सृजनात्मक अभिव्यक्ति का वर्णन करो

Estimated reading: 1 minute 88 views

कला में सृजनात्मक अभिव्यक्ति का अर्थ है कलाकार द्वारा अपनी कृति में कुछ नयी देन और उस नवीन देन हेतु जरूरी है नवीन प्रयास एवं उन प्रयासों द्वारा नूतन परिणाम । तत्पश्चात् उन परिणामों का मूल्यांकन । जिरा कलाकृति में कलाकार के विचारभावउद्वेग विद्यमान होंउसे सृजनात्मक कृति अथवा कलाकार को नवीन देन के नाम से सम्बोधित किया जाता है। भाव तथा उद्वेग का अर्थ हर्षविषाद तथा भय से है। सिनेमाघर तथा रंगशाला हर्ष के द्योतक हैं दरगाह तथा समाधि स्थान विषाद को प्रकट करते हैं। मन्दिर तथा मस्जिद आदर तथा श्रद्धा के द्योतक हैं। कारागृहभय तथा घृणा के द्योतक हैं। इसी तरह कलाकार अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति में कुछ कल्पनात्मक देने देता है। विद्यालय में सृजनात्मक अभिव्यक्ति के कार्यक्रमों में छात्र सहज भाव से खेल-खेल में विविध तरह की कलाकृतियाँ बनाते हैंजिसमें बालक अपने दैनिक जीवन के अनुभवों को विविध तरह के माध्यमों तथा सामग्री से व्यक्त करता है तथा इसके द्वारा अपनी भावनाओंविचारोंभावों एवं कल्पनाओं को मूर्त रूप देता है। ऐसे अनुभवों से यह जरूरी नहीं है कि किसी ठोस मूर्त का निर्माण कलाकृति हो । कला विषय का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुभव तथा कुछ जानने की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है।

इस तरह सृजनात्मक अभिव्यक्ति वह है जो कलाकार के हृदय से उमड़ कर उसके व्यक्तित्व को कला द्वारा व्यक्त कर देती है। शिक्षक को छात्र के इस व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करना चाहिये। यह उसी समय हो सकता है जब छात्र को पदार्थ चुनने एवं अपने भाव को व्यक्त करने में पूर्ण स्वतन्त्रता हो । हमें छात्र को आन्तरिक शक्तियों को अभिव्यक्त करने का अवसर देना चाहिए। उसके मस्तिष्क में अधिक से अधिक बाह्य ज्ञान थोपना शिक्षण नहीं कहलाताजैसे-एक छात्र कागज काटकर हाथी बनाना चाहता है। यहाँ वह कागज पर सिर्फ रेखाएं ही नहीं खींचना चाहताकुछ बनाना चाहता है। यही सृजनात्मक अथवा रचनात्मक क्रिया है । दूसरा छात्र कागज के कटे हुए हाथी को छोड़कर मिट्टी का हाथी बनाना चाहता है । कोई बालिका इन सभी को निरर्थक जानकर उस हाथी के चित्र को मेजपोश पर बनाना चाहती है। इन सभी वस्तुओं में छात्र को बन्धनों से मुक्त रखना ही शिक्षक का उद्देश्य होना चाहिए।

शिक्षक को छात्र से मूल्यहीन वस्तुओं का निर्माण नहीं करना चाहिए। उसे हमेशा समयानुसार ही कार्य कराना चाहिएजैसे-अगर कोई बालक कलाकृति बनाने में रुचि नहीं रखताउसे बनाना कठिन समझता है । वही बालक दशहरे के अवसर पर रावण आदि के पुतले प्रसन्नता तथा उत्साह से बना लेगा। शिक्षक को किसी भी मूल्य पर उनकी आन्तरिक इच्छा के विरुद्ध नहीं जाना चाहिये । सृजनात्मक अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करने के लिए शिक्षक को बालकों से अनुभव के बारे में प्रश्न पूछने चाहिये तथा उनकी मनपसन्द वस्तुओं का उनसे सूक्ष्म विवरण देने को भी कहना चाहिये । बालक द्वारा रुचि को श्यामपट्ट पर अंकित करते रहना चाहिये । पुनः इन सभी पर विचार करके इनमें से प्रत्येक से कितनी प्रेरणा मिलती है इसका ध्यान रखकर ही विषय का चुनाव करना चाहियेइससे छात्र को अपनी रुचि का चुनाव करने में सुविधा रहेगा कृति में नवीनता भी आयेगी।

