सीमुलेशन अथवा पात्र अभिनय की अवधारणा का वर्णन कीजिए।

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सीमुलेशन अथवा पात्र अभिनय क्या है?

सीमुलेशन का तात्पर्य है बनावटीपन कुछ व्यक्ति इसे इस आधार पर खारिज करते हैं कि छात्राध्यापक वास्तविक कक्षा शिक्षण की स्थिति में कार्य नहीं करता है । परन्तु फिर भी यह प्रविधि अपने बनावटीपन के होते हुए भी इस कारण महत्त्वपूर्ण मानी जाती है कि इसमें छात्र को कक्षा शिक्षण के सम्बन्ध में स्वयं सीखने, भाषण देने, बोलने तथा शिक्षण के समान व्यवहार करने का ज्ञान दिया जाता है।

सीमुलेशन पात्र अभिनय की परिभाषा – अनुकरणीय शिक्षण को एक भूमिका निर्वाह करने के उस रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें शिक्षण की प्रक्रिया को कृत्रिम रूप से कार्यान्वित किया जाता है तथा कुछ महत्त्वपूर्ण सम्प्रेषण की कुशलताओं के अभ्यास का प्रयास किया जाता है । इसके द्वारा इस शिक्षण के अन्तर्गत छात्राध्यापक और उसके साथी एक विशिष्ट भूमिका का कृत्रिम निर्वाह करते हैं और वास्तविक कक्षा – शिक्षण की परिस्थितियों की समरूपता जैसा विकास करने का प्रयास करते हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण अनुकरणीय शिक्षण प्रोग्राम भूमिका, प्रत्यक्षीकरण तथा उसके निर्वाह का प्रशिक्षण हो जाता है।

स्ट्रोन के अनुसार – “अनुरूपित शिक्षण अथवा पात्र अभिनय प्रविधि बनावटी परिस्थितियों में अधिगम कर्ता को कक्षा में सीखने स्वयं शिक्षण का अभ्यास करने तथा व्याख्यान देने के लिए एकत्रित करती है। यह कृत्रिम वातावरण में शिक्षक द्वारा शिक्षण देने का एक प्रशिक्षण है।”

टैनसे एवं अनाविन के अनुसार – “अनुरूपित अथवा पात्र शिक्षण ऐसी कल्पना पर आधारित होता है कि सत्यता से परिपूर्ण कृत्रिम घटना के आधार पर वास्तविक घटना का कुशलता से प्रतिनिधित्व होता है।”

एक भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं विचारक के अनुसार – अनुरूपित अथवा पात्र अभिनय कल्पना पर आधारित किन्तु सत्यता से परिपूर्ण बनावटी परिस्थिति में किया गया शिक्षण होता है । इसमें छात्राध्यापकों को मूल परिस्थितियों में शिक्षण कार्य करने के कौशल का विकास होता है |

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पात्र अभिनय शिक्षण की वह विद्या है जिसमें छात्राध्यापक वास्तविक कक्षा लेने से पूर्व अभ्यास करते हैं, तदनुरूप वास्तविक कक्षागत परिस्थितियों में उसे मूर्त रूप प्रदान करते हैं। इसके द्वारा एक कुशल, पारंगत शिक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं ।

वास्तव में यह एक नाटकीय विधि मानी जाती है। छात्राध्यापक को इसके माध्यम से शिक्षक तथा छात्रों दोनों की भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। छात्राध्यापक को एक छोटे प्रकरण को अपने साथियों को ही पढ़ाना पड़ता है। उसके अन्य सभी साथियों को छात्रों की भूमिका निभानी पड़ती है। शिक्षण के कार्यों की समीक्षा की जाती है और सुधार के लिए सुझाव दिया जाता है। इसके बाद अन्य छात्राध्यापक शिक्षण करते हैं।

पात्र अभिनय की प्रकृति

अनुकरणीय शिक्षण में समूह छोटा होता है। अक्सर तीन से पाँच तक छात्रों का समूह होता है । इससे लाभ यह होता है कि जितना छोटा समूह होगा प्रति छात्र किसी शिक्षण कौशल को बार – बार दोहराने या अभ्यास करने का अवसर मिल जाता है प्रशिक्षणार्थी को अभिनेता कहा जाता है। अन्य व्यक्तियों को फाइल्स कहा जाता है । एक या दो पर्यवेक्षक प्रशिक्षणार्थी के व्यवहार को कोड करते हैं तथा अन्य सभी प्रकार के रिकॉर्ड बाद में मूल्यांकन के लिए रखते हैं।

समूह के सभी साथियों को किसी एक शिक्षण व्यवहार का अभ्यास करने का थोड़े समय के लिए अवसर मिलता है जिसे सामाजिक कौशल कहा जाता है । इस प्रकार प्रत्येक सदस्य अपने व्यवसाय के लिए अपने व्यवहार में नियन्त्रण लाने का अभ्यास कर लेता है ।

