पाठ्यचर्या के प्रक्रिया, प्रतिमान का वर्णन करते हुए इसमें शिक्षक की व्यवस्थापक की भूमिका का उल्लेख कीजिए। प्रक्रिया प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षण अधिगम व्यवस्था प्रतिमान, अनुभव केन्द्रित प्रतिमान तथा कार्य केन्द्रित प्रतिमानों का वर्णन कीजिए।

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 पाठ्यक्रम का प्रक्रिया प्रतिमान

इस प्रकार के प्रतिमानों में उद्देश्यों को परिभाषित नहीं किया जाता है। पाठ्यक्रम के प्रारुप को विकसित करने में पाठ्यवस्तु के ज्ञान को ही ध्यान में रखा जाता है। पाठ्यवस्तु की सहायता से मानवी गुणों का विकास किया जाता है। इसे मानवता पाठ्यक्रम की संज्ञा भी दी जाती है। इस प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षक का उत्तरदायित्व होता है क्योंकि शिक्षा की प्रक्रिया शिक्षक द्वारा ही सम्पादित की जाती है। अतः इसमें शिक्षक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है जबकि उद्देश्य-प्रतिमान के अन्तर्गत बालक की आवश्यकता और समाज की आवश्यकताओं के आधार पर उद्देश्यों का प्रतिपादन किया जाता है। अत: इस प्रतिमान प्रारुप ‘मानव-व्यवस्था सिद्धान्त’ पर आधारित है। आज के सन्दर्भ में शिक्षक को अन्य भूमिकाओं से व्यवस्थापक की भूमिका का भी निर्वाह करना होता है। डेवीज ने शिक्षक को प्रबन्धक भी कहा है क्योंकि शिक्षा की प्रक्रिया भी बदलती रहती है। भूमिका में क्रियायें एवं उत्तरदायित्व भी बदलता रहा है। इसके लिए पाठ्यक्रम का प्रारुप भी मुख्य आधार होता है। संबंधी प्रक्रिया से होता है। मानव-व्यवस्था के तीन प्रमुख सिद्धान्त है जिनका विवेचन यहाँ पर किया गया है।


(क) शिक्षण-अधिगम व्यवस्था प्रतिमान

आई.के. डेवीज ने यह प्रत्यय ‘शिक्षण अधिगम व्यवस्था’ मानव-उद्योग की व्यवस्था से लिया है। इसके मूल स्त्रोत अर्थ तथा सोपानों का विवेचन यहाँ विस्तार में किया गया है प्रबन्धक का अर्थ- “मानव आदि काल से जीवन को अच्छा बनाने के लिए संघर्ष करता आया है, उसने अपनी कठिनाइयों को हल करने के लिए साधनों और स्त्रोतों को अधिकतम प्रयोग करने का प्रयास किया है। साधनों तथा स्त्रोतों को समुचित रुप में प्रयोग करने की ‘व्यवस्था’ करते हैं। परम्परागत विचारधारा के अनुसार व्यवस्था’ का अर्थ होता है, साधनों एवं स्त्रोतों को निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयोग करने के स्वरुप को ‘व्यवस्था’ कहते हैं।” व्यवस्था के अन्तर्गत प्रमुख तीन युक्तियों को प्रयुक्त किया जाता है –

