पाठ्यचर्या क्रियान्वयन का अर्थ स्पष्ट करते हुए पाठ्यचर्या क्रियान्वयन के तत्त्वों की विवेचना कीजिए। पाठ्यक्रम क्रियान्वयन में किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए?

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 किसी शैक्षणिक/प्रशिक्षण संस्था में निर्धारित उद्देश्यों के अनुरूप विषय वस्तु एवं अधिगम अनुभवों के माध्यम से पाठ्यचर्या का विकास करते हुए उसे कार्य रूप में परिणित करना तथा छात्रों को अर्जित उपलब्धियों का मापन कर मूल्यांकन करना पाठ्यचर्या का क्रियान्वयन कहलाता है। पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में शिक्षक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षक योजना को क्रिया रूप में छात्रों पर लागू करता है। पाठ्यक्रम का क्रियान्वयन का आशय एक प्रकार से पाठ्यचर्या को लागू करने से है।

पाठ्यचर्या क्रियान्वयन के तत्त्वों की विवेचना- पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में ये तत्त्व सम्मिलित हैं

1. पाठ्यचर्या के उद्देश्यों की पहचान;

2. शिक्षण अधिगम गतिविधियाँ और योजनाएं;

3. शिक्षण पद्धतियों का उपयोग करना;

4. छात्र शिक्षक अन्तक्रियाएं;

5. शिक्षक संप्रेषण;

6. कक्षा-कक्ष प्रबंधन;

7. मूल्यांकन।

(1) पाठ्यचर्या के उद्देश्यों की पहचान- शिक्षक के लिए आवश्यक है कि वह कक्षा व कक्षा के बाहर पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में उन उद्देश्यों व लक्ष्यों की पहचान कर ले जिनके आधार पर उसे पाठ्यचर्या को कार्य रूप में परिणित करना है। इससे उन्हें शिक्षण उद्देश्यों के अनुरूप शिक्षण करने, विषय वस्तु व अधिगम अनुभवों का चयन करने, शिक्षण पद्धतियों में से उपयुक्त पद्धति चुनने, संप्रेषण करने तथा छात्रों के अधिगम स्तर का मूल्यांकन कर यह जानने में सहायता मिलेगी कि अधिगमकर्ताओं को शैक्षिक उद्देश्य किस सीमा तक अर्जित हुए हैं और छात्रों में क्या व्यवहारगत परिवर्तन आए हैं।

(2) शिक्षण अधिगम गतिविधियाँ और योजनाएं- पाठ्यक्रम क्रियान्वयन का दूसरा प्रमुख तत्त्व छात्रों के लिए अनेकानेक शिक्षण अधिगम गतिविधियों का आयोजन करना तथा निर्धारित समयावधि (सेमेस्टर हेतु या वर्ष हेतु) इकाइयों के अध्यापन व मूल्यांकन की योजनाएं बनाना है। मूल्यांकन की नवीन धारणा के अनुसार सतत (निरंतर) तथा समग्र मूल्यांकन होना चाहिए तथा यह शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के साथ-साथ कक्षा में, प्रश्नोत्तर में, गृहकार्य में, असाइन्मेंट आदि के रूप में होता रहना चाहिए। पाठ्यचर्या की पूर्ति पर वार्षिक मूल्यांकन कक्षोन्नति के प्रयोजन को भी किया जाना चाहिए।

(3) शिक्षण पद्धतियों का उपयोग- विषयवस्तु के शिक्षण में उपयुक्त शिक्षण विधियों का चयन कर छात्रों को पढ़ाना पाठ्यक्रम क्रियान्वयन का केन्द्रीय भाग है। इस हेतु विभिन्न शिक्षण सूत्र, शिक्षण कौशल तथा शिक्षण विधियों का उपयोग करना होता है। प्रयास यह रहता है कि छात्रों का अधिगम विकसित हो। क्रियात्मक गतिविधियों से छात्र स्वयं करके सीखते हैं अतः यह विधि अधिक कारगर मानी जाती है

(4) शिक्षक-छात्र अन्तक्रियाएं- कक्षा-कक्ष में शिक्षक संप्रेषण करता है तथा ज्ञान अर्जित हुआ या नहीं इसके लिए छात्रों से प्रश्न पूछता है। छात्रगण भी जो तथ्य समझ में न आएं उसे सुस्पष्ट करने के लिए शिक्षक से प्रश्न पूछते हैं । शिक्षक व छात्र की ये अंतक्रियाएं छात्र अधिगम की वृद्धि में सहायक होती हैं। इससे समस्याओं का समाधान भी हो जाता है तथा शिक्षक को अपने शिक्षण की सफलता या असफलता का ज्ञान भी होता है । इस प्रकार पाठ्यक्रम क्रियान्वयन में शिक्षक छात्र अन्तक्रिया अधिक महत्त्व देती है। माध्यमिक स्तर तक शिक्षक केवल विषय का व्याख्यान दें तथा छात्र विषय का अधिगम कर लें की पद्धति की अपेक्षा कक्षा अन्तक्रिया द्वारा पाठ्यचर्या का क्रियान्वयन कराना अधिक प्रभावोत्पादक माना जाता है ।

