अध्यापक-शिक्षा हेतु पाठ्यक्रमों के बारे में लिखो।

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अध्यापक-शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम

आज के शिक्षक को यह स्पष्ट नहीं है कि विद्यालय में उसको क्या भूमिका निर्वाह करना है? यद्यपि उसे समाज-सुधारक का शिल्पी एवं सामाजिक संरचना में वांछित परिवर्तन लाने वाला कहा जाता है। हमारे संविधान में सबको बराबर शिक्षा में समान अधिकार प्राप्त करने की बात स्पष्ट नहीं है और इसके लिए हमें अपने प्रशिक्षण कॉलेजों में शिक्षकों को इस बात की जानकारी देनी होगी, जिससे कि सम्पूर्ण समाज को संविधान में दिये गये प्रावधानों का उचित लाभ मिल सके।

अध्यापक शिक्षा की कठिनाइयाँ

किसी भी संस्थान से आये हुए शिक्षकों की क्षमता उस शिक्षण संस्थान द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम पर निर्भर करती है। अध्यापक-शिक्षा महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों के बारे में कई स्रोतों से शिकायत मिल रही है। अध्यापकीय-शिक्षा पर समकालीन साहित्य में की गयी आलोचनाओं से निम्नलिखित बुराइयाँ सामने आती हैं । हैं

1. अध्यापकीय-शिक्षा कार्यक्रम बहुत अल्प समय के लिए होता है।

2. अध्यापकीय-शिक्षा में शिक्षा की विधि पर अधिक बल दिया जाता है और विषय-वस्तु के ज्ञान पर ध्यान नहीं दिया जाता है !

3. अध्यापकीय शिक्षा में अन्तर्गत सिद्धान्त और अभ्यास में कोई सम्बन्ध नहीं है।

4. इसका स्वरूप भारतीय संगठनों के अनुरूप नहीं।

5. इसका पाठ्यक्रम व इसके प्रशिक्षण का ढंग पुराना हो चुका है।

6. यह आधुनिक शिक्षा पर आधारित व लोचपूर्ण नहीं है।

7. इसका सम्बन्ध विद्यालयों व समाज की वास्तविक आवश्यकताओं से सम्बन्धित नहीं है।

8. इसके प्रयोगात्मक कार्य अपूर्ण है।

9. अधिकतर अध्यापकीय महाविद्यालयों का प्रशिक्षण वर्ग पूरी तरह से परिपक्व नहीं है।

भारत की आजादी के बाद व्यक्तिगत विशेषज्ञ एवं व्यावसायिक संस्थाओं द्वारा अध्यापकीय शिक्षण के लिये नये पाठ्यक्रम बनाने के कई प्रयास किये गये हैं। पुरानी शब्दावली बी.टी. के स्थान पर बी.एड. का प्रयोग किया जाने लगा है, जिसका एक मुख्य उद्देश्य अध्यापक-प्रशिक्षण को एक परिपूर्ण अनुभव प्रदान करना है तथा अध्यापक कौशलों को विकसित करने और शिक्षकों में मूलभूत सिद्धान्तों तथा सही अभिवृत्तियों को विकसित करना है।

लेकिन यह सभी प्रारूप किसी मुख्य दृष्टिकोण से बनाये गये अध्यापकीय शिक्षा सिद्धान्त पर आधारित नहीं हैं जो भारत की दशा से मेल नहीं खाती हैं। ये भारत के पुराने अध्यापकीय शिक्षा में आंशिक रूप से समायोजित किये गये हैं।


अध्यापकीय शिक्षा कार्यक्रम के सुधारात्मक आधार

1. किन राष्ट्रीय उद्देश्यों के लिये योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की भारत में आवश्यकता है।

2. हमारे परिवर्तनशील समाज में प्रशिक्षित अध्यापकों का वांछित उत्तरदायित्व क्या है?

3. अपने कार्य में कुशल होने के लिये उन्हें कितनी सामान्य शिक्षा और कितनी व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता है।

4. बच्चों, साथियों व माता-पिता के साथ सही व्यवहार करने के लिये उन्हें किन योग्यताओं तथा कौशलों की आवश्यकता है ।

5. हमें कितने प्रकार के शिक्षकों की विद्यालयों में आवश्यकता है। जहाँ हमारे देश के नागरिक या देश की मानव शक्ति का विकास किया जाता है ।

6. हमारे देश में शिक्षकों के प्रशिक्षण किस तरह यहाँ के शिक्षा के स्तर को प्रभावित करते हैं?

7. हमारे देश के विकास कार्यक्रम में अध्यापक शिक्षा कार्यक्रमों पर व्यय किया जाये?

8. हमारे राष्ट्रीय बजट का कितना प्रतिशत ऐसे कार्यक्रमों पर व्यय किया जाये।

9. हमारे शैक्षणिक ढाँचे में इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों को किस प्रकार व्यवस्थित, संचालित एवं नियन्त्रित किया जाये?

उपरोक्त तथ्यों की सूची में इस प्रकार से बढ़ोत्तरी कर सकते हैं, लेकिन हमारे पास इसके बारे में कोई जानकारी एवं सूचना नहीं है । हमारे देश में कोई उपयुक्त पद्धति अध्यापकीय शिक्षा बनाने के लिये या वर्तमान पद्धति में सुधार लाने के लिये कोई वैज्ञानिक विधि नहीं है । हमारे देश में अध्यापकीय-शिक्षा कार्यक्रम को सही दिशा देने के लिये न तो सरकार की कोई नीति है न ही कोई व्यावसायिक संस्थान है।

यद्यपि अध्यापकीय-शिक्षा के संदर्भ में कोठारी आयोग ने कई सुधार सुझाए हैं, परन्तु कोई भी समुचित सिद्धान्त प्रस्तुत नहीं किया है। इसलिये अध्यापकीय-शिक्षा का सुधार बिना किसी सिद्धान्त के पारित करना केवल काम चलाना ही होगा।

सबसे प्रमुख समस्या यह है कि इन दिनों जो शिक्षक बन रहे हैं उनके स्तर सन्देहपूर्ण तथा गिरते हुए हैं । ऐसा शायद बी.एड. कार्यक्रम के मौलिक उद्देश्य पर जनसाधारण की असहमति, अध्यापक की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक तथा अन्य मांगों के सन्दर्भ में है। पिछले 20 वर्षों में आधुनिक भारत के सामाजिक उद्देश्य, साधारणतः से सामान्य शिक्षा में काफी बदलाव आया है । इसलिये यह स्वाभाविक ही है कि आज हमारे अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम आधुनिक जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। आवश्यक जानकारी एवं कौशल प्राप्त करने के अतिरिक्त शिक्षक को यह जानना आवश्यक है कि वह किस सामाजिक परिपेक्ष्य में रहा है तथा जिसके लिये उसे भावी पीढ़ियों को तैयार करना है। इसलिये इसका व्यापक उत्तरदायित्व प्रशिक्षण कॉलेजों पर जाता है कि वे इस देश के लक्ष्य निर्धारण में नेतृत्व करें।

एच.बी. मजूमदार के अनुसार- “वर्तमान समय से हमारी प्रवृत्ति ‘अध्यापक प्रशिक्षण को छोड़ अध्यापक-शिक्षा की ओर बढ़ी है जिसके फलस्वरूप प्रशिक्षण संस्थाओं में हम शिक्षकों को शिक्षण का अधिक ज्ञान एवं कौशल देने से सन्तुष्ट नहीं हैं। इस विचारधारा में जो परिवर्तन आया है कि शिक्षक एक पूरी तरह शिक्षित तथा पूर्ण विकसित मनुष्य हो, योग्य नागरिक हो और साथ ही व्यावसायिक हो, को प्रशिक्षण संस्थाओं के कार्यक्रम में जोड़ा जा रहा है, साथ ही अध्यापकीय-शिक्षा के क्षेत्र में जो अत्यधिक ज्ञान का विस्तार हुआ है उसकी भी अधिक माँग बढ़ रही है। इसलिये अवयव विधि की अवस्था अध्यापकीय शिक्षा के क्षेत्र में नये आयाम लायी है।”

शिक्षण की अवधारणा भी बदलती जा रही है। आज शिक्षा केवल ज्ञान देने तथा सूचना प्रदान करने तक ही सीमित नहीं है। शिक्षा सीखने वालों की इस तरह सहायता कर रही है कि वे स्वयं ही बदलते हुए समाज में अपना कौशल विकसित कर सकें।