1. प्रयासों तथा स्त्रोतों में समन्वय स्थापित किया जाता है।

2. कार्य एवं क्रियाओं का विभाजन किया जाता है।

3. अधिगार एवं उत्तरदायित्व को चढाव क्रम में निर्धारित किया जाता है।

स्काट ने भी ‘प्रबंधन’ की व्याख्या की है। उनके अनुसार व्यवस्था का अन्तिम उद्देश्य ‘विवाद को कम करना’ है। व्यवस्था के द्वारा उस वस्तु तथा व्यक्ति के महत्व को कम किया जाता है जिससे नियोजन की सफलता में बाधा होती है। इस प्रकार व्यवस्था के द्वारा अनिश्चितता को कम करके निश्चितता तथा स्थायित्व में वृद्धि की जाती है। व्यवस्था के आधार पर वास्तविकता उपलब्धियों के संबंध में पूर्व कथना दिया जाता है। उदाहरण के लिए पाठ्य-पुस्तकों, पाठ्य-योजनाओं तथा अभिक्रमित-अनुदेशन का प्रबन्धन किया जाता है जिससे सीखने के विशेष उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है, परन्तु इसके द्वारा पाठ्यवस्तु के आन्तरिक स्वरुप तथा छात्रों के सीखने के व्यवहार स्वरुपों के संबंध में बहुत कम जानकारी होती है। शैक्षिक तकनीकी में इन्हीं स्वरुपों को समझने पर विशेष बल दिया जाता है प्रबन्धन के प्रत्यय में स्थायित्व, पूर्व-कथन तथा स्वरुपों को अधिक महत्व देने से उद्योग तथा प्रबन्ध अधिक प्रभावित हुए हैं। यह विचारधारा ‘शैक्षिक तकनीकी’ के अर्थ के लिए भी उपयोगी तथा सार्थक है। शैक्षिक उपलब्धियों के संबंध में पूर्व-कथन किया जाता है और सीखने के स्वरुपों के लिए साधनों एवं युक्तियों को निर्धारित किया जाता है। इस प्रकार शैक्षिक-तकनीकी शिक्षा-व्यवस्था में स्थायित्व लाती है।

प्रबन्धन का सीधा संबंध मानव से रहा है, इसलिए मानव प्रकृति की धारणायें इस प्रत्यय को प्रभावित करती रही हैं।


मानव-प्रकृति के संबंध में अवधारणाएँ

कुछ समय पूर्व मार्च तथा साइमन (1958) ने औद्योगिक प्रबन्ध पर कार्य किया, और व्यवस्था के सिद्धान्तों का उल्लेख किया है जो वास्तव में मानव-व्यवहार की धारणाओं पर आधारित है। उन्होंने तीन सिद्धान्तों का उल्लेख किया है।

(1) प्रबन्धन तथा परम्परागत सिद्धान्त : कार्य-केन्द्रित- इस सिद्धान्त की यह अवधारणा है कि व्यवस्था के सदस्यों में कार्य करने की क्षमता होती है और निर्देशों को स्वीकार करके वे उनका अनुसरण कर सकते हैं। परन्तु उनमें कार्य के लिये स्वोपक्रम की क्षमता नहीं होती है, और न ही कार्य प्रणाली को किसी प्रकार प्रभावित करने की क्षमता होती है, सदस्य प्राथमिक रुप से मशीन के समान कार्य करते हैं। प्रभुत्ववादी शासन-प्रबंधन इसी सिद्धान्त पर आधारित है।

इस सिद्धान्त ने शिक्षा-प्रणाली को अधिक प्रभावित किया है। शिक्षक, छात्रों को समस्त क्रियाओं प्रेरणा देना, नियंत्रण करना, छात्रों के व्यवहार में सुधार लाना, तथा उद्देश्यों कर प्राप्ति करना आदि को नियंत्रित करता है। छात्र केवल एक स्त्रोत का कार्य करते हैं और शिक्षक निर्देशों का अनुसरण करते हैं। कक्षा में बोलने तथा लिखने पर अधिक बल दिया जाता है। शिक्षण-प्रबंधन कार्य-केन्द्रित तथा शिक्षक-नियंत्रित होती है। कक्षा-शिक्षण में पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण पर अधिक बल दिया जाता है। छात्र रुचियों, क्षमताओं तथा अभिवृत्तियों को शिक्षा-प्रबंधन में कोई स्थान नहीं दिया जाता है। छात्र केवल मशीन के समान कार्य करता है। इस प्रकार की शिक्षण प्रबंधन में छात्रों को रटना अधिक पड़ता है। इसमें स्तर शिक्षण को ही अपनाया जाता है। जिससे केवल निम्न स्तरीय ज्ञानात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति होती है। भावात्मक पक्षों के विकास को महत्व नहीं दिया जाता है।

