पाठ्यक्रम से आप क्या समझते हैं? इसका शिक्षा में क्या महत्व है?

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पाठ्यक्रम का अर्थ तथा परिभाषा

पाठ्यक्रम की सबसे लोकप्रिय परिभषा कनिंघम द्वारा दी गई मानी जाती है इसके अनुसार-“पाठ्यक्रम अध्यापक रूपी कलाकार के हाथ में वह साधन है जिसके माध्यम से वह अपने पदार्थ रूपी छात्र को अपने कलागृह रूपी स्कूल में अपने उद्देश्य के अनुसार विकसित या रूप प्रदान करता है।” इसमें कोई सन्देह नहीं कि कलाकार को अपने पदार्थ को अपने आदर्शों के अनुरूप ढालने की बहुत स्वतन्त्रता है, क्योंकि कलाकार का पदार्थ निर्जीव है। लेकिन स्कूल में अध्यापक का पदार्थ अर्थात छात्र सजीव है। पुराने समय में, जबकि आवश्यकताएँ सीमित थीं साधन सीमित थे, अध्यापक को अपने पदार्थ यानि कि छात्र को नया रूप देने में पूरी स्वतन्त्रता थी। लेकिन अब बदलती हुई परिस्थितियों में अध्यापक की यह महत्ता घट गई है। फिर भी निश्चय ही अध्यापक के हाथ में पाठ्यक्रम बहुत ही महत्वपूर्ण साधन है।

कैसवैल के अनुसार- “बालकों तथा उनके माता-पिता तथा शिक्षकों के जीवन में आने वाली सभी क्रियाओं को पाठ्यक्रम कहा जाता है। शिक्षार्थी के कार्य करने के समय जो कुछ भी कार्य होता है उस सबसे पाठ्यक्रम का निर्माण होता है। वस्तुत: पाठ्यक्रम को गतियुक्त वातावरण कहा गया है।”

रडयार्ड एवं हेनरी के अनुसार- “विस्तृत अर्थ में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत समस्त विद्यालय का वातावरण आता है जिसमें विद्यालय में प्राप्त सभी तरह के सम्पर्क, पठन, क्रियाएँ तथा विषय शामिल हैं।”

ब्रूवेकर लिखते हैं- “पाठ्यक्रम एक ऐसा क्रम है जो किसी व्यक्ति को गन्तव्य स्थान पर पहुंचाने हेतु तय करना पड़ता है।”

ड्यूवी के अनुसार- “पाठ्यक्रम सिर्फ अध्ययन की योजना अथवा विषय-सूची ही नहीं, वरन कार्य तथा अनुभव की श्रृंखला है। पाठ्यक्रम समाज में कलात्मक ढंग से परस्पर रहने हेतु बच्चों के प्रशिक्षण का शिक्षकों के पास एक साधन है।”

संक्षेप में, पाठ्यक्रम सुनिश्चित जीवन का दर्पण है जो विद्यालय में पेश किया जाता है।  


पाठ्यक्रम की आवश्यकता

शिक्षा तथा पाठ्यक्रम की जरूरत समान है। लेकिन ऐतिहासिक समीक्षा से विदित होता है कि ये आवश्यकतायें बदलती रही हैं। अतएव इन सभी आवश्यकताओं का उल्लेख यहाँ पर किया गया है।

(1) ज्ञान प्राप्त करने हेतु अन्य जीवों से मुख्य भिन्नता मानवी ज्ञान की दृष्टि मानी जाती है।

(2) मानसिक पक्षों का प्रशिक्षण एवं विकास करने हेतु विभिन्न विषयों के शिक्षण से मानसिक पक्षों का प्रशिक्षण किया जाता है।

(3) व्यवसाय एवं नौकरियों हेतु तैयार करना।

(4) छात्रों में अभिरुचियाँ पैदा करने हेतु छात्रों की क्षमताओं के अनुरूप उनका विकास करना।

