राजपूत चित्रकला की शैली को समझाईये ।

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राजपूतों के निवास राजस्थान तथा मध्यप्रदेश में चित्रकला की इस शैली का उद्भव एवं विकास होने के कारण इसे राजपूत चित्रकला की संज्ञा प्रदान की गयी थी। राजस्थान के मुख्य नगर जयपुर में इस शैली ने विशेष प्रगति की थी। चित्रकला के कई मर्मज्ञ तथा विद्वानों के अनुसार राजपूत चित्रकला का स्त्रोत अजन्ता की चित्रकला में निहित है। राजपूत कलाकार अपने देश की परम्परा से पूर्णतया परिचित थे। ऐलिफेन्टाऐलोरा की वास्तुकला एवं अजन्ता तथा सिगरिया की चित्रकला की उन्हें जानकारी थी। इन स्थानों की कलाकृतियों का उन पर इसी तरह प्रभाव पड़ा जैसे हिन्दी साहित्य पर संस्कृत साहित्य का प्रभाव पड़ा । राजपूत चित्रकला भी प्राचीन भारतीय कलाविदों की कलाकृतियों से प्रभावित हुई जो अजन्ता की चित्रकला के रूप में आज भी मौजूद है। अतः कहा जा सकता है कि राजपूत चित्रकला शतप्रतिशत भारतीय कला है एवं इस पर मुगल चित्रकला का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। जयपुर के अलावा उदयपुरनाथद्वाराजोधपुरकिशनगढ़ एवं मालवा आदि में भी इस शैली का पर्याप्त मात्रा में विकास हुआ था।

राजपूत शैली के विषय :

राजपूत शैली में विविध तरह के विषयों को लेकर उन पर चित्र बनाये गये हैं। इनमें कुछ मुख्य विषय इस तरह हैं-ग्राम्य जीवननायिका भेदकृष्ण लीलाविभिन्न ऋतुओं का यात्रा चित्रणकृष्ण की रासलीला तथा पौराणिक कथाओं की प्रमुख घटनाएं । राजपूत शैली के चित्रकारों द्वारा रामायण तथा महाभारत की विभिन्न घटनाओं का भी सजीव चित्रण किया गया है। अजन्ता के चित्रकारों ने जिस तरह भगवान गौतम बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं का अत्यधिक मनोयोगपूर्ण तथा दक्षता के साथ चित्रण किया हैउसी तरह राजपूत चित्र शैली के चित्रकारों ने भगवान कृष्ण की लीलाओं का सजीव चित्रण करके अपनी कला निपुणता का परिचय दिया है। राधाकमल मुखर्जी ने राजपूत चित्रकला का अत्यधिक प्रवीणता के साथ वर्णन करते हुए लिखा है –

राजपूत तथा पहाड़ी कलाओं के अन्तर्गत राधा एवं कृष्ण के अतिरिक्त पालतू पशु-पक्षियों जैसे-हिरनमोर आदि रात्रि-जागरणअभिसार हेतु गमन करती नायिकाअवधारित मिलनसघन बादलधूल से उठते बवण्डरमूसलाधार वर्षाविद्युत की चमकवृक्षों से लिपटी लताएंपुष्पों से आच्छादित कदम्ब वृक्षयमुना का उपवनपाँव के नीचे रेंगता सर्प आदि के चित्रण बहुत गम्भीर बने हैं। इस कला के अन्तर्गत किसी काल्पनिक सृष्टि का सृजन नहीं किया गया है तथा संसार को ही एक बाह्य लाक्षणिक जगत में रूपान्तरित कर दिया गया हैजिसके अन्तर्गत स्त्री तथा पुरुष की आकर्षक भावभंगिमा और वनैले तथा पालतू दोनों तरह के पशुओं की प्रणयोन्मत चेष्टाएं प्रेम की अनन्त खोज की अभिव्यक्ति हैं।

राजपूत शैली की व्याख्या करते हुए श्री विद्यार्थी जी ने यह विचार व्यक्त किया है कि अन्य भारतीय कलाओं के समान ही राजपूत चित्रकला भी अन्तर्रात्मा को स्पर्श करती हुई प्रतीत गया होती है । कलाकार अपनी आँखों द्वारा दूर से देखे दृश्य को ही चित्रित करके सन्तुष्ट नहीं होता। उसके अन्तस्थल-आन्तरिक जगत में अन्य स्वरूप दृश्य तथा स्वप्न होते हैंजिन्हें वह अपनी तूलिका से पर्दे पर चित्रित करने का प्रयास करता है । यही उनकी चित्रकला तथा मुगल चित्रकला का मुख्य अन्तर हैक्योंकि मुगल चित्रकला में सिर्फ दृश्य-जगत के दृश्यों का ही चित्रण किया राजपूत शैली के चित्रों से मिलते-जुलते चित्र हिमालय की तराई के देशों के चित्रकारों द्वारा भी चित्रित किये गये हैं। इस तरह के चित्रों की शैली के नाम से विख्यात है । पहाड़ी शैली का विषय भी बहुत विस्तृत है । इस शैली में कृष्ण लीलाओं का चित्रण बहुत आकर्षक ढंग से किया गया है एवं कृष्ण के बाल रूप की जिस छवि का चित्रण किया गया है वह अद्वितीय तथा अनुपमेय सिद्ध हुई है। इस शैली की मुख्य विशेषता इसके अन्तर्गत श्रृंगार के कोमल पक्षों का सजीव चित्रण है।

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