इस मानव-व्यवहार की धारणा की सीमाओं के अध्ययन से यह अनुभव किया कि यह व्यवस्था मानव हितों के लिये नहीं की जाती है। अत: व्यवस्था में सदस्यों की भावनाओं और संबंधों को भी महत्व देना चाहिये।।

(2) व्यवस्था का मानव संबंध सिद्धान्त : संबंध-केन्द्रित- मानव संबंध सिद्धान्त की यह अवधारणा है कि व्यवस्था के सदस्य अपनी अभिवृत्तियों, अभिरुचियों, मूल्यों तथा लक्ष्यों को लेकर आते हैं। इसलिये व्यवस्था के व्यवहारों के लिये उन्हें प्रेरित तथा प्रोत्साहित करना चाहिये, क्योंकि उनके लक्ष्यों तथा व्यवसाय के लक्ष्यों में अन्तर होता है। व्यवस्था व्यवहार के वास्तविक लक्ष्य के लिये अभिवृत्ति तथा नैतिक अवस्था अधिक महत्वूर्ण होती है।

आज की शिक्षा तथा प्रशिक्षण प्रणाली मानव-संबंध सिद्धान्त से अधिक प्रभावित है परम्परागत कार्य-केन्द्रित सिद्धान्त के विरोध में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है परम्परागत शिक्षण तथा प्रशिक्षण व्यवस्था के द्वारा छात्रों की मानसिक आवश्यकताओं का विकास समान स्तर पर ही किया जा सकता है। परन्तु इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षण तथा प्रशिक्षण व्यवस्था इस प्रकार की जाती है जो छात्रों की आयु, प्रवीणता, अभिरुचियों, अभिवृत्तियों तथा योग्यता के अनुरूप होती है जिससे छात्रों का विकास बहुमुखी होता है। इस प्रकार की व्यवस्था में शिक्षक का उत्तरदायित्व एक निर्देशक तथा परामर्शदाता के रूप में होता है। उसका कर्त्तव्य छात्रों को क्रियाशील रखने के लिए अवसर देना तथा प्रोत्साहित करना है। इस शिक्षण व्यवस्था के आयाम में ऐसी विधियों का प्रयोग किया जाता है जिसमें छात्रों को अधिक कार्य करना पड़ता है। सामूहिक शिक्षण तथा सीखने की सहायक सामग्री को अधिक प्रयोग करने के लिए बढ़ावा दिया जाता है। सीखने में व्यवहार-विज्ञान के सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है। सीखने की पाठ्यवस्तु की व्यवस्था इस प्रकार की जाती है कि सीखना रुचिकर हो, प्रेरणादायक हो तथा अन्ततः सफलता प्राप्त हो सके। इसमें रटने पर कम बल दिया जाता है। सार्थक-अधिगम को अधिक महत्त्व दिया जाता है। अधिगम में सार्थक-कार्यों को ही प्रधानता दी जाती है। जैसे खेल-कूद, प्रोजेक्ट का कार्य, खोज आदि।

परम्परागत तथा मानव सम्बन्ध व्यवस्था के सिद्धान्त विरोधी विचारधारा पर आधारित एक अन्य सिद्धान्त है, जो इन दोनों का समन्वय है और मानव की प्रकृति पर आधारित है।

(3) आधुनिक व्यवस्था का सिद्धान्त: कार्य तथा सम्बन्ध-केन्द्रित- इस सिद्धान्त की यह धारणा है कि व्यवस्था के सदस्य समस्या का समाधान कर सकते हैं, और निर्णय भी ले सकते हैं। व्यवस्था के व्यवहार की व्यवस्था प्रत्यक्षीकरण तथा चिन्तन प्रणाली के माध्यम से की जा सकती है।