सृजनात्मक अभिव्यक्ति के साधन :

सृजन शब्द का अर्थ है- ‘कुछ रचनात्मक निर्माण करना‘ । सृजन करना भी एक कौशल है। विशेषतया कला में सृजनात्मक अभिव्यक्ति का महत्त्व कुछ अधिक है। जिस कला में सृजनात्मकता नहीं हैवह कला अद्भुत रूप नहीं ले सकती। कलाकार अपनी विचार-शक्तिकल्पना-शक्ति तथा अथक प्रयत्नों द्वारा विभिन्न वस्तुओं में चिन्तन के सूक्ष्म विश्लेषण में कई सुन्दर वस्तुओं का निर्माण कर सकता है। प्रकृति का विशाल रूप हमें यह संदेश देता है कि सृजन द्वारा मुझमेंमुझसे प्राप्त हर वस्तु आपके उपयोग एवं मनोरंजन का सुलभ साधन है। कलाकार अपनी विवेक-शक्ति से प्रकृतिप्रदत्त वस्तुओं का अनुकरण कुर विविध वांछित तथा उपयोगी वस्तुओं का सृजन कर सकता है। प्रकृति में विभिन्न कलाएं हैंहालांकि उनका नवीन तथा सृजनात्मक रूप कलाकार की बौद्धिक क्षमता पर निर्भर करता है। विविध पेड़-पौधेपुष्पनदीपहाड़आकाशसूर्यचन्द्र यहाँ तक कि मनुष्य की विभिन आकृतियाँ एवं नारी का सौन्दर्य रूप भी प्रकृति की ही देन है। इन समस्त आकृतियों का चिन्तनीय अनुकरण एवं उनमें सृजन अथवा नवीन रचनात्मक रूप प्रदान करना कला में सृजनात्मक अभिव्यक्ति कहा जाता है।

कला स्वयं एक सृजनात्मक विषय है। इसमें हर कार्य सृजनात्मक होता है क्योंकि हृदय तथा मन के भाव बुद्धि से मेल खाकर हस्त कौशल द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। छात्र स्वभावतः कुछ न कुछ करना चाहता है। छात्र के शैशवकाल के अन्तिम पक्ष तथा बाल्यकाल के प्रारम्भिक पक्ष में विध्वंसात्मक प्रवृत्ति पायी जाती है जो भविष्य में विधायकता की प्रवृत्ति में अभिभूत हो जाती है। यह प्रवृत्ति छात्र को आन्तरिक दृष्टि से प्रेरित करती रहती है कि वह कुछ क्रिया तथा सृजन करे। इस तरह जब छात्र किसी निर्माण के कार्य में लगता है तो कल्पना का सहारा लेकर उसमें आत्माभिव्यक्ति का पुट अवश्य देता है। कला-शिक्षण में सृजनात्मक अभिव्यक्ति के साधनों का अभिप्राय उन सभी क्रियाओं को कराने से है,जो चित्रण के अलावा शिल्प-कार्य से सम्बन्ध रखती है। विद्यालय में सिखायी जाने वाली कला की तुलना संग्रहालयों में रखी हुई कलाकृतियोंसिनेमाघरोंनाटक गृहों,शास्त्रीय नृत्यों तथा संगीत प्रदर्शनीविज्ञापनोंपोस्टरोंवास्तुकलासंगीतमुशायरों अथवा कवि सम्मेलनों से नहीं की जा सकती।

