मिट्टी के कार्य का वर्णन कीजिए।

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मिट्टी के अंतर्गत कई तरह के तत्त्व पाये जाते हैंजैसे-लोहाकैल्शियमथोरियमसिकलका तथा एल्युमिनियम के ऑक्साइड आदि । इन तत्त्वों के कारण विविध स्थानों पर की मिट्टी में अन्तर होता है तथा उनका रंग भी भिन्न होता है । पीली मिट्टी,काली मिट्टी,गेरूमुलतानी मिट्टी,खड़िया मिट्टीचीनी मिट्टी आदि नाम मिट्टी के विविध रूपों को दर्शाते हैं । मिट्टी के बालुई या चिकना होने से उसकी उपयोगिता पर प्रभाव पड़ता है ।

मध्य प्रदेश में बहुधा दो तरह की मिट्टी पायी जाती हैं-

1. काली मिट्टीजो तालाबों की तलहटी से प्राप्त होती है,

2. लाल-पीली मिट्टीजो भूमि की ऊपरी सतह पर मिलती है। इन दोनों तरह की मिट्टी का प्रयोग खिलौने और बर्तन बनाने में किया जाता है मिट्टी का कार्य अन्य हस्त-शिल्पों की तरह ही बालकों के लिए उपयोगी है क्योंकि इससे उनकी रचनात्मक शक्ति का विकास होता है। प्राचीन हस्त शिल्पों के लिए कुछ विशिष्ट उपकरणों तथा एक अलग कमरे की आवश्यकता पड़ती है। मिट्टी का कार्य भी एक ऐसा ही शिल्प हैजिसमें अलग स्थान की जरूरत होती हैजहाँ वस्तुओं के निर्माणपकाने तथा रंगने का कार्य किया जा सके।

बालकों की निर्माण तथा खोज की प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए उन्हें पर्याप्त स्थान तथा उपकरण प्रदान किये जाने चाहिएजिससे वे स्वतंत्रतापूर्वक अपनी इच्छित वस्तु बना सकें। मिट्टी के कार्य के लिए अग्रलिखित सामग्री की जरूरत पड़ती है

सामग्री- काठ का पटरामूंगरीछलनीनाँदतसला अथवा पत्थर की घटियाचाकूपटरियाँकौड़ियाँटप्पेरंगमुड़ा तारकूची तवा आदि।

मिट्टी के बर्तनों के निर्माण के लिए अग्रलिखित क्रियाविधि अपनायी जाती है-

1. मिट्टी तैयार करना- निम्न माध्यमिक कक्षाओं में तीन तरह की मिट्टी उपयोग में लायी जाती हैं

(a) सफेद मिट्टी,

(b) लाल मिट्टी

(c) टेराकोटा मिट्टी-इसे लाल मिट्टी में मिट्टी के टूटे पके बर्तनों का चूरा 10 से 20 प्रतिशत तक मिलाकर तैयार किया जाता है।

बाजार में मिट्टी दो रूपों में उपलब्ध होती है

(i) पाउडर के रूप मेंजिसे Clay flour कहते हैं।

(ii) तैयार मिट्टी के रूप मेंजिसे Moist clay कहते हैं।

हमारे देश में ज्यादातर घर तथा तालाबों के आसपास पायी जाने वाली मिट्टी का प्रयोग किया जाता है। मिट्टी तैयार करने हेतु सर्वप्रथम मिट्टी की मूंगरी से कूटकर छलनी से छान लिया जाता हैजिसने कंकड़ तथा कूड़ा साफ हो जाएउसके बाद उसमें पानी मिलाकर मथा जाता है। बहुत चिकनी मिट्टी में पके टूटे बर्तनों का पीसकर मिला लेते हैं। तैयार मिट्टी मोम की तरह मुलायम होती है तथा उससे बत्ती बनाने पर यह हाथ नहीं नहीं चिपकती तथा न ही बत्ती टूटती है।

2. वस्तुओं का निर्माण- तैयार मिट्टी के बर्तनखिलौने तथा अन्य वस्तुएं बनायी जाती हैं। फलोंसब्जियों एवं पशु-पक्षियों के मॉडल भी तैयार किये जाते हैं। बड़े स्तर पर वस्तुओं का निर्माण करने हेतु चॉक का प्रयोग किया जाता है। विद्यालयों में मिट्टी का कार्य करने हेतु तीन विधियाँ अपनायी जाती हैं

(क) बत्ती का कुण्डली विधि- इस विधि में लम्बी-लम्बी बत्तियाँ बनाकर बर्तन के आकार के अनुसार एक के ऊपर एक रखते जाते हैं तथा पट्टियों की मदद से उस समतल करते जाते हैं। बड़े बर्तनों के निर्माण में यही विधि उपयुक्त होती है। इस विधि के प्रयोग में यह सावधानी रखनी चाहिए कि बत्तियों को जोड़ने में पानी का प्रयोग न करें एवं अधूरे बर्तनों के ऊपर गीला कपड़ा डाल देंजिससे वह सूखे नहीं तथा अगले दिन उन्हें पूर्ण किया जा सके।