मानव व्यवहार की प्रकृति पर आधारित होने से इन तीनों सिद्धान्तों में कोई विरोधाभास नहीं है, परन्तु सिद्धान्तों में लक्ष्यों का अन्तर अवश्य है। इन सिद्धान्तों पर प्रतिपादन औद्योगिक प्रबन्ध की दृष्टि से किया गया है। परन्तु इन्हें शिक्षण व्यवस्था में भी प्रयुक्त किया जाता है। आधुनिक व्यवस्था आयाम में कार्य तथा मानव सम्बन्ध को भी सम्मिलित किया जाता है। वास्तव में शिक्षा व्यवस्था छात्र-केन्द्रित होती है। शिक्षण तथा प्रशिक्षण में कार्य की आवश्यकताओं तथा छात्र की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाता है। शिक्षण तथा प्रशिक्षण में कार्य की आवश्यकताओं तथा छात्र की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा जाता है। शिक्षक छात्र, कार्य तथा व्यवस्था चरों में समन्वय स्थापित करता है। जिसका परिणाम छात्रों की निष्पत्ति होती है। इस प्रत्यय को पिछले चित्र द्वारा दर्शाया गया है।

इस विचारधारा का सम्बन्ध स्वतन्त्र-अध्ययन, अनुदेशन-प्रणाली, अनुदेशन-प्रारूप तथा अनुदेशन तकनीकी से है। डेवीज के अनुसार इसे शैक्षिक-तकनीकी का एक पक्ष माना जाता है, जिसे तृतीय शैक्षिक-तकनीकी कहते हैं। इसमें प्रणाली-आयाम का प्रयोग शिक्षण तथा प्रशिक्षण में किया जाता है। इन आयामों का वर्णन ‘अनुदेशनात्मक प्रारूप’ अध्याय में किया गया है शिक्षण-अधिगम का प्रबन्धन ‘शिक्षण तथा अधिगम प्रबन्धन’ का प्रत्यय डेवीज तथा थाम्स ने दिया है। यह प्रत्यय आधुनिक सिद्धान्त पर आधारित है। यह कार्य तथा सम्बन्ध-केन्द्रित होता है। इसके अनुसार शिक्षण के दो प्रमुख कार्य माने जाते हैं प्रथम, शिक्षण अधिगम की क्रियाओं का प्रबन्धन करना और द्वितीय शिक्षण तथा अधिगम से साधनों के साथ प्रक्रिया करना है। बरटेण्डरसल ने इसका उल्लेख इस प्रकार किया है “कार्य दो प्रकार के होते हैं-प्रथम, पदार्थ की स्थिति को पृथ्वी के अन्य सामान्य पदार्थों की अपेक्षाकृत बदलना, द्वितीय, अन्य व्यक्तियों से ऐसा करने के लिए कहना।” शिक्षण में पहले कार्यों तथा प्रक्रियाओं की योजना बनाना तथा प्रबन्ध करना होता है, द्वितीय इन सभी कार्यों को करना होता है। इसलिये शिक्षक को प्रबन्धक भी कहा जाता है। सर्वप्रथम डेवीज ने शिक्षक को प्रबन्धक कहा और उसके चार प्रमुख कार्यों का उल्लेख किया है।

प्रथम सोपान-नियोजन करना।

द्वितीय सोपान-व्यवस्था करना।

तृतीय सोपान-अग्रसरण करना।

चतुर्थ सोपान-नियन्त्रण करना।

इन चारों की सहायता में शिक्षण-अधिगम-प्रणाली की रूपरेखा तैयार की जाती है डेवीज इन सोपानों में अधोलिखित कार्यों को सम्मिलित करते हैं-

