शिक्षण प्रतिमान की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

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शिक्षण प्रतिमान का अर्थ एवं परिभाषाएं

शिक्षण प्रतिमान आंग्ल भाषा के टीचिंग मॉडल का पर्यायवाची है। एच.सी. वील्ड के शब्दों में किसी रूपरेखा या उद्देश्य के अनुसार व्यवहार को ढालने की प्रक्रिया प्रतिमान कहलाती है।” इस तरह प्रतिमान का अर्थ है किसी अमुक उद्देश्य के अनुसार व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया। कॉनबैक एवं गैगने के अनुसार शिक्षण प्रतिमानों का विकास सीखने के सिद्धांतों को दृष्टि में रखते हुए किया जाता है जिससे इनके प्रयोग द्वारा शिक्षण के सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जा सके। इस तरह शिक्षण प्रतिमान शिक्षण सिद्धांतों को प्रतिपादित करने के लिए आधार तथा प्रथम सोपान है। प्रत्येक प्रतिमान में किसी विशिष्ट उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ऐसी विशिष्ट परिस्थिति का निर्माण किया जाता है जिसमें विद्यार्थियों की अंत:प्रक्रिया इस तरह से हो कि उनके व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन होकर उद्देश्य प्राप्त हो जाये । ध्यान देने की बात है कि शिक्षण के प्रत्येक प्रतिमान में शिक्षण की विशिष्ट रूपरेखा का विवरण होता है जिसके सिद्धांतों की पुष्टि प्राप्त किये हुए निष्कर्षों पर आधारित होती है । इस तरह शिक्षण प्रतिमान शिक्षण सिद्धांत के लिए उपकल्पना का कार्य करते हैं। दूसरे शब्दों में इन्हीं उपकल्पनाओं की जाँच के पश्चात् सिद्धांतों को प्रतिपादित किया जाता है। शिक्षण प्रतिमानों में निम्न छ: क्रियायें निहित होती हैं –

(i) सीखने की निष्पत्ति को व्यावहारिक रूप देना।

(ii) ऐसे उद्दीपन का चयन करना कि विद्यार्थी आपेक्षित अनुक्रिया कर सकें।

(iii) ऐसी परिस्थितियों का विशेषीकरण करना जिनमें विद्यार्थियों की अनुक्रियाओं को देखा जा सके।

(iv) ऐसे मानदण्ड व्यवहार का निर्धारण करना जिससे विद्यार्थियों की निष्पत्ति को देखा जा सके।

(v) कक्षागत परिस्थितियों में अंतःप्रक्रिया का विश्लेषण करके वांछित शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु विशेष युक्तियों का विशिष्टीकरण करना।

(vi) यदि विद्यार्थियों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन न हो तो नीतियों एवं युक्तियों में सुधार करना।

हीमन के अनुसार शिक्षण – प्रतिमान शिक्षण के संबंध में सोचने विचारने की एक रीति है। इन्हीं के अनुसार प्रतिमान किसी वस्तु को विभाजित एवं व्यवस्थित करके तर्क – संगत ढंग से प्रस्तुत करने की विधि है।

जायस और वेल के अनुसार, “शिक्षण – प्रतिमान वह पद्धति या योजना है जिसे किसी पाठ्यक्रम या कोर्स का स्वरूप प्रदान करने, अनुदेशनात्मक सामग्री का डिजाइन तैयार करने और किसी कक्षा – कक्ष व अन्य परिस्थितियों में अनुदेशन का मार्ग – दर्शन करने के लिए प्रयोग में लाया जा सके ।”

जायस और वेल के अनुसार, “शिक्षण प्रतिमान मात्र अनुदेशन की रूपरेखा है। वे विशिष्टीकरण और विशेष प्रकार के वातावरण की परिस्थितियों के निर्माण की प्रक्रिया है जो विद्यार्थियों में अंतःक्रिया करवाती हैं जिससे उनके व्यवहार में विशेष परिवर्तन कर सकें।”

