वादन संगीत का वर्णन करो।

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वाद्य संगीत भारतीय संगीत की एक प्रकार से रीढ़ की हड्डी है । कहने का अभिप्राय है बगैर वाद्य के कोई भी संगीत अधूरा है । बगैर तबला के शास्त्रीय गायन या संगत के बगैर कोई भी संगीत अधूरा है। चाहे नृत्य होरंगमंच हो वाद्य संगीत जरूरी है। वर्षाआंधीतूफानरोमांसरोमांचदुःखसुखगायनवादननृत्य सबका प्रदर्शन तबले की एक थाप अथवा सितार की एक झंकार प्रस्तुत कर देता है । इसलिए कहने का अभिप्राय है कि भारतीय श्रव्य कला बगैर वाद्य संगीत के अधूरी है।

वाद्य संगीत निम्नवत हैं –

1. तन्त्र (तन्तु) वाद्य (सतारवीणातानपुराआदि)

2. धन वाद्य (पखावजतबलाडमरू आदि)

3. गज वाद्य (वायलनइसराजसारंगी आदि)।

4. अन्य

इसके अलावा वादन के भी तीन प्रकार होते हैं |

वादन :

वादन तीन तरह के होते हैं –

1. अनुगामी वादन- इसमें वाद्य यन्त्रों का प्रयोग गायन के अनुगमन हेतु किया जाता है चाहे वह शास्त्रीय संगीत होसुगम संगीत हो या फिल्म संगीत हो।

2. एकल वादन- इसमें वाद्य यन्त्र स्वतन्त्र रूप से किसी राग अथवा गीत को पेश करते हैं। पं. रविशंकर (सितार)उस्ताद अली अकबर खाँ (सरोद्)अल्ला रख्खा खाँ (तबला)उस्ताद बिसमिल्ला खाँ (शहनाई) आदि की कला प्रस्तुतियाँ इसी श्रेणी में आती हैं।

3. वृन्द वादन- शब्द से ही विदित होता हैएकल वादन जिसे प्राचीन ग्रन्थों में शुष्क वादन कहा गया है। आजकल इतना विकसित हो गया है कि वह गायन के समकक्ष तथा कभी-कभी तो उससे भी ज्यादा लोकप्रिय तथा प्रभावोत्पादक सिद्ध होता है । किसी रस विशेष या परिस्थिति विशेष का वातावरण मौजूद करने हेतु वाद्यों या वाद्यवृन्द का प्रयोग नाटकोंचलचित्रों या आकाशवाणी आदि से सफलतापूर्वक किया जाता है। तीसरी विद्या नृत्य का स्वतन्त्र रूप से लेने का विश्लेषण निम्न रूप से इस तरह है जो कई रूप में दृष्टिगोचर होता हैं।

भारतीय संगीत अपने वाद्यों की विविधता के विषय में विश्व प्रसिद्ध है। पाश्चात्य देशों में जैसे वृन्द-वादन का विकास हुआ हैवैसा भारतवर्ष में दृष्टिगोचर नहीं होता है। राजा महाराजाओं के दरबार में बड़े-बड़े गायक-वादन तो रहे हैं लेकिन राज-दरबार में वृन्दावन की व्यवस्था सन्तोषप्रद कभी नहीं रही। वाद्य-यन्त्रों की विविधता होते हुए भी वाद्य कला विशारदों ने अपने व्यक्तित्व को ज्यादा महत्त्व दिया। भिन्न-भिन्न कलाकारों ने अपने-अपने प्रिय वाद्यों में अद्वितीय ख्याति प्राप्त की। भारतीय वाद्यों का निर्माण सामान्यतः ऐसी वस्तुओं से हुआ हैजो नित्य प्रति के व्यवहार में बड़ी सरलता से उपलब्ध हो सकती हैंजैसे नरकुलबाँस गिट्टीतुम्बीशीशमआमइत्यादि । इन साधारण वस्तुओं से ही विविध वाद्यों का निर्माण करके भारतीय संगीतज्ञों ने जिस प्रतिभा का परिचय दिया हैवह सर्वथा स्मरणीय है।

तन्त्र (तन्तुवाद्य :