(5) प्रजातन्त्र में सामाजिक क्षमताओं का विकास करना ऐसे नागरिकों को तैयार करना है, जो प्रजातन्त्र को नेतृत्व प्रदान कर सकें।

(6) छात्रों को व्यवसायों हेतु प्रशिक्षण तैयार करना नई शिक्षा नीति की प्राथमिकता है।

(7) मानवीय गुणों के विकास हेतु पाठ्यक्रम को शिक्षा में महत्व दिया जाता है, जिससे आत्मानुभूति का विकास किया जाय।

(8) सामाजिक आवश्यकताओं हेतु नागरिकों को तैयार करना एवं सौंदर्यानुभूति आदि गुणों का विकास करना।

(9) मुख्य आवश्यकता आज जीने की है जिससे आज परिस्थितियों में जीवित रह सकें। इसके लिए प्रशिक्षण दिया जाय।

(10) छात्रों को भावी जीवन हेतु तैयार कर सकें। शिक्षा भावी जीवन-यापन के लिये दी जाती है।

(11) तकनीकी विकास एवं वैज्ञानिक आविष्कारों हेतु भी तैयार करना। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है, जो सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक नियन्त्रण हेतु प्रभावी यन्त्र है। अतएव समाज की, राष्ट्र की भावी आवश्यकताओं तथा परिवर्तन हेतु पाठ्यक्रम का विकास करना मुख्य आवश्यकता है –


पाठ्यक्रम को प्रभावित करने वाले घटक

पाठ्यक्रम का सम्पादन शैक्षिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में किया जाता है। अतएव शैक्षिक एवं सामाजिक घटक पाठ्यक्रम को प्रभावित करते हैं। ये घटक निम्न तरह हैं-

1. शिक्षा व्यवस्था- शिक्षा के इतिहास से यह विदित होता है कि अतीत काल से ही शिक्षा व्यवस्था तथा पाठ्यक्रम का गहन संबंध रहा है एवं वे एक दूसरे को प्रभावित करते रहे हैं। पाठ्यक्रम प्राय: लचीला एवं परिवर्तनशील रहा है। छोटे बालकों का पाठ्यक्रम अनुभव केन्द्रित रहा है। माध्यमिक स्तर पर विषय-केन्द्रित रहा है। शिक्षा व्यवस्था के बदलने के साथ ही पाठ्यक्रम का प्रारूप भी बदल जाता है।

2. परीक्षा प्रणाली- परीक्षा प्रणाली पाठ्यक्रम को प्रभावित करती है। निबन्धात्मक परीक्षा के पाठ्यक्रम का स्वरूप वस्तुनिष्ठ परीक्षा से बिल्कुल ही भिन्न तरह का होता है। वस्तुनिष्ठ परीक्षा में पाठ्यक्रम से सूक्ष्म पाठ्यवस्तु पर ही प्रश्न पूछे जाते हैं वहीं निबन्धात्मक परीक्षा में

पाठ्यवस्तु के व्यापक-स्वरूप पर प्रश्न पूछे जाते हैं। निबन्धात्मक परीक्षा से उच्च उद्देश्यों का मापन किया जाता है, वहीं वस्तुनिष्ठ से निम्न उद्देश्यों का ही आंकलन किया जाता है।

3. शासन पद्धति- शिक्षा द्वारा राष्ट्र एवं समाज की जरूरतों की पूर्ति की जाती है शासन प्रणाली बदलने से पाठ्यक्रम के प्रारूप को बदलना होता है। केन्द्र एवं राज्य स्तर पर सत्ता बदलते ही पाठ्यक्रम के प्रारूप पर प्रभाव पड़ता है। पाठ्यक्रम के विशिष्ट प्रारूप को केन्द्रीय सरकार प्रभावित करती है। रूस में शासन सत्ता बदलने से पाठ्यक्रम का प्रारूप बिल्कुल ही बदला जा रहा है। भारत में राज्य अथवा प्रदेश द्वारा व्यवस्था की जाती है। अतएव शिक्षा का कोई राष्ट्रीय प्रारूप नहीं है। सभी प्रदेशों के पाठ्यक्रम के प्रारूप विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग हैं।