अध्यापक की भागीदारी की अवधारणाओं में भी परिवर्तन हुआ है। अगर अधिगम की सफलता अधिगम से व्यवहार में जो परिवर्तन आ रहा है उसके परिणाम का मूल्यांकन किया गया तो आज के शिक्षक को कल का आचार्य बनना पड़ेगा। शिक्षक की एक भुलायी प्रतिमा है। एक शिक्षक केवल ज्ञान प्रदान करने वाला नहीं है, उसे अधिगम का निर्देशक भी बनना है, तथा संस्कृति का प्रचारक भी बनना है । शिक्षक एक ऐसा व्यक्ति है जो कि उस प्रकार का व्यवहार करता है जैसा कि वह अपने शिष्यों से चाहता है। यदि शिक्षा को आज एक शक्तिशाली उपकार के रूप में समाज परिवर्तक बनना है तो शिक्षक को इस परिवर्तन का कार्यकर्ता, सामाजिक अभियन्ता तथा भविष्य के समाज का शिल्पी बनना पड़ेगा। इसलिये शिक्षक का कार्य केवल कक्षा तथा विषय तक ही सीमित नहीं है, उसे सम्पूर्ण समाज तथा सांस्कृतिक परिवर्तन का मार्गदर्शक बनना पड़ेगा।

विद्यालय की अवधारणायें प्रतिदिन बदलती हैं। इसे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से अपने तथा आम समुदाय के बीच अन्तःप्रक्रिया जारी रखनी होगी ताकि आस-पास के वातावरण तथा स्थिति में परिवर्तन कर सके।

इस सम्पूर्ण आधुनिक प्रवृत्ति का प्रभाव अध्यापकीय पाठ्यक्रम पर स्वाभाविक रूप से प्रदर्शित होता है। अध्यापक-शिक्षण कार्यक्रम पारित करते समय निम्नलिखित सभी बातों पर विशेष ध्यान देना होगा-

1. मूलभूत परिज्ञान को विकसित किये बिना और बिना समझे शिक्षक अपनी कक्षा कार्य को शुरू नहीं कर सकता।

2. आगे वाले शिक्षक में विकास प्रक्रिया को समझने की क्षमता का विकास करना तथा किसी आयु वर्ग की व्यवहार को समझने में जो कठिनाई आती है, उसको समझना है।

3. आरम्भिक शिक्षक में मूलभूत कौशल तथा प्रवृत्तियों का विकास करना है।

4. आरम्भिक शिक्षक में शिक्षण व्यवसाय के प्रति प्रथम संस्कार तथा उनमें इस शिक्षण सेवा के प्रति अपनत्व की भावना विकसित अध्यापक नहीं बर सकता है।

5. अध्यापक की प्रतियोगी भावनाओं का विकास जो कि पाठ्यक्रम के अनुसार व्यक्तिगत आवश्यकताओं तथा समाज की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप है।

6. कम से कम कुछ शिक्षकों में वैज्ञानिक भावनाओं का विकास किया जाये ताकि शिक्षण में परीक्षण एवं नयापन लाया जा सके।

7. मुक्त समाज में सभ्य नागरिक बनने की अभिवृत्तियों का विकास करना है

अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम इतना लचीला हो कि वह साधारण तथा सृजनात्मक शिक्षकों, दोनों की आवश्यकताओं को पूरा कर सके। वास्तव में हम अपने सभी शिक्षकों से कक्षा में सृजनात्मक कार्य करने की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं। हमारी कक्षाओं में आज भीड़ बढ़ती जा रही है; जैसे-जैसे शिक्षा प्राप्त करने का अवसर अधिक से अधिक बच्चों तक पहुँच रहा है। इसलिये हमें समाज के विभिन्न स्तरों से बहुआयामी योग्यता वाले शिक्षकों की खोज निकालना होगा। यह विविधता हमें अपने अध्ययन शिक्षण-कार्यक्रमों में भी जानी होगी। अभिवृत्तियों तथा कौशलों के विकास पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिये, क्योंकि इनके विकास में केन्द्रित तथा उद्देश्यपूर्ण अभ्यास की जरूरत है। हमारे प्रशिक्षण कॉलेजों के कार्यक्रम में बहुत अधिक भीड़ है, इसलिये तथ्यों का एकीभूत होना मुश्किल हो जाता है । तथ्यों के एकीभूत होने में तथा केन्द्रित होने में समय लगता है । सोचने में, आलोचनात्मक परीक्षण में, तथा सैद्धान्तिकरण में समय लगता है। ये सभी क्रियाकलाप बहुत अधिक समय लेते हैं। जैसा कि मैकनायर कमेटी रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रशिक्षण में जो छात्राध्यापक हैं, उन्हें अपने कार्यक्रम समाप्त करने की जल्दी नहीं होनी चाहिये, बल्कि वे उसमें आत्मसात हो जायें। शिक्षा आयोग (1964-66) की रिपोर्ट के प्रकाशन से शिक्षक के गुणों पर अत्यधिक जोर दिया जाने लगा है।


कोठारी आयोग के अनुसार

भारत के भविष्य को कक्षाओं में निर्मित किया जा रहा है। अब हम यह समझते हैं कि यह केवल प्रभावशाली व्याख्यान नहीं है। आज का संसार जो कि विज्ञान तथा तकनीक पर आधारित है, यहाँ केवल शिक्षा ही लोगों में उन्नति तथा कल्याण के लिये कार्य कर सकती हैं इसके बाद आयोग यह स्वीकार करता है कि शिक्षा ही राष्ट्र को भोजन के प्रति आत्मनिर्भर, आर्थिक विकास, पूर्ण रोजगार, राजनैतिक विकास, सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकीकरण की ओर ले जा सकती है। आयोग यह अनुभव करता है कि शैक्षिक क्रांति को लोगों की जिन्दगी, आवश्यकताओं तथा आशाओं को शिक्षा से जोड़ा जाये । कोठारी आयोग का मानना है कि इस कार्य में शिक्षकों का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । “शिक्षा के स्तर को जो बातें प्रभावित करती हैं तथा इसका जो योगदान राष्ट्र के विकास में है, उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात शिक्षक के गुण, योग्यता तथा चरित्र है।”

भारत में माध्यमिक शिक्षकों की शिक्षा एक शतक से भी अधिक पुरानी है। इस काल में शिक्षा के विचार में स्वाभाविक रूप से अधिक परिवर्तन आया है। अगर हम आरम्भ के प्रयासों को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पहले की शिक्षा का क्षेत्र सीमित था तथा कक्षा प्रबन्धन, श्यामपट कार्य, जैसी पद्धति से चलता था। वर्तमान शताब्दी विशेषकर स्वतन्त्रता के बाद अध्यापकों की शिक्षा में अधिक परिवर्तन आया है। हमारे कार्यक्रमों में शिक्षा मनोविज्ञान का अब पूर्ण प्रभाव है। शिक्षक के कार्य कक्षा के अन्दर तथा कक्षा के बाहर तथा विद्यालय के बाहर सभी पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। द्वितीय, शिक्षा के प्रसार तय बच्चों की चिन्ता के कारण, गुणात्मक सुधार जरूरी हो गया है। भारत में जनतंत्र होने के कारण शिक्षकों की तैयारी में नये आयाम जुड़ गये हैं। हम बहुभाषीय तथा बहुधर्मी समाज में रहते हैं। इस विद्यालयों में धर्म को शिक्षा से दूर रखना अनिवार्य हो जाता है और किसी भी अवस्था में सभी बच्चों के लिये धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य न किया जाये। दूसरी ओर जनता के इस संकीर्ण मानसिकता से लड़ते हुए राष्ट्रीय शक्तियों को बलशाली बनाना होगा, जिससे कि हम एक धर्मनिरपेक्ष जनतन्त्र का निर्माण कर सकें, जिसमें व्यक्ति का गुण ही उसके प्रति एवं विकास का आधार बन सके । इन कारणों से अध्यापक शिक्षण कार्यक्रम को सुदृढ़ करना आवश्यक हो जाता है, विशेषकर दर्शनशास्त्र समाजशास्त्र तथा शिक्षा की समस्याओं के क्षेत्र में ।