(ख) ठोस विधि- लगभग 15 से.मी. अथवा उससे छोटे बर्तनों तथा खिलौनों को बनाने हेतु ठोस विधि का प्रयोग किया जाता है। इसमें मिट्टी को वांछित आकार देकर पहले छाया फिर धूप में सुखा लेते हैं तथा आवा में गर्म करके पका लेते हैं। उसके बाद रंगों द्वारा सजा दिया जाता है

(ग) अंगूठे की विधि- लगभग सेमी या उससे छोटे आकारों को सिर्फ अंगूठे एवं उंगली की मदद से बनाया जाता हैअतः इसे अंगूठे की विधि कहते हैं ।

3. बर्तन सुखाना- मिट्टी से बनी वस्तुओं को छाया में सुखाना चाहिए तथा उन्हें पलटते रहना चाहिजिससे वस्तु एकसार सूखे । तेज हवाओं से बर्तन को बचाना चाहिए ।

4. वस्तुएं सजाना- वस्तुएं सजाने हेतु कई तरह की सामग्री प्रयोग की जाती हैजैसे-कौड़ीशीशे के टुकड़ेमोती आदि। इन वस्तुओं को गीले बर्तन में ही चिपका दिया जाता है चाकू तथा तीलियों से गोदकर बर्तन में बेल-बूटे बनाए जाते हैं। बेल-बूटे उभरे हुए भी बनाए जा सकते हैंजो ज्यादा आकर्षक लगते हैं। सूखे तथा पके बर्तनों को सजाने हेतु टप्पों द्वारा बेल-बूटे बनाए जाते हैं एवं उन्हें पानी एवं गोंद में रंग मिलाकर या तैलीय रंगों से रंगा जाता है।

5. बर्तन पकाना- मिट्टी के बर्तनों को आधा बनाकर पकाया जाता हैजिसके लिए भूमि में गड्ढा खोदकर उसमें कंकड़ तथा रेत बिठाते हैं एवं उसके ऊपर गोबर से बने कंडों एवं बर्तनों को विधिवत रखा जाता है। नीचे बड़े बर्तन एवं ऊपर छोटे बर्तन रखे जाते हैं। उसके बाद कंडों में अग्नि देकर आवे का मुँह बन्द कर देते हैं। लगभग तीन दिन बाद उसे खोला जाता है।

6. टूटे हुए बर्तन जोड़ना- आवे से निकालने पर कुछ बर्तन चटके हुए तथा कुछ टूटे हुए भी प्राप्त होते हैं। चटके हुए बर्तनों को गोंद में रुई मिली मिट्टी से जोड़ते हैं एवं टूटे हुए बर्तनों को जोड़ने हेतु कई विधियाँ प्रयोग की जाती हैं –

(क) बर्तन को गर्म करके चपड़ा लाख लगा दिया जाता है ।

(ख) गोंद में बेलगिरी एवं मेथी को पीसकर मिलाने से एक लुग्दी (पेस्ट) तैयार होता हैउससे बर्तन जुड़ जाते हैं।

(ग) जोड़ को ज्यादा पक्का करने के लिए एक भाग सीमेंट तथा दो भाग बालू से बने मिश्रण को पानी में घोलकर लगाते हैं।

(घ) सीमेंटखाण्ड तथा धुनी हुई रुई को काटकर हैउसे मिलाने से जो मिश्रण बनता बर्तन के घोलकर लगाने से बहुत पक्का जोड़। बन जाता है जाने पर उसे रंगों से सजा देते हैंजिससे जोड़ दिखाई नहीं पड़ते ।

विविध स्तरों पर मिट्टी के कार्य में अग्र क्रियाएं शामिल की जानी चाहिए

1. पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में- इस स्तर पर मिट्टी से खेलना बालकों की पसन्दीदा क्रिया होती है। वह प्रायः मिट्टी के घर तथा रेत के किले बनाया करते हैं । यह मिट्टी को विविध रूप प्रदान करके अपने मन में आयी वस्तुओं का निर्माण करते हैं तथा उन्हें अपने चारों तरफ के वातावरण में पायी जाने वाली वस्तुओं का नाम देते हैं। यह निर्माण की प्रक्रिया का प्रथम सोपान हैजिसमें ये वस्तुओं की प्रकृति को समझते हैं तथा नवीन आकृति की खोज करते हैं इस स्तर पर बालकों को तैयार मिट्टी प्रदान की जानी चाहिए। अगर मिट्टी ज्यादा गीली होगी तो यह चिपचिपी हो जाएगी तथा सूखी रह जाने पर उसे मोड़नाकाटना संभव न होगा। अत: भली प्रकार तैयार मिट्टी को बालकों को देकर उन्हें अपनी पसन्द की वस्तएं बनाने हेतु स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। इस स्तर पर बालक लंबी तथा गोल आकृति बनाने का प्रयत्न करेगा तथा उन्हें साँपगेंदसंतरा आदि परिचित नामों से पुकारेगा। हालांकि उसकी बनायी वस्तुओं के आकार स्पष्ट नहीं होंगेफिर भी उसका क्रिया में लगना महत्त्वपूर्ण होगा।