शिक्षण प्रतिमानों की प्रमख विशेषतायें

शिक्षण प्रतिमानों की विशेषतायें निम्न होती हैं –

1 कुछ आधार – प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान के कुछ आधार – भूत तत्व होते हैं जिनको दृष्टि में रखते हुए उनका निर्माण किया जाता है। वे आधार – भूत तत्व हैं – (अ) सीखने हेतु उपयुक्त वातावरण का निर्माण करना, (ब) शिक्षक एवं विद्यार्थियों के बीच अंत:प्रक्रिया का होना तथा (स) शिक्षण को सरल, स्पष्ट एवं बोधगम्य बनाने हेतु उपयुक्त नीतियों तथा युक्तियों का प्रयोग करना । स्मरण रहे कि प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान वातावरण के निर्माण करने में रूपरेखा का कार्य करता है ।

2 उपयुक्त अनुभव प्रदान करना – शिक्षण प्रतिमान् की दूसरी विशेषता यह है कि वह शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों को उपयुक्त अनुभव प्रदान करता है । स्मरण रहे कि उपयुक्त पाठ्य – वस्तु का चयन करना एवं उसे विद्यार्थियों के सामने आत्मबोध हेतु पेश करना शिक्षण की मुख्य समस्या है। इस बात की पुष्टि उस समय होती है जब अपने शिक्षक विद्यार्थियों के सामने उपयुक्त अनुभव प्रदान करता है।

3 मौलिक प्रश्नों का उत्तर – शिक्षण प्रतिमान की तीसरी विशेषता यह है कि इसमें सभी मौलिक प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है। उदाहरण के लिए – (अ) शिक्षक किस तरह का व्यवहार करता है, (ब) वह ऐसा क्यों करता है? एवं उसके इस तरह से व्यवहार करने का विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? संक्षेप में प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान में विद्यार्थी एवं शिक्षक के व्यवहार संबंधी सभी मौलिक प्रश्नों का उत्तर मिलता है ।

4 वैयक्तिक विभिन्नता पर आधारित – शिक्षण प्रतिमान की चौथी विशेषता यह है कि इसका निर्माण वैयक्तिक विभिन्नता के आधार पर विभिन्न धारणाओं के अनुसार होता है। इसी कारण से हम यह देखते हैं कि अपने – अपने जीवन दर्शन से प्रभावित होते हुए कोई शिक्षक रटन्त – स्मृति की एवं कोई प्रत्ययों के स्पष्ट करने को महत्व देते हुए शिक्षण के अलग – अलग प्रतिमानों का निर्माण मिलता है।

5 विद्यार्थियों की रुचि का उपयोग – शिक्षण प्रतिमान की पाँचवीं विशेषता यह है कि इसमें विद्यार्थियों की रुचि का उपयोग किया जाता है । हरबार्ट महोदय की पंच पद प्रणाली आज भी शिक्षण का महत्वपूर्ण आधार इसलिए बनी हुई है कि इसके पाँचों पदों में विद्यार्थियों की रुचियों का उपयोग किया गया है।

6 दर्शन से प्रभावित – शिक्षण प्रतिमान की छठी विशेषता यह है कि प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान दर्शन से प्रभावित होता है । हम देखते हैं कि जो शिक्षक जिस दर्शन का अनुयायी होता है वह उसी के अनुसार विद्यार्थियों के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए वैसे ही शिक्षण प्रतिमान का निर्माण करता है। उदाहरण के लिए आदर्शवादी शिक्षक विद्यार्थियों को आदर्शवादी एव प्रयोजनवादी शिक्षक उन्हें प्रयोजनवादी बनाने हेत शिक्षण प्रतिमान का निर्माण अपनी – अपनी दार्शनिक विचारधारा के अनुसार करता है।

7 शिक्षण सूत्र – शिक्षण प्रतिमान की सातवीं विशेषता यह है कि इसका आधार शिक्षण सूत्र होते हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षण सूत्र प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान में आधार का कार्य करते हैं तथा विद्यार्थियों में उन शक्तियों को विकसित करते हैं जो उनके व्यक्तित्व को संगठित करने में सहायता करती हैं।

8 अभ्यास तथा साधना – शिक्षण प्रतिमान की आठवीं विशेषता यह है कि इसका विकास निरंतर अभ्यास एवं साधना के बाद होता है। अतः इसका आधार चिंतन है । जब समस्याओं पर चिंतन एवं आवश्यक प्रयोग करने से धारणायें स्पष्ट हो जाती हैं तभी शिक्षण प्रतिमान का विकास संभव होता है।