अनेक संस्थायें अध्यापक-शिक्षा कार्यक्रम को पूर्ण करने में लगी हैं। भारतीय अध्यापक शिक्षक संघ, इसकी मूल संस्थायें तथा प्रमुख विश्वविद्यालय इस क्षेत्र में मुख्य रूप से काम कर रहे हैं। शिक्षा आयोग की कार्यसमिति भी इस काम में लगी हुई है। फिर भी अधिकांशतः का है यह मानना है कि यह कार्यक्रम अपना कार्य पूरी तरह से नहीं कर पा रहा है । इसलिये राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् के अध्यापक शिक्षा संघ ने विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों के साथ मिलकर इस कार्य को करने की कोशिश की है । राष्ट्रीय शैक्षक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् का यह विश्वास है कि यह उचित समय है, जबकि विश्वविद्यालयों तथा प्रशिक्षण महाविद्यालयों के कार्यक्रम शोध द्वारा एकत्रित तथ्यों पर आधारित हो। ऐसा क्यों? क्योंकि समस्याओं और कार्यक्रम की कमियों को स्पष्ट तौर पर पहचाना नहीं गया है तथा इसका समाधान भी स्पष्ट नहीं है। अध्यापक-शिक्षा के चयन प्रक्रिया और मूल्यांकन के सभी तथ्यों को सुधारा जाये।

एक सफल अध्यापक के गुण- अध्यापक की सफलता के क्या कार्य हो सकते हैं ? इस बात पर अधिक शोध-कार्य किया गया है और भारत में भी कुछ प्रयास किये गये हैं। कई शिक्षक अपने कार्य में पूरी तरह संलग्न हैं, और यही महत्त्वपूर्ण कारण है कि भविष्य की पीढ़ियाँ प्रगति कर रही हैं यद्यपि शिक्षक के कार्य को अब तक बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया गया है। ये शिक्षक अपने अपेक्षित कार्य में पूरी तरह जुटे हुए हैं, परन्तु कई बार वे यह नहीं समझ पाते हैं कि क्या अपेक्षित है? वे लोगों की अर्थहीन आलोचना के प्रति बहुत ही भावुक हैं और अपने शिष्यों के व्यवहार से चकित हैं। यह बहुत आवश्यक है कि शिक्षक को, प्रशिक्षण काल में तथा उसके बाद इस बात का स्पष्ट बोध कराया जाये कि उनकी भूमिका क्या है? एवं क्या उनका समूह इस समाज के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकता है ?

प्रशासक प्रायः इस बात पर बल देते हैं कि शिक्षक की अपने विषय पर अच्छी पकड़ हो, साथ ही नये परिवर्तनों का पूरा ज्ञान हो। वे उनसे यह अपेक्षा करते हैं कि वे अपने छात्रों को समझें और किशोरों की हर सम्भव सहायता करें। वे यह भी समझते हैं कि शिक्षकों को आपस में सौहार्द बनाये रखना चाहिये तथा उस संस्थान की भलाई के लिये अपेक्षित कार्य करें।

छात्र उन शिक्षकों को पसन्द करते हैं जिन्हें अपने विषय पर स्वामित्व के साथ विषयों की भी समझ हो, विचार स्पष्ट हों, अपने कार्य में कुशल हों, तथा छात्रों को सही तरह से दिशा-निर्देश दे सकें, तथा जो छात्रों में रुचि लें उनकी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान निकालने में उनका सहयोग दें तथा मैत्रीपूर्ण स्वभाव होने के साथ-साथ कुछ सीमा तक कठोर भी हों तथा अपने कार्य को पूरे व्यावसायिक रूप से करें।

मेनन, अदावल, शेरी, तथा शर्मा ने भी इस क्षेत्र में अपने-अपने ढंग से काम किया, फिर भी वह समान निष्कर्ष पर पहुँचे । ए.एस. बार एक सफल शिक्षक के लक्षण, सामान्य ज्ञान, कौशल तथा स्वभाव का अध्ययन करते हुए निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुँचे-

1. अच्छी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि ।

2. अपने विषय का पूर्ण ज्ञान हो ।

3. व्यावसायिक अभ्यास और तकनीकी का अच्छा ज्ञान हो।

4. मानव विकास तथा अधिगम का अच्छा ज्ञान हो ।

5. स्पष्ट भाषा बोलने तथा लिखने में निपुण हो।

6. मानव सम्बन्धों को बनाये रखने में कुशल हो।

7. शोध तथा शिक्षा की समस्याओं का समाधान निकालने में कुशल हो।

8. प्रभावी कार्य करने का स्वभाव हो ।

9. छात्रों में रुचि लेता हो।

10. विषय में रुचि लेता हो।

11. शिक्षण में रुचि लेता हो।

12. विद्यालय तथा समुदाय में रुचि हो ।

13. व्यावसायिक कार्यों में रुचि लेता हो।

14. व्यावसायिक उत्थान में रुचि हो।

अध्यापक-शिक्षा विभाग में हमने यह निर्णय किया कि आज की परिस्थिति में शिक्षक के गुण क्या हों? जानने के लिये संरचित प्रश्नावली और कठिन तकनीक के बजाय हम थोड़ी स्वतन्त्रता लेते हुए वरिष्ठ नागरिक, शिक्षाविद् तथा प्रशासकों से मिलकर उनसे इस बारे में राय लें। इस बात ने कुछ ऐसे तथ्यों का ज्ञान कराया है जो आज तक छूटते आ रहे थ। ये किसी भी प्राथमिकता के आधार पर नहीं दर्शाये गये हैं। उनके उत्तरों का अर्थ यह है कि शिक्षक के ज्ञान तथा उनके तथ्यों का महत्त्व है, परन्तु इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण शिक्षक का व्यक्तित्व, उसका आदर्श, उसका दर्शन, स्वभाव तथा समाज और सामाजिक मान्यताओं के प्रति क्या भावनायें हैं।


कोठारी आयोग के सुझाव

कोठारी आयोग ने कहा कि योग्यता ‘गुण’ शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम की जान है और इसकी कमी से अध्यापक शिक्षा न केवल एक वित्तीय बर्बादी होगी, वरन् यह शैक्षिक स्तर में गिरावट का बहुत ही महत्त्वपूर्ण कारण बन जायेगा। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए आयोग ने अध्यापक शिक्षण कार्यक्रम के गुणात्मक उत्थान के लिये कुछ अध्यापक निर्देश दिये हैं। वे इस प्रकार हैं-

1. विषय का पूर्ण नियोजित समायोजन या विश्वविद्यालयों का स्नातकोत्तर महाविद्यालयों के सहयोग से शिक्षण के मूल तत्त्वों के बारे में गहन अध्ययन करना।

2. विश्वविद्यालयों में सामान्य तथा व्यावसायिक शिक्षा पाठ्यक्रमों को आरम्भ किया जायेगा।

3. शिक्षा में अनुसंधान के विकास द्वारा व्यावसायिक शिक्षा को भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप की जायें।

4. शिक्षा की तकनीक में ऐसा सुधार किया जाये जिससे कि स्वअध्ययन तथा वाद-विवाद को पूरा स्थान मिल सके, और मूल्यांकन के तरीकों में सुधार किया

जाये, जिससे कि आन्तरिक प्रयोगात्मक कार्य का सही तरीके से मूल्यांकन किया जा सके।

5. शिक्षण अभ्यास में सुधार किया जाये और इसे व्यापक कार्यक्रम बनाया जाये।

6. विशेष पाठ्यक्रमों तथा कार्यक्रम का विकास किया जाये।

7. विकासशील शिक्षा पद्धति में शिक्षक के बहुमुखी जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए हर शिक्षा पाठ्यक्रम में सुधार किया जाये।

आयोग के इस विचार के प्रति जो सबसे आलोचनात्मक बात है, वह यह है कि इसकी अधिकतर बातें या तो दोहरायी गयी हैं या फिर उनमें विरोधाभास है, और यह कोई ऐसा निर्देश नहीं देता जो कि भारत में अध्यापक-शिक्षा कार्यक्रम के लिये कोई ठोस आधार बन सके।

