कला के अर्थ के बारे में लिखो ।

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न तज्ञानं न तिच्छिल्पमंन साविद्या न सा कला।

लयिते परमानन्देययात्मा सा कला मता ॥

अर्थात् कला‘ न ज्ञान है,न शिल्प हैन ही विद्या हैबल्कि जिसके द्वारा हमारी आत्मा परमानंद का अनुभव करती हैवही कला है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में प्रगट किए गए उक्त भाव कला की भारतीय विचारधारा को अभिव्यक्त करते हैं। परम आनंद की प्राप्ति मनुष्य के जीवन का उद्देश्य होता है तथा इसे प्राप्त करने की इच्छा हमारी आत्मा को होती है एवं वह हमारी अंतरात्मा से ही उद्भुत भी होता हैउसके प्रेरक तत्त्व इस बाह्य सृष्टि में मौजूद रहते हैं। सौंदर्य‘ परम आनंद का सर्वाधिक शक्तिशाली उद्दीपक हैजो किसी वस्तु के प्रति भावात्मक अनुभूति को उत्पन्न कर आत्मिक सुख प्रदान करता है। प्लेटो के विचार से-वस्तु का सौंदर्य उसी में वह चीज है जो हमें उसकी प्रशंसा करने हेतु बाध्य कर देती है तथा हममें उसे पाने की लालसा उत्पन्न करती है।” अन्य पाश्चात्य विचारकों ने भी सौंदर्य के विषय में अपने विचार प्रकट किये हैंयथा

Keats- “A thing of beauty is a joy for ever.”

Wordsworth-  “Beauty is truth and truth is beauty.”

Homer- “Beauty is glorious gilt of nature.”.

भारतीय विचारक सौंदर्य को अपनी आत्मा की गहराई में अनुभव करते हैं तथा उसे वर्णनातीत मानते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सौंदर्य को कोई बाहरी वस्तु नहीं बल्कि मन के भीतर की वस्तु माना है। इसी तरह कविवर जयशंकर प्रसाद ने कामायनी‘ में लिखा है

अद्भुत वरदान चेतना का

सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।”

इस सौंदर्यानुभूति को कलाकारों ने विभिन्न माध्यमों के द्वारा अभिव्यक्त किया हैजिसकी परिणति पाँच ललित कलाओं-साहित्यसंगीतचित्रकलामूर्तिकला तथा वास्तुकला के विकास के रूप में हुई।

शिवदत्त ने अपने अमरकोष में कला‘ शब्द की उत्पत्ति कड् धातु से मानी हैजिसका अर्थ है-मदमस्त अथवा प्रसन्न करना । प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए मानव ने विभिन्न कलाओं 84 कलाओं का विवरण प्राप्त होता है। भारतीय विद्वानों ने कला को सत्यं शिवंसुन्दरम् जैसे का विकास किया है । वात्स्यायन के कामसूत्र‘ में 64 कलाओं का वर्णन है। शुक्रनीतिसार में सार्वभौमिक मूल्यों से पूर्ण माना हैअर्थात् उनके अनुसार कला‘ से तात्पर्य सत्यं तथा सुंदरम् जैसे अमूर्त तत्त्वों को शिवम् रूप में पेश करना है। इसलिए कला‘ एक ऐसा स्वच्छन्द कार्य है जिसका आधार सत्य तथा सौन्दर्य है एवं जो समाज हेतु कल्याणकारी भी है । अत: कला वैयक्तिक तथा सामाजिक दोनों पक्षों हेतु मूल्यवान है । कई भारतीय तथा पाश्चात्य विचारकों ने कला को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है ।

कुछ परिभाषाएं निम्नवत हैं

रवीन्द्रनाथ टैगोर- कला में मनुष्य स्वयं अपनी अभिव्यक्ति करता है।

जयशंकर प्रसाद– ईश्वर की वक्तृत्व शक्ति का वह संकुचित रूप जो हमें बोध हेतु प्राप्त होता हैवही कला है।”