अनुकरणीय शिक्षण पात्र अभिनय की अवधारणायें

(1) इस प्रविधि की धारणा यह है कि प्रभावशाली शिक्षण के लिए शिक्षण व्यवहार के कुछ प्रारूपों का अभ्यास कराया जाता है।

(2) वास्तविक कक्षा शिक्षण से पूर्व अनुकरणीय प्रविधि का अभ्यास कराया जाता है |

(3) छात्राध्यापक में शिक्षण कौशल के विकास के लिए इनका प्रयोग किया जाता है |

(4) इस प्रविधि में छात्र को दो रूप (शिक्षक अथवा निरीक्षक तथा छात्र) में भाग लेना होता है।

(5) स्वयं कार्य करने से अधिक सीखता है।

(6) पृष्ठपोषण प्रविधि का प्रयोग किया जाता है।

अनुकरणीय शिक्षण/पात्र अभिनय का स्वरूप

छात्रों के कक्षा शिक्षण से पूर्व अनुकरणीय शिक्षण का अभ्यास कराया जाता है इसलिए इसे नाटकीय प्रविधि कहा गया है। इस प्रविधि में छात्राध्यापक शिक्षक व छात्र दोनों का कार्य करते हैं । एक प्रकरण का शिक्षण एक छात्राध्यापक करता है । अन्य छात्राध्यापक छात्रों के सामने बैठते हैं तथा छात्रों जैसा ही व्यवहार करते हैं। शिक्षण कालांश 10 या 15 मिनट का होता है । इसके पश्चात् 5 मिनट के लिए शिक्षण युक्तियों के सम्बन्ध में वाद – विवाद किया जाता है। छात्र अपने साथी की आलोचना, प्रशंसा तथा सुझाव आदि भी देते हैं। इस प्रकार वाद – विवाद छात्राध्यापक को उसके शिक्षण के सम्बन्ध में जानकारी देता है जो उसके लिए पृष्ठपोषण का कार्य करता है। इस प्रकार वह अपने शिक्षण व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन कर लेता है। इसी प्रकार अन्य छात्राध्यापक भी शिक्षण कौशल प्राप्त कर अपने व्यवहार में वांछित सुधार लाते हैं। अनुकरणीय शिक्षण में निम्नलिखित सोपानों का अनुसरण किया जाता है।

सोपान

(1) प्रथम सोपान – छात्रों को A से D या E तक अक्षरों का क्रम सौंपा जाता है। इस प्रकार क्रम मंं प्रत्येक छात्र अभिनेता के साथ फोइल या पर्यवेक्षक का रोल अदा करते हैं।

(2) द्वितीय सोपान – जिस शिक्षण कौशल का अभ्यास करना है उसको निर्धारित किया जाता है। उसके विकास के लिए सुझाव दिये जाते हैं। प्रथम अभ्यास के लिए एक प्रकरण चुना जाता है। अन्य छात्र अपने – अपने शिक्षण प्रकरण को चनकर पाठ का नियोजन करते हैं।

(3) तृतीय सोपान – शिक्षण आरम्भ व अन्त करने की रूपरेखा निश्चित की जाती है। कौन छात्र वार्तालाप प्रारम्भ करेगा।

(4) चतुर्थ सोपान – शिक्षक व्यवहार के मापन की प्रविधियों को निश्चित किया जाता

(5) पंचम सोपान – प्रथम अभ्यास सत्र का आरम्भ करना तथा अभिनेता को उसके क्रियाओं के सम्बन्ध में पृष्ठपोषण प्रदान करना। आवश्यक समझा जाये तो उसे अपनी विधि में संशोधन कर द्वितीय शिक्षण अभ्यास के लिए तैयार करना जिससे प्रशिक्षण विधि में सुधार किया जा सके। इस प्रकार प्रत्येक छात्राध्यापक को अभिनेता का पाठ अदा करने का अवसर मिल जाता है।

(6) षष्ठम सोपान – शिक्षण विधियों को बर्दलना, प्रकरण को बदलना तथा आगामी शिक्षण कौशल का अभ्यास कराना जिससे छात्राध्यापकों की रुचि अधिकाधिक बनी रहे।

अनुकरणीय शिक्षण की उपयोगिता

(1) अनुकरणीय शिक्षण छात्राध्यापकों के लिए शिक्षण अनुक्रिया के लिए एक स्रोत है। इससे उनमें शिक्षण के प्रति उत्सुकता जागृत होती है।

(2) शिक्षण में प्रश्न पूछने की क्षमता का विकास होता है।

(3) पाठ्यवस्तु को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करने की क्षमता का विकास होता है।

(4) छात्राध्यापकों में विभिन्न शिक्षण कौशलों का विकास किया जा सकता है।

(5) उपर्युक्त निर्देशन व वाद – विवाद की क्षमता का विकास होता है।

(6) छात्रों की समस्याओं के समाधान में सहायक हो जाता है।

(7) छात्रों को शिक्षक के रूप में कार्य करने का अनुभव प्राप्त हो जाता है।

(8) यह छात्रों के लिये एक प्रभावी पृष्ठपोषण की प्रविधि है जिससे उनके शिक्षण व्यवहार में वांछित विकास एवं सुधार किया जा सकता है।