2. प्राथमिक कक्षाओं में– इस स्तर पर बालकों के द्वारा विविध आकारों वाली वस्तुएं बनवायी जा सकती हैंक्योंकि बालक गोलचकोरतिकोनी,शंकुकार आदि आकारों से परिचित हो जाते हैं। बालक यह भी अनुभव करने लगते हैं कि मिट्टी से त्रि-आयामी वस्तुएं बनायी जा सकती हैंजिन्हें कागज पर पेंसिल से बनाना कठिन है। मिट्टी बालकों को अपनी योजना क्रियान्वित करने का अवसर प्रदान करती है। बालक की रुचि स्वयं मेंअपनी वस्तुओं मेंअपने पालतू जानवरों मेंफूलों-फलों,खेल के सामानबर्तनों,सब्जियों आदि में होती हैं । वह यह खोज करता है कि वह मिट्टी से क्या-क्या बनाया जा सकता है तथा उन वस्तुओं को बनाता हैजिन्हें आसानी से शीघ्रता से बना सकता है। यह स्वयं खोज द्वारा सीखने का अवसर है। इस स्तर पर बालक को व्यक्तिगत निर्देशन दिया जाना चाहिए।

3. निम्न माध्यमिक कक्षाओं में- इस स्तर पर बालकों का शारीरिक विकास हो रहा होता है। इसलिए श्रमयुक्त कार्य का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। सर्वप्रथम उन्हें मिट्टी तैयार करने में पारंगत होना चाहिए । इसके बाद बर्तन खिलौने बनाने का अभ्यास करना चाहिए । उन्हें तीनों विधियों-बत्ती विधिठोस विधि तथा अंगूठे की विधि द्वारा आकृतियाँ बनानाटूटी आकृतियों को जोड़ना एवं उन्हें सजाने की विधियों का अभ्यास करना चाहिए। मिट्टी संरचनात्मक क्रियाओं के लिए एक सीधासरल तथा सस्ता साधन है । इसलिए अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर नवीन कल्पनाओं को साकार करने के हर अवसर का लाभ छात्रों को प्राप्त होना चाहिए।

4. माध्यमिक कक्षाओं में- माध्यमिक कक्षाओं में यह विषय चयनित होगा। इसलिए पूर्व अनुभवों के साथ-साथ व्यावसायिक दृष्टिकोण को भी शामिल किया जाना जरूरी हैजिससे कला के साथ उपयोगिता को ध्यान में रखकर रचना की जाए। इस स्तर पर बालकों की किशोरावस्था होती हैवह ज्यादा जिज्ञासुक्रियाशील तथा शारीरिक रूप से परिपक्व होते हैं। इसलिए मिट्टी से सम्बन्धित सभी क्रियाओं का भली तरह निवेदन कर सकते हैंअत: बर्तन बनाने तथा सजाने की क्रियाओं के अलावा बर्तन पकाने की क्रियाओं का प्रशिक्षण भी छात्रों को दिया जाना चाहिए। उन्हें चाक द्वारा बर्तन बनाने का एवं आवा बनाने एवं खोलने की क्रियाओं का व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना चाहिए । छात्रों को मिट्टी के कार्य के व्यावसायिक स्थानों पर जाकरवहाँ का प्रत्यक्ष निरीक्षण करके उनकी समस्याओं तथा आवश्यकताओं की जानकारी प्राप्त करनी चाहिए एवं यथासम्भव अपना सक्रिय सहयोग भी प्रदान करना चाहिए।

माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों को अन्य शिल्प-कायों का प्रशिक्षण भी दिया जा सकता है,जैसे कपड़ा बुननामोमबत्ती बनानाचमड़े की वस्तुएं बनाना आदि । बालक अपने शिल्प-कार्य को लगातार आकर्षक बनाने का प्रयत्न करते हैं अतः शिक्षक को उनकी रेखारंगआकारपोत आदि की समझ के विकसित होने में सहायता करनी चाहिए । इसके लिए बालकों को प्रत्यक्षीकरण का अधिकाधिक अवसर प्रदान किया जाना चाहिए ।

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