महात्मा गाँधी- कला आत्मा का ईश्वरीय संगीत है।

प्लेटो- “कलासत्य की अनुकृति की अनुकृति है।”

अरस्तू- “कलाप्रकृति का अनुकरण है।”

हीगल- “कलाइन्द्रिय साधनों द्वारा निरपेक्ष सत्ता तक पहुँचने का एक साधन है।”

फ्रायड- “कला में मानव अपनी दमित वासनाओं तथा कुण्ठाओं की अभिव्यक्ति करता

रस्किन- “कलाईश्वरीय कृति के प्रति मानव के आलाद की अभिव्यक्ति है।”

टॉलस्टाय– कला एक मानवीय क्रिया है जिसमें एक व्यक्ति जागरूक अवस्था में वाद्य प्रतीकों के माध्यम सेअपनी उन भावनाओं को जिनमें वह जी रहा होता हैदूसरों को संचारित करता है तथा दूसरे व्यक्ति भी उन भावनाओं से प्रभावित होते हैं एवं उनका अनुभव करते हैं।”

कला की विशेषताएं :

कई प्राचीन भारतीय ग्रंथों में चित्र के लक्षण तथा रंगों पर विचार किया गया हैइनमें शिल्प पुराणमत्स्य पुराण. चित्रलक्षणामानसोल्लास तथा कामसूत्र विशेष उल्लेखनीय हैं कामसूत्र‘ के रचनाकार वात्स्यायन ने 64 कलाओं में चित्रकला को तृतीय स्थान दिया है तथा उसमें षडांगों का विवरण है जो चित्रकला की विशेषताओं को बताते हैं एवं जिनके आधार पर किसी चित्र को परखा जा सकता है। ग्यारहवीं शताब्दी में जयपुर के राजा जयसिंह प्रथम के दरबारी विद्वान् यशोधर पण्डित‘ ने वात्स्यायन के षडांग पर जयमंगला‘ टीका लिखी जिसमें षडांग को अग्र श्लोक के रूप में पेश किया

रूप भेदा: प्रमाणानि भाव लावण्य योजनम् ।

सादृश्यं वर्णिका भंग इति चित्र षडांगकम् ।।

अर्थात् रूपभेदप्रमाणभावलावण्यसादृश्य एवं वर्णिका भंग (रंग)ये चित्र के छ: अंग हैं। वैदिक एवं बौद्धकालीन कला में इन पडांगों का पूर्ण पालन किया गया है। अजंता की भित्ति चित्रकारी बौद्धकाल की कलात्मक ऊंचाइयों का प्रत्यक्ष साक्ष्य है।

सन् 1914 में अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने मॉडर्न रिव्यू‘ नामक पत्रिका में षडांग पर एक लेख प्रकाशित कराया जिसमें यशोधर पण्डित द्वारा बतलाए गए छ: अंगों पर विस्तृत प्रकाश डाला।

कला-शिक्षण की अवधारणा :

प्लेटो का विचार था कि कला को शिक्षा का आधार होना चाहिएलेकिन उस समय इस बात की स्पष्ट जानकारी नहीं थी कि कला किसे कहा गया एवं कला-शिक्षा के उद्देश्यों के बारे में भी तात्कालिक अनिश्चितता मौजूद थी। आज कला की शिक्षा में उन ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा आती है जिन पर हमारी चेतना तथा अन्ततः हमारी बुद्धिमत्ता एवं व्यक्तिगत मानवीय निर्णय आधारित हों । कला-शिक्षा के अन्तर्गत प्रत्यक्षीकरण तथा संवेदना ही प्राकृतिक गहराई को सुरक्षित रखनाविविध संवेदनाओं को पर्यावरण के संदर्भ में एक-दूसरे से संबंधित करनाअनुभूति को परस्पर आदान-प्रदान के लिए अभिव्यक्त करना शामिल है। आज व्यक्तिगत मानसिक अनुभवों को अन्य व्यक्तियों तक पहुँचाने हेतु कला-शिक्षा की जरूरत अनुभव की जा रही हैक्योंकि अभिव्यक्ति के अभाव में वे मानसिक अनुभव आंशिक या पूर्णरूप से अचेतन में रहकर निष्फल हो जायेंगे। इसलिए अनुभवों को आवश्यकतानुसार इच्छित शैली में अभिव्यक्त करना कला-शिक्षा के क्षेत्र में आता है।

