मध्यकालीन भारत में नृत्य तथा नाट्य कला के विकास पर एक संक्षिप्त निबंध लिखिये।

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मध्यकालीन भारत में नाट्य-कला भारत में नाट्य-कला का अस्तित्व बहुत प्राचीन समय से रहा है। प्राचीन काल में राजाओं तथा अमीरों के संरक्षण में यह लगातार विकसित होती गई। पर मध्ययुग में इसमें गिरावट दृष्टिगोचर होती है। हालांकि मध्ययुग में नाट्य-कला के क्षेत्र में गिरावट दृष्टिगोचर होती है तथापि इसका अस्तित्व बना रहा ।

मध्ययुग में कई नाट्य कृतियों की रचना हुईजिनमें दक्षिणी भारत का विशेष योगदान रहा । सल्तनत युग में विजयनगर शासकों के संरक्षण में नाट्य-कला का पर्याप्त विकास हुआ।

विजयनगर के संगम वंश के हरिहर द्वितीय के पुत्र वीरूपाक्ष ने नारायण विलास‘ नामक नाटक की रचना की । पाँच अंकों के इस नाटक ने बहुत प्रसिद्धि पाई । वीरूपाक्ष द्वारा ही रचित एकांकी नाटक उन्मत्तराघव‘ में सीता के वियोग में राम के विलाप का वर्णन किया गया है। भास्कर ने भी उन्मत्तराघव‘ की रचना की जिसकी विषय-वस्तु भी वीरूपाक्ष द्वारा रचित नाटक के समान थी। वामनभट्टबाण ने पाँच अंकों में नाटक कुमारसम्भव की प्रस्तुति की। इसके अतिरिक्त भी अन्य नाट्य कृतियों की रचना की गई। विजयनगर साम्राज्य में कई नाट्शालाएं भी थीं जिन्हें रंगस्थल अथवा सुन्दरशाला कहा जाता था। ज्योतिरीश्वर का धूर्तसमागम‘ तथा कृष्ण-देवराय का जाम्बवती कल्याण‘ आदि नाटक अभिनीत होते थे।

पन्द्रहवीं शताब्दी में अर्द्ध-ऐतिहासिकरूपकनाटक तथा भक्ति नाटक भी लिखे गये। इस श्रेणी के नाटकों में रूप गोस्वामी द्वारा लिखित विदग्धमाधव‘, ‘दानकेलि-चन्द्रिका‘ और ललित माधव‘ नामक नाटक अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। इसी काल में रामचन्द्र राज्य ने पाँच अंकों में जगन्नाथ वल्लभ नामक नाटक लिखा। इन नाटकों के अलावा सामाजिक नाटकहास्यपूर्ण नाटक तथा सुखान्त नाटक भी लिखे गये।

मुगल शासकों ने नाट्य कला को संरक्षण प्रदान नहीं किया। मुस्लिम प्रजा ने भी इस कला को व्यक्तिगत रूप से स्वीकार नहीं किया। मुस्लिम शासकों तथा मुस्लिम जनता की उपेक्षा के बावजूद नाट्य कला हिन्दू-संरक्षण में लगातार प्रवाहित होती गई । उदाहरणार्थ हिन्दू धार्मिक केन्द्रों में रामलीला का प्रदर्शन किया जाता था। पर मुस्लिम भावना धार्मिक नाटकों के प्रदर्शन की विरोधी थी। अतः मध्ययुग में नाट्य कला का अपेक्षित विकास सम्भव नहीं हो सका।

मध्यकालीन भारत में नृत्य कला :

मुस्लिम समाज ने नृत्य कला की भी उपेक्षा कीजिसके कारण मध्ययुग में इस कला का भी पर्याप्त विकास सम्भव नहीं हो सका। मुस्लिम समाज में उच्च कोटि के सूफी जरूर भावावेश में आकर या धार्मिक उन्माद के कारण नृत्य करने लगते थे । कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा उनकी आलोचना की जाती थी। पर यह भी सत्य है कि हिन्दुओं के साथ सम्पर्क के कारण सल्तनत युग तथा मुगल युग में दरबारों में नर्तकियों को रखा जाता था। विजयनगर साम्राज्य में भी नृत्य कला का प्रचलन था। वेश्याएँ तथा देवदासियाँ मन्दिरों में नाचती थीं। कृष्णदेवराय ने एक नृत्यशाला भी बनवायी थी । नृत्य मण्डप के स्तम्भों पर नृत्य की विभिन्न मुद्राएँ दिखलाई गई थीं। नृत्य करने वाले इन्हें देखकर नृत्य करते थे। कृष्णदेवराय की आज्ञा से मण्डप के मध्य में एक युवती नर्तकी की सोने की मूर्ति बनाकर खड़ी की गई थीजो ऐसा आभास देती थी मानो नृत्य को ही सशरीर खड़ा कर दिया गया हो। विट्ठल मंदिर में एक पत्थर के सिंहासन पर नाचनेगाने तथा बाजा बजाने वालों की आकृतियाँ खुदी हुई हैं। हजारा राम मंदिर की दीवारों पर भी नर्तकियों के चित्र अंकित हैं ।

मुगल काल के कई चित्र भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। सभाओं में नृत्य करती हुई स्त्रियों के कई चित्र प्राप्त हुए हैं। उल्लेखनीय हैं कि मध्य युग में पुरुषों द्वारा नृत्य किये जाने के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं ।

हिन्दू परिवारों में नृत्य-कला को अच्छी दृष्टि से देखा जाता था। यही कारण है कि सम्पन्न हिन्दू परिवारों में लड़कियों को बचपन से ही नृत्य की शिक्षा दी जाती थी। मध्य युग में मुस्लिमों ने इस कला को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जबकि हिन्दू निरन्तर इसका पोषण करते रहे । पर इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम हरम में मनोरंजन के लिए अथवा नियमित नृत्य आयोजित किये जाते थे। मुस्लिमों ने नृत्य के साथ अपवित्रता का संबंध स्थापित किया पर उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यह गलत धारणा पूर्णतया लुप्त प्रायः हो गयी।


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