1. सम्पूर्ण प्रणाली का विश्लेषण करना।

2. कार्य विश्लेषण करना।

3. छात्रों की योग्यता को ज्ञात करना।

4. छात्रों के ज्ञान, कौशल तथा अभिवृत्तियों का विशिष्टीकरण करना।

5. छात्रों की आवश्यकताओं को पहचानना।

6. अधिगम उद्देश्यों की व्याख्या करना।

7. अधिगम के स्रोत की व्यवस्था करना।

8. समुचित शिक्षण-आव्यूह का चयन करना।

9. छात्रों को अभिप्रेरणा तथा प्रोत्साहन देना।

10. शिक्षण-प्रणाली का मूल्यांकन करना।

11. शिक्षण-प्रणाली को क्रियान्वित करना।

12. अधिगम-प्रणाली का लगातार निरीक्षण करना है।

13. उसमें सुधार करके अपनाना।

14. मापन के मानदण्ड का मूल्यांकन करना।

15. कार्यक्षमताओं के आधार मापन के मानदण्ड का विकास करना।

प्रथम सोपान : नियोजन- इस सोपान में शिक्षक अधिगम-उद्देश्यों का प्रतिपादन करता है। इसमें शिक्षक कार्य का विश्लेषण करके तत्त्वों में विभाजित करता है, उन तत्त्वों को क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित करता है, उद्देश्यों की परिभाषा करता है, उन्हें व्यावहारिक रूप में लिखता है, शिक्षण की समुचित आव्यूह का चयन करता है, तथा उद्देश्यों तथा पाठ्य-वस्तु के सम्बन्ध में निर्णय लेने में सर्जनात्मक तथा कल्पना शक्तियों का प्रयोग करता है। इस सोपान के अन्तर्गत 1, 2, 3, 4, 5, 6, 14 तथा 15 क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। शिक्षक के लिये इन क्रियाओं के कौशल का महत्त्व होता है, तभी वह अधिगम-प्रणाली की समस्याओं का समाधान कर सकता है और शिक्षण को प्रभावशाली बना सकता है।

द्वितीय सोपान : व्यवस्था- सीखने के स्रोतों तथा साधनों की व्यवस्था करने का कार्य शिक्षक ही करता है, जिससे उद्देश्यों की प्रगति प्रभावशाली ढंग से की जाती है। मितव्ययी तथा प्रभावशाली साधनों को प्रयुक्त किया जाता है। व्यवस्था के द्वारा अधिगम-वातावरण तथा अधिगम स्वरूपों को उत्पन्न किया जाता है जिससे उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है। शिक्षक को शिक्षण आयामों, आव्यूह, शिक्षण सामग्री तथा शिक्षण युक्तियों के सम्बन्ध में भी निर्णय लेना पड़ता है व्यवस्था सम्पादन में सीखने के स्वरूपों को उत्पन्न किया जाता है। इस प्रकार इस सोपान के अन्तर्गत क्रिया-7 अधिगम के स्रोतों की व्यवस्था करने तथा क्रिया-11 शिक्षण प्रणाली को क्रियान्वित करने को सम्मिलित किया जा सकता है। इसके लिए शिक्षण कौशल के प्रशिक्षण तथा अभ्यास की विशेष आवश्यकता होती है। तभी शिक्षण-प्रणाली को प्रभावित रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इस सोपान की प्रमुख समस्या शिक्षण तथा अधिगम स्रोतों में समन्वय स्थापित करना है जिसमें नियोजन सोपान को प्रभावशाली तथा सफल बनाया जाता है।

तृतीय सोपान : अग्रसरण- शिक्षक का कार्य छात्रों को अग्रसर करना है। इस सोपान में शिक्षक छात्रों को अभिप्रेरणा देता है तथा प्रोत्साहित करता है जिससे वे तत्परता से सीखते हैं और उद्देश्यों की प्राप्ति होती है। अग्रसरण एक व्यक्तिगत प्रक्रिया है। इसमें शिक्षक के प्रेरणा देने के ढंग को विशेष महत्त्व दिया जाता है। शिक्षक का कार्य-छात्रों को निर्देशन देना, प्रोत्साहित करना तथा निरीक्षण करना है जिससे छात्रों द्वारा उद्देश्यों की प्राप्ति सरल हो जाती है।