मनोवैज्ञानिकों ने बालकों में कई मूल प्रवृत्तियों का होना सुनिश्चित किया हैउनमें से सहानुभूतिजनक. कलात्मक तथा वैज्ञानिक मूलप्रवृत्तियाँ कलात्मक क्रियाओं से संबंधित हैं जिनमें बात करने तथा सुनने की इच्छाअभिनय की इच्छा,रेखांकनपेंटिंग तथा मॉडल बनाने की इच्छा, नृत्य तथा गाने की इच्छावस्तुओं के उद्गम स्रोत को जानने तथा नवीन वस्तुओं के निर्माण की इच्छासर्वाधिक योगदान करती हैं।

इस तरह कलाप्रत्यक्षीकरणविचार तथा शारीरिक क्रियाओं में गहराई से समायी हई है। यह जीवन में लागू होने वाला ऐसा तंत्र है जिसके बगैर सभ्यता अपना संतुलन खो देती है और सामाजिक तथा आध्यात्मिक बुराइयाँ अपने उच्चतम स्तर पर होती हैं,क्योंकि कला मानसिक ग्रंथियों के शोधन तथा नैतिक मूल्यों के उन्नयन का कार्य करती है । इसलिए कला-शिक्षा की अवधारणा मानवीय विकास की जैविक प्रक्रिया का एक अंग हैजो सिर्फ सौंदर्यात्मक विकास में ही मददगार नहीं है बल्कि जीवन को पूर्णता से जीने में सहायक है तथा बालक के सामान्य विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।

कला का क्षेत्र :

वर्तमान समय में कला का क्षेत्र व्यापक हो गया है क्योंकि इसमें जीवन के सभी तरह के अनुभवों को शामिल कर लिया गया है । इस विचार ने कला की भूमिका से संबंधित प्राचीन दृष्टिकोण को बदल दिया है। आज कला सिर्फ पेंटिंगशिल्पमूर्तिकला अथवा भवन निर्माण से संबंधित विचार ही नहीं है बल्कि सभी तरह के अनुभवों को समझने तथा मापने का एक तरीका हैजिसमें हमारे दिन-प्रतिदिन के अनुभव भी शामिल होते हैं । इसके अन्तर्गत हम प्राकृतिकमानवीय तथा सामाजिक घटकोंउनके रंगोंगतिलय एवं सौंदर्य की बात करते हैं। सभी व्यक्ति दैनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाली अनंत वस्तुओं का चुनाव तथा मूल्यांकन करते हैं एवं कई छोटे-छोटे कार्यों में अपनी कलात्मक पसंद तथा नापसंद को प्रदर्शित करते हैं। यह हमारी सभी वस्तुओं जैसे- कुमरे की सजावटपुस्तकोंखेलोंवस्त्रों आदि दैनिक उपयोग की वस्तुओं में परिलक्षित होती है। इसलिए कला एक सार्वभौमिक अनुभव हैयह सिर्फ कुछ व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है।

कला संबंधी दृष्टिकोण- प्राचीन काल से आधुनिक समय तक कला के संबंध में कई दृष्टिकोण विकसित हुए हैंजो अग्रवत हैं

