितम्बर, 1907 को कलकत्ता घरेलू वातावरण के कारण तथा कुछ उनकी अपनी लगन के कारण चित्रकला के प्रति बचपन से ही गहरी दिलचस्पी रही। उनके पिता सय रंजन खास्तगीर स्वयं एक इंजीनियर थे। अपने पुत्र को भी इंजीनियर बनाना चाहते थे लेकिन सुधीर इंजीनियर तो नहीं बन सकेएक सफल चित्रकार तथा अनुभवी जरूर बन गये। सुधीर रंजन खास्तगीर की आरम्भिक शिक्षा गिरीडीह के एक हाई स्कूल में हुई उसके बाद वे चित्रकला के उच्च स्तरीय अध्ययन के लिए शान्ति निकेतन चले गए। उन दिनों आचार्य नन्दलाल बसु वहाँ के प्रमुख थे। अपने विद्यार्थियों पर अभ्यास के लिए किसी तरह का दबाव नहीं डालते थे। अपनी रुचि के अनुसार हर विद्यार्थियों को कला की मूलभूत बातें सिखाने के बाद उसे किसी भी शाखा में विशिष्टता प्राप्त करने की छूट देते थे। वे कहा करते थे, “हर कलाकार हेतु यह जरूरी है कि वह देशसंस्कृतिसभ्यता तथा राष्ट्रीय पृष्ठभूमि का अध्ययन करे। लोग परम्परा एवं पौराणिक आख्यानों से परिचित होने का पूर्ण यत्न के करें। फाइन आर्ट में सुधीर खास्तगीर ने कला प्रदर्शनियाँ कीं। 1956 में वे लखनऊ राजकीय आर्ट स्कूल के प्रिंसिपल बने अगले ही वर्ष उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया गया। कोई कला ऐसी होती है जो छिपाने में छिप जाती है तथा कोई ऐसी जो छिपाने से और अधिक दिखाई देती हैइसलिए कला में छन्द की जरा भी गुंजाइश नहीं है।” अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वे शान्ति निकेतन चले आए थे। 27 मई, 1974 को लम्बी के बाद वहाँ उनका देहान्त हो गया था ।

बीमारी सुधीर खास्तगीर ब्रह्म समाज परिवार से थे जिनकी आस्था मूर्तिपूजा एवं देवी-देवताओं में नहीं थी तथापि अपने आचार्य की शिक्षा-दीक्षा के अन्तर्गत उनके विचारों को ही उन्होंने अपनी कला का आधार बनाया। शान्ति निकेतन में चित्रकला के विपरीत शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सुधीर खास्तगीर कला के क्षेत्र में अपना भाग्य आजमाने हेतु मुम्बई चले गये । वे एक महत्त्वाकांक्षी चित्रकार थे। उन्होंने मुम्बई में जमने का विशेष प्रयत्न किया। लेकिन उसमें वे सफल नहीं हो पाये। तभी ग्वालियर के एक पब्लिक स्कूल में उन्होंने चित्रकला अध्यापक का अवसर मिल तथा वे उससे गये ।

उक्त संस्थानों से बाहर आकर सुधीर खास्तगीर ने फ्रीलांसर‘ के रूप में काम किया वे तैल रंगों में काम करते थे। चित्रकला की उनकी अपनी शैली थी। विविध छोटी बड़ी रेखाओं के जरिए वे पृष्ठभूमि को उभारते थे। उनके पात्रों में गति है। चित्र चाहे नृत्य करते संथालों का हो या श्रमिक कादीप दान करती नारी का हो वे उसे तैल की पैंच पद्धति में बनाते थे। लालकत्थईहरा तथा नीला उनके प्रिय रंग थे। उन्होंने यूरोप का भ्रमण किया। वहाँ के म्यूजियम में उपलब्ध विश्व की श्रेष्ठ कलाकृतियों का अवलोकन किया। उन्होंने अपने देश की कला परम्पराचर्म तथा राष्ट्रीयता के प्रति उनकी आस्था पहले से कहीं ज्यादा दृढ़ थी।

9. सैयद हैदर रजा- सैयद हैदर रजा का जन्म 22 फरवरी, 1922 ई. में मध्य प्रदेश बावरिया नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता फारेस्ट रेंज ऑफिसर थे। उनका बचपन सन् 1930 से नरसिंहपुर मण्डला में दमोह के जंगल में बीता । जहाँ के नैसर्गिक सौन्दर्य ने उनको अपनी तरफ आकर्षित किया। पर्यावरण की छवि का आवरण बालक प्रज्ञा पर आमिर होने लगा जिससे सृजनात्मक प्रतिभा की तरफ रजा का व्यक्तित्व विकास करने लगा।

शिक्षा- हाईस्कूल उत्तीर्ण करने के पश्चात् नागपुर स्कूल ऑफ आर्ट में प्रवेश लिया। जहाँ कला गुरु श्री बापूराव आठवले के संरक्षण में इन्होंने अपनी कला का परिमार्जन किया। जहाँ से शिक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनकी नियुक्ति अमरावती के सरकारी स्कूल में हो गई थी। परन्तु कलाकार बनने की उनकी महत्त्वाकांक्षा ने उन्हें इस कार्य को करने की सहमति प्रदान नहीं की। सृजन की जगह अल्पज्ञानार्जन किसी कलाकार का लक्ष्य नहीं हो सकता। कलाकार को आत्मसंतुष्टि हेतु सृजन ही अपनाना पड़ता है। इसलिए रजा ने नौकरी छोड़कर कला विद्यालय में कला की शिक्षा ग्रहण की। अतः जे.जे. स्कूल में दाखिला लेने की धुन में उन्होंने अमरावती की नौकरी छोड़कर मुम्बई कूच किया। रजा ने 1913 से 1920 तक जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में अध्ययन किया।

