सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ बतलाते हुए इसके लाभ एवं सीमाओं पर प्रकाश डालिए।

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माइक्रो या सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ है, लघु कक्षा, लघु पाठ – अवधि एवं लघु पाठ्य – सामग्री से शिक्षण । सूक्ष्म शिक्षण एक ऐसी शिक्षक – शिक्षण विधि है जो कक्षा – अध्यापन की जटिलता तथा विस्तार को घटाकर उन्हें लघु रूप देती है एवं शिक्षण कौशलों तथा निपुणताओं के उन्नयन के लिए कार्य करती है। इसका प्रयोग शिक्षक प्रशिक्षणार्थियों के व्यवहार – परिवर्तन हेतु भी किया जाता है।

सूक्ष्म शिक्षण की परिभाषाएं

सूक्ष्म विधि के जन्मदाता डी. एलेन ने जो संयुक्त राज्य अमेरिका के स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में कार्य करते थे, जिन्होंने सन् 1966 में सूक्ष्म शिक्षण की इस तरह व्याख्या की, “सूक्ष्म शिक्षण एक विश्लेषित शिक्षण है जिसमें शिक्षण की प्रक्रिया लघु रूप में कम विद्यार्थियों वाली कक्षा के सामने अल्प समय में सम्पन्न की जाती है । इसका प्रयोग सेवारत तथा सेवापूर्व शिक्षकों के व्यावसायिक विकास हेतु किया जाता है। सूक्ष्म शिक्षण, अध्यापकों को शिक्षण के अभ्यास हेतु ऐसी स्थिति प्रदान करता है जिससे कक्षा – शिक्षण की सामान्य जटिलताएँ कम हो जाती हैं। इसमें अध्यापक बहुत ज्यादा मात्रा में अपने शिक्षण – व्यवहार हेतु प्रतिपुष्टि प्राप्त करता है |”

मैकएलीज एवं अर्विन के अनुसार – “शिक्षक प्रशिक्षणार्थियों द्वारा सरलीकृत वातावरण में किये गये शिक्षण व्यवहारों को तत्काल प्रतिपुष्टि प्रदान करने हेतु क्लोज – सर्किट टेलीविजन के प्रयोग को प्रायः सुक्ष्म – शिक्षण कहा जाता है।”

वी.के. पासी के अनुसार – “सूक्ष्म शिक्षण एक प्रशिक्षण विधि है जिसमें छात्राध्यापक किसी एक शिक्षण कौशल का प्रयोग करते हुए थोड़ी अवधि हेतु छोटे समूह को कोई एक सम्प्रत्यय पढ़ाता है।”

ऐलन तथा ईव के अनुसार – “सूक्ष्म शिक्षण को ऐसी नियन्त्रित अभ्यास प्रणाली के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा विशिष्ट शिक्षण व्यवहारों पर ध्यान देकर नियन्त्रित परिस्थितियों में शिक्षण अभ्यास किया जा सकता है।”

सूक्ष्म शिक्षण की विशेषताएँ –

सूक्ष्म शिक्षण की निम्न विशेषताएँ हैं –

(1) सूक्ष्म शिक्षण में शिक्षण के तत्वों को सूक्ष्म स्वरूप दिया जाता है।

(2) यह व्यक्तिशः प्रशिक्षण की विधि है।

(3) इस विधि में प्रशिक्षणार्थियों को शिक्षण – व्यवहार से सम्बन्धित प्रतिपुष्टि तत्काल प्राप्त हो जाती है।

(4) यह ऐसा वास्तविक शिक्षण है, जो केन्द्र – बिन्दु प्रशिक्षणार्थियों में निम्न शिक्षण – कौशलों का विकास करता है –

(क) कक्षा के आकार को घटाकर छोटा कर दिया जाता है अर्थात् कक्षा में सिर्फ 5 से 10 छात्र ही रखे जाते हैं।

(ख) पढ़ाने की अवधि को एक घण्टे अथवा 40 मिनट्स से घटाकर 5 से 10 मिनट कर दिया जाता है।

(ग) विषय – वस्तु के प्रकरण का आकार छोटा कर दिया जाता है।

(घ) कई शिक्षण कौशलों के स्थान पर प्रायः एक ही शिक्षण कौशल का अभ्यास किया जाता है।

सूक्ष्म – शिक्षण के सिद्धान्त :

एलन एवं रियॉन (1968) ने सूक्ष्म – शिक्षण के निम्न पाँच मूलभूत सिद्धान्तों का वर्णन किया है –

(1) सूक्ष्म – शिक्षण वास्तविक शिक्षण है।

(2) पर इस तरह के शिक्षण में साधारण कक्षा – शिक्षण की जटिलताओं को कम कर दिया जाता है।