अग्रसरण में विविध प्रकार की युक्तियों की आवश्यकता होती है। शिक्षक की परिस्थिति को समझकर ही समुचित युक्तियों का चयन करना होता है। शिक्षक कक्षा समस्याओं के समाधान में अपनी कल्पनाशक्ति तथा सर्जनात्मक क्षमताओं का प्रयोग करता है। इस प्रकार इस सोपान के अन्तर्गत क्रिया-8 आव्यूह का चयन करना तथा क्रिया-9 छात्रों को अभिप्रेरणा देना तथा प्रोत्साहित करने को सम्मिलित किया जाता है। इसके लिए अभिप्रेरणा के सिद्धान्तों का ज्ञान तथा उसके व्यावहारिक पक्ष का बोध होना अधिक आवश्यक है। इसमें छात्रों की आवश्यकता को विशेष महत्त्व दिया जाता है।

चतुर्थ सोपान : नियन्त्रण या मूल्यांकन- नियन्त्रण का कार्य भी शिक्षक का माना जाता है। इस सोपान के अभाव में शिक्षक अधूरा समझा जाता है। इस सोपान में शिक्षक, व्यवस्था तथा अग्रसरण की क्रियाओं की सफलता के सम्बन्ध में निर्णय लेता है कि ये क्रियायें कहाँ तक उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल हो सकी हैं। यदि उद्देश्यों की प्राप्ति भली प्रकार नहीं हो सकी है तब शिक्षक को इन क्रियाओं में सुधार करके प्रयुक्त करना पड़ता है। तत्पश्चात् शिक्षक पुनः मूल्यांकन करता है। यद्यपि शिक्षक व्यवस्था तथा अग्रसरण की क्रियाओं में परिवर्तन करता है परन्तु उद्देश्य वही रहते हैं उनमें परिवर्तन नहीं किया जाता है।।

इस सोपान के अन्तर्गत क्रिया-11 शिक्षण-प्रणाली का मूल्यांकन करना, क्रिया-12 अधिगम-प्रणाली का निरीक्षण करना, तथा क्रिया-13 उनमें सुधार करके अपनाने की क्रिया को सम्मिलित किया जाता है।

नियन्त्रण सोपान के लिये शिक्षक को मापन तथा सांख्यिकी का ज्ञान होना चाहिये तभी वह व्यवस्था तथा अग्रसरण की क्रियाओं का मूल्यांकन कर सकता है और उसके सम्बन्ध में निर्णय ले सकता है विभिन्न प्रकार की शैक्षिक मापन विधियों का बोध तथा उनकी रचना का कौशल भी उनके लिए आवश्यक होता है।


ख) अनुभव केन्द्रित प्रतिमान

इस प्रकार के पाठ्यक्रम में अनुभवों को प्रधानता दी जाती है। समस्त मानव जाति के अनुभव जिनसे बालक को प्रेरणा मिल सके और वे अपने जीवन को उपयोगी और अच्छा बना सकें, इस पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाते हैं। दूसरे शब्दों में पाठ्यक्रम में समस्त मानव जाति के अनुभवों को सम्मिलित करना चाहिए। व्यक्तित्व के विकास के लिए और सफल जीवन के लिए वर्तमान अनुभवों की अपेक्षा भूतकाल के अनुभव अधिक उपयोगी होते हैं।


(ग) कार्य-केन्द्रित प्रतिमान

इस प्रकार का पाठ्यक्रम विभिन्न कार्यों पर आधारित होता है। बालकों के लिए ऐसे कार्यों का आयोजन किया जाता है जिनका कुछ सामाजिक मूल्य हो और जो उसके सर्वांगीण विकास में सहायक हों। इन कार्यों का चुनाव शिक्षण और बालक के परस्पर सहयोग से किया चुनाव के समय बालकों की रुचि का विशेष ध्यान रखा जाता है। ड्यूवी महोदय क्रियाशीलता के पाठ्यक्रम के प्रमुख समर्थक हैं। ऐसे बालकों को ऐसे कार्यों द्वारा दिशा देने का सुझाव रखते हैं जिनके सीखने पर वे भविष्य में समाजोपयोगी कार्य करने योग्य बना सकें।