4. अध्ययन समिति- पाठ्यक्रम के प्रारूप का निर्माण अध्ययन समितियों के द्वारा किया जाता है। विभिन्न स्तरों पर अध्ययन समितियों के द्वारा पाठ्यक्रम का निर्माण एवं सुधार किया जाता है। अध्ययन समिति के सदस्य समझबूझ एवं अनुभवों द्वारा ही पाठ्यक्रम के प्रारूप को विकसित करते हैं। अतएव इन सदस्यों की अभिरुचियों, अभिवृत्तियों एवं मानसिक क्षमताओं का सीधा प्रभाव पड़ता है। प्रायः अध्ययन समिति के अध्यक्ष ही पाठ्यक्रम का प्रारूप बनाते हैं तथा उसे बदलते हैं। अन्य सदस्य मात्र अनुमोदन ही करते हैं।

5. राष्ट्रीय आयोग एवं समितियाँ- शिक्षा में सुधार तथा विकास के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आयोग एवं समितियाँ गठित की जाती हैं। भारत में स्वतंत्रता के बाद से कई आयोग एवं समितियाँ गठित की गयीं। उन्होंने विश्वविद्यालय, माध्यमिक एवं प्राथमिक स्तर पर सुधार हेतु सुझाव दिये तथा उन सुझावों को लागू करने का प्रयत्न किया गया, जिससे पाठ्यक्रम के प्रारूप को भी बदलना पड़ा। राष्ट्रीय नीति में व्यावहारिक शिक्षा को ज्यादा महत्व दिया गया है। अतएव माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का प्रारूप विकसित किया गया है। शिक्षा के आयोगों एवं समितियों के सुझावों के आधार पर भी पाठ्यक्रम का प्रारूप प्रभावित होता है।

6. सामाजिक परिवर्तन- सामाजिक परिवर्तन में आर्थिक, भौतिक परिवर्तन की गति ज्यादा तीव्र है, अतएव ये आर्थिक एवं भौतिक परिवर्तन भी पाठ्यक्रम को प्रभावित करते हैं विज्ञान एवं तकनीकी ने सामाजिक जीवन को ज्यादा प्रभावित किया है। अतएव व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के साथ तकनीकी के प्रशिक्षण (कम्प्यूटर) आदि संबंधी नये पाठ्यक्रम विकसित किये जा रहे हैं। शिक्षा के अन्तर्गत दूरवर्ती शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ है, जिसमें माध्यमों एवं सम्प्रेषण विधियों को विशेष महत्व दिया जा रहा है।

सामाजिक तथा पारिवारिक परम्परायें एवं अतीत के मूल्य और मान्यतायें भी पाठ्यक्रम के प्रारूप को प्रभावित करती हैं। पाठ्यक्रम का प्रारूप भावी जीवन की तैयारी की दृष्टि से विकसित किया जाता है छात्र, परिवार, विद्यालय व्यवस्था, सामाजिक परिवर्तन एवं आवश्यकतायें पाठ्यक्रम के प्रारूप को विकसित करने में मददगार होते हैं लेकिन अतीत कालीन परम्पराओं तथा भावी जीवन में समन्वय स्थापित करना पड़ता है। छात्र की सामान्य एवं विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है।


पाठ्यक्रम के विभिन्न प्रकार

पाठयक्रम संगठन के विषय में अलग-अलग दृष्टिकोण होते हैं। अतएव पाठ्यक्रम भी कई तरह के होते हैं। पाठ्यक्रम के निम्न प्रकार हैं।

1. विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम- विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को कहते हैं जिसमें बालकों की बजाय विषयों को अधिक महत्व दिया जाता है। क्योंकि इस तरह के पाठ्यक्रमों में पुस्तकों का विशेष महत्व होता है, अतएव इस पाठ्यक्रम को “पुस्तक केन्द्रित पाठ्यक्रम” भी कहते हैं। हमारे देश में इसी तरह का पाठ्यक्रम प्रचलित है।


विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम के दोष- विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम के निम्न दोष हैं –

(1) अमनोवैज्ञानिक है अर्थात इसके अन्तर्गत बालकों की रुचियों, आवश्यकताओं एवं योग्यताओं का कोई ध्यान नहीं रखा जाता।

(2) यह कठोर होता है।

(3) इसके द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास नहीं किया जा सकता।

(4) इसके द्वारा बालकों में जनतान्भित भावनाओं का विकास नहीं किया जा सकता है।

(5) यह पाठ्यक्रम बालकों में रटने की आदत तथा सिर्फ परीक्षा पर ही बल देता 1


विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम के लाभ- उक्त दोषों के होते हुए भी विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम के कई लाभ हैं, जैसे –

(1) इस पाठ्यक्रम में उद्देश्य स्पष्ट होता है।

(2) इसका संगठन सरल होता है अर्थात यह आसानी से समझ में आ जाता है।

(3) इसमें आसानी से परिवर्तन भी किया जा सकता है।

(4) इसकी विषय-वस्तु पहले से ही निश्चित होती है, जिससे शिक्षक एवं बालक दोनों को पहले से ही इस बात का पता चल जाता है कि उन्हें क्या-क्या पढ़ाना है या कैसे-कैसे पढ़ना है

(5) यह एक निश्चित सामाजिक एवं शैक्षिक विचारधारा पर आधारित होता है।

(6) इसके द्वारा विभिन्न विषयों में सह-संबंध स्थापित किया जा सकता है।

(7) इसके द्वारा परीक्षा लेने में भी आसानी होती है। उक्त गुणों के कारण विषय केन्द्रित पाठ्यक्रम को बालक, शिक्षक एवं अभिभावक सभी वर्ग हृदय से पसन्द करते हैं।

2. अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम- अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को कहते हैं, जिसमें बालक के विकास के लिए अनुभवों को विशेष महत्व दिया जाता है। दूसरे शब्दों में अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम विषयों की बजाय अनुभवों पर आधारित होता है।

अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम के दोष- अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम के निम्न दोष हैं

(1) अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम अस्पष्ट होता है अर्थात इसके अंतर्गत शिक्षा का उद्देश्य स्पष्ट नहीं होता।

(2) इसके प्रयोग में समय ज्यादा लगता है।

(3) अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम के ज्ञान का क्रम भी नहीं होता।

(4) इसके अन्तर्गत क्रियाओं तथा अनुभवों का निश्चित क्रम भी नहीं होता।

(5) इस पाठ्यक्रम को क्रियान्वित करने हेतु ज्यादा धन की आवश्यकता होती है।

(6) अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम को सफल बनाने हेतु बुद्धिमान शिक्षकों की जरूरत है।

(7) इसके द्वारा बालकों की प्रगति का मूल्यांकन बहुत कठिन है।

(8) अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम के द्वारा विभिन्न अनुभवों का एक दूसरे से सह-संबंध भी स्थापित नहीं किया जा सकता है।

अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम के गुण- उक्त दोषों के होते हुए भी अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम के कई लाभ है

(1) यह मनोवैज्ञानिक है अर्थात एक पाठ्यक्रम का बालकों की रुचियों, आवश्यकताओं, एवं योग्यताओं से संबंध होता है।

(2) यह लचीला एवं प्रगतिशील होता है।

(3) इसके द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास सम्भव है।

(4) यह भौतिक एवं सामाजिक वातावरण का अधिक से अधिक प्रयोग करता है।

(5) इसका आधार भी जनतान्त्रिक होता है।

(6) अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम द्वारा स्कूल तथा समाज में संबंध स्थापित किया जाता है।