प्रदर्शनियाँ एवं सम्मान :

1. रजा ने सन् 1947 ई. में अकेली पहली एकल प्रदर्शनी की।

2. इनकी एक कृति पर 1948 में मुम्बई आर्ट सोसाइटी का स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ।

3. इन्होंने अपनी एकल प्रदर्शनी का आयोजन मुम्बई में किया जिसका उद्घाटन प्रसिद्ध कला समीक्षक डॉ. मुल्कराज आनंद ने किया था।

4. 1949 ई. में इनके पास तकरीबन300 चित्रों का संग्रह था । जो आज मुम्बई आट सोसाइटी में प्रदर्शित है।

5. सन् 1956 ई. में इन्हें प्री दला कृतिक‘ (क्रिटिक रेवार्ड) नामक फ्रांस का महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त हुआ।

6. भारत सरकार का पद्मश्री तथा मध्यप्रदेश सरकार का कालिदास‘ सम्मान भी उन्हें प्राप्त हो चुका है।

प्रसिद्ध चित्रों के शीर्षक– रजा के प्रमुख चित्रों के शीर्षक हैं सैरी ग्राफचौपाटीजमीनराज्यस्थानग्रीष्म आदि ।

रजा की अन्य रुचियाँ- रजा की कुछ अन्य चीजों में रुचि रही है जिसमें कला वस्तुओं का संग्रहसाहित्यसंगीत तथा पुस्तकें पढ़ना रहा है रजा ने 1950 ई. में भारत छोड़ा था तथा तब से पेरिस जाने के बाद वे दो बार भारत आए एवं उन्होंने अपने चित्रों की प्रदर्शनियाँ आयोजित की। अपने देश से बाहर आधुनिक कला के एक बड़े केन्द्र में हर तरह का संघर्ष करते हुए रजा ने पेण्टिंग की वास्तविक चिन्ताओं को गहरे स्तर से जाना तथा जाँचा है। 88 वर्षीय सैयद हैदर रजा आज भी अपने कला कार्य में सक्रिय हैं तथा अभी कई वर्षों तक कला का भण्डार भरते रहेंगे। भारत की मिट्टी से जुड़े रहते हुए वे हजारों वर्षों तक जिए यही हमारी कामना है।

10. सैलोज मुखर्जी (1907)- 1907 में कोलकाता में जन्मे सैलोज मुखर्जी ने अपना बाल्यकाल वर्धमान में व्यतीत किया तथा वहीं एवं कोलकाता में शिक्षण ग्रहण किया । कोलकाता के स्कूल ऑफ आर्ट में 1928 में प्रवेश ग्रहण किया। डिप्लोमा की डिग्री प्राप्त करने के बाद कुछ समय तक इम्पीरियल टोबेको कम्पनी में कला निदेशक का कार्य किया। युद्ध के बीच उन्होंने कई कला प्रदर्शनियों का आयोजन कोलकाता में किया। उनको प्रथम एकल प्रदर्शनी कोलकाता में 1937 में आयोजित हुई। 1937-38 में सैलोज यूरोप की यात्रा पर गये।

फ्रांसइंग्लैण्डइटली एवं हालैण्ड की गैलरी एवं चित्रकला प्रदर्शनियों का अध्ययन किया। मिस्र,सिक्किम तथा तिब्बत की यात्रा की । 1939, 1941, 1943 में कोलकाता में प्रदर्शनी लगाने के बाद 1945 में ये दिल्ली आ गये तथा यहाँ इन्होंने अपनी एकल प्रदर्शनी की। कई समूह प्रदर्शनियों में भाग लिया तथा कई पारितोषिक भी जीते। 1950 में उनकी एक वृहद् प्रदर्शनी लगी तथा उनके दो चित्रों का चयन सैलोन द माई‘ पेरिस में 1951 में हुआ। 1960 तक उनके चित्रों की निरंतर प्रदर्शनी लगती रही।

सैलोज ने शारदा उकील स्कूल ऑफ आर्ट‘, नई दिल् में अध्यापन कार्य शुरू किया । अन्त में उन्होंने दिल्ली पॉलीटेक्निक में कार्य शुरू किया तथा अन्त तक करते रहे । उन्होंने दिल्ली में उच्च स्तर के कलाकार का स्थान प्राप्त कर लिया। 1958 में दिल्ली के चित्रकारों के चयन समिति के अन्तर्गत आ गये। इनके चित्र कई निजी संकलनआयोफेक्सकोलकाता के अकादमी मृत्यु के ऑफ फाइन आर्टस में हैं। सन् 1960 में अक्टूबर को वे दिवंगत हो गये। उनकी बाद तीन प्रदर्शनी उनके सम्मान में लगाई गई । फाइन आर्टस कॉलेजपॉलीटेक्निक में नवम्बर, 1960 में उनके जन्म दिन परअकादमी ऑफ फाइन आर्टसकोलकाता में एवं 1961 में एवं 1962 में कुनिका कला केन्द्रनई दिल्ली में की गई ।