(घ) एकीकृत प्रतिमान

20वीं शताब्दी में मनोविज्ञान के क्षेत्र में अनेक नये प्रयोग हुए तथा अधिगम के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये। इन्हीं प्रयोगों ने गस्टाल्टवाद अर्थात् सम्पूर्णवाद को जन्म दिया। इस वाद के अनुसार मस्तिष्क एक इकाई है। मस्तिष्क ज्ञान को छोटे-छोटे टुकड़ों में प्राप्त नहीं करता, बल्कि उसे पूर्ण रूप में ग्रहण करता है। वही वस्तु या विचार मस्तिष्क में स्थिर होता है जो पूर्ण अर्थ देता है।

इन मनोवैज्ञानिक खोजों ने शिक्षा को प्रभावित किया तथा गेस्टाल्टवाद के अनुसार अमेरिकी विद्यालयों में एकीकृत पाठ्यक्रम का विकास हुआ। एकीकृत पाठ्यक्रम एकीकरण के सिद्धान्त पर आधारित है जिसके अनुसार कोई विचार तथा क्रिया तभी प्रभावशाली एवं उपयोगी होती है जब उसके विभिन्न भागों या पक्षों में एकता होती है।

अतः एकीकृत पाठ्यक्रम से हमारा तात्पर्य उस पाठ्यक्रम से है जिसमें उसके विभिन्न विषय एक-दूसरे से इस प्रकार सम्बन्धित होते हैं कि उनके मध्य कोई अवरोध नहीं होता, बल्कि उनमें एकता होती है। इस प्रकार पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों के ज्ञान को विभिन्न खण्डों में प्रस्तुत न करके, सब विषय मिलकर ज्ञान को एक इकाई के रूप में प्रस्तुत करते हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि ‘ज्ञान एक है’। इस दृष्टि से पाठ्यक्रम के सभी विषय ज्ञान रूपी इकाई के विभिन्न अंग हैं। पठन-पाठन की सुविधा तथा कुछ अन्य व्यावहारिकताओं के कारण शिक्षा के पाठ्यक्रम को विभिन्न विषयों में विभक्त कर दिया गया है, किन्तु इस विभाजन का यह अर्थ नहीं है कि बालकों को विभिन्न विषयों को अलग-अलग ज्ञान कराया जाये।

शिक्षा का उद्देश्य बालकों को ज्ञान की एकता से परिचित कराना है। यह उद्देश्य विषयों को अलग-अलग रूप में पढ़ाने से पूर्ण नहीं हो सकता अर्थात् यह कार्य तभी सम्पन्न हो सकता है, जबकि विषयों को एक-दूसरे से सम्बन्धित करके पढ़ाया जाये। इसके लिये यह आवश्यक है कि विभिन्न विषयों को इस प्रकार परस्पर सम्बन्धित किया जाये कि उनके बीच किसी प्रकार की दीवार न हो। यह दायित्व शिक्षक का ही है कि वह पाठ्यक्रम के सभी विषयों को सम्बन्धित करें, पाठ्यक्रम की सामग्री का जीवन से सम्बन्ध स्थापित करे तथा प्रत्येक विषय-सामग्री में भी सह-सम्बन्ध स्थापित करें। इस प्रकार जो पाठ्यक्रम उक्त सभी प्रकार के सम्बन्धों से युक्त हो, उसे ही ‘एकीकृत पाठ्यक्रम’ की संज्ञा दी जायेगी।


हेन्डरसन ने एकीकृत पाठ्यक्रम की परिभाषा इस प्रकार की है-

“एकीकृत पाठ्यक्रम वह पाठ्यक्रम है जिसमें विषयों के बीच कोई अवरोध, रुकावट अथवा दीवार नहीं होती है।”

हेन्डरसन के अनुसार, इस प्रकार का पाठ्यक्रम उन अनुभवों को देता है जिन्हें एकीकरण की प्रक्रिया के लिए सुविधाजनक समझा जाता है तथा जिससे बालक उस पाठ्य-वस्तु को सीखते हैं जो अनुभवों को समझने में एवं उनके पुनर्निर्माण में सहायक होती है। इस प्रकार का अनुभव-प्रधान पाठ्यक्रम विषय को अलग-अलग रखने तथा उनको शीर्षकों में बाँटने का अन्त करता है एवं ऐसे विषयों को स्थान देता है जो बालक की रुचि के केन्द्र होते हैं।