कला अनुकरण के रूप में- कला के विषय में सर्वाधिक प्रचलित विचार पुनर्जागरण काल में आयाजिसमें कला को प्रकृति का अनुकरण माना गया । यह विचार ग्रीक दर्शन से विकसित हुआ तथा बीसवीं शताब्दी तक इसी विचार ने विश्व के कलात्मक कार्यों को निर्देशित किया । आज भी कई स्थानों पर यह विचार अस्तित्व में है । ग्रीक दर्शन में प्रकृति के अनुकरण का अर्थ आदर्श तथा सर्वोच्च स्वरूप की नकल करना था। वस्तुतः प्रकृति के साथ प्रतियोगिता करनेउससे प्रेम करने तथा यहाँ तक कि उसकी पूजा करने की धारणाओं ने कई लोगों को प्रकृति की पुनः प्रस्तुति को प्रेरित किया । उस समय जो कलाकार प्रकृति को सिद्धस्थ रूप में पेश करना थावही सबसे उच्च कलाकार समझा जाता था । परिणामस्वरूप कला की प्रस्तुति में हस्त-कौशल प्रमुख उद्देश्य बन गया तथा युवा वर्ग हस्त-कौशल में निपुणता प्राप्त करने की तरफ प्रवृत्त हुआ। उस समय हस्त-शिल्प प्रकृति के स्वरूप की अभिव्यक्ति में कुशलता से संबंधित थाहस्तशिल्प का अर्थ अपने मूल रूप से भिन्न हो गया है। आधुनिक हस्त-शिल्प मात्र अनुकरणीय कला नहीं है बल्कि इसमें विभिन्न सामग्री द्वारा अलंकारिक तथा उपयोगी वस्तुओं को डालकर है आज तैयार किया जाता ।

आज हम सभी जानते हैं कि अनुकरण को किसी भी तरह से पूर्ण कला नहीं माना जा सकता। उसमें साधनों पर ध्यान दिया गया है तथा कला के वास्तविक उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति‘ को छोड़ दिया गया है। वस्तुतः कला मानव की अंत: स्थिति-उसकी भावनाओंविश्वासोंसंदेहोंसंकल्पोंआशाओं तथा अभिलाषाओं की अभिव्यक्ति है । कलाकार अपनी उन आवश्यकताओं तथा इच्छाओं से प्रेरित होता है जो उसमें तात्कालिक तथा महत्त्वपूर्ण होते हैं। यह सिर्फ अपने अनुभवों पर ध्यान केन्द्रित करता है तथा उन्हें ही प्रगट करता है ।

कलासौंदर्य के रूप में- कला को सौंदर्य के रूप में देखने की विचारधारा भी उतनी ही प्राचीन है जितनी कि अनुकरण की अवधारणा । उस समय यह विचार प्रमुख था कि कलाकृति वास्तविकता की प्रतिमूर्ति हो तथा उसके गुणों का निर्धारण उसके सौंदर्य के आधार पर किया जाए हालांकि सुंदरता‘ कला का गुणधर्म है लेकिन फिर भी कला तथा सुंदरता पर्यायवाची नहीं हैं। सुंदरता को कला का पूर्ण उद्देश्य नहीं माना जा सकता । सुंदरता‘ मात्र कलाकृति ही नहीं बल्कि जीवन के सभी कार्यों हेतु प्रतिमान है। सुंदरता की अवधारणा हर व्यक्ति की अपनी होती है तथा समय-समय पर उसकी रुचियाँ बदलती रहती हैं। इसलिए सौंदर्य के विषय में कोई प्रतिमान निश्चित नहीं किया जा सकता। कला की शिक्षा प्रदान करते समय हमें हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बालक तथा प्रौढ़ सभी की सौंदर्य के विषय में अपनी धारणा है। बालक की रुचि शिक्षक जैसी हो यह जरूरी नहीं है तथा बालक का कार्य शिक्षक को सुंदर लगेगा या नहींयह बात बालक के विकास हेतु महत्त्वपूर्ण नहीं है। हमेंबालक की रचना का अध्ययन करते समय अपनी पूर्व धारणाओं को निकाल फेंकना चाहिए तथा उन्हें अपने विशिष्ट तरीके से स्वयं को अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करना चाहिए ।