11. एस.जी. ठाकुर सिंह (1984)- सन् 1894 में अमृतसर के निकट वर्का ग्राम में ठाकुर सिंह का जन्म हुआ। पिताश्री की इच्छा के विरुद्ध इन्जीनियर बनने के स्थान पर मोहम्मद आलम के साथ मुम्बई कला शिक्षण ग्रहण करने चले गयेवहाँ से कोलकाता । वहाँ 17 सालों तक रहकर कला साधना की। सन् 1935 के बाद वे अमृतसर आ गये तथा स्वयं को इण्डियन अकादमी ऑफ फाइन आर्टस‘ के साथ प्रेसीडेण्ट के रूप में जोड़ दिया तथा जीवन-पर्यन्त इसी क्षेत्र में कार्य करते रहे।

1924 में स्नान के पश्चात् वाले चित्र में लन्दन में ब्रिटिश एम्पायर प्रदर्शनी में द्वितीय स्थान पाया। इसके बाद इन्हें कई पारितोषिक मिलते रहे । भारत एवं विदेश में कई चित्र प्रदर्शनी लगाई। 1957 में रूस की बुडापेस्ट प्रदर्शनी ने उन्हें बहुत ख्याति प्रदान की। दर्शकों ने ताजमहल‘, अमृतसर का स्वर्ण मन्दिर‘ आदि चित्रों की भूरि-भूरि प्रशंसा की । शीशे के सामनेचन्द्र का उगंनाधुन्ध में मन्दिरलद्दाख वैलीसायंकालीन दृश्यराजेन्द्र प्रसादकश्मीरी महिलाकश्मीररणजीत सिंहशपथ ग्रहण समारोहभारत की आजादी कामहाराणा प्रताप सिंहलद्दाखी महिलाबनारस का घाटआदि इनके चित्र बहुत प्रसिद्ध हुए।

12. सरोज गोगी पाल- 1945 में उत्तर प्रदेश में आपका जन्म हुआ। ये भारत के उत्कृष्ट चित्रकारों में से एक हैं इन्होंने कई माध्यमों में कार्य किया है। विशेषकर गाउचतैलसिरामिक तथा बुनाई में कार्य किया है। इन्होंने विशेषतः महिलाओं को चित्रित किया है। ये महिलाओं के विविध आकारों को चित्रित करने में सिद्धहस्त हैं । इनका प्रारम्भिक कार्य यथार्थवादी था लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया इनका कार्य सादगी लेने लगा एवं धरातलीय परिप्रेक्ष्य में सिद्धहस्तता मिलती चली गई।

लखनऊ कला महाविद्यालय से इन्होंने चित्रकला में डिप्लोमा प्राप्त किया। अपने जीवन काल में इन्होंने 30 एकल प्रदर्शनियाँ की एवं कई पुरस्कारों को प्राप्त किया जिससे ललितु कला अकादमी दिल्ली का राष्ट्रीय पुरस्कार प्रमुख है। इन्होंने कई एकल एवं सामूहिक प्रदर्शनियाँ भारत एवं विदेशों में लगायीं। जिसमें प्रमुखतः भारतयूगोस्लावियाजर्मनीफ्रांसक्यूबा तथा जापान ।

13. सरन बिहारी लाल सक्सेना (1937)- सन् 1937 में बरेली में जन्मे सरन सक्सेना । एक कुशल कलाविद् समालोचकशोध निर्देशकलेखककुशल सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ अच्छे चित्रकार भी हैं। एक मौलिक चित्रकार के रूप में शुरू में उन्होंने अपने गुरू श्री महेशन स्वरूप सक्सेना के निर्देशन में वॉश पद्धति प्रारम्भ की। बाद में चित्रों को टेम्परा पद्धति से जल रंगों से बनाया फिर वे दृश्य चित्रण में रुचि लेने लगे एवं क्रिएटिव दृश्य चित्रण बनाये।

सन् 1985 में वे प्रो. रामचन्द्र शुक्ल के समीक्षावादी दर्शन से प्रभावित होकर समीक्षावादी के अधीन सामाजिक कुरीतियोंराजनैतिक तथा अनैतिकता पर कई चित्र बनाने लगे। एमरजेन्सी के दौरान उनका बनाया गया चित्र बहुत चर्चित हुआ। राज्य ललित कला अकादमीकला मेला-दिल्लीमुम्बई कोलकाताबंगलुरू एवं अमृतसर में उनकी कई बार एकल प्रदर्शनी आयोजित की जा चुकी है। आजकल बरेली कॉलेज में चित्रकला विभाग से अध्यक्ष पद से अवकाश प्राप्त कर अपने आवास में ‘ श्रृंखला‘ के चित्र बनाने में व्यस्त हैं । अभी कला समाज को उनसे बहुत आशाएं हैं।