वाद्य वाद्यों का वर्गीकरण विविध वाद्यों की रूपरेखाउपयोग एवं इनके बजाने के ढंग पर आश्रित है जिनमें तन्तु वाद्यों की जननी वीणा मानी जाती है। वीणा के मुख्य दो प्रकार हैं

1. रुद्रबीन वीणा,

2. सरस्वती वीणा।

1. रुद्रबीन वीणा- रुद्रबीन की पौराणिक कल्पना बड़ी विचित्र एवं मनोरंजक हैकहते हैं कि एक बार देवाधि देव महादेव ने पार्वती को ज्योत्स्ना में पुष्प शैय्या पर शयन करते हुए देखा। विविध तरह के पुष्प के कानन में सौन्दर्य की प्रतिभा पार्वती को निद्रावस्था में देखकर उन्हें वीणा की कल्पना हुई एवं रुद्र वीणा के रूप में उस निद्रित सौन्दर्य को जागरूक करके उन्होंने सन्तोष प्राप्त किया।

पार्वती के कृशाड़ ने वीणा की लम्बी ग्रीवा का रूप धारण किया। सुन्दर चूड़ियों से युक्त सुडौल हाथों वाली सेजों पर शयन करती हुई पार्वती के कर-कमलों को देखकर महादेव ने वीणा की दो तुम्बियों तथा वीणा के पदों की कल्पना को साकार रूप प्रदान किया । वृक्षावली से वीणा की खूटियों की कल्पना की। पार्वती के मस्तिष्क पर सुशोभित मुकुट वीणा का मोर बना एवं उनकी अंगूठी से मिजराव की कल्पना पूर्ण हुई। इस तरह महादेव द्वारा रुद्रवीणा का आविष्कार हुआ।

2. सरस्वती वीणा- सरस्वती वीणा का आविष्कार भगवती सरस्वती के द्वारा माना जाता है।

तानपुरा :

तानपुरा या तम्बूरा भारतीय संगीत का सर्वाधिक प्रचलित तन्त्र वाद्य है । गोटाकिचरीब्रह्मणीणा इत्यादि तानपुरे को ही जाति या श्रेणी के अन्य वाद्य यन्त्र हैं लेकिन तानपुरा को इनमें सबसे उच्च माना जाता है। कुछ संगीतज्ञ तानपुरे के तारों को गोट से दबाकर भी बजाते हैं ! दक्षिण भारत में नारियल के टुकड़े से तानपुरे के तारों को दबाकर उसे बजाया जाता है । तानपूरे को इस रूपरेखा को दक्षिण में कोतु वाद्य‘ या बाल-सरस्वती‘ कहा जाता है। कोतु शब्द का अर्थ है चलायमान परदे

तानपूरे का एक अन्य प्रकार ब्रह्मवीणा‘ कहलाता है । यह एक बड़े सन्दूक जैसा दिखाई देता है। इसमें तुम्बी का अभाव होता है। स्वर-सोटा तथा किन्नरी तानपूर के अन्य प्रकार हैं स्वर सोटाखोखले बॉस का बना होता है। इसमें सामान्यतः तुम्बी नहीं होती लेकिन तानपूरे की तरह चार तार जरूर होते हैं।

किन्नरी :

किन्नरी भारत का बहुत ही प्राचीन वाद्य है। कहा जाता है कि स्वर्ग के किन्नरों द्वारा इसका आविष्कार हुआ है और उन्हीं के नाम पर इस वाद्य का नाम किन्नरी प्रचलित हुआ है। आजकल इस वाद्य का प्रचार प्रमुखतः भिखारियों में ही है। यह वाद्य बाँस का बना होता है बाँस की यह नली तीन तुम्बियों से जुड़ी रहती है । इस वाद्य में दो या कभी-कभी तीन तार होते हैं। किन्नरी जैसा ही एक वाद्य दक्षिण भारत में भी होता हैवहाँ इसे धने-का‘ कहा जाता है।

सितार :

सात तारों से निर्मित दो तूम्बे के तन्त्र वाद्य को सितार कहते हैं। इसे मिजराफ से बजाया जाता है । इसके प्रमुख वादक पण्डित रविशंकरविलायत खाँअनुष्का शंकर हैं विदेशी डल साइमर से मिलता-जुलता भारतीय वाद्य स्वर मण्डल है । कात्यायन वीणा (शततन्त्री) से स्वर-मण्डल भिन्न नहीं है। यह वाद्य मिजराब अथवा कौड़ी की मदद से बजाया जाता है।