प्रथम सुझाव आज के पृथक् शिक्षा महाविद्यालय को सम्बोधित है, जिन्हें विषय केन्द्रीयकरण का सुझाव दिया गया है जो वे अन्य विश्वविद्यालयों के विभागों की सहायता से कर सकते हैं। अगर द्वितीय सुझाव, अखिल भारतीय एकीकृत पाठ्यक्रम को स्वीकार किया जाता है तो प्रथम सुझाव महत्त्वहीन हो जाता है । व्यावसायिक अध्ययन का तृतीय सुझाव, अध्यापक शिक्षा के किसी भारतीय सिद्धान्त की अनुपस्थिति में लागू नहीं किया जा सकता या फिर इस दिशा में राष्ट्रीय नीति हो । अमेरिका एवं रूस जैसे देशों में स्पष्ट सिद्धान्त हैं, जिनके आधार पर अध्यापक-शिक्षा कार्यक्रम तथा शिक्षा अनुसंधान किये जाते हैं और उन देशों में शिक्षकों की भूमिका उसी आधार पर की जाती है। अमेरिका में शिक्षा अनुसंधान साहित्य व्यक्तिगत-भिन्नता, जाँच, सलाह और व्यक्ति के अस्तित्व पर आधारित है जबकि रूस में शिक्षा संशोधन ‘पैवलव दशा’ व्यक्तिगत अनुशासन तथा सामूहिक उत्तरदायित्व पर आधारित है। भारतीय शिक्षा-अनुसंधान में पूर्व या पश्चिम या अमेरिका या रूस के चुने हुए सुविकसित तौर तरीकों का अंश पाया जाता है।

चतुर्थ सुझाव शिक्षा महाविद्यालयों में पुस्तकालय तथा प्रयोगशालाओं की कमी के कारण लागू नहीं किया जा सकता, जहाँ विश्वास की कमी तथा शिक्षा के विकास के तौर-तरीकों के सन्दर्भ में स्वतन्त्रता की कमी है। विश्वविद्यालय के अधिकारी, अपने जाँच करने, तथा छात्रों को प्रमाणित करने के अधिकारी को आसानी से खोना नहीं चाहेंगे। यह एक ऐसा ‘सुरक्षित क्षेत्र’ है जिसमें कोई भी महाविद्यालय अपने अस्तित्व को दाव पर लगाये बिना प्रवेश नहीं कर सकता। जो ऐसा करने का दुस्साहस करेगा वह निश्चय ही एक भयंकर चक्रव्यूह में फँस जायेगा।

अभ्यास शिक्षण में सुधार का पंचम सुझाव, भारत में अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम की अवधि के लिये एक महत्त्वाकांक्षी बात होगी। अभ्यास शिक्षा तब तक प्रभावशाली और, अर्थपूर्ण नहीं हो सकती, जब तक उन सहयोगी विद्यालयों को उचित पारितोषिक एवं पहचान, सम्बद्ध विश्वविद्यालय द्वारा नहीं दिया जाता है ।

विशेष पाठ्यक्रम के विकास का षष्ठम् सुझाव बहुत ही उत्तम है लेकिन अभी इसकी आवश्यकता नहीं है । जब तक कि प्रशिक्षित विशेषज्ञों के सामने जीवनवृत्ति की समस्या है, ऐसे पाठ्यक्रम लोकप्रिय और लाभप्रद नहीं हो सकते हैं । विभिन्न महाविद्यालय जो विशेष डिप्लोमा तथा प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम चलाते हैं, डुनके अनुभव से पता चलता है कि इनके द्वारा प्रशिक्षित किये गये शिक्षक बेकारी के शिकार हैं। इसका परिणाम यह है कि लम्बे समय के बाद उन्हें ये पाठ्यक्रम या तो बन्द करने पड़े हैं या फिर सदस्यों को रखकर तथा जोखिम सहते हुए चलाना पड़ता है।

अन्तिम सुझाव सप्तम ऐसा है जो हर स्तर के अध्यापक-शिक्षा के मूलभूत लक्ष्य, तथा विकासशील शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक के बहुआयामी उत्तरदायित्व के प्रश्न का सही ढंग से समाधान ढूँढ़ सका। लेकिन आयोग मूलभूत प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ रहा है, जैसे कि भारत में अध्यापक-शिक्षा के मौलिक उद्देश्य क्या हैं? प्रशिक्षित अध्यापकों से किस प्रकार के उत्तरदायित्व की अपेक्षा की जाती है ? और शिक्षा पद्धति के विकासशील होने का क्या मतलब है? अभी तक इन प्रश्नों के उत्तर अस्पष्ट हैं, और इस कारण एक स्वस्थ तथा व्यापक शिक्षा-पाठ्यक्रम के विकास में कठिनाइयाँ आ रही हैं । लेखक अपने इस आलेखन में कोई गहन पाठ्यक्रम नहीं देना चाहते परन्तु इसमें कुछ सुधारात्मक सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं।


अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रम को नवीन रूप देने के स्वयं सिद्ध प्रमाण

अध्यापक शिक्षा में उचित पाठ्यक्रम का स्वरूप बहुआयामी होगा। अपने विचारों के सरलीकरण के लिये लेखक अपने विचार को तीन आयामों पर आधारित करते हैं, जिसमें कुछ महत्त्वपूर्ण चर हैं, ये आयाम इस प्रकार हैं-

(अ) भारत में अध्यापक शिक्षा के सिद्धान्त

1. भारत में शिक्षा का उद्देश्य एवं कार्य (जैसा कि भारत राष्ट्रीय उद्देश्यों से जो कि प्रजातन्त्र और नियोजित विकास पर आधारित है।)

2. भारत में अध्यापक-शिक्षा में उद्देश्य एवं कार्य ।

(ब) भारत में अध्यापक के कार्य-कौशल का विकास करना

1. व्यक्तिगत एवं सामाजिक कौशल का विकास करना।

2. व्यावसायिक कौशल का विकास करना।

3. प्रत्यय सम्बन्धी कौशल का विकास करना।

(स) भारत में अध्यापकों को पहचानना

1. सामान्य शिक्षा या आधारित ज्ञान प्रदान करना।

2. विशेष प्रशिक्षण या शैक्षिक सामर्थ्य का विकास करना ।

उपरोक्त आयामों के सम्बन्धों को निम्न प्रतिरूप द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। चित्र के द्वारा तथ्य को प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है कि अध्यापक या अध्यापक-शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य, भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकसित एवं अनुमोदित अध्यापक-शिक्षा सिद्धान्त में स्थित होना चाहिए। (अ) जिसका उद्देश्य प्रशिक्षार्थियों को वांछित कार्य कौशल प्रदान करना चाहिए। (ब) तथा अध्यापक व्यवसाय के लिए सामान्य तथा विशिष्ट प्रशिक्षण के युक्त होना चाहिए।

अध्यापक-शिक्षा का वर्तमान पाठ्यक्रम केवल व्यावसायिक कौशल पर अधिक बल देता है या शिक्षण-विधियों तक सीमित है तथा अध्यापक के व्यक्तित्व के विकास के लिये इसमें कम स्थान है या उसकी सामाजिक क्षमताओं अथवा प्रत्ययी योग्यताओं दूसरे शब्दों में रचनात्मक

विचार, योजना या अनुसंधान योजना पर कम ध्यान देता है । इस प्रकार से अध्यापक नये विचारों का जनक तथा समालोचक होने के स्थान पर शैक्षिक विचारों का जनक तथा समालोचक होने के स्थान पर शैक्षिक विचारों का उपभोक्ता बन जाता है । अध्यापक निर्माण का संतुलित पाठ्यक्रम अध्यापक को ऐसे अवसर देता है जिससे कि व्यक्ति के रूप में उसका पूर्ण विकास हो सके, उसे अध्यापन कला का विशेषज्ञ या कक्षा का प्रबन्धक न होकर के सर्जनात्मक कल्पना का व्यक्ति होना चाहिए।

अध्यापक-शिक्षा का व्यापक पाठ्यक्रम, अध्यापक के सर्वांगीण विकास के लिये उन समस्त पाठ्यक्रम को अपने में समाहित करना चाहिये जिससे उपरोक्त लक्ष्य की पूर्ति हो । इसके अन्तर्गत उन विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों को समान महत्त्व दिया जाना चाहिए जो अध्यापक के विभिन्न बोध और कौशलों को विकसित करते हैं। यदि इसे तीन वर्षीय उपाधि पाठ्यक्रम के लिये बनाया जाता है तो आधा समय अध्यापक के व्यक्तिगत, सामाजिक तथा प्रत्ययी कौशलों के विकास में लगाना चाहिए, तथा आधा समय उसके व्यावसायिक शैक्षिक कौशल के विकास में लगाना चाहिए, तथा आधा समय उसके व्यावसायिक शैक्षिक कौशल के विकास में लगाना चाहिए। यदि स्नातकों के लिये एक वर्षीय पाठ्यक्रम बनाया जाता है तो सम्पूर्ण समय व्यावसायिक दक्षता तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक कौशलों के विकास में लगाना चाहिये। क्योंकि प्रत्ययी दक्षता के प्रति स्नातक स्तर पर ही पूरा ध्यान दिया जाता है।

