शिक्षण सूत्र का अर्थ बताते हुए शैक्षिक तकनीकी में शिक्षण सूत्रों की महत्ता को स्पष्ट कीजिए।

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अध्यापक की विद्वत्ता, विषय पर अधिकार तथा उसमें व्यावसायिक योग्यता होते हुए भी यह आवश्यक नहीं है कि वह छात्रों के लिए उपयोगी प्रमाणित हो । वास्तविक अर्थों में अध्यापक वह है जो अपने ज्ञान तथा अनुभवों को छात्र के मस्तिष्क तक पहुँचा सके।

कक्षा के अन्दर अध्यापक का मुख्य लक्ष्य होता है कि वह एक ऐसा वातावरण तैयार करे जिसमें अधिक से अधिक सीखने की क्रियाएं तथा सीखने के अनुभव उत्पन्न किये जा सकें। मनोवैज्ञानिक खोजों के आधार पर शिक्षाशास्त्रियों ने कछ शिक्षण – सत्रों को प्रतिपादित किया है। इन सूत्रों का प्रयोग करने से शिक्षण – क्रियायें विद्यार्थियों के लिए सर्वाधिक रूप में उपयोगी बन जाती हैं।

ये शिक्षण – सूत्र इस प्रकार हैं –

(1) ज्ञात से अज्ञात की ओर – सीखने की प्रक्रिया में बालक अपने पूर्व अर्जित ज्ञान तथा अनुभवों को नये ज्ञान तथा अनुभवों से जोड़ना चाहता है। अध्यापक भी बालक के पूर्व ज्ञान के आधार पर नये ज्ञान को जोड़ने की चेष्टा करता है । इसलिए इसे ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर’ कहा जाता है।

(2) स्थूल से सूक्ष्म की ओर – बालक के समझने की प्रक्रिया में पहले स्थूल वस्तुओं का स्थान होता है । जैसे – जैसे उसके अनुभव का क्षेत्र बढ़ता है; वह सूक्ष्म विचारों को ग्रहण करने लगता है । सीखने की प्रक्रिया का यह एक स्वाभाविक क्रम है। शिक्षण में अध्यापक को चाहिए कि पहले मूर्त एवं स्थूल विचारों को प्रस्तुत करे तदुपरान्त अमूर्त एवं सूक्ष्म विचारों की ओर बढ़े।

(3) सरल से जटिल की ओर – इस सूत्र के अनुसार बालकों को पहले आसान बातें तथा बाद में कठिन बातों की ओर ले जाना चाहिए। इस सूत्र का प्रयोग करने के लिए अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों के विकास की विविध अवस्थाओं, उनकी वैयक्तिक भिन्नताओं तथा आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए पाठ्य – वस्तु का विभाजन सरल तथा जटिल दोनों ही रूपों में कर ले और शिक्षण का क्रम इसी रूप में निर्धारित कर दे।

(4) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर – जो वस्तुएं तथा घटनायें बालक के अनुभव क्षेत्र में प्रत्यक्ष ढंग से मौजूद होती है उनका ज्ञान सरलतापूर्वक हो जाता है । वस्तुओं तथा घटनाओं के परोक्ष रूप में होने से उनका बालक के ज्ञानकोष में प्रविष्ट कराना कठिन कार्य होता है । अतः शिक्षक को चाहिए कि वह अपने विषय से सम्बन्धित ज्ञान को पहले प्रत्यक्ष ढंग से तथा बाद में परोक्ष ढंग से प्रस्तुत करे।

(5) पूर्ण से अंश की ओर – यह सूत्र मनोविज्ञान के प्रमुख सम्प्रदाय गेस्टाल्टवाद पर आधारित है । इसके अनुसार हमारे प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया पूर्ण से अंश की ओर होती है; अर्थात् हम पहले पूर्ण का प्रत्यक्षीकरण करते हैं, इसके पश्चात् अंगों का । अध्यापक की शिक्षण क्रिया इस प्रकार करनी चाहिये जिससे प्रत्यक्षीकरण में सुगमता हो तथा छात्रों का ध्यान सर्वप्रथम पूर्ण की ओर हो और बाद में अंशों की ओर हो।

इस सूत्र का प्रयोग विविध विषयों में भिन्न प्रकार से किया जाता है।

(6) अनिश्चित से निश्चित की ओर – बालक का मस्तिष्क अपने वातावरण के सम्पर्क में अनिश्चित से निश्चित की ओर बढ़ता है। जिस प्रकार एक अन्वेषक अनिश्चित तथ्यों की प्राप्ति करता है उसी प्रकार शिक्षार्थी का मस्तिष्क कार्यशील रहता है । बालक सीखने की प्रथम अवस्था में अनिश्चय की दशा में रहता है; बाद में चलकर वह निश्चय की स्थिति में पहुँचता है । वह एक अन्वेषक के रूप में आगे बढ़ता है । शिक्षक को छात्रों को अधिक देर तक अनिश्चय की स्थिति में नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे बालक के मन में तरह – तरह की भ्रान्तियाँ पैदा हो सकती हैं।