(3) एक समय में किसी भी एक विशेष कार्य तथा कौशल के प्रशिक्षण पर ही बल दिया जाता है।

(4) अभ्यास क्रम की प्रक्रिया पर ज्यादा नियन्त्रण रखा जाता है |

(5) परिणाम सम्बन्धी साधारण ज्ञान तथा प्रतिपुष्टि के प्रभाव की परिधि विकसित होती है।

सूक्ष्म शिक्षण के स्तर :

सूक्ष्म शिक्षण के निम्न स्तर हैं –

1. अभिविन्यास – सबसे पहले शिक्षक प्रशिक्षणार्थियों के सामने सूक्ष्म – शिक्षण के अर्थ, उसके घटकों, विशेषताओं, गुणों तथा दोषों पर प्रकाश डालता है।

2. शिक्षण कौशलों की चर्चा – प्रशिक्षणार्थियों को शिक्षण कौशलों के अर्थ तथा मनोवैज्ञानिक आधारों की जानकारी देता है।

3. आदर्श – पाठ प्रस्तुतीकरण – शिक्षण कौशलों की पूरी जानकारी देने हेतु प्रशिक्षणकर्ता सूक्ष्म पाठ का स्वरूप आदर्श पाठ के रूप में करता है।

आदर्श पाठ प्रदर्शित करने की निम्न विधियाँ हैं –

(i) शिक्षक – प्रशिक्षक स्वयं सूक्ष्म पाठ पढाकर दिखा सकता है।

(ii) सूक्ष्म – शिक्षण का आदर्श पाठ लिखित रूप में भी प्रशिक्षणार्थियों को दिया जा सकता है। इस लिखित पाठ में शिक्षण कौशलों की पूरी – पूरी जानकारी दी जाए एवं पाठ योजना के प्रस्तुतीकरण का विवरण भी दिया जाए।

(iii) आदर्श पाठ को वीडियो टेप पर रिकार्ड कर, टेलीविजन पर भी प्रदर्शित किया जा सकता है।

(iv) आदर्श पाठ को साधारण टेपरिकार्डर पर टेप कर प्रशिक्षणार्थियों को सुनाया जाता है।

4. पाठ का पर्यवेक्षण तथा समालोचन – आदर्श पाठ के पर्यवेक्षण तथा समालोचन की विधि छात्राध्यापकों को विस्तृत रूप से बताई जाती है। साठ की समालोचना करने हेतु हर प्रशिक्षणार्थी को हर शिक्षण कौशल हेतु अलग – अलग पर्यवेक्षण प्रपत्र दिये जाते हैं। प्रपत्र का समुचित उपयोग करने की विधि उन्हें बताई जाती है ।

5. सूक्ष्म – शिक्षण पाठ योजना – प्रशिक्षक किसी एक शिक्षण – कौशल तथा पाठ्य – वस्तु की इकाई पर एक सूक्ष्म पाठ योजना बनाता है।

6. शिक्षण स्तर – पाठ योजना के आधार पर पाँच मिनट तक पाँच अथवा दस छात्रों की कक्षा को पढ़ाया जाता है। प्रशिक्षक द्वारा दिये गये पाठ को वीडियो टेप अथवा साधारण कैसेट पर टेप किया जाता है । जहाँ पर यह व्यवस्था नहीं हो सकती. वहाँ शिक्षक – प्रशिक्षक या सह – प्रशिक्षणार्थी पाठ का अवलोकन करते हैं तथा पर्यवेक्षण प्रपत्रों पर पाठ हेतु समालोचना संकेत बनाते हैं।

7. प्रतिपुष्टि – हर छात्राध्यापक को व्यक्तिश: तत्कालीन प्रतिपुष्टि प्रदान करना बहुत जरूरी है। प्रतिपुष्टि हेतु प्रायः पाँच मिनट का समय दिया जाता है ।

8. पुनर्योजना – प्राप्त प्रतिपुष्टि के आधार पर छात्राध्यापक सझाव – संकेतों को अपनाते हुए अपने सूक्ष्म पाठ का पुनर्नियोजन करता है । इसके लिए करीब 10 मिनट का समय दिया जाता है।

9. पुन: अध्यापन – पुनर्निर्मित अथवा परिमाजित पाठ योजना को छात्राध्यापक पढ़ाता है।

10. पुनः प्रतिपुष्टि – इस सोपान पर भी छात्राध्यापक को पुनः प्रतिपुष्टि प्रदान की जाती है |

सूक्ष्म – शिक्षण के लाभ :

सूक्ष्म – शिक्षण के प्रशिक्षण विधि के रूप में कई लाभ हैं –

(1) यह कक्षा – शिक्षण की जटिलताओं को कम करता है ।

(2) यह शिक्षण विधि छात्राध्यापक को कम समय में ज्यादा सिखाती है।

(3) इस विधि के माध्यम से छात्राध्यापक को विद्यालय में सीधा पढ़ाने जाने की बजाय छोटी कक्षा, कम छात्र एवं छोटी पाठ – योजना से अध्यापन कार्य सिखाया जाता है, जो छात्राध्यापक हेतु अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।