14. शान्ति दवे (1931)- 1931 में बड़ोदरा में जन्मे शान्ति दवे अब दिल्ली में स्थाई रूप से रह रहे हैं। इन्होंने अपनी कला की शिक्षा बड़ोदरा कला शिक्षण संस्थान से प्राप्त की। अपनी कला में इन्होंने आधुनिक विधाओं को समाहित किया लेकिन रेखा की प्रधानता को हमेशा बनाकर रखा । इनके चित्रों में ताते तथा चमकदार रंगों का बाहुल्य रहता है तथा छाया नहीं दिखाते हैं। इन्होंने 1956, 57, 58 में राष्ट्रीय अकादमी पुरस्कार एवं 1955 में मुम्बई आर्ट सोसायटी का पुरस्कार 1975 में तृतीय त्रिनाले पुरस्कार दिल्ली में प्राप्त किया। 1971 में आप द्वारा निर्मित बिना शीर्षक‘ के तैल अमूर्त कला में हो गए। 1971 में आप द्वारा निर्मित बिना शीर्षक‘ के तैल चित्र माप 172.5 × 22 सेमी एक अपना अलग विशेष स्थान रखते हैं। इन्होंने अपने चित्रों की प्रदर्शनीलन्दन,पश्चिमी जर्मनीइटली,आस्ट्रेलियायू.एस.ए.बैंकॉक तथा भारत के कई स्थानों पर लगाई । ये साहित्य कला परिषद् दिल्ली में हमेशा सक्रिय रहकर कला चित्रण करते रहते हैं।

15. शैल चोयल (1945)- 1945 में कोटा में जन्मे शैल चोयल ने विरासत में अपने पिता चित्रकार पी.एन. चोयल से कला की शिक्षा बाल्यावस्था से ही पा ली थी। नाथद्वारा स्कूल ऑफ पैण्टिग‘ से 1980 से चित्रकला की पूर्ण शिक्षा ग्रहण की एवं एम.ए. पी.एचड़ी. चित्रकला विषय में प्राप्त की। 1975 एवं 76 में इन्हें राष्ट्रीय छात्रवृत्ति स्लेड स्कूल ऑफ आर्ट‘ लन्दन में जाकर छापाकार की शिक्षा ग्रहण करने हेतु प्राप्त हुआ। इन्होंने भारत एवं विदेश में यू.एस.ए.लन्दन,जापानदक्षिण कोरियाहवाना में चित्रकला प्रदर्शनी लगाई। इन्होंने ललित कला अकादमी राजस्थान एवं मुम्बई आर्ट सोसायटी के पुरस्कार प्राप्त किये । इनका चित्र वन्स‘ नेहरू सेण्टीनेरी प्रदर्शनी 1989 में दिल्ली में प्रदर्शित की गई। बाँसुरी‘ नामक चित्र को 1990 में लखनऊ के अखिल भारतीय चित्रकला प्रदर्शनी में पुरस्कार दिया गया। इनके द्वारा बनाया गया राधा कृष्ण नामक चित्र कला जगत की अनमोल धरोहर हैइसके अलावा अकादमी ऑफ फाइन आर्ट कोलकाताऑल इण्डिया कालीदास समारोह ने पुरस्कृत किया। आप आज‘ उदयपुर के संस्थापक सदस्य हैं एवं सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर से सेवानिवृत्त होकर अपने स्थाई निवास उदयपुर में कला की सेवा कर रहे हैं। सम्पूर्ण परिवार कला जगत से जुड़कर कार्य कर रहे हैं। आप चित्रकार तथा छापाकार दोनों ही हैं।

16. समरेन्द्र नाथ गुप्त- गवर्नमेण्ट कॉलेज ऑफ आर्डस एण्ड क्राफ्ट्सकोलकाता अवनीन्द्र नाथ टैगोर के शिष्य समरेन्द्रनाथ गुप्त ने कला के क्षेत्र में ऐतिहासिक कार्य किया। बाद में इनकी नियुक्ति भी आर्टस कॉलेज में शिक्षक के पद पर हो गई एवं यहीं से बंगाल स्कूल को विस्तार तथा दिशा दी जाने लगी । कला आन्दोलनों को विस्तार मिलने लगा। इनकी व्यक्तिगत कला भारत की कला आन्दोलन से प्रभावित दिखाई देने लगी।

17. सुरेन्द्रनाथ कर- बंगाल स्कूल अग्रदूत चित्रकारों में अवनीन्द्रनाथ टैगोर के प्रारम्भिक शिष्यों में सुरेन्द्रनाथ कर ने असित कुमार हाल्दार के साथ 1917-1927 ई. तक बाघ गुफा की प्रतिकृतियाँ तैयार की। सुरेन्द्र कर ने अपनी कला शिक्षा गवर्नमेण्ट ऑफ आर्टस एण्ड क्राफ्ट्स कोलकाता में प्राप्त की।

18. एस.बी. पाल्सीकर- सपाट धरातल पर तान्त्रिक मन्त्रोंअक्षरोंत्रिशूलोंनेत्र आदि चिन्हों के चित्रण से नवतान्त्रिक कलाकृतियाँ पेश करना एस.बी. पल्सीकर की विशेषता थी। जब प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप शिथिल होने लगा तो 1957 में बॉम्बे ग्रुपमुम्बई की स्थापना हुई । एस.बी. पल्सीकर इसके सक्रिय सदस्य बने । एस.बी. पल्सीकर ने इस ग्रुप के साथ मिलकर छ: विशाल कला प्रदर्शनी को आयोजित किया जिसमें अपने विशिष्ट रीति-रिवाजव्यक्तित्व की पहचान को मिटने नहीं दिया एवं अपने व्यक्तित्व के साथ अपने चित्रों को समाज के सामने पेश किया।