कला विचारों के आदान-प्रदान के रूप में- कला के विषय में एक धारणा यह भी। । प्रचलित है कि कला संदेशवाहन का कार्य करती हैजिसे बुद्धि के द्वारा समझा जा सकता है लेकिन वास्तव में कला हमारी बुद्धि से नहीं बल्कि भावनाओं से संबंधित है तथा पूर्णतया वैयक्तिक एवं विषयीकृत होती है । यह विचारों से स्वतंत्र जन्म लेती है तथा उनसे प्रभावित भी नहीं होती। किसी कलाकार का उद्देश्य कहानी सुनाना नहीं बल्कि अपने भावों को अभिव्यक्त करना होता है! अपनी भावनाओं का मूर्त रूप वह अपनी रचना में देखता है तथा विषय में दूसरों से वार्तालाप करता है । लेकिन यह वार्तालाप विचारों का आदान-प्रदान नहीं वरन् रचना के विषय में होता हैजिसमें कलाकार दर्शक की सहभागिता प्राप्त करता हैकलाकृति का मूल्यांकन करता है तथा उसके भौतिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव का अनुभव करता है।

कला मनोरंजन के रूप में– कुछ लोगों का विचार है कि कला का उद्देश्य मनोरंजन है । यह विचार सामूहिक कलात्मक साधनों हेतु प्रयोग किया जाता है जैसे-लोक संगीतदूरदर्शनरेडियोकॉमिक्स आदि जो मनोरंजन कार्यक्रम बनाते हैं लेकिन व्यंग्यसेक्सभय आदि का प्रदर्शन करके व्यक्ति की छिपी हुई भावनाओं को भड़काकर उनसे धन प्राप्त करते हैं एवं उन्हें सौंदर्य प्रधान बताकर जनता को गुमराह करते हैं। यह प्रवृत्ति बहुत हानिकारक है तथा आज शिक्षा को निगलने को आतुर है । यह व्यक्तियों को भटकाकर जीवन की वास्तविकताओं से दूर करते हैं जिससे वे स्वयं को रचनात्मक रूप में विकसित करने का अवसर खो देते हैं। करना कलात्मक अनुभव आनन्द देता है लेकिन यह उसका वास्तविक उद्देश्य नहीं है । कला संवेदनाओं को संज्ञाहीन बनाने का कोई नशा नहीं है बल्कि एक उद्दीपक है जो संवेदनाओं को जीवन हेतु उद्दीप्त करता है तथा जीवन में एक व्यवस्था लाता है जिससे प्रत्येक दिन ज्यादा अर्थपूर्ण तथा सौंदर्यात्मक बनता है ।

कला अभिव्यक्ति के रूप में- कला की विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम मानने की अवधारणा ने इस विचार को जन्म दिया कि कला अभिव्यक्ति है जिसमें हर दिन का संपूर्ण कार्य समाहित हैअर्थात् यह प्रतिदिन का अनुभव है जिसे दर्शाया जा सके तथा देखा जा सके। जब व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहता है तो उसका आधार उसकी कुछ अनुभूतियाँ तथा विचार होते हैं। इस तरह कुछ अंश में कला स्वत्व की खोज है। कला के अंतिम स्वरूप का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकतान ही इसके निर्माण की किन्हीं तार्किक तकनीकियों को विकसित किया जा सकताइसके कोई निश्चित प्रतिमान नहीं हैं तथा न ही इसके कोई प्रतिरूप ही बनाए जा सकते हैं। अभिव्यक्ति की शैली कलाकार की अपनी होती हैलेकिन यह उन्हीं गुणों तथा भावों को अभिव्यक्त करता है जो सभी लोगों में पाए जाते हैं। कलाकार ज्यादातर समय एकाकी रहता है लेकिन उसका अर्थ यह नहीं है कि उसकी अभिव्यक्ति व्यक्तिगत होती है।