9 मानव योग्यता का विकास – शिक्षण प्रतिमान की नवीं विशेषता यह है कि यह मानव योग्यता के विकास में सहायता करता है। साथ ही इसके द्वारा शिक्षक की सामाजिक क्षमता में वृद्धि होती है।

10 शिक्षण एक कला के रूप में – शिक्षण प्रतिमानों की दसवीं विशेषता यह है कि इनसे शिक्षण एक कला के रूप में जान जाता है। ये शिक्षण की कला को बढ़ावा देते हैं जो सीखने से आती है।

11 शिक्षक के व्यक्तित्व की गुणात्मक उन्नति – शिक्षण प्रतिमानों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये शिक्षक के व्यक्तित्व की गुणात्मक उन्नति करते हैं।

शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता :

निम्नलिखित पंक्तियों में हम शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता पर प्रकाश डाल रहे हैं –

(i) शिक्षण प्रतिमान किसी विशिष्ट उद्देश्य को प्राप्त करने में मदद करता है।

(ii) शिक्षण प्रतिमान का स्वरूप व्यावहारिक होता है। साथ ही इसके द्वारा सीखने की उपलब्धि संभव है।

(iii) शिक्षण प्रतिमान के द्वारा शिक्षण के क्षेत्र में विशिष्टीकरण की संभावना है।

(iv) शिक्षण प्रतिमान शिक्षक के शिक्षण को प्रभावोत्पादक बनाने में मदद प्रदान करता है।

(v) शिक्षण प्रतिमान ऐसी उपयुक्त उद्दीपन परिस्थितियों के चयन करने में मदद करता है जिनके द्वारा विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन हो जाये।

(vi) शिक्षण प्रतिमान के अंतर्गत ऐसी उपयुक्त नीतियों एवं युक्तियों का प्रयोग किया जाता है जो विद्यार्थियों के व्यवहार परिवर्तन में सहायता प्रदान करती हैं।

(vii) शिक्षण प्रतिमान के द्वारा शिक्षण में परिवर्तन एवं सुधार किया जा सकता है।

(viii) शिक्षण प्रतिमान विद्यार्थियों के व्यवहार का मूल्यांकन करता है । इस महान कार्य के लिए यह एक ऐसा विशिष्ट मानदण्ड पेश करता है जिसकी सहायता से विद्यार्थियों के व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन सरलतापूर्वक हो जाता है।

शिक्षण प्रतिमान के मौलिक तत्व :

1 उद्देश्य – प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है जिसे उसका लक्ष्य बिन्दु कहते हैं । इसी लक्ष्य बिन्दु को ध्यान में रखते हुए प्रतिमान को विकसित किया जाता है । दूसरे शब्दों में शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य उस बिन्दु को कहते हैं जिसके लिए प्रतिमान का विकास किया जाता है। स्मरण रहे कि प्रतिमान के विभिन्न पक्ष होते हैं। अतः इसके द्वारा विशेष तरह की क्षमताओं को विकसित किया जाता है।

2 संरचना – शिक्षण प्रतिमान की संरचना का अभिप्राय उन बिन्दओं से होता है जो विभिन्न अवस्थाओं में शैक्षिक लक्ष्यों पर केन्द्रित क्रियाओं को पैदा करते हैं । इस तरह सरचना क अतर्गत शिक्षण की क्रियाओं यक्तियों एवं विद्यार्थी तथा शिक्षक की अंत:प्रक्रिया के प्रारूप को इस तरह से क्रमबद्ध रूप में निर्धारित किया जाता है कि वांछित परिस्थितियाँ पैदा होकर शिक्षण का उद्देश्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाये ।