(7) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर – विश्लेषण मस्तिष्क की स्वाभाविक क्रिया है । किसी विषय को समझने तथा ग्रहण करने की दृष्टि से इसके विविध पक्षों का विश्लेषण अत्यन्त आवश्यक होता है । एक कुशल अध्यापक पहले अपने शिक्षण पर बल देता है । इसके पश्चात् वह विषय का समन्वित रूप सामने रखता है। यह संश्लेषण की क्रिया द्वारा संभव है। कठिन से कठिन विषय को विश्लेषण की क्रिया द्वारा छात्रों के लिए बोधगम्य बनाया जा सकता है। यह प्रसिद्ध सुकरात पद्धति पर आधारित है जिसमें विश्लेषण तथा संश्लेषण को मुख्य स्थान दिया गया है। ये दोनों ही मस्तिष्क की आवश्यक क्रियायें हैं और इस कारण शिक्षण में इस सूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

(8) विशिष्ट से सामान्य की ओर – शिक्षण का यह सूत्र आगमनात्मक विधि पर आधारित है। बालक के सीखने की प्रक्रिया में यह बड़ा महत्त्वपूर्ण है। बालक पहले विशिष्ट बातों की ओर आकर्षित होता है और बाद में सामान्यीकरण की ओर अग्रसर होता है। शिक्षक सर्वप्रथम उदाहरण प्रयोग, समस्याएं छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता है । इसके पश्चात् वह छात्रों से सामान्य नियम निकलवाता है।

यह सूत्र मनोविज्ञान के इस सिद्धान्त पर आधारित है कि मस्तिष्क की क्रिया सर्वप्रथम विशिष्ट की ओर होती है। सामान्यीकरण की अवस्था बाद में ही सम्भव होती है। शिक्षण में विशिष्ट से सामान्य की ओर बढ़ने से बालकों की रुचि एवं स्वाभाविक झुकाव की अवहेलना नहीं हो पाती है।

(9) अनुभव से युक्तियुक्त की ओर – बालक सीखने की क्रिया में सर्वप्रथम निरीक्षण तथा अनुभव द्वारा ज्ञान अर्जित करता है, किन्तु उसका यह ज्ञान तार्किक दृष्टि से उपयुक्त नहीं होता। वह अपने अनुभव के आधार पर ज्ञान तो प्राप्त कर लेता है किन्तु उसे तर्कों के माध्यम से प्रमाणित नहीं कर पाता है। शिक्षण मंो अनुभूतिजन्य ज्ञान तथा तर्कसम्मत ज्ञान दोनों ही आवश्यक है । क्रम की दृष्टि से अनुभूतिजन्य ज्ञान पहले होता है और तर्कजन्य ज्ञान बाद में । प्रत्येक विषय के शिक्षण में यह क्रम बड़ा आवश्यक है। छात्र को सर्वप्रथम अपने अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट किया जाता है और इसके पश्चात् तार्किक दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।

(10) मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर – शिक्षण में मनोवैज्ञानिक तथा तार्किक दोनों क्रमों का समन्वय होता है। मनोवैज्ञानिक क्रम से यह अभिप्राय है कि किसी विषय का प्रस्तुतीकरण बालकों की रुचि, जिज्ञासा, उत्साह, आयु, ग्रहणशक्ति आदि के अनुसार हो । तार्किक क्रम से यह तात्पर्य है कि विषय को तर्कपूर्ण ढंग से कई खण्डों में विभाजित कर लिया जाये और अध्यापक इन खण्डों को क्रमशः छात्रों के सम्मुख व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करे। इसमें बालक की रुचि एवं समझ आदि पर ध्यान नहीं दिया जाता है। शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए आथिक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही क्रमों को समन्वित करना आवश्यक है। प्राचीन शिक्षा – प्रणाली में तार्किक क्रम को अधिक प्रधानता दी जाती थी। इसके विपरीत आधुनिक शिक्षा में मनोवैज्ञानिक पुट अधिक है। इसके अन्तर्गत बालक की रुचियों, झुकावों तथा आवश्यकताओं पर अधिक बल दिया जाता है । वास्तव में शिक्षण का स्वाभाविक क्रम मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर होना चाहिए।

(11) प्राकृतिक विधि – शिक्षण का यह सूत्र रूसो के अनुसार शिक्षा प्राकृतिक ढंग से होनी चाहिए। बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास के नियमों के अनुकूल ही इसके शिक्षा के साधन तैयार किए जाने चाहिए । बालक को ऐसा कार्य नहीं कराना चाहिए जो उसकी शारीरिक तथा मानसिक शक्ति के अनुकूल न हो। बालक की शारीरिक तथा मानसिक क्षमताओं की अवहेलना अप्राकृतिक एवं अमनोवैज्ञानिक है। इस तरह बालक के प्राकृतिक विकास में कठिनाई होती है और उसका व्यक्तित्व कुण्ठित हो जाता है । शिक्षण का यह सूत्र प्रत्येक विषय की शिक्षा का आधारभूत तत्त्व है।

शिक्षक को इन शिक्षण सूत्रों का भली प्रकार ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए । ये शिक्षण – सूत्र शिक्षण प्रक्रिया के समुचित विकास एवं प्रभाव की दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्व रखते हैं । शिक्षक इनके माध्यम से अपने शिक्षण की न्यूनताओं का मूल्यांकन करने में समर्थ हो सकते हैं। ये शिक्षण सूत्र शिक्षण की क्रिया में अभीष्ट प्रभावशीलता एवं सजीवता के मूलमंत्र हैं।

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