19. तैयब मेहता- समकालीन भारतीय कला को तैयब मेहता का योगदान अपूर्वीय कहा जाएगा। गहन निष्ठा अचूक संवेदना से उन्होंने जैसी कृतियों की रचना की है। वे भारतीय कला को एक अनोखी ऊंचाई तक ले गए। उनकी कृतियों की करुणा एक अन्तर्धारी की तरह उनके रंगों तथा रेखाओं में व्याप्त है । कोलकाता के हाथ रिक्शा से जुड़ी हुई कृति अथवा उनके स्त्री पुरुष आकृतियों की आंखें तथा शरीर एक मानवीय दृष्टि का संचार पाते हैं। तैयब कला जगत में भारत के बुद्धिजीवी वर्ग में कितने प्रसिद्ध हैं इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जाता है। महात्मा गाँधी के पौत्र दार्शनिक तथा लेखक रामचन्द्र गाँधी ने उनको एक कृति शान्ति निकेतन त्रिपटी पर अंग्रेजी में एक पूरी पुस्तक स्वराज नाम से लिखी है। उनकी कृतियाँ दर्शक को बार-बार पलट कर अपनी तरफ आने हेतु आमन्त्रित करती है। उनकी पहली प्रदर्शनी मुम्बई में 1959 में हुई। 70-80 के दशक में दिल्ली को कार्य-स्थली बनाया। वापस पुनः मुम्बई चले गये । इन दो महानगरों की अवधि में जीवन के निकट परिचय प्राप्त किया जो उन्हें शान्ति निकेतन प्रयास के दौरान मिला। आपका प्रमुख सरोकार हमेशा इमेज को लेकर रहा है। वह किसी वस्तु को आधार बनाकर एक इमेज की एक रूप की रचना करते थे तथा मानवीय पीड़ा एवं करुणा को उनके पिरो देते थे जैसे हाथ रिक्शे की कृतियों में जिनमें एक स्त्री सोयी हुई सी है। हाथ रिक्शे का यथार्थ चित्रण प्रमुख नहीं है उसे आधार बनाकर चित्र में दो भागों में बँटी हुई आकृति जो पीड़ा को अब तक अव्यक्त कथा कह रही है। 60 के आरम्भिक दशक में तैयब पत्नी सहित वर्ष लन्दन में रहे वहाँ उन्होंने जमीन की खोज की जो उनके चित्रों में नीलेलालहरेसफेद आदि रंगों की प्रस्तुति है । डैगसोल से अथवा विकरण से केनवस को विभाजित करने की जो विधि खोजी है वह आकृति को और आकर्षित बना देती है जिससे उनकी आकृतियाँ पीड़ा तथा आकुलता भरी लगती हैं । 1970 में 16 मिनट Kood शीर्षक से एक लघु फिल्म भी बनाई जिसे फिल्म फेयर का critics awards मिला। स्वभाव में सदैव शान्तएकाग्र तथा कुशाग्र व्यक्ति के रूप में गजब की सादगी एवं ऊर्जा है । कला समीक्षक चाहे गीता कपूर हों अथवा मराठी कवि लेखक फिल्मकार दिलीप हों अथवा कन्नड़ से सुपरिचित उपन्यासकार अन्तभूति हों सभी ने उनकी कला को ऐसी रचना भूमि माना है जिससे नये-नये अर्थ उगाये जा सकते हैं। तैयब के काम जुब करोड़ों में बिकने लगे तो पिछले 7-8 वर्षों में मिडिल की सुखियाँ बन गए पर इन सबसे दूर तैयब पुराने वाले तैयब ही रहे जिन्होंने मुम्बई में उस वक्त अपनी कला प्रदर्शनियाँ की जब काम बिकते नहीं थे। उनके लिए खरीदना तथा बेचना तब एक सन्तोष का स्वभाव था। वह कला से धन अर्जित करने की जगह सबसे पहले कलाधन अर्जित करने का मामला था। कला को ही समर्पित होना था।

20. वीरेन दे- अक्टूबर, 1926 में जन्मे बंगाल मेंगवर्नमेण्ट कॉलेज ऑफ आर्ट एण्ड क्राफ्टकोलकाता में पढ़े एवं 1944 से 1949 के बीच अनेक व्यक्ति चित्रण किया। उनके कई चित्र निजी एवं व्यावसायिक संकलन में हैं। 1949 से 1965 तक उन्होंने दिल्ली आर्टस कॉलेज के उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान की। 1952 से 64 तक राष्ट्रीय पारितोषिक चित्रकला में ग्रहण किया। 1958 से 1964 तक न्यूयॉर्क में रहकर कार्य किया। 1959 से 1960 के बीच दिल्ली एवं मुम्बई में रहकर कार्य किया। यू.एस.ए.यू.एस.एस.आरचेकोस्लावियाजर्मनी एवं फैडरिल रिपब्लिकआस्ट्रेलिया में रहकर इन्होंने बहुत कार्य किया एवं भ्रमण किया।

कई प्रदर्शनी जैसे सैलोन द म पेरिस 1951, मनिची बिनाले,टोक्यो 1959, 61 बिनाले ऑफ साओ पाओलो 1961, वेनिस बिनाले 1962, पिट्सबर्ग अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी 1967, बिनाले सिडनीआस्ट्रेलिया 1973, आधुनिक एशिया कलाफुकुओकाजापान 1979, 1980, टोकियो बिनाले 1984 एवं समस्त बिनालेदिल्लीभारत में पाँच 1968 तक।