अध्यापक के गुण

प्रभावी अध्यापक के निम्नलिखित गुण होने चाहिए-

1. माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक को आर्थिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक वृद्धि के सन्दर्भ में राष्ट्रीय उद्देश्यों का ज्ञान होना चाहिये। इससे अध्यापक में ऐसी योग्यता विकसित होगी जिसके द्वारा विद्यार्थियों की वर्तमान पीढ़ी को भारत में प्रबुद्ध नागरिकों के रूप में प्रशिक्षित करें।

2. उसे भारत के बारे में प्राचीन काल से आधुनिक काल तक की संस्कृति एवं विचारों का उत्तम ज्ञान होना चाहिए। इसके द्वारा उसे एक उचित एवं स्वस्थ व्यक्तिगत जीवन दर्शन विकसित करने में सहायता मिलेगी जो एक अध्यापक के लिए आवश्यक होता है।

3. उसे व्यवसाय की चुनौती की सराहना करनी चाहिये तथा उन सम्भावनाओं का पता लगाना चाहिये जिससे कमियों की क्षति पूर्ति हो सके। इस कार्य के द्वारा व्यवसाय के प्रति आशावादिता की वृद्धि होगी तथा अध्यापन में तात्कालिक सुख प्राप्त होगा।

4. उसे देश के लिये अपने कार्य की महत्ता का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए और उसे अपने व्यवसाय पर गर्व होना चाहिये।

5. अध्यापक को प्रजातांत्रिक मूल्यों का सम्मान करना चाहिये, जैसे अपने से अलग विचार रखने वालों का सम्मान।

6. अध्यापक का स्वस्थ संवेगात्मक विकास होना चाहिये और उसे प्रसन्न रहना चाहिये, जीवन सुख संक्रमणीय है यदि एक अध्यापक प्रसन्न स्वभाव या प्रसन्नचित्त रहता है तो छात्र उसके विभिन्न रूपों को अपने जीवन में उपभोग कर सकेंगे।

7. अध्यापक को अभिभावक एवं समुदाय से सतत् सम्पर्क रखना चाहिये, उनके सम्मुख विद्यालय के प्रति अपने विचार की व्याख्या करनी चाहिये तथा उनका

सहयोग प्राप्त करना चाहिये । उसे समुदाय का नेतृत्व करना चाहिये तथा बालकों एवं प्रौढ़ों का सम्मान प्राप्त करना चाहिये । उस विद्यालयीय क्रिया-कलापों को समुदाय के सुधार के रूप में संगठित करना चाहिये।

8. अध्यापक को सभी प्रकार की सूचनायें रखनी चाहिये तथा उसे जिज्ञासु होना चाहिये । उसे केवल उस विषय का जिसे वह पढ़ाता है या उन कौशलों को जिनका वह छात्रों में विकास चाहता है उनका ही पण्डित नहीं होना चाहिए, बल्कि सामयिक पत्र एवं पत्रिकाओं को पढ़ने की रुचि होनी चाहिये।

9. उसमें उच्च कोटि की संवाद क्षमता, स्पष्टता, शुद्धता तथा तार्किकता होनी चाहिये।

10. उसे सीखने की प्रक्रिया का स्पष्ट बोध तथा बच्चों की सीखने के लिये निर्देशित करने की विधि का बोध होना चाहिये। इसके अन्तर्गत कक्षा कार्य को नये ढंग से संगठित करने की योग्यता निहित होती है। उसे बहुत अधिक कठोर एवं दृढ़ नहीं होना चाहिए। इससे नये रुझानों से वह वंचित रहता है।

11. अध्यापक को बहुत अधिक उपदेश नहीं देना चाहिये और अधिक अभ्यास नहीं कराना चाहिए । यद्यपि अभ्यास का परिणाम अच्छा होता है, लेकिन आगे चलकर उसका महत्त्व नहीं होता है, इसके विपरीत छात्रों का उचित मार्गदर्शन होना चाहिये तथा उन्हें अपनी सोच के अनुसार कार्य करने देना चाहिये।

12. अध्यापक को श्रव्य-दृश्य सामग्री का प्रयोग करने में निपुण होना चाहिये उसे यह ज्ञान होना चाहिये कि कौनसी सामग्री का प्रयोग कब किया जाये? और क्यों किया जाये? उसमें सहायक-सामग्री के निर्माण की योग्यता होनी चाहिये।

13. उसे आधुनिक मूल्यांकन प्रविधियों का ज्ञान होना चाहिये तथा उनकी अर्थापन और परिणामों को दूसरों तक पहुँचाने की क्षमता होनी चाहिये।

14. पाठ्य सहगामी क्रियाओं के उसे भाग लेना चाहिये एवं उसके संगठन की उनमें योग्यता होनी चाहिये।

15. पाठ्यक्रम के उद्देश्य एवं क्षेत्र का बोध होना चाहिये।

16. उसे विद्यालय के प्रति शुभचिन्तक होना चाहिये, अन्य अध्यापकों के साथ मिलकर विद्यालय की अच्छी स्थिति को अनुरक्षित करना चाहिये।

17. उसे मनोविज्ञान के व्यावहारिक पक्ष को समझना चाहिये, उसे किशोरों की विशेषताओं जैसे-शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा उनकी आवश्यकताओं की जानकारी हो तथा उनके समाधान की योग्यता रखनी चाहिये।

18. उसे बच्चों द्वारा निम्न प्रकार से सम्मान प्राप्त करना चाहिये-

(अ) सुख कार्य व्यक्तित्व जिससे सम्मान प्राप्त होता है एवं आज्ञा का पालन होता है।

(ब) बच्चों के प्रति त्याग-उत्साह, मित्रता तथा उनके व्यवहार को समझना ।

(स) धीमी गति से अधिगम करने वाले छात्रों को हतोत्साहित नहीं करना चाहिये।

(द) व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षण को समायोजित करना।

(य) सूचनाओं की शुद्धता,छात्रों को बिना मदद के पढ़ने के लिये प्रेरित करना।

(र) छात्रों को उनके स्वयं के अनुभवों पर प्राप्त तथ्यों से सामान्यीकरण करने में उनकी सहायता करना।

संक्षेप में एक सफल अध्यापक वह है जो शिक्षा और अध्यापक की योजना, निर्देशन और मूल्यांकन का दायित्व पूरा करता है। वह संस्कृति और नागरिकता प्राप्त ऐसा व्यक्ति है, जो यह विश्वास करता है कि उसका कार्य राष्ट्र और समुदाय के विकास में बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इन्हीं वास्तविकताओं को ध्यान में रखना चाहिए। यूनेस्को ने अपने 5 अगस्त, 1968 के प्रस्ताव में जो अध्यापक की स्थिति के सम्बन्ध में कहा है, “ऐसी नीति जो अध्यापक-शिक्षा में प्रवेश हेतु निर्धारित हो उसे ऐसी आवश्यकताओं पर आधारित होना चाहिए, जो समाज को एक अध्यापक प्रदान करे, जिसमें आवश्यक नैतिकता बौद्धिक एवं शारीरिक गुण हों तथा जिसमें व्यावसायिक ज्ञान एवं कौशल हो” (नैतिक एवं बौद्धिक गुण व्यावसायिक ज्ञान और कौशल से अधिक आवश्यक है।)

जर्मनी में कहा जाता है कि “अध्यापक-शिक्षा में अध्यापक को सोचना सिखाया जाये न कि उसे मशीन की तरह प्रशिक्षित किया जाये।”

यहाँ इस बात पर भी बल दिया गया है कि भावी अध्यापक के विकास में सांस्कृतिक कारक की जागरुकता की आवश्यकता होती है, जो सम्पूर्ण दर्शन के विकास को प्रभावित करती है। पूर्ण छात्र की अन्त: क्रिया पूरे वातावरण से होती है।

