पाठ्यक्रम का चयन, श्रेणीबद्धता एवं संगठन के बारे में लिखो।

Estimated reading: 1 minute 74 views

पाठ्यक्रम का चयन हमेशा शैक्षिक उद्देश्यों के आधार पर किया जाता है। पाठ्यक्रम का चयन करने के बाद उसको श्रेणीबद्ध किया जाता है जिससे अभिगम उद्देश्यों की आसानी से पूर्ति हो सके। जो पाठ्यक्रम शैक्षिक उद्देश्यों को पूरा नहीं करता है, वह पाठ्यक्रम उचित नहीं माना जाता है। शैक्षिक उद्देश्य हमेशा स्तर के अनुसार निर्धारित किये जाते हैं। चयन हेतु पाठ्यक्रम को विविध आधारों में विभक्त कर लेते हैं एवं उसी के आधार पर अन्तर्वस्तु को श्रेणीबद्ध करते हैं। श्रेणीबद्ध करते समय पाठ्यक्रम हमेशा सरलता से कठिनता के क्रम में रखा जाता है । इसके अतिरिक्त 50% पाठ्यक्रम सामान्य श्रेणी के बालकों के मानसिक स्तर के अनुसार क्रमबद्ध की जाती है एवं 25% प्रश्न औसत से निम्न रखे जाते हैं तथा 15% उच्च औसत एवं 10% प्रतिभाशाली बच्चों के लिए चयनित किये जाते हैं। पाठ्यक्रम की श्रेणीबद्धता में रैकिंग मापनी का प्रयोग किया जाता है तत्पश्चात् पाठ्यक्रम का संगठन किया जाता है। पाठ्यक्रम का संगठन करते समय सभी तरह के पाठ्यक्रम प्रतिमान में कुछ दोष और कुछ गुण पाये जाते हैं। उदाहरण के लिए, विषय आधारित पाठ्यक्रम जहाँ ज्ञान और उपादेय चिन्तन का साधन हो सकता है वहीं दूसरी तरफ उसमें सर्वोमुखी शिक्षा हेतु पर्याप्त अवसर नहीं होता है एवं उसमें ज्ञान टुकड़ों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है ।

व्यापक क्षेत्रीय संगठन जहाँ एक तरफ ज्ञान को संगठित करने में मददगार सिद्ध होता है वहीं दूसरी तरफ उसमें बुद्धिरहित सतही सामान्यीकरण का भय रहता है। इसी तरह पाठ्यक्रम हालांकि संगठित ज्ञान को अधिक अवसर प्रदान करता है, लेकिन उसकी यह कहकर आलोचना की जाती है कि इसमें जीवन क्रियाओं, सामाजिक प्रक्रियाओं एवं समस्याओं को अलग-अलग विषयों के टुकड़े-टुकड़े करके प्रस्तुत किया जाता है एवं इस तरह ज्ञान का व्यवस्थित रूप नहीं उभर पाता है । पाठ्यक्रम (अन्तर्वस्तु) का संगठन उद्देश्यों की पूर्ति के साधन मात्र हेतु किया जाता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि भिन्न-भिन्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु भिन्न-भिन्न संगठनात्मक प्रतिमान अनुकूल होंगे ।


पाठ्यक्रम का चयन

किसी भी समाज हेतु शिक्षा के विभिन्न स्तरों के लिए पाठ्यक्रम का चयन करते समय दार्शनिक विचारधाराओं, सामाजिक मूल्यों, विश्वासों एवं परम्पराओं, राजनीतिक विचारधारा, मनोवैज्ञानिक तथा वैज्ञानिक प्रवृत्तियों आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । पाठ्यक्रम के चयन में इनके प्रभावों को सिद्धान्तों के रूप में बाँध दिया गया है। उदाहरणार्थ, दर्शनशास्त्र के प्रभाव के परिणामस्वरूप पैदा मुख्य सिद्धान्त यह है कि पाठ्यक्रम का चुनाव सामाजिक आवश्यकताओं के आधार पर करना चाहिए। इसमें समाज हेतु उपयोगी अनुभवों तथा क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए । मनोविज्ञान पाठ्यक्रम के चुनाव में सबसे ज्यादा बल बालकों की रुचि, रुझान एवं योग्यता पर बल देता है। वैज्ञानिक प्रवृत्ति को विकसित करने वाले विषयों एवं क्रियाओं का समावेश आज पाठ्यक्रम की अनिवार्य जरूरत बन गयी है क्योंकि मानव जीवन के लिए क्या उपयोगी है एवं क्या नहीं तथा किसी वस्तु को मानव जीवन हेतु कैसे उपयोगी बनाया जा सकता है है। इन प्रश्नों का समाधान विज्ञान ही कर सकता है ।