वीरेन दे के चित्रों का संकलनआधुनिक राष्ट्रीय संग्रहालयनई दिल्लीललित कला अकादमीनई दिल्लीभारतीय कला संग्रहालयबर्लिन जर्मनीचैकोस्लोवाकिया के राष्ट्रीय संग्रहालयआधुनिक कला संग्रहालयन्यूयार्कपंजाब संग्रहालयचण्डीगढ़कला संग्रहालयभोपालगाँधी दर्शनराजघाटनई दिल्लीविश्वविद्यालय संग्रहनई दिल्लीजम्मू तथा कश्मीर के कला अकादमी एवं निजी संकलन भारत एवं विदेश में हैं। वीरेन दे उन कलाकारों में से एक हैं जिन्होंने अमूर्त कला को प्रतिबिम्बित किया। उनकी कला में कई तरह की अमूर्त कलाओं के मिश्रण देखने को मिलते हैं । इनका जन्म कोलकाता में 1926 में हुआ। इनकी शिक्षा भी वहीं हुई। गवर्नमेण्ट कॉलेज ऑफ आर्ट एण्ड क्राफ्ट कोलकाता से उन्होंने 1949 में कॉलेज की पढ़ाई की। वे नई दिल्ली के Art College में प्रवक्ता के रूप में नियुक्त हुए। उन्होंने अधिकतर नीले रंग में पेण्टिंग बनाई। उन्होंने पूरे विश्व में प्रदर्शनियाँ की। उसके बाद दिल्ली को कार्य क्षेत्र बनाया। कई आकृतिमूलक चित्रोंपोट्रेट तथा श्रीनगरिक म्यूरल बनाने के बाद उनका रुझान अमूर्तकला की तरफ हुआ। वीरेन ने दे अपनी रूपवाड़ी कला से कहीं ज्यादा अमूर्त कला के माध्यम से सफलता प्राप्त की। अपनी अमेरिका यात्रा के बाद तो उन्होंने अमूर्त कला को पूरी तरह से अपना लिया। उनके द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय भवन में बनाये गये म्यूरल को उनके प्रतिनिधि रूपवादी चित्रों के उदाहरणस्वरूप देखा जा सकता है। उनकी अमूर्त कलाकृतियाँ पहली ही झलक में अपना प्रभाव छोड़ती है। सम्बन्धित कला का प्रमुख तत्त्व गुण इत्यादि चित्र को देखते ही पहचाना जा सकता है । वह इस बात में विश्वास रखते हैं कि भ्रष्टाचार को एक तरफ रखते हुए कलाकार को सम्पूर्ण वातावरण में पूर्ण भणमण्डित सुन्दरता की खोज रखनी चाहिए। 1952 से 1964 तक वे कॉलेज ऑफ आर्टदिल्ली में प्रवक्ता रहे । 1968 में स्कूल ऑफ पेण्टिग एण्ड आर्किटेक्चरनई दिल्ली में विभाग अध्यक्ष रहे।

21. बी.एस. गायतोंडे- वासुदेव एस. गायतोंडे एक सच्चा तथा आज की तारीख में अमूर्त कलाकार है । वासुदेव एस. गायतोंडे का जन्म 1924 में हुआ था। उन्होंने सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट मुम्बई से 1948 में आर्ट डिप्लोमा किया। वासुदेव गायतोंडे ने बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट में भी हिस्सा लिया। वह अन्य क्रियाकलापों तथा अन्य क्रिया पर योजनाबद्ध तरीके से काम करते थे। उन्होंने बहुत सी प्रदर्शनियाँ भारत तथा विदेशों में की हैं ।

1950 में उन्होंने भारत कला प्रदर्शनी यूरोपीय देश में की। उन्होंने अन्य ग्रुप प्रदर्शनियाँ जर्मन आर्ट गैलरी में भी की। न्यूयॉर्क में 1959 तथा 1963 में गायतोंडे ने अमूर्त काम भारत एवं अन्य अमूर्त काम उन्होंने न्यूयार्क में 1957 में किये । इस बीच उन्हें प्रथम पुरस्कार से नवाजा गया। टोकियो में भी उन्हें 1964 में छात्रवृत्ति दी गई। 1971 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री अवार्ड से नवाजा। गायतोंडे का काम अपने रूप में अमूर्त की तरफ है। गायतोंडे को जेम-फिलोसोफ्ती के नाम से पुकारा जाता है । वह कला के बारे में एक मिसाल हैं । यह चित्रकारिता के साथ-साथ एक अच्छे मूर्तिकार भी हैं। गायतोंडे का काम आनन्दानुभूति का आभास देना है ये काम की रूपरेखा के भाव के अनुसार ही काम करते हैं। गायतोंडे के साथी पॉलक्सी तथा जॉनमिरोने एक ही कॉलेज में दिन गुजारे हैं।

गायतोंडे ने बहुत से लोगों के सम्पर्क में रहकर उनकी अभिव्यक्ति भाव बनाकर काम किया है। बी.एस. गायतोंडे भारत के ख्याति प्राप्त चित्रकार थे। वह अब अमूर्तु भारतीय कला के ऊपर प्राकृतिक रूप से ऊपर अपने देश हेतु कार्य कर रहे हैं। उनका कहना है कि मैं अपने पर आत्मनिर्भर रहता हूँ” वो एक भोले तथा एक अच्छे कलाकार हैं ।

22. विकास भट्टाचार्य- कोलकाता में 1940 में जन्म हुआ। कोलकाता में कला शिक्षण ग्रहण किया। 1968-73 का अध्ययन कार्य भी किया। पोट्रेट बनाने में दक्ष हैं। अतियथार्थवादी कला में दक्ष चित्रकार हैं । कोलकाता में रहकर ही कला कार्य कर रहे हैं।