3 सामाजिक प्रणाली – सामाजिक प्रणाली शिक्षण प्रतिमान के उद्देश्य के अनुसार होती है । चूकि प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य अलग – अलग होता है, अत: प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान की सामाजिक प्रणाली भी अलग – अलग ही होती है। वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्येक कक्षा एक समाज है जिसकी कोई न कोई व्यवस्था अवश्य होती है। इस व्यवस्था का निर्माण विद्यार्थी, शिक्षक एवं पाठ्यक्रम आदि करते हैं। समाज इस व्यवस्था को शैक्षिक अंतःप्रक्रिया द्वारा सक्रिय बनाता है जिससे विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन हो जाये। इस तरह सामाजिक प्रणाली के अंतर्गत विद्यार्थी और शिक्षक की क्रियाओं एवं उनके आपसी संबंधों पर विचार किया जाता है । साथ ही यह निर्णय लिया जाता है कि विद्यार्थियों को किन – किन नीतियों और प्रविधियों द्वारा प्रेरणा दी जाये । इस तरह शिक्षण को प्रभावशाली बनाने में सामाजिक प्रणाली का महत्वपूर्ण स्थान है।

4 मूल्यांकन प्रणाली – मूल्यांकन प्रणाली में मौखिक या लिखित परीक्षाओं द्वारा यह निर्णय लिया जाता है कि शिक्षण का उद्देश्य प्राप्त हुआ अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में शिक्षण सफल हुआ या नहीं। इस सफलता या असफलता के आधार पर उन नीतियों, प्रविधियों एवं युक्तियों की प्रभावशीलता के विषय में स्पष्ट ज्ञान प्राप्त हो जाता है जिनका शिक्षण के समय प्रयोग किया गया। यदि शिक्षण असफल रहा तो नीतियों तथा युक्तियों में परिवर्तन किया जाना चाहिए । स्मरण रहे कि चूंकि शिक्षण के प्रत्येक प्रतिमान का उद्देश्य अलग – अलग होता है, अत: प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान की मूल्यांकन प्रणाली भी अलग – अलग होती है ।

शिक्षण – प्रतिमानों के प्रकार

शिक्षण प्रतिमानों का विभाजन तथा वर्गीकरण विभिन्न तरह से किया गया है। जैसे – –

1. दार्शनिक शिक्षण – प्रतिमान :

इस प्रकार के शिक्षण – प्रतिमानों की चर्चा इजराइल सैफलर ने किया था। दार्शनिक शिक्षण – प्रतिमान निम्न हैं –

(a) प्रभाव प्रतिमान – आम धारणा यह है कि जन्म के समय बच्चे का मस्तिष्क रिक्त होता है। शिक्षण द्वारा जो भी अनुभव प्रदान किये जाते हैं वे अनुभव बच्चे के मस्तिष्क पर प्रभाव डालते रहते हैं। इस प्रभाव को अधिगम भी कह देते हैं। इस अधिगम – प्रक्रिया में ज्ञान – इन्द्रियों की अनुभूतियों एवं भाषा सिद्धांतों को ज्यादा महत्व दिया जाता है। संपूर्ण शिक्षण प्रक्रिया की सफलता तथा प्रभावशीलता शिक्षक की योग्यता और उसकी संप्रेषण की क्षमताओं पर निर्भर करती है।

(b) सूझ – बूझ प्रतिमान – यह प्रतिमान प्रभाव – प्रतिमान के उत्तर हैं। सूझ – बूझ प्रतिमान प्रभाव प्रतिमान की इस धारणा का खंडन करता है कि शिक्षण द्वारा विचारों या ज्ञान को विद्यार्थी के मानसिक क्षेत्र अथवा भंडार में पहुँचाना ही शिक्षण प्रतिमान का अर्थ है । सूझ प्रतिमान का विश्वास है कि ज्ञान मात्र इन्द्रियों की अनुभूति द्वारा ही प्रदान नहीं किया जा सकता वरन् इसके लिए विषय – वस्तु का बोध होना अति आवश्यक है। इस प्रतिमान का विकासकर्ता प्लेटो था।

उसका विचार था कि ज्ञान सिर्फ शब्दों को बोल देने से या सन लेने से ही प्रदान नहीं हो सकता या आजत नहीं किया जा सकता। मानसिक प्रक्रिया और भाषा दोनों मिलकर ही ये कार्य करते है |