(9) सामाजिक कौशल का विकास किया जा सकता है।

(10) अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

(11) छात्राध्यापक अपनी क्रियाओं का विश्लेषण संश्लेषण तथा मूल्यांकन भली भाँति समझ सकता है।

(12) अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

(13) छात्रों को अपने मन की भावनाओं और संवेगों को व्यक्त करने का अवसर मिलता है।

(14) इसके द्वारा निम्न तथा मध्यमस्तर का ज्ञानबोध तथा प्रयोग करने की क्षमता प्रभावित होती है।

सीमाएं :

पात्र अभिनय एक नाटकीय विधि मानी जाती है। छात्राध्यापक को इसके अध्ययन में शिक्षक तथा छात्र दोनों की भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है | इस विधि की कुछ सीमाए निम्नलिखित हैं –

(1) शर्मीले तथा अन्तर्मुखी छात्र शिक्षण अभिनय उचित रूप से नहीं कर पाते हैं। वे अपने विचार तथा भावनाओं को उचित रूप से अभिव्यक्त नहीं कर पाते ।

(2) अगर पात्र अभिनय उचित रूप से नहीं करता है तो यह प्रविधि समय बर्बाद करने वाली सिद्ध होती है।

(3) यह प्रविधि विशिष्ट शिक्षण कौशलों का विकास करने में असमर्थ रहती है।

(4) पात्र अभिनय मुख्यतः सामाजिक एवं साहित्यिक विधियों तक ही उपयुक्त रहती है। इसके प्रयोग सभी कक्षाओं वर्गों तथा विषयों में नहीं किया जा सकता है।

(5) असली एवं नकली कक्षागत परिस्थितियों में अन्तर होता है । कृत्रिम परिस्थितियों में जो आभास कराया जाता है उसे वास्तविक परिस्थिति में करने पर अनेक समस्याएं उत्पन्न होती हैं जिस पर किसी का ध्यान नहीं होता है।

(6) पात्र अभिनय में नवागन्तुक छात्रों को प्रारम्भ में बहुत कठिनाई उठानी पड़ती है अतएव उनके लिए यह बहुत उबाऊ हो जाती है।

(7) विशेषकर छोटी कक्षाओं के लिए यह शिक्षण प्रविधि अत्यन्त कठिन होती है।

(8) पात्र अभिनय में क्रियाविधि एवं कौशलों को उनकी प्रारम्भिक अवस्था में सीखना कष्टसाध्य प्रतीत होता है।

(9) पात्र अभिनय में शिक्षण दो बार विभिन्न परिस्थितियों में कार्य करना पड़ता है अतएव इसमें समय अधिक लग जाता है।

(10) पात्र अभिनय के लिए अध्यापकों को विशेष रूपरेखा बनानी पड़ती है जो अनावश्यक प्रतीत होता है।

अनुकरणीय शिक्षण के प्रयोग में सावधानियाँ :

(1) अनकरणीय शिक्षण में प्राध्यापक का उपस्थित रहना आवश्यक है जिससे शिक्षण कौशल अभ्यास में गम्भीरता आ सके।

(2) प्रत्येक छात्राध्यापक को छात्र, शिक्षक, निरीक्षक व पर्यवेक्षक के रूप में कार्य करने का अवसर प्रदान करना चाहिए।

(3) एक समय में एक ही विषय के छात्राध्यापकों को इस विधि द्वारा शिक्षण अभ्यास कराना चाहिए।

(4) शिक्षण के पश्चात् वाद – विवाद सार्थक होना चाहिए। व्यवहार में सुधार के लिए सुझाव दिये जाने चाहिए।

(5) इसका प्रयोग करने से पूर्व इसके बारे में पूर्व रूपरेखा बनानी चाहिए।

(6) वास्तविक शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व इसके माध्यम के लिए अवसर देने चाहिए।

(7) अभ्यास करना चाहिए।

(8) इस विधि के सिद्धान्तों तथा स्वरूप को भली – भाँति समझ लेना चाहिए।

गुण :

(1) छात्रों में मौलिक चिन्तन, तर्क – वितर्क व विचार – विमर्श की क्षमताओं का विकास होता है।

(2) ज्ञानात्मक व भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों का विकास होता है।

(3) समस्या की सार्थकता व उनके समाधान करने की क्षमता का विकास होता है।

(4) समूह में व्यवहार करना, एक – दूसरे की भावनाओं का आदर करना, आदि गुणों का विकास होता है।

(5) स्थायी ज्ञान प्राप्त होता है।

(6) उच्च कक्षाओं के लिए विशेष उपयोगी है।

दोष :

(1) सभी छात्र तर्क – वितर्क व वाद – विवाद में सहयोग नहीं दे पाते हैं।

(2) टायलर, बेरी तथा ब्लेक (1958) के मतानुसार ब्रेन स्टोरमिंग द्वारा में बाधा उत्पन्न होती है।

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