23. वेद नायर- 1933 में पंजाब में लायलपुर में जन्म दिल्ली में अध्ययन किया। 1982 की पाँचवीं त्रैवार्षिकी में उनके कार्य को अत्यन्त सराहा गया।

24. वारदा उकील- दिल्ली में 1945 में राष्ट्रीय ललित कला अकादमी की स्थापना हुई। इसके प्रथम सचिव चित्रकार वारदा उकील को रखा गया। इसके बाद ऑल इण्डिया फाइन आर्टस एण्ड क्राफ्ट सोसाइटी (आईफैक्स) की नई दिल्ली, 1925 में स्थापित हुई जिसके गठन में उकील बन्धुशाखावरदारमदा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

25. विवान सुन्दरम् – शिमला में 1943 में जन्म हुआ। बड़ौदा तथा इंग्लैण्डु में कला शिक्षण ग्रहण किया । राजनीतिक कला में रुचि रही है। बड़ौदा तथा दिल्ली में रहते हैं ।

26. अवतार सिंह पवार- बिड़ला अकादमी ऑफ आर्ट क्राफ्टकोलकाता ने जैनेसिस ऑफ रामकिंकर वेज‘ नामक कला प्रदर्शनी का आयोजन किया जिसमें अवतार सिंह पवार ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अवतार सिंह पवाँर एक कुशल मूर्तिकार हैं। इन्होंने सिद्ध कर दिया कि मूर्तिकला एक ठोस आकार का ही नाम नहीं हैइसका क्षेत्र बहुत व्यापक है । उन्होंने साधारण से साधारण विनष्ट होने वाली चीजें जैसे-जूटधागेप्लास्टिककपड़ामिट्टीबोरो सबसे कला का निर्माण हो सकता है तथा यह अवतार सिंह पवार ने सिद्ध कर दिया। यही कारण है कि आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इनकी पहचान बन गई है।

27. अमरनाथ सहगल (1922-2008)- अमरनाथ सहगल का जन्म भारत विभाजन के पूर्व अटक नामक स्थान पर हुआ था। अटक अब पाकिस्तान का हिस्सा है । गवर्नमेण्ट कॉलेजलाहौर से आपने विज्ञान की शिक्षा ग्रहण करने के बाद हिन्दू विश्वविद्यालयवाराणसी में इण्डस्ट्रियल कैमिस्ट्री की शिक्षा ग्रहण की। लेकिन अमरनाथ को विज्ञान के स्थान पर चित्रकला में ज्यादा रुचि थीइसलिए आप दिल्ली में स्थाई निवास करते हुए यहीं रहकर कला की साधना करने लगे। आप एक अच्छे चित्रकार होते हुए एक छापाकार एवं कुशल मूर्तिशिल्पकार हैं । आपको मूर्तिकला में मिट्टी तथा कांस्य में ज्यादा रुचि है। आपको फोर्ड फाउण्डेशन फैलोशिप मिली एवं आप केन्द्रीय ललित कला अकादमी के फैलो भी रहे । आपकी बनाई विशेष मूर्तिशिल्पमॉन्यूमेण्ट ऑफ कम्यूनल हारमोनीहोमेज टू लव एण्ड नॉन वायलेंसक्राइस्ट अनहर्टएन्गुविश क्राइस्ट बहुत महत्त्वपूर्ण हैं जो मानवीय समस्याओंयातनाओंराजनीतिक अत्याचारों तथा मानव मन की कोमलतम भावनाओं का प्रतिपादन करती हैं।

28. अम्बादास- भारत में स्वतन्त्रता के बाद दिल्ली में ग्रुप-1890 नई दिल्ली‘ की स्थापना की गई। भारत में ललित कला अकादमियों में क्षेत्रीयतावाद हावी होने लगा । कलाकार विदेशों की तरफ प्रस्थान करने लगे। इन दोनों स्थितियों के विरोध में भारत में 1962 ई. में दिल्ली तथा मुम्बई के कुछ कलाकारों ने मिलकर जे. स्वामीनाथन के निर्देशन में इस ग्रुप की स्थापना की। यह बैठक जे. पाण्ड्या के मकान नं. 1890 पर हुई तथा मकान के नम्बर पर ही ग्रुप के नाम का नामकरण कर दिया गया। अम्बादास प्रथम बारह सदस्यों में से एक थे । सदस्यों की प्रथम प्रदर्शनी 1936 में रवीन्द्रनाथ भवननई दिल्ली में हुई। बाद में यह ग्रुप बन्द भी हो गया।

29. अनुपम सूद्- आधुनिक भारतीय छापाकला का विकास 1950 के बाद हुआ । अनुपम सूद इस तकनीक में कार्यरत एक सफल चित्रकार हैं। अनुपम सूद दिल्ली में स्थापित शिल्पी चक्र‘ के सक्रिय सदस्य हैं। ये कलाकार विभाजन की त्रासदी को झेल चुके थे एवं ये कला को एक सृजनात्मक उद्यम मानने लगे तथा कला को जीवन मानने लगेजिसमें वह प्रमाणित करने लगे कि कला और जीवन का सम्बन्ध अटूट है। कला की प्रगति हेतु हमेशा अनुपम सूद हमेशा प्रयत्नशील रहे।