(c) नियम प्रतिमान – प्रभाव प्रतिमान तथा सूझ प्रतिमान दोनों ही अपनी – अपनी सीमाएं रखते हैं। इनकी कमियों को नियम – प्रतिमान में दूर किया गया है। इस प्रतिमान में तर्क – शक्ति को अधिक महत्व दिया है। काण्ट इस नियम में तर्क – शक्ति को महत्व देता है। तर्क में किन्हीं नियमों का पालन किया जाता है। शिक्षा का मुख्य कार्य चरित्र का विकास करना है । नियम प्रतिमान का लक्ष्य बालकों की क्षमताओं का विकास करना है। इस कार्य के लिए विशेष प्रकार के नियमों का पालन किया जाता है । जैसे, शिक्षण का नियोजन, व्यवस्था तथा अंतःप्रक्रिया विशेष नियमों द्वारा की जाती है । इस प्रतिमान द्वारा सांस्कृतिक, नैतिक तथा मूल्यों का विकास भी किया जाता है।

2. मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान :

मनोवैज्ञानिकों की यह धारणा है कि शिक्षण प्रतिमान शिक्षण – सिद्धांतों का स्थान ग्रहण कर सकते हैं। संक्षेप में यह भी कहा जा सकता है कि शिक्षण – प्रतिमान ही शिक्षण – सिद्धांतों का आदि रूप है। शिक्षण – प्रतिमानों के मनोवैज्ञानिक रूप में शिक्षण के लक्ष्य और शिक्षण तथा अधिगम की विभिन्न क्रियाओं में संबंधों की व्याख्या की जाती है –

जॉन पी. डिकेको ने निम्न मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान बताये हैं

(a) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान – इस प्रतिमान का विकास राबर्ट ग्लेसर ने किया था। उसने इस प्रतिमान में मनोवैज्ञानिक नियमों तथा सिद्धांतों का शिक्षण – प्रक्रिया में प्रयोग किया है। इस शिक्षण प्रतिमान में निम्न तत्व भाग लेते हैं।

(i) अनुदेशनात्मक उद्देश्य – इस तरह के उद्देश्यों से अभिप्राय है – वे क्रियाएं जो विद्यार्थी को शिक्षण से पूर्व करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में शिक्षकों और विद्यार्थियों के उद्देश्यों को अनुदेशनात्मक उद्देश्य कहते हैं। इस प्रतिमान के इस तत्व से हमें यह पता चलता है कि अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को व्यावहारिक कथनों में बदलकर किस तरह लिखा जा सकता है। इस प्रक्रिया को ‘कार्य – विवरण’ भी कहते हैं । इस तत्व द्वारा स्कूल, शिक्षक तथा विद्यार्थियों के उद्देश्यों में भी अंतर किया जा सकता है अर्थात् स्कूल के उद्देश्य, शिक्षक के उद्देश्य एवं विद्यार्थियों के उद्देश्यों में विभेदीकरण किया जाता है।

(ii) पूर्व – व्यवहार – पूर्व – व्यवहार से अभिप्राय विद्यार्थियों की उन योग्यताओं अथवा व्यवहारों से है जो पाठ्य – वस्तु की समझ के लिए अति आवश्यक है । साधारण शब्दों में अध्यापक की आशा अनसार भविष्य में स्तर ग्रहण करने के संदर्भ में विद्यार्थी के ज्ञान तथा कौशल का वर्तमान स्तर पूर्व – व्यवहार होता है । पूर्व – व्यवहार वहीं पर होगा जहाँ से अनुदेशन का प्रारंभ होता

(iii) अनदेशनात्मक प्रक्रिया – इस तत्व का अर्थ है – शिक्षण की वे क्रियाएं जो पाठ्य – वस्तु के प्रस्ततीकरण के लिए प्रयुक्त की जाती हैं। अनुदेशनात्मक प्रक्रिया शिक्षण का क्रियात्मक पक्ष कहलाता है। इस पक्ष में विभिन्न विधियाँ, प्रविधियाँ, व्यूह रचनाएं आदि का प्रयोग सम्मिलित होता है। संक्षेप में, इस तत्व या पद में वे क्रियायें सम्मिलित हैं जो किसी पाठ्य – वस्तु के प्रस्तुतीकरण के लिए प्रयुक्त होती हैं।

(iv) निष्पति या निष्पादन मूल्यांकन – इस पद का तात्पर्य है – वे परीक्षा एवं निरीक्षण विधियाँ जिनके आधार पर शिक्षक कोई भी निर्णय लेता है। वह यह तय करता है कि विद्यार्थी ने किस सीमा तक किसी पाठ्य – वस्तु में निपुणता प्राप्त की है।