जे.बी. कोनान्ट ने अमेरिकी अध्यापकों की शिक्षा पर (1963) में यह कथन प्रस्तुत किया कि अध्यापक शिक्षा के चार उद्देश्य होते हैं-

1. अध्य को प्रजातान्त्रिक सामाजिक घटक को समझना चाहिए (उन्हें शिष्यों को भविष्य का नागरिक समझना चाहिए तथा लोकतन्त्र एवं लोकतन्त्रीय जीवन पद्धति के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखना चाहिए (जीवन का व्यक्तिवादी दर्शन तथा भारत के सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति जागरूकता ।)

2. अध्यापक में छात्रों के सामाजिक व्यवहार को समझाने की योग्यता होना।

3. अध्यापक को बालक के विकास का बोध होना।

4. उन्हें शिक्षण सिद्धान्तों का बोध होना।

एक अनुभवी विद्यालय के प्रधानाचार्य के अनुसार अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम अध्यापक को इस योग्य बनाये कि वह जान सके कि छात्रों को पढ़ाना उसका कर्त्तव्य है। केवल पाठ्यवस्तु प्रस्तुत करना उसका ध्येय नहीं है।

प्रशिक्षण विद्यालयों का दूसरा उद्देश्य माध्यमिक शिक्षा पर अन्तर्राष्ट्रीय समिति द्वारा (1954) में निर्धारित किया गया है। किसी समुदाय अथवा समाज में अध्यापक की स्थिति एक ऐसा अछूता कारक है जिसके लिये अध्यापक स्वयं उत्तरदायी है। उन्हें दूसरों की तरह मान्यता अर्जित करनी चाहिए और यह अध्यापक प्रशिक्षण विद्यालयों के लिए चुनौतीपूर्ण विषय है ।

सम्पूर्णानन्द समिति ने कहा-“अब यह महत्त्वपूर्ण विषय बन गया है कि अध्यापकों को प्रशिक्षण का ऐसा कार्यक्रम दिया जाना चाहिए जो उन्हें राष्ट्रीय दृष्टिकोण, एकता तथा सांस्कृतिक तथा बौद्धिक अखण्डता की प्राप्ति में सहायक हो।”

राधाकृष्णन् आयोग अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम को विधियों द्वारा पाठ्यक्रमों को जोड़ना चाहता था, विशेषतः मनोविज्ञान और शिक्षा के सिद्धान्तों को “विद्यार्थी में जो कुछ देखता है उसे अपने व्यावहारिक जीवन में उतारना चाहता है।”


नवीन कार्यक्रम का निर्माण

इस प्रकार कार्यक्रम के निर्माण के लिए निम्न पदों को ध्यान में रखा गया है-

1.  (अ) वर्तमान बी.एड. स्तरीय कार्यक्रम का विश्लेषण करना।

(ब) इस कार्यक्रम के उपयोगी घटकों के बारे में शिक्षाविदों, प्रधानाचार्यों एवं अध्यापकों की सहमति प्राप्त करना ।

2. (अ) मार्च (1969) में कलकत्ता में इन सब पर विचार करने तथा नये कार्यक्रम की रचना हेतु अध्यापक प्रशिक्षण महाविद्यालयों के प्रोफेसर, संकायाध्यक्षों एव प्रधानाचार्यों की एक अखिल भारतीय बैठक का आयोजन किया गया है कार्यक्रम या अध्यापक-शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण किया गया।

(स) इन उद्देश्यों के परिप्रेक्ष्य में कार्यक्रम का विस्तृत विवरण सुझाया गया, तथा इस बात की ओर भी इंगित किया गया कि कार्यक्रम को कौनसा घटक किस उद्देश्य की पूर्ति करेगा? इस प्रकार से किसी विशेष उद्देश्य के लिए कई घटकों को प्रतिवादन किया गया है एवं सभी उद्देश्यों पर ध्यान दिया गया।

(द) इस प्रकार निर्मित कार्यक्रम को देश के चुने हुए 150 शिक्षा महाविद्यालयों एवं के विश्वविद्यालयों के शिक्षा विभाग की उनकी अनुभूति जानने हेतु भेजा गया। अखिल भारतीय शिक्षक प्रशिक्षक संघ के जोधपुर अधिवेशन में भी इस कार्यक्रम को बाँटा गया और उस पर चर्चा की गयी।

अधिकांश सुझाव जो प्राप्त हुए थे, उन्हें उस आख्या में सम्मिलित किया गया। कुछ लोगों द्वारा दिये गये सुझाव के शिक्षण विधियों के पाठ्यक्रम में और अधिक पाठ्यवस्तु सम्मिलित की जाये, इसे पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया गया, क्योंकि शिक्षक विद्यालयों में केवल एक ही व्यक्ति आंशिक रूप से विषय का विशेषज्ञ होता है।

(य) बारहवें क्षेत्रीय सेमिनार एवं कार्यशाला में जो छात्र शिक्षण एवं मूल्यांकन पर आधारित थी, के सुझावों को भी पूर्णतया प्रयोग में लाया गया। विस्तृत रूप में यह सुझाव विभाग द्वारा स्वीकृत हैण्डबुक में सम्मिलित है। अध्यापक-शिक्षा पाठ्यक्रम को अन्तिम रूप देने के लिए नयी-शिक्षा नीति को सुझावों एवं संस्तुतियों पर ध्यान देना चाहिए ।


अध्यापक-अभिविन्यास

सैद्धान्तिक पाठ्यक्रमों के पुनर्संगठन की प्रथम सीमा यह है कि शैक्षिक पाठ्यक्रमों के साथ-साथ हम शिक्षा पाठ्यक्रम को सिद्धान्त में स्थान देते हैं। हम सभी इस बात को जानते हैं कि बहुत से छात्र जो शिक्षक-प्रशिक्षण महाविद्यालयों में शिक्षक बनने हेतु प्रवेश लेते हैं वे पाठ्यवस्तु में आवश्यक ज्ञान का समुचित आधार नहीं रखते। इस प्रकार से कहना कि प्रशिक्षण महाविद्यालयों का काम शैक्षिक ज्ञान से सम्बन्धित नहीं है। इस समस्या से दूर भागने के समान है और यह एक उपयोगी बात नहीं है कि हम उन्हें कला या विज्ञान के विद्यालयों में अपने विषय के ज्ञान को परिमार्जित करने के लिये भेजें, जबकि कुछ व्यक्ति शिक्षक महाविद्यालयों को ऐसी अनुमति देते हैं कि हमें स्वयं ही इस सम्बन्ध में कुछ करना है। मैं इस बात के लिये अनुमति नहीं देता कि छात्र अध्यापकों को पाठ्यवस्तु की नियमित शिक्षा प्रशिक्षण विद्यालयों में दी जाये बल्कि मेरे मस्तिष्क में जो बात है वह यह है कि शैक्षिक विषयों में अलग पाठ्यक्रम हो जिनका समावेश सैद्धान्तिक समय विभाग चक्र में हो । लेकिन इसका स्वरूप विचार-गोष्ठी या वार्तालाप के रूप में छात्र अध्यापक को पाठ्यवस्तु पर आधारित शीर्षकों के अन्तर्गत छात्र अध्यापकों की पाठ्यवस्तु को एक या दो पाठ्य-पुस्तकों को खरीदने की आवश्यकता हो, साथ ही एक दो सन्दर्भ ग्रन्थ उस विषय के होने चाहिये जिसको उसने चुना हो और दिये गये प्रकरण पर उसे कार्य करना चाहिये। प्रशिक्षण महाविद्यालय के अध्यापक अपने विस्तृत अनुभवों के आधार पर छात्र अध्यापकों को विचार गोष्ठी आदि के लिये योजना तैयार करा सकते हैं जिसके द्वारा छात्र अध्यापक के शैक्षिक अध्यापक की कमी को पूरा किया जा सकता है। छात्र अध्यापक को शैक्षिक पाठ्यक्रम की गणना उसके सैद्धान्तिक पाठ्यक्रमों के मूल्यांकन के साथ की जानी चाहिये और बड़ौदा विश्वविद्यालय में ऐसा ही प्रचलन है जहाँ विषय वस्तु को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया है और उसे मूल्यांकन की योजना में भी सम्मिलित किया जाता है।


