पाठ्यचर्या की समृद्धिशीलता हेतु प्रभावी मूल्यों की विवेचना कीजिए।

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 पाठ्यचर्या की समृद्धिशीलता से आशय पाठ्यचर्या का विस्तृत मूल्य देना है ताकि पाठ्यचर्या का स्तर अधिक गुणात्मक, अधिक प्रभावी, अधिक उपयोगी तथा अधिक आधुनिक हो । यह समृद्धिकरण की प्रक्रिया व्यापक, गत्यात्मक तथा निरंतर है । पाठ्यचर्या की विषयसामग्री संयत,व्यावहारिक गुणवत्तापूर्ण, संगठित, क्रमबद्ध,उद्देश्य आधारित, एकीकृत तथा व्यापक अधिगम अनुभवों से युक्त होनी चाहिए । कक्षा शिक्षण में शिक्षक उसे समुचित जीवंत रूप दे सके, कक्षा के बाहर भी छात्रों में सीखने के अवसरों हेतु यह सामग्री अनुकूल हो । पाठ्यचर्या में मूल्यांकन सोद्देश्य हो तथा छात्रों के ज्ञान व अधिगम का वैध तथा विश्वसनीय मापन करने में सक्षम हो । सारांश में पाठ्यचर्या के सभी सोपानों हेतु पाठ्यचर्या का अधिक से अधिक प्रभावोत्पादक होना पाठ्यचर्या की समृद्धिशीलता है।


पाठ्यचर्या के सम्पन्नीकरण
 / समृद्धिकरण हेतु प्रभावी मूल्य

(1) उद्देश्य निर्धारण- जिस स्तर व कक्षा के बालकों के लिए पाठ्यचर्या प्रस्तावित है उनके अनुरूप पाठ्यचर्या के निर्माण के उद्देश्यों का निर्धारण कर लिया जाना चाहिए । पाठ्यचर्या के अनेक उद्देश्य हो सकते हैं जिनमें बालकों में ज्ञानात्मक, क्रियात्मक, सामाजिक, शारीरिक, संवेदनात्मक आदि विकास के लिए उद्देश्य निर्धारित होने चाहिए। पाठ्यचर्या विकास के आगामी सभी चरणों का आधार शैक्षिक उद्देश्य होते हैं अत: उद्देश्य चयन अत्यधिक सावधानी से उपयोगिता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। इसमें पाठ्यचर्या से संबंधित पक्षों तथा सहभागियों का सहयोग किया जाना पाठ्यचर्या को समृद्ध बना सकेगा।

(2) गुणवत्ता विकास- कोठारी आयोग ने पाठ्यचर्या के स्तर को ऊंचा उठाने की अनुशंसा की थी। इसके लिए पाठ्यचर्या से संबंधित देश विदेश के शोध कार्यों के निष्कर्षों एवं शिक्षाविदों के प्रामाणिक विचारों के अनुरूप पाठ्यचर्या के सभी सोपानों से गुणात्मकता में वृद्धि के प्रयास होने चाहिए। विषय वस्तु चयन, अधिगम अनुभवों व मूल्यांकन विधियों का चयन और संगठन देशकाल की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए ताकि पाठ्यचर्या उपयोगी हो । प्रत्येक इकाई हेतु न्यूनतम अधिगम स्तरों का निर्धारण होना चाहिए ताकि बालकों के अधिगम स्तरों में निरंतर सुधार कर पाठ्यचर्या को गुणवत्तापूर्ण बनाया जा सके।

(3) क्रियाप्रधानता- पाठ्यचर्या के विषयों में सैद्धान्तिक ज्ञान को ही अधिक महत्त्व न देकर प्रेक्टिकल व व्यवहार में उपयोगी अंशों के लिए क्रिया प्रमाण रूप देना चाहिए ताकि छात्र स्वयं करके सीखने की प्रवृत्ति तथा अनुसंधान प्रवृत्ति में पारंगत हों। जब बालक स्वयं करके अधिगम प्राप्त करेंगे तो वे स्थायी अधिगम प्राप्त कर सकेंगे। जॉन डीवी ने सामाजिक, रचनात्मक, अनुसंधानात्मक, प्रायोगिक तथा कलात्मक प्रवृत्ति को बालकों के लिए आवश्यक माना है। इन क्षेत्रों से संबंधित प्रोजेक्ट कार्य व क्रिया प्रधान गतिविधियों को पाठ्यचर्या में स्थान देने में पाठ्यचर्या की समृद्धि संभव हो सकेगी।

(4) अन्तर्सम्बन्धित या सहसंबंधित विषय सामग्री- पाठ्यचर्या के विकास में चयनित विषयवस्तु तथा विषयसामग्री में एकीकरण होना चाहिए । हेंडरसन के अनुसार एकीकृत पाठ्यक्रम में विषयों के बीच कोई अवरोध या रुकावट या दीवार नहीं होती। अत: एकीकृत पाठ्यचर्या के निर्माण तथा क्रियान्वयन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। विषयों को आपस में सहसंबंधित करने से एक विषय का अधिगम अन्य विषय के अधिगम को प्राप्त करने में संपर्क का कार्य करता है। शीघ्र बोधग्राह्यता तथा समझ के लिए सहसंबंधित विषय उपयोगी होते हैं।