इस पद के अंतर्गत निष्पादन का किसी भी तरह से मापन करें, पर यह मापन सत्य, विश्वसनीय, वस्तुनिष्ठ तथा कुशल होना चाहिए। अतः इस पद में प्रयुक्त होने वाला परीक्षण वस्तुनिष्ठ एवं कुशल होने चाहिए।

(b) कंप्यूटर पर आधारित शिक्षण प्रतिमान – इस शिक्षण प्रतिमान का विकास लारेन्स स्टूलोरो तथा डेनियल डेविस ने 1965 में किया था। इस प्रतिमान को सबसे जटिल प्रतिमान माना जाता है । इस प्रतिमान के निम्नलिखित तत्व होते हैं –

(i) विद्यार्थी का पूर्व – व्यवहार ।

(ii) अनुदेशन के उद्देश्यों का निर्धारण ।

(iii) शिक्षण पक्ष – इस तत्व के अंतर्गत विद्यार्थी के पूर्व – व्यवहारों तथा अनुदेशन के उद्देश्यों के अनुसार कंप्यूटर शिक्षण योजना का चयन किया जाता है। विद्यार्थियों की निष्पत्तियों का निरीक्षण किया जाता है। यदि परिणाम संतोषजनक हों तो दूसरी शिक्षण योजना पेश की जाती है। इस प्रतिमान में शिक्षण तथा निदान की क्रियाएं एक साथ ही होती हैं। निदान के आधार पर ही उपचारात्मक अनुदेशन प्रदान किया जाता है। इस प्रतिमान में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को भी महत्व दिया गया है।

(c) विद्यालय अधिगम का शिक्षण प्रतिमान – इस प्रतिमान का विकास जॉन करौल ने किया था। उसकी धारणा यह है कि विद्यार्थियों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार समय एक आवश्यक तथा महत्वपूर्ण घटक माना जाता है । इस प्रतिमान के महत्वपूर्ण तत्व निम्न हैं –

(i) उद्देश्यों की परिभाषा व्यावहारिक रूप में।।

(ii) पूर्व व्यवहार में बुद्धि एवं निष्पत्ति की अधिक प्रधानता।

(iii) अनुदेशन का स्तर विद्यार्थियों के अनुसार होना।

(iv) विद्यार्थियों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार अधिगम हेतु समय देना।

(v) विद्यार्थियों को निष्पत्ति के लिए पूर्व स्वामित्व भी निहित होना चाहिए।

इस प्रतिमान में अनुदेशन की प्रक्रिया में विद्यार्थियों को पूरे अवसर प्रदान किये जाते हैं। उनकी आवश्यकताओं के अनुसार ही उन्हें समय प्रदान किया जाता है जिससे व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर नियंत्रण हो जाता है । इसकी सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इसमें निष्पत्ति परीक्षण की क्रमबद्ध ढंग से व्यवस्था नहीं की जा सकती।

(d) अंत:प्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान – इस प्रतिमान का दूसरा नाम भी है – नैड ए. फलैंडर (1960) का सामाजिक अंतःप्रक्रिया प्रतिमान 1 फ्लैंडर ने शिक्षण प्रक्रिया एक को अंत:प्रक्रिया माना है।

फलैंडर ने कक्षा – व्यवहारों को दस वर्गों में बाँटा है । इसे फलैंडर का दस वर्गीय प्रणाली भी कहते हैं। इस प्रतिमान में शिक्षक तथा विद्यार्थी के व्यवहारों का विश्लेषण किया जाता है। इस प्रतिमान के निम्न तत्व अथवा पक्ष होते हैं। –

(i) उद्देश्य – शिक्षक एवं विद्यार्थियों के अंतःप्रक्रिया के स्वरूप का निर्धारण किया जाता है।

(ii) पूर्व व्यवहार – इसमें विद्यार्थियों की भावनाओं, विचारों एवं वर्तमान सूचनाओं को सम्मिलित किया जाता है।

(iii) प्रस्तुतीकरण – शिक्षक एवं विद्यार्थियों में शाब्दिक अंत:प्रक्रिया होती है जिसका विस्तार अप्रत्यक्ष प्रभाव तक होता है।