व्यावसायिक सैद्धान्तिक पाठ्यक्रम

व्यावसायिक पाठ्यक्रम के परिवर्तन से सम्बन्धी दूसरा आयाम है-शैक्षिक सिद्धान्त । मैं इस बात की अनुभूति करता हूँ कि यहाँ अधिक कटाई-छंटाई पुनर्संगठन एवं पुनअवधान की आवश्यकता है।

मैं बी.एड. और डी.एड. प्रशिक्षण कार्यक्रम में निम्न पाठ्यक्रमों को शैक्षिक सिद्धान्त में सम्मिलित करने की सलाह दूंगा।


पाठ्यक्रम औचित्य

1. शिक्षा का प्रजातान्त्रिक सामाजिक दर्शन विद्यालय एक प्रभावशाली अभिक्रमक है और अध्यापक ऐसी स्थिति में होते हैं कि वे छात्रों को प्रजातान्त्रिक जीवन पद्धति, नागरिकता,सामाजिक और संवेगात्मक एकता के लिये छात्रों को अभिप्रेरित एवं तैयार कर सकते हैं। छात्र अध्यापकों को विद्यालय की इस भूमिका का बोध होना चाहिये तथा उन्हें अपने भावी दायित्व का भी बोध होना चाहिये। इसके लिये उसे प्रजातांत्रिक सामाजिक प्रणाली के मूल्यों का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए।

2. समूह प्रक्रिया एवं सामाजिक व्यवहार सभी स्थितियों में अध्यापक को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि किस प्रक्रिया के द्वारा बच्चों में सामाजिक व्यवहार की उत्पत्ति होती है। उसे समूह गत्यात्मकता का भी ज्ञान होना चाहिए जो उसका मूलमंत्र है तथा इस बात का भी ज्ञान होना चाहिए कि इसे कैसे प्राप्त किया जाये?

3. अधिगम मनोविज्ञान तथा शिक्षण सिद्धान्त अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम में इस पाठ्यक्रम की अति आवश्यकता है और इस बात पर खुली चर्चा होनी चाहिए।

4. विकास का मनोविज्ञान छात्र अध्यापक को बच्चों की वृद्धि तथा उनके संवेगात्मक एवं शैक्षिक आवश्यकताओं का स्पष्ट बोध होना चाहिए, विशेषकर किशोरावस्था का।

5. स्वास्थ्य शिक्षा इसमें मानसिक स्वास्थ्य भी सम्मिलित है छात्र अध्यापक को छात्रों के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए।

6. विद्यालय प्रशासन एवं मानवीय सम्बन्ध शैक्षिक प्रशासन एक विस्तृत विषय है जिसका विस्तार में वर्णन एम.एड. स्तर पर किया जा सकता है। बी.एड. और डी.एड. स्तर पर छात्र अध्यापक को जिन बातों को जानने की आवश्यकता होती है, वे स्कूल प्रशासन के उन तथ्यों तथा क्रियाओं से सम्बन्धित हैं जो अध्यापक को प्रभावित करते हैं। उसे उन क्षेत्रों के बारे में ज्ञान होना चाहिए जो राजकीय अनुदान से सम्बन्धित हैं और उसके प्रशासनिक कर्तव्यों से सम्बन्धित हैं। प्रशिक्षार्थियों को उन सभी विधि एवं प्रविधियों से परिचित कराना चाहिये जिससे विद्यालय प्रशासन के विभिन्न घटकों जैसे सहयोगियों, अभिभावकों जनता से मधुर सम्बन्धों का विकास हो सके।

7. विशिष्ट विधियाँ अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम का यह मूलाधार है लेकिन इस पाठ्यक्रम में अच्छा और घनिष्ठ सम्बन्ध अभ्यास शिक्षण के साथ और इसके नियमित पृष्ठपोषण के लिए होना चाहिए। विशेष विधि समय प्रायः विचारगोष्ठी के रूप में जिसमें छात्र-अध्यापक अपने अभ्यास शिक्षण के अपने अनुभवों तथा उन समस्या ओं को जो उनके सम्मुख आते हैं । विभिन्न शिक्षण स्थितियाँ जिससे उन्हें निपटना होता है तथा कक्षा की विभिन्न इकाइयों को पढ़ाने से सम्बन्धित होना चाहिये।

8. शैक्षिक तकनीकी राष्ट्रीय शिक्षा-नीति ने राष्ट्र के लिये शैक्षिक तकनीकी पर अधिक बल दिया है

पाठ्यक्रम को निम्न मुख्य रूपों में बाँटा जा सकता है ।

1. व्यक्तिगत एवं सामाजिक कौशल

(i) शिक्षा का स्वास्थ्य एवं व्यक्तित्व विकास

(ii) वार्ता तथा संचार तकनीकी

(iii) अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य

(iv) अध्यापक का मानवीय सम्बन्ध

(v) अध्यापक और समाज

(vi) अध्यापक समुदाय के नेता के रूप में

2. व्यावसायिक कौशल

(i) शिक्षा का आधार

(ii) शिक्षण विधियाँ

(iii) विद्यालय संगठन एवं प्रशासन

(iv) कक्षा शिक्षण

(v) शिक्षा मनोविज्ञान

(vi) शिक्षा में मापन एवं मूल्यांकन

(vii) विद्यालय में निर्देशन सेवा आदि

(viii) शैक्षिक तकनीकी तथा विशेष शिक्षक

3. प्रत्यय सम्बन्धी कौशल

(i) शिक्षा में योजना

(ii) शैक्षिक समस्याओं का बोध

(iii) विद्यालय में कार्य एवं अनुसंधान

(iv) शिक्षा में अन्तः अनुशासन आयाम

(v) शैक्षिक प्रक्रिया एवं नवाचार

(vi) शिक्षा में सांख्यिकी एवं अनुसंधान

ये क्षेत्र केवल सुझाये गये हैं, इनमें परिवर्तन संशोधन तथा परिवर्धन स्वयं सिद्धियों के आधार पर किये जा सकते हैं।

यह सबसे अच्छा समय है जबकि सरकार द्वारा एक अलग विशेष समिति की स्थापना अखिल भारतीय स्तर पर की गई है, जो अध्यापक शिक्षा का एक राष्ट्रीय आधार तैयार करे एवं जो राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुरूप हो। दूसरे छोटे प्रयत्न अध्यापक-शिक्षा के अन्नसन में कभी लाभदायी सिद्ध नहीं हुए जो स्वतन्त्र समाज के नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा प्रणाली को विकसित कर सकें।

अध्यापक की भूमिका हैं

अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम का उद्देश्य होना चाहिए कि यह प्रत्येक व्यक्ति में सामान्य शिक्षा एवं व्यक्तिगत संस्कृति का विकास करे, उसकी शिक्षण की योग्यताओं को विकसित करे तथा उन सिद्धान्तों के प्रति उसे जागरूक बनाये जो स्नेहपूर्ण मानवीय सम्बन्धों के लिये आवश्यक हो तथा जिसमें उत्तरदायित्व की भावना हो और जो शिक्षण के माध्यम से सहयोग दे और समाज के लिये आदर्श बने । शिक्षक का स्तर यूनेस्को का प्रस्ताव अध्यापक शिक्षा के विशिष्ट उद्देश्य है।

इन उद्देश्यों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

(1) बोध, (2) कौशल तथा (3) अभिवृत्ति ।

1. बोधात्मक उद्देश्य

(अ) समाज की संरचना, कार्य एवं अन्तःक्रिया का ज्ञान

(ब) बाल विकास एवं अधिगम प्रक्रिया का बोध

(स) विकासशील बालकों की समस्याओं का बोध

(द) विद्यालय के संगठन एवं प्रशासन का ज्ञान

(इ) परीक्षा एवं मूल्यांकन की विधियों का ज्ञान एवं बोध

2. कौशल उद्देश्य

(अ) विभिन्न शिक्षण विधियों के प्रयोग की योग्यता एवं कौशल

(ब) शिक्षण विधियों का विकास एवं विषय के प्रयोग की योग्यता

(स) प्रभावपूर्ण कौशल एवं अभिप्रेरणा

(द) शिक्षण के विशेष उद्देश्यों को निर्मित करने की योग्यता

(य) मूल्यांकन प्रविधियों के प्रयोग की योग्यता तथा पाठ्य सहगामी क्रियाओं के संगठन की योग्यता।