विद्यालय की कला-शिक्षास्थानीय लोक कलाशिल्पकला एवं लोक रंगमंच के समीप है। यह उस चित्रकला से भी भिन्न है जो हमने अपने अध्ययन काल में नकल कर सीखी थी या जो कलाकृतियाँ मूर्धन्य कलाकारों ने अजन्ता एवं एलोरामुगल अथवा राजपूत शैली में श्री नन्दलाल बोस अथवा टैगोर ने बनायी थी। हम अपने समय में ऐसे फूल-पौधोंज्यामिति आकारों अथवा दृश्यों के चित्र बनाते रहे हैंजो भावनाविचार तथा अनुभूति शून्य थे। सृजनात्मक कला का अर्थ कारीगरी से सम्बन्धित व्यवसाय प्रेरित गतिविधियों से नहीं इसमें हम जो कुछ भी करेंगे उसका दृष्टिकोण एवं उद्देश्य भिन्न होगा। छात्र कागजगत्तेलकड़ीमिट्टी तथा चर्म के माध्यम से कोई न कोई उपयोगी वस्तु बनाने का प्रयत्न करता है । वास्तव में सृजनात्मक अभिव्यक्ति ही उपयोगी कला का मार्ग प्रशस्त करती है। छात्र चित्रण का कार्य करते-करते ऊब जाता है। उसकी मनोदशा बदलने हेतु अन्य कार्य खोजने पड़ते हैं । उदाहरणतः कागज मोड़नाकाटना तथा चिपकानागत्ते को काटकर कोई वस्तु बनाना आदि क्रियाएं क्रियाशीलता प्रदान करती हैं। इन्हें क्रियात्मक कार्य इस दृष्टि से भी माना जाता है कि इन क्रियाओं में कुशलता प्राप्त कर लेने पर व्यवसाय भी निर्धारित किया जा सकता है । इसलिए इन्हीं क्रियात्मक कार्यों द्वारा कला का अध्ययन कराना सृजनात्मक अभिव्यक्ति कहलाती है तथा सृजनात्मक अभिव्यक्ति के विविध साधन अग्रलिखित रूप में हो सकते हैं

1. गत्ते का कार्य- मुलायम अथवा कड़े गत्ते को खुरचकर,मोड़कर तथा काटकर विविधतरह की वस्तुओं का प्रतिरूपजैसे-बॉक्सडिब्बेतश्तरी,खोलजिल्देनोटबुक तथा फाइलें आदि बनाने की क्रियाएं कर इनका कलात्मक ज्ञान इनसे सह-सम्बन्धित रूप में दिया जाता है। माप आदि की गणना करके लेई द्वारा कागज चिपकाकर उसको सजाना कलात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होता है।

2. मिट्टी का क्रियात्मक कार्य- मुलायम चिकनी मिट्टी द्वारा मॉडल बनानाबर्तन बनाना एवं उन्हें पकाना एवं रंगकर सजाना कलात्मक क्रियाओं का एक भाग होता है । अपने उद्देश्यानुसार मिट्टी को इच्छानुसार परिवर्तित किया जा सकता है। इसलिए यह कार्य छात्रों को रुचिकर तथा सरल प्रतीत होता है।

3. चर्म कार्य- चर्म द्वारा विविध तरह की वस्तुएं बनाई जाती हैंजैसे-पर्सबैग पेटी आदि। इन्हें विभिन्न रंगों तथा आलेखनों से सजाया जा सकता है। चमड़ा मूल्यवान् होता है। इस कारण इसका कार्य उच्च कक्षाओं में ही कराया जाता है।

4. लकड़ी और धातु के कार्य- लकड़ी तथा धातु के कार्यों में ज्यादा बल तथा कुशलता की जरूरत होती है । इसलिये ये कार्य उच्च कक्षाओं हेतु उपयोगी हैं। यन्त्रहथौड़े तथा छैनी आदि चलाना छोटे बच्चों के लिये कठिन होता हैलकड़ी एवं धातु की वस्तुओं को सजावट हेतु पक्के तथा चमकदार रंगों की जरूरत होती है। फर्नीचर रंगनापक्के रंग बनाना आदि का कलात्मक ज्ञान इनके माध्यम से छात्रों को कराया जाता है।

5. कृषि सम्बन्धी कार्य एवं बागवानी- कृषि में विविध साधनोंऔजारों के उपयोग के द्वारा प्रकृति का अध्ययन कराना कलात्मक प्रवृत्ति को दक्षता प्रदान करना है । कला के अध्ययन में प्रकृति का अध्ययन महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रकृति की गोद में जो कुछ देखा जाता है उसका चित्रण तथा ज्ञान इस कृषि के अन्तर्गत आता है।

6. गृह-शिल्प के कार्य- छात्राओं हेतु यह कार्य उपयुक्त तथा उपयोगी होता है । कपड़े काटनेछाँटनेकाढ़ने तथा बुनने आदि की क्रियाएं गृह-शिल्प में आती हैं। छात्राएं छात्रों की बजाय ज्यादा कलात्मक रुचि की होती हैं। वे सज्जाकारी में ज्यादा कुशल तथा दक्ष होती हैं । शिल्प कलाओं को पढ़ाते समय कला शिक्षक का विश्लेषण तथा संश्लेषण का सहारा लेना चाहिये। किसी मॉडल को बनवाते समय अथवा लिफाफाफाइल आदि बनवाते समय शिक्षक को प्रदर्शन कराना चाहिये । नमूने की वस्तुओं का छात्र तथा छात्राओं को विश्लेषण कराकर पूर्ण जानकारी देनी चाहियेजब छात्र उस नमूने से भली-भाँति परिचित हो जायें तो उसके संश्लेषण कराकर वैसी ही वस्तु बनाने का कलात्मक अवसर उन्हें देना चाहिये।