इस तरह पाठ्यक्रम का चुनाव करते समय सामाजिक दार्शनिक मनोवैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक प्रवृत्तियों के महत्त्व के आधार पर कुछ सिद्धान्तों का अनुसरण किया जाता है, जैसे-जीवन से सम्बन्धित होने का सिद्धान्त, बाल-केन्द्रीयता का सिद्धान्त, शैक्षिक उद्देश्यों से अनुरूपता का सिद्धान्त,रचनात्मक तथा सृजनात्मक शक्तियों के उपयोग का सिद्धान्त,खेल तथा कार्य की क्रियाओं के अन्तर्सम्बन्ध का सिद्धान्त, जीवन की अवस्थाओं का सिद्धान्त, सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त, जनतन्त्रीय भावना के विकास का सिद्धान्त, अवकाश हेतु प्रशिक्षण का सिद्धान्त, सामुदायिक जीवन से सम्बन्ध का सिद्धान्त, विकास की सतत प्रक्रिया का सिद्धान्त, जीवन सम्बन्धी क्रियाओं तथा अनुभवों का सिद्धान्त, उत्तम आचरण के आदर्शों की प्राप्ति का सिद्धान्त, अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त, अग्रदर्शिता का सिद्धान्त, व्यक्तिगत भिन्नता तथा लचीलेपन का सिद्धान्त, संस्कृति तथा सभ्यता के ज्ञान का सिद्धान्त । इन सिद्धान्तों के आधार पर ही शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है । सामान्यतः सभी जगह पाठ्यक्रम की अलग-अलग विषयों के रूप में नियोजित किया है। विषयों के विकास का मूल मध्य युग के यूनानी एवं रोमन काल की सात उदार कथाओं में है। कुछ विषय पाठ्यक्रम में एक लम्बे समय से परम्परागत रूप से शामिल किये जाते रहे हैं, लेकिन इसका कोई औचित्य समझ में नहीं आता है। इसे अच्छी स्थिति नहीं कहा जा सकता है। प्रत्येक अन्तर्वस्तु चयन के पीछे कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होना चाहिए।

पाठ्यक्रम का चुनाव करते समय हर प्रकरण को पाठ्यवस्तु का हिस्सा बनाने का कोई-न-कोई कारण जरूर होता है, परन्तु बाद में उस कारण को भुला दिया जाता है । उद्देश्य के बगैर किसी विषय अथवा प्रकरण को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने की परम्परा बहुत कुछ संकाय मनोविज्ञान एवं मानसिक अनुशासन में विश्वास तथा अधिगम-स्थानान्तरण के सम्बन्ध में भ्रान्त धारणाओं के कारण है । निःसन्देह कुछ विषयों में मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने की ज्यादा शक्ति पायी जाती है। इन विषयों का ज्ञान चाहे किसी भी विधि से प्राप्त किया गया हो, वह एक रहस्यमय ढंग से छात्रों के मस्तिष्क को इस तरह अनुशासित कर देता है कि वे तथ्यों तथा प्रक्रियाओं को सीख लेते हैं एवं उनका अन्यत्र उपयोग भी कर सकते हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य विषय-वस्तु पर अधिकार प्राप्त करना भी होता है । इस दृष्टिकोण की इतनी बहुलता है कि शैक्षिक गिरावट की स्थितियों में भी जन-सामान्य, विशेषज्ञ तथा शिक्षक भी पाठ्यक्रम में विषयवस्तु के ज्ञान को ज्यादा विस्तृत एवं गहन करने की माँग करने लगते हैं लेकिन ऐसा करते समय वे अधिगम कार्य में प्रक्रिया की भूमिका को अनदेखा करते हैं।