(5) अद्यतन ज्ञान व नवाचार को स्थान- पाठ्यचर्या को अधिक समृद्ध बनाने के लिए उसमें निरंतर परिवर्तन लाया जाकर और अनुपयोगी व पुराने पड़ चुके ज्ञान के स्थान पर निम्न नवीन होते ज्ञान, तकनीक तथा नवाचारों को स्थान दिया जाना चाहिए। भविष्य में छात्रों हेतु नवीन कौशल व ज्ञान ही उनकी सहायता करेगा। सूचना एवं संचार तकनीक को भी पाठ्यचर्या में स्थान दिया जाना चाहिए। भूमंडलीय शिक्षा, मानवतावाद, शांति स्थापना, पर्यावरण रक्षण इत्यादि नवीन विषयों की पाठ्यचर्या में सम्मिलित किया जाना पाठ्यचर्या को अधुनातन व समृद्ध रूप देगा।

(6) अधिगमकर्ताओं को व्यापक अधिगम अनुभव अवसर देना- कक्षा के अंदर व बाहर प्रायोगिक कार्य, शोध कार्य, प्रोजेक्ट कार्य, पुस्तकालय, शिक्षण छात्र अन्तक्रिया, पाठ्य पुस्तक, अभ्यास कार्य, पाठ्यसहगामी क्रियाओं, छात्र छात्र अंतक्रिया, शैक्षणिक यात्राओं इत्यादि अनेक माध्यमों से छात्रों को अधिगम अनुभव प्रदान किये जा सकते हैं। दृश्य-श्रव्य साधनों का कक्षाशिक्षण में अधिकाधिक उपयोग भी अधिगम अनुभवों का स्रोत है । पाठ्यचर्या में ये अधिगम अनुभव जितने विस्तृत होंगे पाठ्यचर्या उतनी ही समृद्ध रूप धारण करेगी।

(7) सतत और समग्र मूल्यांकन (C.C.E.)- मूल्यांकन पाठ्यचर्या का अंतिम किन्तु महत्त्वपूर्ण सोपान है। यह शिक्षा तथा पाठ्यचर्या के उद्देश्यों की सफलता का पैमाना है। प्रगतिशील मूल्यांकन विधियों का प्रयोग कर पाठ्यचर्या को समृद्ध किया जा सकता है । उपलब्धि या निष्पत्ति परीक्षण प्रायः सभी शिक्षक उपयोग में लाते हैं कि सर्वांगीण मूल्यांकन के लिए बुद्धि परीक्षण, अभिवृत्ति परीक्षण, निष्पादन परीक्षण, रुचि परीक्षण, शारीरिक खेलकूद व व्यायाम में प्रतियोगिता, व्यक्तित्व परीक्षण आदि का उपयोग भी होना चाहिए। इसके लिए शिक्षकों को विशेष अल्पकालीन प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है मूल्यांकन केवल सत्र के अंत में या इकाई के अंत में न होकर प्रश्न रूप में प्रतिदिन कक्षाकक्ष में बहुतायत से होना चाहिए। समग्र व सतत मूल्यांकन ही शिक्षा और पाठ्यक्रम का लक्षण है। किये गये मूल्यांकन का उपयोग छात्रों को फीडबैक देने, अतिरिक्त कक्षाएं लगाने, निदानात्मक मूल्यांकन हेतु कक्षाएं लगाने आदि के लिए किया जाना चाहिए। मूल्यांकन छात्रों की सफलता असफलता के साथ शिक्षकों की सफलता आवश्यकता का भी परिचायक होता है ।

(8) विद्यालय में पाठ्यचर्या क्रियान्वयन में प्रगतिशील शिक्षण विधियों का प्रयोगप्राय: शिक्षक व्याख्यान देने, पुस्तक वाचन करवाने, व्याख्या देने की परम्परागत शिक्षण विधियों का उपयोग पाठ्यक्रम क्रियान्वयन में करते हैं। करके सीखना, प्रोजेक्ट विधि, अभिक्रमित अनुदेशन, प्रयोग प्रदर्शन विधि, ह्यूरिस्टिक विधि, पर्यटन विधि तथा विभिन्न शिक्षण कौशलों का उपयोग शिक्षकों को पाठ्यचर्या क्रियान्वयन में कर पाठ्यचर्या को समृद्ध बनाने का प्रयास करना चाहिए । प्रगतिशील नवीन विधियाँ अधिगम के विकास को गति प्रदान करता है।

(9) पाठ्यचर्या निर्माण में सहगामी घटकों की भागीदारी- आजकल केवल विशेष विशेषज्ञ अथवा शिक्षाविद ही पाठ्यचर्या के निर्माण के आवश्यक घटक नहीं माने जाते । बल्कि शिक्षक, शिक्षार्थी, समुदाय, NGO शासन आदि घटकों को भी पाठ्यचर्या निर्माण में भागीदारी आवश्यक मानी जाती है ताकि पाठ्यचर्या को अधिक समृद्ध रूप दिया जा सके। सभी आवश्यक घटकों की सक्रिय भागीदारी पाठ्यचर्या को परिष्कृत व समृद्ध रूप देती है। ।

(10) समसामयिक तथा भविष्य की आवश्यकताओं को अनुरूपता- पाठ्यचर्या को उपयोगी होना चाहिए तथा समाज व देश के वर्तमान व भावी आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। समाज व देश में किन पाठ्यक्रमों की माँग है तथा माँग के अनुरूप पाठ्यचर्या में क्या बदलाव अपेक्षित है इसकी जानकारी से ही पाठ्यचर्या को समृद्ध रूप देने में सहायता प्राप्त होती है ।

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