3. अभिवृत्ति से सम्बन्धित उद्देश्य

(अ) शिक्षण व्यवसाय के प्रति स्वस्थ एवं सकारात्मक दृष्टिकोण ।

(ब) शिक्षण समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक एवं वस्तुपरक दृष्टिकोण ।

(स) अध्यापक में प्रजातान्त्रिक एवं राष्ट्रीय दृष्टिकोण होना चाहिये। छात्रों की समस्याओं के प्रति सहानुभूति पूर्ण दृष्टिकोण तथा उन्हें उचित अनुमति देना।

बी.एड. कार्यक्रम

उपरोक्त उद्देश्यों के परिपेक्ष्य में निम्न सिद्धान्त एवं अभ्यास पढ़ाया जाता है ।

सैद्धान्तिक पाठ्यक्रम 100 अंक का होता है ।

शिक्षण अभ्यास 200 अंक का होता है।

कार्यक्रम में निम्नलिखित सैद्धान्तिक पाठ्यक्रम सम्मिलित हैं-

1. शिक्षा के सिद्धान्त या शिक्षा के सामाजिक और दार्शनिक आधार ।

2. शैक्षिक मनोविज्ञान एवं प्रारम्भिक शैक्षिक सांख्यिकी ।

3. ऐतिहासिक यथार्थ चित्रण की कला में भारतीय शिक्षा की समस्यायें।

4. शिक्षण या शिक्षण तकनीकी विधियाँ

5. विद्यालीय विषयों की शिक्षण विधियाँ प्रारम्भिक पाठ्यक्रम के रूप में या एक विद्यालय विषय विशिष्ट पाठ्यक्रम के रूप में।

6. निम्न में से एक विशिष्ट या ऐच्छिक पाठ्यक्रम होता है-

(अ) शैक्षिक मापन और मूल्यांकन

(ब) शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन

(स) शैक्षिक प्रशासन और पर्यवेक्षण

(द) विद्यालय संगठन

(य) जनसंख्या शिक्षा

(र) स्वास्थ्य शिचा

(ल) बुनियादी शिक्षा

7. शिक्षा विधियाँ, विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले दो विषय ।

निम्नलिखित विषयों में से किन्हीं दो को अभ्यास शिक्षण के लिये चुना जाता है-

(अ) 1. भौतिक विज्ञान,2. रसायन विज्ञान,3. वनस्पति और4. सामान्य विज्ञान

(ब) 5. गणित,6. गृह विज्ञान,7. हिन्दी,8. संस्कृत,9. अंग्रेजी, 10. इतिहास, 11. भूगोल,12. अर्थशास्त्र,13. नागरिकशास्त्र,14. सामाजिक अध्ययन, 15. कृषि और 16. वाणिज्य।

प्रत्येक छात्र-अध्यापक को प्रत्येक विषय के 20 पाठ पढ़ाने होते हैं। इस प्रकार से अन्तिम परीक्षा में सम्मिलित होने के लिये 40 पाठ पढ़ाना आवश्यक है। विषय विशेषज्ञ द्वारा आदर्श-पाठ एवं प्रदर्शन-पाठ पढ़ाये जाते हैं । इस समय विभिन्न शिक्षा विभागों में सूक्ष्म-शिक्षण एवं अनुकरणीय शिक्षण का संगठन बी.एड. पाठ्यक्रम में किया जाता है। अन्तिम परीक्षा में प्रत्येक छात्राध्यापक द्वारा दो पाठ पढ़ाये जाते हैं जिसमें एक पाठ प्रत्येक विषय के से पढ़ाना आवश्यक है। प्रायोगिक परीक्षा के पहले सत्रीय कार्य का जमा करना आवश्यक है। प्रायोगिक परीक्षा का तरीका एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में बदलता है, परन्तु कुल मिलाकर सभी विश्वविद्यालयों में एक जैसा उपाय है। बी.एड. परीक्षा में सिद्धान्त तथा प्रयोगात्मक में अलग-अलग श्रेणियाँ प्रदान की जाती हैं। विद्यालय एवं शिक्षा समस्या पर विचार गोष्ठी

छात्र अध्यापक को भी माध्यमिक विद्यालयों की कुछ समस्याओं से परिचित कराना चाहिए तथा भारतीय शिक्षा की समस्याओं भी उन्हें समझ सके, लेकिन इसका अच्छा ज्ञान विचार गोष्ठी एवं चर्चाओं के माध्यम से ही सम्भव है। इसलिये यह आवश्यक है कि छात्राध्यापकों को (2-4) ऐसी विचारगोष्ठी करायी जायें जिससे वे विद्यालय एवं शिक्षा की समस्याओं से ज्ञान प्राप्त कर सकें।


पाठ्यक्रम-आकार बड़ा नहीं होना चाहिए

उपरोक्त पाठ्यक्रम कुछ आलोचनाओं को जन्म देते हैं कि वर्तमान बी.एड. और एम.एड. पाठ्यक्रम सामान्य सैद्धान्तिक विषयों की संख्या वही पुरानी ही है। इन आलोचनाओं से बचने का उपाय यह है कि पाठ्यवस्तु संक्षिप्त हो तथा सक्षम्य अध्यापकों को तैयार करने के उद्देश्य के उपयुक्त हो । वर्तमान बी.एड. एवं एम.एड. के सैद्धान्तिक प्रश्न-पत्र में पाठ्यवस्तु की अधिकता होती है जो प्रभावी अध्यापक तैयार करने में सीधा सहयोग नहीं देता इसे सावधानीपूर्वक छोटा किया जा सकता है । सर्वोत्तम पाठ्यक्रम उसे कहा जा सकता है जिसे पूरा करने के लिए (12-14) व्याख्यानों की आवश्यकता होती है हमें सुसंरचित तथा उद्देश्य केन्द्रित सैद्धान्तिक पाठ्यक्रम का अप्रयोग करना चाहिये।


अधिगम में छात्र अध्यापकों की और संलग्नता

यदि बी.एड. पाठ्यक्रमों में सुधार लागू कर दिये जायें और अध्यापक-प्रशिक्षण की प्रणाली में भी सुधार कर दिये जायें, तब भी सब कुछ ठीक नहीं कहा जायेगा। छात्र अध्यापकों को केवल सुसंरचित एवं सैद्धान्तिक पाठ्यक्रम केन्द्रित पाठ्यक्रम के सहारे ही नहीं छोड़ा जा सकता है, बल्कि उन्हें इस प्रकार से पढ़ाया जाये जिससे वे बुद्धिमान बने, ज्ञान को सक्रिय होकर प्राप्त करें और जो वांछित कौशलों की प्राप्ति में उसकी मदद करें, उनमें वांछित रुचि पैदा करें एवं वांछित दृष्टिकोण का विकास करें, और ऐसा व्याख्यानात्मक उपदेश के द्वारा नहीं बल्कि व्यावहारिक कार्य एवं उनकी सीधी संलग्नता से सम्भव हो सकता है । यह मेरा अपना विचार है कि जब तक हम अपने शिक्षण को प्रभावी नहीं बनायेंगे, व्याख्यान को कम नहीं करेंगे, अपने छात्राध्यापकों को वार्तालाप में अधिक संलग्न नहीं करेंगे. जब तक हम उन्हें शैक्षिक नहीं छोड़ेंगे। तब तक हम समर्थ अध्यापक निर्मित नहीं कर सकते जो अपने बारे में सोचे तथा उन विधियों एवं आयामों के विकास के बारे में सोचे जो उनकी योग्यताओं के अनुरूप हों और जो विद्यालय की आवश्यकताओं से जुड़ी हों। हमें अपने छात्र अध्यापकों की सृजनात्मक योग्यताओं को विकसित करने की जरूरत है, जो आज के दशक में तीव्रता से बदलते हुए आर्थिक एवं सामाजिक परिवर्तनों की आवश्यकता है और तभी यह अपेक्षा करना व्यावहारिक होगा कि भारत का भाग्य उसकी विद्यालय की कक्षाओं में निर्मित होता है। ऐसा कहा जाता है कि भारत का सामाजिक प्रारूप इन दिनों निर्मित हो रहा है। हमारे छात्र अध्यापक जो देश के विद्यालयों में जा रहे हैं जो कि सृजन के केन्द्र हैं उन्हें सर्वोत्तम सम्भव प्रशिक्षण पाने का अधिकार है ताकि वे इस के इस पुनीत कार्य को पूरा कर सकें।

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