30. कृष्ण रेड्डी (1925)- आन्ध्र प्रदेश में 1925 में जन्म हुआ। लन्दन एवं शान्ति निकेतन में कला शिक्षण ग्रहण की। छापाकला एवं मूर्तिकला में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की। छापाकला के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। भारत सरकार ने पद्म भूषण की उपाधि से अलंकृत किया। अब न्यूयार्क में रहते हैं।

31. पीलू पोचकानेवाला (1923-1986ई.)- पीलू का जन्म महाराष्ट्र के मुम्बई में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा एन.जी. पन्सारे के कुल निर्देशन में हुई। कला की कोई विशेष शिक्षा इन्होंने ग्रहण नहीं की थी तथा कला के प्रति बाल्यावस्था से आकर्षण तथा रुचि होने के कारण इन्होंने कला क्षेत्र का चुनाव किया। सम्पूर्ण विश्व की समूह चित्रों में भागीदारी करने के साथ-साथ भारत में 12 एकल प्रदर्शनियाँ आयोजित कर चुके हैं। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी पीलू चित्रकार ही नहीं हैंमूर्तिकार भी हैं। इन्होंने हेनरी मूर से प्रभावित होकर हेनरी मूर की झुकी हुई आकृतियों को मूर्तिशिल्प में उताराबाद में स्वतन्त्र मूर्तियों का निर्माण किया। इनकी बनाई कृतियाँ टी.वी. सेण्टरसी.ए. टायरनेहरू प्लेनेटोरियममुम्बई ट्रांसपोर्ट में सुरक्षित हैं। अब ये स्वच्छन्द अमूर्त शिल्प का निर्माण कर रहे हैं। मोम तथा प्लास्टर एवं कास्ट एल्यूमीनियम उनका प्रिय माध्यम है। इन्होंने नाटकों हेतु रंगमंच सज्जा भी की। मूर्तिकला में वैल्डेड स्टीलस्कूल ऑफ कॉपरसिरामिकवुडकांस्यसीमेण्ट एवं संगमरमर के टुकड़ों को लेकर सृजन कार्य करते हैं।

32. सतीश गुजराल- सतीश गुजराल का जन्म 25 दिसम्बरसन् 1925 ई. को झेलम (लाहौर) में हुआ था। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में सुनने का सामर्थ्य खो दिया था। लाहौर के मेयो स्कूल ऑफ आर्टस से कला की प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् सर जे.जे. आर्ट में 1944 से 1947 तक कला शिक्षा ग्रहण की एवं कुछ समय तक शिमला के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्टस में वाइस प्रिंसिपल रहे । सन् 1952 में आपको मैक्सिको में कला अध्ययन हेतु छात्रवृत्ति मिली तथा यहीं से इन्होंने एडवांस पेंटिंग एवं दो वर्ष तक म्यूरल टेकनीक में डिप्लोमा प्राप्त किया । मैक्सिको विश्वविद्यालय में डेविड एल्फेरे के साथ मिलकर म्यूरल बनाया। आपके चित्रों की प्रदर्शनी अमेरिकायूरोपफ्रांसब्रिटेन में हुई। सतीश गुजराल ने कई माध्यमों में कार्य किया। इन्होंने पोट्रेटबातिक पद्धतिनाटकीय प्रभाव दर्शाती चमकीले रंगों मेंदैनिक जीवन से सम्बन्धित अनेकानेक चित्र बनाये। आपके विशेष चित्र तूफान के तिनकेतिरस्कृताआत्महत्या से पूर्वदर्द का मसीहनिराशा का जालअनाथअतीतभाग्यअन्तदोपहरप्रकाशजश्ने आजादीआदमी,मशीनउम्मीदेंमोनिंगआत्मचरित्र हैं। इसके अलावा म्यूरल में आदमी के हर्षविशादपीड़ासंघर्षआदि को बनाया। कोलाज चित्रण में कागजों का सुन्दर संग्रह किया। इनके ऊपर ललित कला अकादमी दिल्ली ने मोनोग्राफ प्रकाशित किया है तथा इनके कई एकल चित्रों की प्रदर्शनी असोमचण्डीगढ़नई दिल्लीमुम्बईएम्स्टर्डमबर्लिनकाहिरामेक्सिकोरोम लन्दनन्यूयार्क में हो चुकी हैं। आज 79 वर्ष की आयु में भी ये पूर्णतया स्वस्थ रहते हुए कार्यरत हैं।

33. सोमनाथ होरे (1921)- बंगला देश के चिटगाँव में 1921 में आपका जन्म हुआ। आपने 1954 से 1958 तक कोलकाता के इण्डियन कॉलेज ऑफ आर्टस में ड्राफ्टमैनशिप पास किया एवं कोलकाता आर्टस महाविद्यालय से 1957 में डिप्लोमा की डिग्री प्राप्त की। बाद में दिल्ली आर्टस कॉलेज के हैडचित्रकला विभाग के बने-1958 से 1967 तक । तत्पश्चात् शान्ति निकेतन के छापाकला विभाग के अध्यक्ष 1967 से 1983 तक रहे तथा अन्त में शान्ति निकेतन के विश्वभारती विश्वविद्यालय के प्राचार्य पद पर 1967-1983 पर रहे । छापाकला के क्षेत्र में सोमनाथ होरे का नाम सर्वोपरि है तथा उन्होंने इस क्षेत्र में कई छात्रों को दिया है।

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