वस्तुतः एक सच्चे कलाकारविचारक अथवा चिंतनशील व्यक्ति को ध्यानावस्था में रहने की जरूरत होती हैइस कारण वह एकाकी रहना पसंद करता हैलेकिन कुछ लोग उसकी इस जरूरत के कारण यह धारणा बना लेते हैं कि यह उस समाज का हिस्सा नहीं बनता जिसमें वह रहता है। कला अभिव्यक्ति हैइस अवधारणा का विकास आधुनिक कला के प्रयोगवादी आंदोलन से हुआ है। प्रयोगवादी कलाकार अपनी भावनाओं से संबंधित नवीन विचारों पर प्रयोग करता है तथा उसके विचार विज्ञानमशीनीकरणयातायातसंचार एवं आदिवासियों की संस्कृति की खोज आदि से संबंधित हो सकते हैं। प्रयोगवादी खोजों से कला के नए आदर्शों तथा मानकों का विकास हुआउदाहरणार्थ धनवादी कला का विकासजो बाद में अमूर्तकला की अंतर्राष्ट्रीय शैली के रूप में विकसित हुआभौतिकी में गति संबंधी खोजों ने कला में भी गति की धारणा को जन्म दिया एवं अन्य जैवकीय तथा अलौकिक विषयों की खोज हुई । बौद्धिक खोजों ने कला के स्वरूप को प्रभावित किया तथा कलाकार बौद्धिकता में जकड़ गयाजिससे स्वतंत्र होने हेतु उसने नई सामग्री एवं माध्यम चुना तथा कला को विषयीकृत बना दिया। बाद में विचारों का स्थान अंतःज्ञान ने ले लिया तथा कलाकारों ने विशिष्टीकरण को त्यागकर अपनी अनुभूतियों तथा विचारों को चित्रित करना शुरू कर दिया ।

आधुनिक कला की एक विशेषता उसकी शैली तकनीकी तथा प्रवृत्ति की विविधता हैक्योंकि उसका संबंध तात्कालिकता से है । इस आंदोलन का प्रभाव हमारी जीवन शैली तथा वातावरण पर भी पड़ा है। इसने समाज को नई धारणाएं दी हैं तथा कलाकार को नवीन खोजों के योग्य बनाया है। प्रयोग तथा अनुसंधान के महत्त्व को बताकर आधुनिक कला ने हमें कला को अभिव्यक्ति के मूल्य के रूप में समझने का अवसर दिया।

आजकल विद्यालयों में कला का विकास तथा वृद्धि के साधन के रूप में देखा जाने लगा है। भावनात्मक विकासजीवन शैली तथा सामूहिक वृत्ति संबंधी प्रयोगवादी विचारों ने कला की शिक्षा पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव छोड़ा है । अब कला को अभिव्यक्ति के माध्यम के साथ-साथ जीवंत जीवनयापन तथा मानव विकास के निर्देशक के रूप में भी देखा जाता है ।

कला एवं संस्कृति- कलात्मक प्रवृत्ति गहन रूप से हमारी संस्कृति से संबंधित होती है। हमारे रुझान के पीछे हमारे परिवेश का प्रभाव होता है जो हमारे तर्क को गहन दृष्टि प्रदान करता है। जब बालक विद्यालय में आता है तब तक वह अपने माता-पिता तथा मित्रों आदि की प्रवृत्ति को अपना चुका होता है। उसकी संस्कृति उसे पहल ही बता चुकी होती है कि क्या मूल्यवान हैतथा यही मूल्य उसकी आवश्यकताओंरुचियों तथा आंतरिक इच्छाओं पर छाए रहते हैं। अतः हमें उन सामान्य विचारों तथा मूल्यों को जानना चाहिए एवं यह भी खोज करनी चाहिए कि बालक में क्या विशिष्ट है। हमें अपने मस्तिष्क को खुला रहकर कलात्मक निर्णय लेने चाहिए और यह जानना चाहिए कि बालक का उद्देश्य क्या था एवं उसने उसे कितने अच्छे ढंग से अभिव्यक्त किया है।

