पाठ्यचर्या के परिस्थिति प्रतिमान और उसके घटकों का वर्णन कीजिए। नई शिक्षा नीति में परिस्थिति प्रतिमान का कैसे उपयोग हुआ है?

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  पाठ्यक्रम का परिस्थिति प्रतिमान

इस प्रतिमान के प्रारूप को विकसित करने में शिक्षा तथा विद्यालय को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों को महत्त्व दिया जाता है। आरम्भ में वर्तमान परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाता है। विश्लेषण इस अवधारणा पर आधारित होता है कि विद्यालय एवं शिक्षा की परिस्थितियों में विकास एवं सुधार करना सम्भव है। शैक्षिक परिस्थितियों के बाह्य एवं आन्तरिक घटकों की समीक्षा एवं मूल्यांकन किया जाता है तथा प्रभावित करने वाले घटकों की पहचान की जाती है। इस प्रकार यह प्रतिमान में ‘प्रणाली विश्लेषण’ आयाम है। इसकी सहायता से दो प्रकार के घटकों की पहचान की जाती है

(1) आन्तरिक घटक

(2) बाह्य घटक।

इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

(1) आन्तरिक घटक- आन्तरिक घटक कक्षा शिक्षण एवं विद्यालय की व्याख्या सम्बन्धी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। इन आन्तरिक घटकों में छात्रों की अभिवृत्तियाँ एवं रुचियाँ, शिक्षण कौशल एवं अध्यापकों की प्रवणता, नैतिकता एवं अभिवृत्तियाँ विद्यालय में उपलब्ध साधन (खेल-कूद, पुस्तकालय आदि) तथा विद्यालय का वातावरण आदि को सम्मिलित किया जाता है। इसके अतिरिक्त परीक्षा प्रणाली, पाठ्य-पुस्तकें तथा व्यवस्था भी प्रभावित करने वाले आन्तरिक घटक माने जाते हैं। इन उपलब्ध साधनों की दृष्टि से पाठ्यक्रम की रचना को ‘परिस्थिति प्रतिमान’ कहते हैं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को माध्यमिक विद्यालयों में आरम्भ करने का सुझाव दिया है परन्तु व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए प्रशिक्षित अध्यापक उपलब्ध न होने के कारण कोई विकास एवं सुधार नहीं हो सका है। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए शिक्षण परिस्थितियाँ भिन्न प्रकार की होनी चाहिए। आन्तरिक घटकों को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रमों का निर्माण करना आवश्यक है।

(2) बाह्य घटक- बाह्य घटक भी शैक्षिक परिस्थितियों को समान रूप से प्रभावित करते हैं। सामाजिक परिवर्तन, अभिभावकों की अभिवृत्तियाँ एवं आकांक्षाओं में परिवर्तन, समाज की अपेक्षा में परिवर्तन तथा विषयों का आविर्भाव आदि को बाह्य घटक के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। इसके अतिरिक्त व्यावहारिक समस्यों भी प्रभाव डालती हैं। उपरोक्त घटकों का विश्लेषण करना अपेक्षाकृत कठिन होता है। कक्षा अनुभवों छात्रों एवं अध्यापकों की प्रतिक्रियाओं से ही पहचाना जा सकता है। लक्ष्यों की दृष्टि से बाह्य घटकों की पहचान की जाती है परन्तु स्वतंत्रता के बाद के इतिहास के शिक्षण में राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय एकता भाव विकसित करना होता है। इसलिए शिक्षक कक्षाओं में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर सके जिससे उनमें सही दृष्टिकोण का विकास किया जा सके। इसके लिए इतिहास की पाठ्यवस्तु में अपेक्षित परिवर्तन करना होगा। कक्षा-परिस्थिति को ही महत्त्व देना होगा।

नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत नवोदय विद्यालय, व्यावसायिक शिक्षा, उच्च शिक्षा के अध्यापकों के प्रशिक्षण, दूरवर्ती शिक्षा आदि के सुझाव दिये हैं। परिणामस्वरूप इन सुझावों को लागू भी किया गया है। इन सभी नये आयामों में नवीन परिस्थितियों को उत्पन्न करना होता है। इसके सम्पादन करने पर जो समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं। इनकी दृष्टि से पाठ्यक्रमों में सुधार करने के लिए इन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखना होगा तभी इन्हें प्रभावी एवं सार्थक बना सकेंगे। शैक्षिक परिस्थिति एवं पाठ्यक्रम के प्रतिमान में विकास एवं सुधार के लिए एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। इसे बाह्य आन्तरिक घटक परिस्थिति प्रतिमान भी कहा जाता है। शिक्षा के उद्देश्यों का प्रतिपादन शिक्षक एवं छात्रों की क्रियाओं एवं परिस्थितियों के रूप में किया जाता है