एकीकृत पाठ्यक्रम की विशेषताएं – एकीकृत पाठ्यक्रम की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं-

(1) इस पाठ्यक्रम में ज्ञान को समग्र रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

(2) इसके माध्यम से छात्र विभिन्न विषयों का ज्ञान एक साथ प्राप्त करते हैं।

(3) यह पाठ्यक्रम अनुभव-केन्द्रित होता है।

(4) इससे बालकों को जीवनोपयोगी शिक्षा मिलती है।

(5) इसमें छात्रों की रुचियों को महत्त्व दिया जाता है।

(6) इस पाठ्यक्रम से शिक्षकों का उत्तरदायित्व एवं कार्य-भार बढ़ जाता है।

(7) इस पाठ्यक्रम की सफलता के लिए शिक्षक को पर्याप्त एवं व्यापक अध्ययन की आवश्यकता होती है।

(8) इसमें छात्रों के पूर्व-ज्ञान से नवीन ज्ञान को सम्बन्धित करने में आसानी होती है।

परम्परागत पाठ्यक्रम में एकीकरण का अभाव- भारतवर्ष के विद्यालयों में परम्परागत पाठ्यक्रम का प्रचलन है। शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर जो पाठ्यक्रम प्रयोग में लाया जा रहा है, उसमें ज्ञान एवं अनुभव के समग्र रूप को विभिन्न विषयों में बाँट दिया जाता है। अतः ज्ञान में एकता का अभाव रहता है तथा विभिन्न विषय एक-दूसरे से सम्बन्धित नहीं होते हैं। परिणामस्वरूप बालकों को वास्तविक ज्ञान नहीं मिल पाता। उदाहरण के लिए प्राथमिक विद्यालयों में प्रतिदिन लगभग एक घण्टा पुस्तकों को पढ़ने में, 30 मिनट से 40 मिनट तक अंकगणित के प्रश्न करने में, 30 मिनट लिखने एवं शब्दों का उच्चारण करने में तथा 20-30 मिनट सुलेख लिखने में व्यतीत किये जाते हैं, किन्तु इन सभी क्रियाओं में सामान्य रूप से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। इससे कोई भी विचार छात्रों को एक साथ नहीं मिल पाता है।

एकीकृत पाठ्यक्रम के उपयोग में कठिनाइयाँ- एकीकृत पाठ्यक्रम के निर्माण एवं प्रयोग में निम्नलिखित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है-

(1) बालकों की रुचियों को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम में एकीकरण बहुत अधिक कठिन है।

(2) इसके द्वारा छात्रों की विशिष्ट रुचियों का विकास कठिन होता है।

(3) इसमें ज्ञान की एक निश्चित रूपरेखा नहीं बन पाती है।

(4) इस पाठ्यक्रम में सभी विषयों का एक साथ एकीकरण कर सकना असम्भव होता है।

(5) इस प्रकार के पाठ्यक्रम में शिक्षण में बहुत अधिक समय लगता है तथा शिक्षक का कार्य-भार बढ़ जाता है।

(6) माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर पर विषयों का एकीकरण उचित नहीं होता है।

(7) इस पाठ्यक्रम के प्रयोग के लिए प्रभावशाली शिक्षकों का बहुत अधिक अभाव है।

(8) अधिकांश शिक्षक इसके उपयोग के लिए तैयार नहीं होते हैं तथा इससे बहुत अधिक असुविधा का अनुभव करते हैं।

इन कठिनाइयों के होते हुए भी एकीकृत पाठ्यक्रम का विचार अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। शिक्षकों को पाठ्यक्रम के विषयों में यथासम्भव एकीकरण का प्रयास करना चाहिए जिससे बालकों को पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में सफलता हो।

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