(4) यह शिक्षण विधि छात्राध्यापकों में आत्मविश्वास जाग्रत करती है।

(5) छात्राध्यापक क्रमश: अपनी योग्यतानुसार शिक्षण – कौशलों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए उन्हें विकसित करता है तथा सीखने का प्रयास करता है।

(6) प्रतिपुष्टि सम्पूर्ण एवं सभी दृष्टिकोणों को अंगीकार करती है।

(7) छात्राध्यापक का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया जाता है ।

(8) मूल्यांकन में छात्राध्यापक को अपना पक्ष रखने का पूर्ण अधिकार होता है तथा मूल्यांकन चरण में उसे सक्रिय रखा जाता है।

(9) निरीक्षक, छात्राध्यापक के परामर्शदाता के रूप में कार्य करता है।

(10) सूक्ष्म – शिक्षण से शिक्षण प्रक्रिया सरल होती है।

(11) सूक्ष्म – शिक्षण से व्यावसायिक परिपक्वता विकसित होती है।

(12) सूक्ष्म – शिक्षण से छात्राध्यापकों को शिक्षण प्रक्रिया पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है तथा वे अपने शिक्षण कार्य को भली – भाँति समझ लेते हैं।

(13) सूक्ष्म – शिक्षण के द्वारा छात्राध्यापक शिक्षण – कौशलों पर पूर्ण अधिकार (निपुणता) प्राप्त कर लेते हैं । फलस्वरूप वे कम समय में वांछित कौशल का कुशल उपयोग करने में सक्षम हो जाते हैं।

(14) सूक्ष्म – शिक्षण में शिक्षण कौशलों का अभ्यास वास्तविक जटिल परिस्थितियों की अपेक्षा ज्यादा सरल परिस्थितियों में कराया जाता है।

(15) सूक्ष्म – शिक्षण में छात्राध्यापकों की व्यक्तिगत विभिन्नता पर ध्यान प्रदान किया जाता है |

(16) सूक्ष्म – शिक्षण छात्राध्यापकों के व्यावहार परिवर्तन में ज्यादा प्रभावी होता है।

(17) सूक्ष्म – शिक्षण अगर यथार्थवत् परिस्थितियों में कराया जाता है तब वास्तविक विद्यालय न मिलने पर भी समुचित प्रशिक्षण सम्भव होता है।

(18) सेवारत अध्यापकों के व्यवहार में आयी हुई कड़ाई को कम करने तथा शिक्षक की बुरी आदतों में सुधार लाने हेतु यह विधि उपयोगी है।

(19) यह विधि निरीक्षण प्रणाली को एक नया स्वरूप प्रदान करती है ।

सूक्ष्म – शिक्षण के दोष :

(1) साधनों का प्रायः अभाव होने से सूक्ष्म – शिक्षण में वीडियो फिल्म, जो कि सर्वाधिक प्रभावी हैं, का प्रयोग किया जाना सम्भव नहीं है।

(2) सूक्ष्म – शिक्षण का उपयोग करने हेतु विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापकों की जरूरत है । ऐसे अध्यापकों की कमी है।

(3) सूक्ष्म – शिक्षण हेतु कई कक्षा – कक्षों की जरूरत होती है।

(4) सूक्ष्म – शिक्षण में छात्राध्यापकों को अलग – अलग शिक्षण कौशलों का अभ्यास कराया जाता है । इससे छात्राध्यापक शिक्षण कौशलों का अलग – अलग प्रयोग करने में तो दक्षता प्राप्त कर हेते हैं, लेकिन वास्तविक शिक्षण के समय सभी शिक्षण कौशलों का एकीकृत रूप में प्रयोग करने में समर्थ नहीं हो पाते।

(5) सूक्ष्म – शिक्षण हेतु विषय – वस्तु को विश्लेषित कर एक ही सम्प्रत्यय का एक बार में प्रयोग किया जाता है। वैसे भी निरीक्षक का ध्यान शिक्षण कौशल के प्रेक्षण पर ज्यादा रहता है, विषय वस्तु के औचित्य पर नहीं। अतः अगर वास्तविक विद्यार्थी शिक्षण अभ्यास के लिए जाते हैं तो उनके समय तथा शक्ति का अपव्यय होता है।

(6) सूक्ष्म – शिक्षण में शिक्षण कौशलों का अभ्यास कृत्रिम परिस्थितियों में कराया जाता है । अतः छात्राध्यापक वास्तविक कक्षा की स्थितियों का सामना पूरी दक्षता से नहीं कर पाते हैं।

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