गृहशिल्प पढ़ाते समय अग्रलिखित सावधानियाँ रखनी चाहिए है 

(1) इन क्रियाओं का उद्देश्य छात्र को व्यवसायी बनाना नहींवरन् कला का ज्ञान । इसलिए व्यावसायिकता के दृष्टिकोण को प्रधानता न देकर शिल्प की कलात्मकता पर ज्यादा बल देना चाहिये ।

(2) क्रिया में प्रयोग की जाने वाली सामग्री विदेशी नहीं होनी चाहिये । स्वदेशी तथा स्वनिर्मित सामग्री का प्रयोग लाभदायक होता है ।

(3) सामग्री ऐसी होनी चाहिए जो छात्रों हेतु हानिकारक तथा ज्यादा बल देने वाली नहीं हो । सामग्री स्वच्छता की दृष्टि से उत्तम होनी चाहिय ।

(4) क्रिया में प्रयोग की जाने वाली सामग्री छात्रों की समझशक्ति तथा क्षमता के अन्तर्गत हो । ज्यादा महँगी सामग्री का प्रयोग नहीं करना चाहियेजो सामग्री स्थानीय सुलभ होउसी के माध्यम से इन क्रियाओं को करना चाहिये। प्रदान करना व्यक्तित्व के निर्माण में विवेकपूर्ण विचार महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। कला का ज्ञान तभी स्थायी तथा दृढ़ होता हैजबकि ज्ञान प्रत्यय सुदृढ़ तथा स्थिर रहे । इसलिए ज्ञान प्रत्यय को दृढ़ तथा स्थिर बनाने हेतु ज्ञानेन्द्रियों का उचित उपयोग जरूरी है। अत: कला के ज्ञान को स्थिरस्पष्ट तथा सुदृढ़ बनाने हेतु इस तरह की सामग्री एवं भावों की जरूरत होती हैजिनके उपयोग में छात्र की पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग हो सके । इस तरह से प्राप्त ज्ञान सुदृढ़ एवं स्थिर बन सकेगा। कला के शिक्षण में वह सामग्री जिसका उपयोग शिक्षण तथा अध्ययन की दृष्टि से कक्षा में सुदृढ़,स्थिर तथा स्पष्ट ज्ञान प्रत्ययों के बनाने हेतु किया जाता हैसृजनात्मक अभिव्यक्ति के साधन के रूप में सहायक शिक्षण सामग्री कहलाती है। कला के शिक्षण में ज्ञानेन्द्रियों के साथ ही कर्मेन्द्रियों का भी उपयोग किया जाता है। क्रियात्मक ज्ञान के लिये विशेष उपकरण एवं सामग्री की जरूरत होती है । मुख्य रूप से शिक्षण सहायक सामग्री तथा उपकरणों को हम अग्रलिखित रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं –

1. ज्यामितीय कला के क्रियात्मक उपकरण- चाकूब्लेडरबरपेन्सिलकलर बॉक्सबुशड्राइंग बोर्डट्रेसिंग पेपरस्याहीलेखन सामग्रीरेगमालपेन्सिल तथा कटर आदि ।

2. संगीतकला के क्रियात्मक उपकरण- हारमोनियमसितारवायलिनतबलासारंगी तथा मृदंग आदि।

3. नृत्यकला के उपकरण- घुघरूवाद्य-यन्त्र एवं प्रदर्शन के लिए विविध तरह के आकर्षक कपड़े आदि।

4.नेत्रोपयोगी अथवा सहायक सामग्री- श्यामपट्टसूचना पट्टविविध तरह के खिलौने एवं मॉडल आदि।

5. श्रवणोपयोगी उपकरण अथवा सहायक सामग्री- रेडियोरिकॉर्ड प्लेयरस्टीरियो एवं टेप आदि।

6. नेत्र-श्रवणोपयोगी उपकरण या सहायक सामग्री- चलचित्रध्वनियुक्त स्लाइडेफिल्मेंटेलीविजन एवं रंगमंच आदि।

Leave a Comment

CONTENTS