कई अध्ययनों एवं अनुभवों से यह स्पष्ट हो चुका है कि पाठ्यक्रम की विषय-वस्तु पर अधिकार होने पर भी सभी व्यक्ति उस ज्ञान का वास्तविक परिस्थितियों में उपयोग नहीं कर पाते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ लगाना असंगत होगा कि प्रक्रिया विषय-वस्तु से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। ऐसा मानने का अर्थ तो यह होगा कि विषय-वस्तु की उपादेयता, उसकी प्रकृति की बजाय उन अधिगम-अनुभवों पर ज्यादा निर्भर होगी जो उसके साथ सम्बद्ध किये जाते हैं। दूसरी तरफ यह निष्कर्ष भी दोषपूर्ण होगा कि सभी विषयों का समान महत्त्व है क्योंकि यह तो स्पष्ट है कि कुछ विषयों के उपयोजन क्षेत्र दूसरों से ज्यादा व्यापक भी होते हैं |

चयन की अन्रु सामान्य स्थितियों की तरह ही पाठ्यक्रम चयन में भी प्राय: उपयोगिता एवं सार्थकता को आधार बनाने का प्रयास किया जाता है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी यही पता चलता है कि आदिकाल से ही पाठ्यक्रम की अन्तर्वस्तु का निर्धारण शैक्षिक उद्देश्यों के आधार पर ही किया जाता रहा है, लेकिन इस सम्बन्ध में विशेष जागरूकता एवं निरन्तरता बीसवीं शताब्दी के शुरू में आई है एवं इस दिशा में विधिवत् प्रयास अपेक्षाकृत आधुनिक प्रवृत्ति है।

पाठ्यक्रम का चयन करते समय पाठ्यक्रम निर्माता के सामने कुछ समस्याएं भी आती हैं, जैसे-व्यक्तिगत भिन्नताएं, वर्तमान एवं निकट भविष्य में छात्र-संख्या की प्रकृति तथा संरचना, छात्रों की वर्तमान तथा भविष्य की आवश्यकताएं, निर्धनता उन्मूलन हेतु सर्वाधिक उत्पादन क्षमता की आवश्यकता, लोकतान्त्रिक नागरिकता का विकास तथा उसकी आवश्यकता, उपयोगिता या प्रदत्त सूचनाओं से जुड़ी सीमाएं, विषय की प्रकृति तथा संरचना से जुड़ी सीमाएं, प्रत्येक स्तर पर छात्रों के विकास तथा उनकी क्षमताओं से जुड़ी सीमाएं । इसलिए पाठ्यक्रम के चुनाव में कई तथ्यों को ध्यान में रखना पड़ता है ।


पाठ्यक्रम की श्रेणियाँ

पाठ्यक्रम की संरचना करने हेतु उसे कई श्रेणियों में विभाजित किया जाता है । सामान्य तौर पर पाठ्यक्रम को निम्नांकित श्रेणियों में बाँटा जाता है-

1. प्राथमिक स्तर पर पाठ्यक्रम– प्राथमिक स्तर के पाठ्यक्रम को श्रेणीरहित बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है। कोठारी आयोग के सुझाव के अनुसार निम्न प्राथमिक विद्यालयों की श्रेणी रहित बना देना चाहिए । इसके अन्तर्गत प्रथम दो कक्षाओं को एक इकाई माना जाना चाहिए एवं तीसरी तथा चौथी कक्षा को द्वितीय इकाई समझा जाना चाहिए । श्रेणीरहित पाठ्यक्रम की स्थापना के पीछे यह धारणा है कि हर बालक को अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ने का अवसर दिया जाए। वर्तमान समय में भी प्राथमिक विद्यालयों में इसे थोड़ा-सा संशोधित करके लागू करने का प्रयत्न किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत कक्षा एक चार तक छात्रों की कोई बाह्य परीक्षा नहीं होती एवं उन्हें अति-सामान्य परीक्षा की औपचारिकता के बाद अगली कक्षा में प्रवेश दे दिया जाता है। कक्षा पाँच हेतु स्थानीय स्तर पर परीक्षा आयोजित की जाती है। इस तरह कक्षा एक से पाँच तक अपरोक्ष रूप से एक इकाई का ही रूप होता है। प्राथमिक स्तर पर श्रेणीरहित पाठ्यक्रम होने पर शिक्षकों को शिक्षण करते समय अग्रलिखित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है-