(iv) मूल्यांकन – इसमें निष्पत्तियों का मूल्यांकन परीक्षा द्वारा किया जाता है एवं अंत:प्रक्रिया की प्रभावशीलता के सबंध में निर्णय लिया जाता है।

स्पष्ट है कि इस प्रतिमान में शिक्षक तथा विद्यार्थी में अंतःप्रक्रिया को ज्यादा महत्व दिया गया है। इसमें अशाब्दिक अंत:प्रक्रिया का विश्लेषण या निरीक्षण नहीं हो पाता। इसकी एक त्रुटि यह भी है कि इस प्रतिमान में पाठ्य – वस्तु के संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता।

3. आधुनिक शिक्षण प्रतिमान : ब्रूस आर. जायस ने सभी शिक्षण प्रतिमानों को ‘आधुनिक शिक्षण प्रतिमान’ शीर्षक के अंतर्गत निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा है –

(a) सामाजिक अंत:प्रक्रिया स्रोत पर आधारित प्रतिमान – सामाजिक अंतःप्रक्रिया स्रोत पर आधारित प्रतिमानों में मानव के सामाजिक पक्ष को दृष्टि में रखते हुए उनके सामाजिक विकास पर बल दिया जाता है । चूँकि मानव के सामाजिक संबंधों पर अधिक बल देता है, इसलिए उसका विश्लेषण इस तरह के शिक्षण प्रतिमानों के अंतर्गत किया जाता है। स्मरण रहे कि सामाजिक अंतःप्रक्रिया स्रोत पर आधारित प्रतिमानों का प्रयोग जनतंत्र में सफलतापूर्वक किया जा सकता है। सामाजिक अंत:प्रक्रिया स्रोत में निम्न चार तरह के प्रतिमान पाये जाते हैं –

(i) सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान

(ii) जूरिस पुटसल प्रतिमान

(iii) सामाजिक पृच्छा प्रतिमान

(iv) प्रयोगशाला विधि प्रतिमान

(b) सूचना प्रक्रिया स्रोत पर आधारित प्रतिमान – सूचना प्रक्रिया स्रोतों में विद्यार्थी को तथ्यों का ज्ञान तथा आवश्यक सूचनाएं दी जाती हैं । इनमें समस्या का समाधान एवं प्रत्ययों का बोध उद्दीपन एवं प्रभावपूर्ण वातावरण का निर्माण करके दिया जाता है । ये प्रतिमान विद्यार्थियों की बौद्धिक क्षमताओं को विकसित करने हेतु अधिक लाभप्रद सिद्ध हुए हैं। इन प्रतिमानों में निम्न छ: तरह के प्रतिमान सम्मिलित होते हैं –

(i) निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान;

(ii) आगमन प्रतिमान;

(iii) प्रच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान;

(iv) जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान;

(v) प्रगत संगठनात्मक प्रतिमान;

(vi) विकासात्मक प्रतिमान

(c) व्यक्तिगत स्रोत पर आधारित प्रतिमान – व्यक्तिगत स्रोत पर आधारित प्रतिमानों के द्वारा व्यक्तिगत विकास को विशेष महत्व दिया जाता है । ऐसे प्रतिमानों में विद्यार्थी के भावात्मक पक्ष को विकसित करके उसको आंत्रिक तथा बाह्य शक्तियों के विकास के लिए बल दिया जाता है जिससे उसमें आत्म कल्पना तथा आत्म बोध का विकास होता है । व्यक्तिगत स्रोत की प्रधानता वाले निम्न पाँच प्रतिमान हैं –

(i) दिशाविहीन शिक्षण प्रतिमान;

(ii) कक्षा सभा प्रतिमान;

(iii) सर्जनात्मक शिक्षण प्रतिमान;

(iv) जागरूकता प्रतिमान;

(v) प्रत्यय – व्यवस्था प्रतिमान ।

(d) व्यवहार परिवर्तन स्रोत पर आधारित प्रतिमान – ऐसे प्रतिमानों में विद्यार्थियों के व्यवहार में सीखने की क्रिया तथा समुचित पुनर्बलन की सहायता से वांछित परिवर्तन लाये जाने पर अधिक बल दिया जाता है।

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