(7) यह बालकों की मानसिक तथा सर्जनात्मक योग्यताओं को विकसित कर, उनमें नेतृत्व तथा स्वानुशासन का विकास करता है –

3. कार्य-केन्द्रित पाठ्यक्रम- कार्य-केन्द्रित पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को कहते हैं जिसमें विभिन्न कार्यों को विशेष स्थान दिया जाता है। जॉन डीवी का मत है कि कार्य-केन्द्रित पाठ्यक्रम द्वारा बालक समाज उपयोगी कार्यों के करने में रुचि लेते है जिससे उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होना तय है।

4. बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम- बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को कहते हैं जिसमें विषयों की बजाय बालक को मुख्य स्थान दिया जाता है। ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण बालक की विभिन्न अवस्थाओं की रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं एवं योग्यताओं के अनुसार किया जाता है, जिससे उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता रहे। मॉन्टेसरी, किन्डरगार्टन एवं योजना पद्धतियाँ बालकेन्द्रित-पाठ्यक्रम के ही उदाहरण हैं।

5. शिल्पकला-केन्द्रित पाठ्यक्रम- शिल्पकला-केन्द्रित पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को कहते हैं जिसमें शिल्प-कलाओं जैसे कताई, बुनाई, चमड़े एवं लकड़ी के काम आदि को केन्द्र मानकर दूसरे विषयों की शिक्षा दी जाय। हमार देश की वर्तमान बेसिक शिक्षा’ में इस तरह के पाठ्यक्रम का विशेष महत्व है।

6. सुसम्बद्ध पाठ्यक्रम- सुमम्बद्ध पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को कहते हैं, जिसमें विभिन्न विषयों को अलग-अलग न पढ़ा कर एक दूसरे से संबंधित करके पढ़ाने की व्यवस्था हो। वस्तुस्थिति यह है कि ज्ञान एक इकाई है। अतः सुसंबद्ध पाठ्यक्रम इस बात पर बल देता है कि बालक के सामने ज्ञान को विभिन्न विषयों में अलग-अलग न बाँट कर संबंधित रूप में पेश किया जाना चाहिये।

7. कोर-पाठ्यक्रम- कोर-पाठ्यक्रम उस पाठ्यक्रम को कहते हैं जिसमें कुछ विषय तो अनिवार्य होते हैं एवं ज्यादा विषय ऐच्छिक। अनिवार्य विषयों का अध्ययन करना हर बालक हेतु अनिवार्य होता है एवं ऐच्छिक विषयों को व्यक्तिगत रुढ़ियों एवं क्षमताओं के अनुसार चुना जा सकता है। यह पाठ्यक्रम अमेरिका की देन है। इसके अन्तर्गत हर बालक को व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों तरह की समस्याओं के संबंध में ऐसे अनुभव प्रदान किये जाते हैं, जिनके द्वारा वह अपने भावी जीवन में आने वाली हर समस्या को सरलता पूर्वक सुलझाते हुए कुशल एवं समाजोपयोगी तथा उत्तम नागरिक बन जाये। संक्षेप में कोर पाठ्यक्रम का लक्ष्य व्यक्ति एवं समाज दोनों का अधिक से अधिक विकास करना है। इस पाठ्यक्रम की कई विशेषतायें भी हैं। पहली विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत कई विषयों को एक साथ पढ़ाया जाता है। दूसरे, विभिन्न विषयों को पढ़ाने का समय निश्चित होता है। तीसरे, यह पाठ्यक्रम बाल-केन्द्रित है एवं चौथे, इसके द्वारा बालकों को कार्यों के द्वारा सामाजिक समस्याओं के सुलझाने का अभ्यास कराया जाता है।

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