(i) छात्रों के पूर्व-व्यवहार की अनिश्चितता

(ii) व्यक्तिगत भिन्नता

(iii) पाठ्यवस्तु के निर्धारण में कठिनाई

(iv) शिक्षण-युक्तियों तथा प्रविधियों के निर्णय में कठिनाई ।

(v) मूल्यांकन की समस्या

2. माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम- माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम का चुनाव करते समय यह ध्यान में रखा जाता है कि पाठ्यक्रम का विस्तार हो एवं प्राथमिक स्तर पर जिस प्रकरण का ज्ञान छात्रों को दिया जा चुका है उससे आगे ज्ञान की प्रक्रिया को बढ़ाया जाए, ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। ज्ञान को कई टुकड़ों में बाँटकर छात्रों के सामने पेश किया जाता है। पाठ्यक्रम को श्रेणीबद्ध करते समय अगला स्तर पहले से अधिक कठिनाई के क्रम में श्रृंखलित किया जाता है। माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम में उपयोगी विषयों का चुनाव किया जाता है एवं चयनित विषयों की मूल सामान्य जानकारी छात्रों को प्रदान की जाती है। वर्तमान समय में कक्षा दस पाठ्यक्रम में अधिक-से-अधिक विषयों की सामान्य जानकारी छात्रों को प्रदान की जाती है।

3. उच्च माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम- उच्च माध्यमिक स्तर पर विषयों को समूहों में बाँट दिया जाता है-विज्ञान समूह, कॉमर्स समूह एवं कला समूह । पाठ्यक्रम विषयों के प्रकरणों का चयन समूहों के आधार पर किया जाता है। विभिन्न विषयों के लिए भिन्न प्रकरणों का चुनाव किया जाता है। पाठ्य-सामग्री का चुनाव करते समय इन समूहों को ध्यान में रखा जाता है।

4. उक्त/स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम- उच्च/स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम का विस्तार हो जाता है। विविध समूहों हेतु उपयोगी विषयों का चुनाव करके उस विषय से सम्बन्धित विविध प्रकरणों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाता है। कॉमर्स समूह में अर्थशास्त्र, कम्प्यूटर, कर-निर्धारण लेखा, वित्त आदि से सम्बन्धित प्रकरणों को शामिल किया जाता है जबकि विज्ञान समूह में रसायनशास्त्र, भौतिक विज्ञान तथा गणित को एक समूह में रखा जाता है एवं दूसरे समूह में जीवविज्ञान की शिक्षा दी जाती है । कला वर्ग में विभिन्न महत्त्वपूर्ण विषय, जैसे-अंग्रेजी, हिन्दी, साहित्य, भाषा, संस्कृत, गृहविज्ञान, सैन्यशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र से सम्बन्धित प्रकरणों को पाठ्यक्रम में रखा जाता है।

उच्च/स्नातिक स्तर के पाठ्यक्रम में विविध वर्गों का विशेषीकरण की दिशा में पाठ्यक्रम बढ़ना शुरू हो जाता है। इस स्तर तक सभी विषयों को मौलिक जानकारी छात्र को उपलब्ध करा दी जाती है।

5. स्नातकोत्तर स्तर पर पाठ्यक्रम- स्नातकोत्तर स्तर पर पाठ्यक्रम के विषयों का विशेषीकरण शुरू हो जाता है। हर विषय पर पाठ्यक्रम उसके विविध महत्त्वपूर्ण अंगों को ध्यान में रखकर चुना जाता है। इस स्तर पर पाठ्यक्रम का चुनाव करते समय प्रत्ययों का स्पष्टीकरण करने का प्रयत्न किया जाता है। अन्तर्वस्तु का चयन इस तरह किया जाता है जिससे छात्र उस विषय के सभी अंगों का ज्ञान एक विशेषज्ञ के तौर पर ज्ञात कर सकें। स्नातकोत्तर स्तर पर पाठ्यक्रम का चयन विषय विशेषज्ञ के तौर पर किया जाता है। इस स्तर पर सभी प्रत्ययों का अन्तर्सम्बन्ध, विभेदों तथा प्रत्ययों का ज्ञान दिया जाता है।

6. प्रशिक्षण स्तर पर पाठ्यक्रम- प्रशिक्षण स्तर पर पाठ्यक्रम का चुनाव करते समय छात्र किस व्यवसाय में पारंगत होना चाहता है, उसी के आधार पर निर्धारित किया जाता है। शिक्षक प्रशिक्षण देते समय सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक पाठ्यक्रम का चुनाव इस तरह किया जाता है जिससे छात्र प्रशिक्षण के पश्चात् शिक्षण कौशल में पारंगत हो सके। इसी तरह विभिन्न व्यवसायों के प्रशिक्षण स्तर पर छात्रों को रोजगारोपरक बनाने हेतु जिन कौशलों की जरूरत होती है उसी के आधार पर छात्र में कौशलों का विकास किया जाता है।