2. घन वाद्य– काष्ठ तथा मिट्टी के बने खोल में जब चमड़ा एवं चाटी चढ़ाकर वाद्य यन्त्रों का निर्माण किया जाता है तो उन्हें घन वाद्य कहते हैंजैसे-मृदंगपखावजतबलाडमरूढोलक आदि । इन यन्त्रों का आविष्कार वेदों एवं स्मृतियों के पुरातन युग में ही हुआ है। देव तथा देवों उनके निर्धारित यन्त्रों के बगैर पहचाने ही नहीं जा सकतेजैसे कृष्ण बगैर मुरली केब्रह्मा मृदंग केसरस्वती वीणा केशिव डमरू के । इन देवी शक्तियों के चित्र तथा प्रतिभा इन चिह्नों के अभाव में अपूर्ण समझे जाते हैं। यहाँ घन वाद्यों का संक्षिप्त वर्णन दिया जा रहा है –

1. मृदंग- इन वाद्यों में सबसे प्राचीन वाद्य डमरू अथवा ढोल है। कहा जाता है कि त्रिपुरा विजय के उपलक्ष्य में जब महादेव जी ने नृत्य किया था तब उनके नृत्य के साथ जाने हेतु ब्रह्मा ने मृदंग का आविष्कार किया था। सर्वप्रथम गणेश जी ने इस वाद्य को बजाया था। मृदंग शब्द का अर्थ मिट्टी का बना हुआ‘ भी होता है लेकिन आजकल इसका खोल काष्ठ द्वारा ही निर्मित होता है। इस वाद्य का प्रचार दक्षिण भारत में ज्यादा है।

2. पखावज- मृदंग से कुछ बड़ा उत्तर भारत में बजाया जाता है ।

3. डमरू- शिव का प्रिय वाद्य डमरू है। एक हाथ में लेकर जब शिव ताण्डव नृत्य करते हैं तो डमरू की धागों में लिपटी टिकुली से सारा ब्रह्माण्ड गुंजायमान हो जाता है तथा शिव के नृत्य से समस्त सृष्टि खुशहाल हो जाती है।

4. ढोलक- उत्तर भारत में लोकगीतों में अथवा किसी भी तीज त्यौहार में बजाया जाने वाला यह वाद्य अत्यन्त प्रचलित हैविशेषकर महिलाओं के लिए। शादी हो अथवा बच्चे का जन्म अथवा कोई तीज-त्यौहार इसकी थाप के बगैर सब अधूरा है। 5. तबला- दायाँ तथा बायाँ तबले की जोड़ीमिट्टीताँबा एवं एल्यूमीनियम की बनी होती है। ये मध्य चाटीकाली टीका चमड़े पर मढ़ा हुआ होता है। भारतीय संगीत में संगत अति जरूरी है ।

गज वाद्य :

गज से बजाये जाने वाले वाद्यों को गज वाद्य कहते हैं। इनमें रबाबवायलनइसराज आदि आते हैं। संक्षिप्त वर्णन अग्रांकित है –

1. रबाब- रबाब भारत के संगीतज्ञों का प्रिय वाद्य है लेकिन बहुत कम लोग इसे बजाते हैं। कहते हैं प्रख्यात गायक तानसेन इस वाद्य में प्रवीण थे। यह वाद्य गज से बनाया जाता है जिसमें घोड़े की पूँछ के बाल लगे होते हैं । रबाब का आधुनिक रूप सुर-सिंगार‘ नामक वाद्य है।

2. वायलन- ठोड़ी के नीचे रखकर बाएं हाथ से पकड़ा जाता है एवं दाहिने हाथ में गज की मदद से बजाया जाता है। कर्नाटक संगीत में वायलन का बहुत प्रचलन है।

3. इसराज- इसराज भी गज की मदद से बजाया जाता हैविशेषकर महिलाओं के नृत्य में।

4. सारंगी– सारंगी बहुत मधुर साज महफिलों में ज्यादातर बजाया जाता है।

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