(1) विषय-केन्द्रित प्रतिमान- इस प्रकार के पाठ्यक्रम का अर्थ विषय के ज्ञान को पृथक्-पृथक् रूप में देने से है। सभी विषयों के ज्ञान को अलग-अलग निश्चित कर लिया जाता और उसी के अनुसार पुस्तकें बन जाती हैं। उन्हीं पुस्तकों से बालक विषय का ज्ञान प्राप्त करते हैं। भारतवर्ष में अधिकतर इसी प्रकार का पाठ्यक्रम काम में लिया जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालकों की अपेक्षा विषयों को अधिक महत्त्व दिया जाता है क्योंकि इस पाठ्यक्रम है में पुस्तकों पर बल दिया जाता है इसलिए इसे ‘पुस्तक-केन्द्रित पाठ्यक्रम’ भी कहते हैं। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में पाठ्यवस्तु पहले से निश्चित होती है। शिक्षक को यह ज्ञात रहता है कि उसे क्या पढ़ाना है और शिक्षार्थी यह जानते हैं कि उन्हें क्या-क्या पढ़ना है। जो कोर्स निश्चित होता है उसी में बालकों की परीक्षा ली जाती है। परीक्षा द्वारा यह भी मालूम हो जाता है कि बालकों ने कितना सीखा है और उनकी क्या योग्यता है।

(2) बाल-केन्द्रित प्रतिमान- इस प्रकार के पाठ्यक्रम में विषयों को महत्त्व न देकर बालकों को महत्त्व दिया जाता है। पाठ्यक्रम का प्रबन्धन बालक की प्रकृति, आवश्यकता एवं रुचि के आधार पर किया जाता है जिससे कि उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो सके। मनोविज्ञान इस बात पर बल देता है कि यदि बालक की रुचियों और आवश्यकताओं पर ध्यान न दिया गया तो उसका विकास न हो सकेगा। इसलिए मनोविज्ञान ने इस बात पर बल दिया है कि पाठ्यक्रम बालकों की रुचियों एवं आवश्यकताओं के आधार पर संगठित किया जाये। अतः सभी आधुनिक शिक्षण पद्धतियाँ जैसे-मॉन्टेसरी पद्धति, किन्डरगार्टन पद्धति आदि इस प्रकार के पाठ्यक्रम पर बल देती हैं।

(3) शिल्प-कला-केन्द्रित प्रतिमान- इस प्रकार के पाठ्यक्रम का तात्पर्य किसी शिल्प अथवा कारीगरी को केन्द्र मानकर शिक्षा देने से है। दूसरे शब्दों में शिल्पकला को शिक्षा में विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसको प्रमुख आधार मानकर दूसरे विषयों की शिक्षा दी जाती है। बेसिक शिक्षा में इसी प्रकार के पाठ्यक्रम पर बल दिया गया है। महात्मा गाँधी शिक्षा को व्यावहारिक बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि बालकों को कुछ ऐसे क्राफ्टों की शिक्षा देनी चाहिए जिनके सहारे पाठशाला का खर्च निकल आये और भविष्य में वे उसके सहारे अपनी जीविका कमा सकें। अतः आधुनिक काल में भारतवर्ष के शिल्पकला-केन्द्रित पाठ्यक्रम पर बल दिया जाता है।

(4) सह-सम्बन्ध प्रतिमान- इस प्रकार के पाठ्यक्रम का आशय है कि पाठ्यक्रम के है विभिन्न विषयों में परस्पर सह-सम्बन्ध हो। वे एक दूसरे से नितान्त पृथक् न हों। आज के पाठ्यक्रम का सबसे बड़ा दोष यही है कि जो विषय पढ़ाये जाते हैं उनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होता। ज्ञान अलग-अलग बँटा रहता है। यह परिस्थिति दोषपूर्ण है। ज्ञान एक इकाई है। अत: उसे बाँटना नहीं चाहिए। उसे सम्बन्धित रूप में ही देना चाहिए।

(5) मूल पाठ्यक्रम- यह पाठ्यक्रम अमेरिका की देन है। इस पाठ्यक्रम के कुछ विषय ऐसे होते हैं जो सभी बालकों के लिए अनिवार्य होते हैं और बहुत से ऐसे होते हैं जिनमें से कुछ को वे अपनी रुचि के अनुसार चुन लेते हैं। जो विषय अनिवार्य होते हैं वे ऐसे होते हैं जिनका सभी बालकों के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इस पाठ्यक्रम की कई विशेषताएं हैं। पहली विशेष यह है कि एक ही ज्ञान कई-कई विषयों द्वारा दिया जाता है। विषय दूसरे से पृथक् नहीं पढ़ाये जाते वरन् कई विषय एक साथ पढ़ाये जाते हैं। दूसरी विशेषता यह है कि किसी भी विषय के लिए समय निश्चित नहीं होता। तीसरी विशेषता यह है कि यह बाल-केन्द्रित होता है। चौथी विशेषता यह है कि बालकों को कार्यों द्वारा जीवन की वर्तमान एवं भावी सामाजिक समस्याओं को सुलझाने हेतु प्रशिक्षण दिया जाता है।

इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य बालकों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्याओं से अवगत कराना है और उनको ऐसी शिक्षा देना है कि वे इन समस्याओं का समाधान कर सकें। इसके अतिरिक्त इस पाठ्यक्रम द्वारा बालकों को ऐसें अनुभव प्रदान करने का प्रयत्न किया जाता है जो उन्हें समाज के उपयोगी एवं उत्तम नागरिक बनाने में सहायक हों। स्पष्ट है कि इस पाठ्यक्रम का लक्ष्य व्यक्ति और समाज दोनों का विकास करना है। इस दृष्टि से मूल पाठ्यक्रम का विशेष महत्त्व है।

इन प्रतिमानों के विकास में तथा निर्माण में कई प्रकार के अधिनियमों का अनुसरण किया जाता है जिनकी समीक्षा यहाँ पर की गई है।

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