कुछ देशों में पाठ्यक्रम के पाठ्य विषयों को अनिवार्य तथा ऐच्छिक दो वर्गों में बाँट दिया गया है। अनिवार्य वर्ग में उन विषयों को अध्ययन होता है जो सभी छात्रों हेतु उपयोगी होते हैं। ऐच्छिक वर्ग में व्यावसायिक उपयोगिता की दृष्टि से विषयों अथवा विषय-समूहों को शामिल किया जाता है। छात्र अपनी योग्यता, अभियोग्यता एवं आकांक्षा के अनुरूप ऐच्छिक वर्ग से विषयों या विषय समूहों का चयन कर सकता है। कुछ देशों में आठ वर्ष की शिक्षा के बाद (निम्न माध्यमिक स्तर पर) इस तरह के विभिन्नीकरण एवं चयन की व्यवस्था की गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में तो इस तरह के चयन की और ज्यादा स्वतन्त्रता है एवं कोई निश्चित वर्ग अथवा समूह बनाने का प्रयत्न नहीं किया जाता है लेकिन ज्यादातर देशों में वहाँ की व्यावसायिक आवश्यकताओं की दृष्टि से विषय समूह बनाये जाते हैं ।


श्रेणीबद्धता एवं कठिनता स्तर

पाठ्यक्रम की अन्तर्वस्तु के सम्बन्ध में अधिगम योग्यता तथा कठिनता स्तर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनमें अन्तर सिर्फ इतना है कि कठिनता स्तर की बात वर्ग के स्तर से सम्बन्धित होती है एवं इसके अन्तर्गत यह देखा जाता है कि एक विशेष अन्तर्वस्तु किसी कक्षा विशेष के लिए उपयुक्त है या नहीं। अन्तर्वस्तु की उपयुक्तता को शिक्षार्थी की वैयक्तिकता की दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया जाता है ।

पाठ्यक्रम का संगठन

पाठ्यक्रम की संरचना छ: भिन्न तत्त्वों से मिलकर होती हैं-आयोजन अथवा प्रकल्प, क्षेत्र, अनुक्रम, सातत्य, सन्तुलन या विस्तार एवं एकीकरण।

सेलर तथा एलेक्जेण्डर ने पाठ्यक्रम का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है-“पाठ्यक्रम प्रकल्प आयोजन वह ढाँचा अथवा संरचना है जिसका विद्यालय में शैक्षिक अनुभवों को चुनने, नियोजित करने एवं कार्यान्वित करने में प्रयोग किया जाता है। इसलिए प्रकल्प वह योजना है जिसका सीखने की क्रियाओं को प्रदान करने हेतु शिक्षक द्वारा अनुसरण किया जाता है।”

पाठ्यक्रम संगठन के कई प्रतिमान हैं जिनमें भिन्न तरीकों से पाठ्यक्रम को संगठित किया जाता है। मैकेन्जी ने विविध पाठ्यक्रमों का अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि उनमें कुछ सैद्धान्तिक भेद यह है कि कुछ लोग पाठ्यक्रम के संगठन का आधार छात्रों की अभिरुचियों, आवश्यकताओं तथा अनुभवों को मानते हैं, जबकि दूसरे लोग विषयगत संगठन का समर्थन करते हैं । पाठ्यक्रम के विविध प्रतिमानों का संगठन भिन्न तरीके से होता है ।


भारत में पाठ्यक्रम का संगठन

(अ) परम्परागत रूप से पाठ्यक्रम का संगठन- भारत में पाठ्यक्रम का संगठन राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के अन्तर्गत प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा का राष्ट्रीय पाठ्यक्रम (1988) प्रस्तावित किया गया है। इस पाठ्यक्रम की मुख्य विशेषताएं अग्र तरह हैं-

(i) समान सामान्य पाठ्यक्रम

(ii) मूल्य शिक्षा

(iii) न्यूनतम अधिगम स्तर की सुनिश्चितता

(iv) कार्य-अनुभव प्रक्रिया का आवश्यक अंग

(v) राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 की भाषा-नीति को जारी रखना

(vi) शैक्षिक तकनीकी तथा संचार माध्यमों का सभी को लाभ

(vii) सांस्कृतिक विरासत तथा तकनीकी प्रगति में सन्तुलन

परम्परागत रूप से भारत में उक्त तरह की विशेषताओं से युक्त पाठ्यक्रम लागू किया जाता है।

Leave a Comment

CONTENTS