पाठ्यचर्या की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

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पाठ्यचर्या की अवधारणा के संबंध में दो विचारधाराएँ प्रचलित हैं। ये विचारधाराएँ हैं-प्राचीन या संकुचित अवधारणा तथा आधुनिक अवधारणा।

पाठ्यचर्या की प्राचीन अवधारणा- प्राचीन समय में शिक्षा का उद्देश्य बहुत ही सीमित था। इसलिए छात्रों को संस्कृत, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र आदि जैसे विषयों का केवल मौखिक ज्ञान करा देना ही पाठ्यचर्या में शामिल था। इस प्रकार पुरानी धारणा के अनुसार पाठ्यचर्या केवल पाठ्य-वस्तु का सैद्धान्तिक ज्ञान करा देने तक ही सीमित था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन धारणा के अनुसार पाठ्यचर्या को बहुत ही संकुचित अर्थ में लिया जाता था अर्थात् कुछ तथ्यों का ज्ञान कराना था। यह ज्ञान विभिन्न विषयों द्वारा प्रदान किया जाता था।

पाठ्यचर्या की संकुचित अवधारणा को स्वीकार करते हुए कनिघम महोदय ने कहा है, “पाठ्यचर्या कलाकार (अध्यापक) के हाथों में वह यंत्र (साधन) है जिसमें वह अपनी वस्तु (छात्र) को अपनी कला-कक्ष (विद्यालय) में अपने आदर्शों (उद्देश्यों) के अनुसार बनाता है।

पाठ्यचर्या की आधुनिक अवधारणा- आज हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जिसमें एक ओर निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं तो दूसरी ओर ज्ञान का विस्फोट हो रहा है। इसलिए आज पुराना ज्ञान गलत सिद्ध होता जा रहा है और साथ ही यह भी समस्या है कि क्या ज्ञान दिया जाए, कितना ज्ञान दिया जाए और ज्ञान कैसे दिया जाए। इसका अर्थ है कि आज दिए जाने वाले ज्ञान की समस्या है और साथ ही यह भी समस्या है कि अधिगम किस प्रकार हो। यह जानते हुए कि आज के बालक को इस परिवर्तनशील समाज की आवश्यकताओं से जूझना है, हमें उस ज्ञान अथवा कौशलों का पुनर्वालोकन करना आवश्यक है जो हम बालकों को देना अथवा सिखाना चाहते हैं। वास्तविकता तो यह है कि हमें शैक्षिक उद्देश्यों की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए पाठ्यचर्या निर्माण पर अधिक ध्यान देना पड़ता है। इसलिए नई पाठ्यचर्या में बालकों की आवश्यकताओं, रूचियों, प्रवृतियों, क्षमताओं एवं व्यावहारिक क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। साथ ही श्रम के महत्व, व्यवसाय प्रधान विषय एवं गतिविधियों पर बल दिया जाता है। इस प्रकार आधुनिक पाठ्यचर्या की धारणा के अनुसार बालकों के सर्वांगीण विकास के विभिन्न विषयों तथा अनुभवों का समावेश किया जाता है।

आधुनिक पाठ्यचर्या की धारणा को स्पष्ट करते हुए हान ने कहा है, “पाठ्यचर्या वह है जिसे बालक को पढ़ाया जाता है। यह सीखने और शान्तिपूर्वक पढ़ने से कुछ अधिक है। इसमें समस्त उद्योग, व्यवसाय, ज्ञानोपार्जन, अभ्यास तथा क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। इस प्रकार यह बालकों के स्नायुमण्डल के संगठन में होने वाली गति एवं संवेगात्मक तत्वों को व्यक्त करता है।


पाठ्यचर्या की निम्नलिखित विशेषतायें स्पष्ट होती हैं

(1) पाठ्यचर्या पूर्व नियोजित होती है। इसका विकास किसी स्थान या कक्षा में अचानक नहीं किया जा सकता।

(2) किसी भी पाठ्यचर्या के चार आधार (क) सामाजिक शक्तियाँ (ख) स्वीकृत सिद्धान्त या सिद्धान्तों द्वारा उपलब्धता के रूप में मनुष्य का ज्ञान (ग) अधिगम की प्रकृति और ज्ञान और पहचान (घ) मानव विकास की प्रकृति है

(3) पाठ्यचर्या के उद्देश्य शैक्षिक लक्ष्यों में निहित हैं। यही उद्देश्य इसके परिणाम हैं और इन्हीं को पाठ्यचर्या द्वारा प्राप्त करना होता है।

(4) पाठ्यचर्या शिक्षक द्वारा अनुदेशन की योजना द्वारा संचालित होती है।

(5) शिक्षक उन्हीं अधिगम अनुभवों की योजना को अपनी कक्षा में लागू करता है ये अधिगम अनुभव छात्रों के स्तर के अनुसार होते हैं।

(6) व्यक्तिगत अधिकर्ता के वास्तविक पाठ्यचर्या के कारण अभिप्रेरित पाठ्यक्रम और संचालित पाठ्यचर्या में अन्तर होता है। इसके कारण शिक्षक की भूमिका जटिल हो जाती है ऐसी स्थिति में शिक्षक को विशेष व्यवस्था करनी पड़ती है।

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