कलाकार की कला पर उसके अपने व्यक्तित्व तथा सामाजिक मूल्यों और मान्यताओं की छाप होती है । सौंदर्य ज्ञान का आधार उस देश की नैतिकसामाजिक एवं सांस्कृतिक मान्यताएं होती हैं । इसलिए किसी कलाकृति को समझने हेतु उस देश तथा काल की सामाजिक सांस्कृतिक मान्यताओं को समझना जरूरी है।

आधुनिक कला तथा लोक कला- आधुनिक कला वैविध्यपूर्ण है। इसमें कई तरह की प्रवृत्तियाँ दिखाई पड़ती हैं –

1. कुछ कलाकृतियाँ प्रकृति के बाह्य संसार को अनुकरणीय प्रवृत्ति को बताती हैं। इन पर यथार्थवाद तथा प्रकृतिवाद का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

2. कुछ कलाकृतियों पर अध्यात्मवाद तथा भविष्यवाद का प्रभाव स्पाट झलकता है। ये बाह्य संसार से आध्यात्मिक मूल्यों की तरफ प्रतिक्रिया को बताती है।

3. कुछ कलाकृतियाँ कलाकार की अनुभूतियों तथा व्यक्तिगत संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती हैं।

4. कुछ कलाकृतियाँ कलाकार के विशिष्ट कौशल को प्रदर्शित करती हैं जिनमें उसकी विविध कलात्मक सामग्री के गुणों तथा उनके प्रयोगों की समझ परिलक्षित होती है।

लोक कलाआदिकालीन व्यक्तियों की कला का विकसित रूप हैयह प्रकृतिवादी शैली में प्रकट हुईजिसमें बहिर्मुखी भावनाएं मौजूद हैं । लोक कलाकार अपनी भावनाओं को किसी वस्तु के माध्यम से दर्शाते हैंतथा भावनाओं एवं वस्तु में ऐक्य इतना ज्यादा होता है कि रचनाकार अपने व्यक्तित्व तथा वस्तु में अंतर करने में असमर्थ रहता है । भारतवर्ष में लोक कलाएं बहुत समृद्ध हैं । राजपूत शैलीराजस्थानी शैलीमेवाड़ शैलीकांगड़ा शैलीमुगलकालीन शैली आदि कलाएं कला जगत् पर अपनी विशिष्ट छाप रखती हैं।

निष्कर्ष :

अच्छे कला शिक्षण हेतु यह जरूरी है कि हम अपनी संस्कृति तथा प्रकृति से संबंधित कला की उस सामान्य धारणा को समझें, जिसमें हमारे बच्चों में कलात्मक वृत्ति का विकास होता है । इस प्रयल से हमें यह भी ज्ञात होगा कि क्या व्यर्थ तथा अनुपयोगी है, जिसे छोड़ने में बालकों की मदद की जानी चाहिए । आधुनिक कलात्मक प्रवृत्तियाँ बालकों हेतु एक चुनौती है. तथा उनमें सौंदर्यात्मक आवश्यकताओं को उद्दीप्त करती हैं। इस कार्य को प्रभावशाली ढंग से करने हेतु हमें नई चीजों को देखना चाहिए, नए विचारों तथा प्रवृत्तियों को ग्रहण करने हेतु तत्पर रहना चाहिए तथा उनके कला पर पड़ने वाले प्रभाव को मापना चाहिए। हमें मस्तिष्क में हमेशा यह बात याद रखनी चाहिए कि कलात्मक अनुभव अन्य अनुभवों की तरह हमेशा बदलते रहते हैं। यह नवीन धारणाओं तथा भावनाओं से ठोस रूप में सामंजस्य स्थापित करते हैं, सक्रिय कल्पना को जन्म देते हैं तथा कलाकृति के रूप में हमारे समक्ष प्रकट होते हैं । कलात्मक रचना का कार्य कभी भी निश्चित नियमों तथा सिद्धान्तों में नहीं बाँधा जा सकता, इसी कारण उसको पुनर्निर्मित नहीं किया जा सकता। अतः कला का कार्य एक नया प्रारंभ है, नई समस्या है तथा एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए नई चुनौती है ।

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