(5) शिक्षक संप्रेषण- शिक्षक पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन के अंतर्गत विभिन्न संप्रत्ययों/अवधारणाओं को स्पष्ट करने के लिए ब्लेकबोर्ड का उपयोग, रेखाचित्रों का प्रदर्शन, सहायक शिक्षण सामग्री और दृश्य-श्रवय उपकरणों का प्रयोग कर संप्रेषण करने का प्रयास करता है। विषयवस्तु के वर्गीकरण, गुण विशेषताओं लक्षणों के स्पष्टीकरण आदि के लिए भी शिक्षक संप्रेषण पाठ्यचर्या के विकास का आवश्यक अंग है। संप्रेषण की सफलता छात्रों के अधिगम के आंकलन से ज्ञात होती है।

(6) कक्षा-कक्ष प्रबंधन- कक्षा कक्ष में प्रकाश, वायु की समुचित व्यवस्था, बड़ा व व्यवस्थित श्यामपट या श्वेतपट या डिजिटल बोर्ड, छात्रों के बैठने की समुचित व्यवस्था, चॉक डस्टर व शिक्षक की टेबल कुर्सी, दृश्य श्रव्य शिक्षण सामग्री की उपलब्धता आदि कक्षा-कक्ष प्रबंधन में आवश्यक है। यद्यपि ये तत्त्व पाठ्यक्रम से अलग भौतिक पदार्थ भी हो सकते हैं तथापि पाठ्यक्रम क्रियान्वयन की कल्पना बिना सुसज्जित कक्षा-कक्ष के नहीं की जा सकती। इनसे अध्ययन के वातावरण निर्माण में योगदान होता है।

(7) मूल्यांकन- मूल्यांकन का अर्थ छात्रों के अधिगम के स्तर को जानना तथा फीडबैक (पृष्ठपोषण) के लिए उसका उपयोग करना है। यह पाठ्यचर्या क्रियान्वयन का अंतिम किन्तु प्रभावशाली तत्त्व है । मूल्यांकन से ही शिक्षक को यह ज्ञान होता है कि पाठ्यचर्या के लक्ष्य व उद्देश्य किस सीमा तक छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन ला सकने में सफल हुए हैं। पाठ्यचर्या का सतत व समग्र मूल्यांकन छात्रों के अधिगम का ज्ञान तो देता ही है उनके अधिगम को स्थायी रूप भी देता है और सीखे हुए ज्ञान का परिचय देता है । यह यह भी बताता है कि उपचारात्मक या निदानात्मक शिक्षण इन छात्रों को दिया जाना है जो पूर्ण अधिगम प्राप्त नहीं कर सके हैं इस हेतु शिक्षक रिवीजन पाठ्यचर्या व कठिन अंशों के अभ्यास की व्यवस्था करना है। इस प्रकार पाठ्यक्रम मूल्यांकन में योगात्मक मूल्यांकन विशेष महत्त्व रखता है।


पाठ्यचर्या क्रियान्वयन में ध्यान में रखने योग्य बातें

जब पाठ्यचर्या और उसकी सामग्री का पूर्ण परीक्षण कर लिया है तो शिक्षकों और प्रशासकों का यह कर्तव्य है तो इसका क्रियान्वयन किया जाये। इसको लागू करने के लिए प्रशिक्षणों, व्यवस्थाओं और आवश्यक सुविधाओं की आवश्यकता होती है। पाठ्यचर्या क्रियान्वयन और कोर्स को लागू करते समय इनका मूल्यांकन आवश्यक है। इसमें निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाता है

(1) विद्यमान स्थिति- सभी पाठ्यचर्या क्षेत्रों का पाठ्यचर्या योजना के अनुसार अध्ययन किया जाना चाहिए जिससे इसके लुप्त लक्षणों का पता लगाया जा सके ।

(2) पाठ्यचर्या की प्रभाविता- पाठ्यचर्या की प्रभाविता जानना महत्वपूर्ण कार्य है। इसमें यही ज्ञात किया जाता है कि पाठ्य योजना में वर्णित उद्देश्यों को प्राप्त करने की क्षमता छात्रों में है या नहीं। इससे पता चलता है कि सामाजिक व्यवस्था के उद्देश्यों को पाठ्यचर्या में शामिल किया गया है या नहीं।

यह सम्भव नहीं है कि सभी छात्र शत-प्रतिशत विषय-वस्तु के उद्देश्यों को प्राप्त कर लें, परन्तु एक निश्चित निम्नतम सीमा तक ऐसा होना आवश्यक है। कार्यक्रम को प्रभावित करने वाले निर्णय की सीमा में नियोजकों ओर पूर्व छात्रों की प्रतिपुष्टि को भी शामिल करना चाहिए । प्रभाविता की जाँच नई पाठ्यचर्या और पूर्व पाठ्यचर्या के माध्यम से करनी चाहिए। इसके लिए समयबद्ध कार्यक्रम उचित होता है।

(3) कार्यक्रम की ग्राह्यता- पाठ्यचर्या की प्रभाविता जानने के साथ इसकी ग्राह्यता का ज्ञान भी महत्वपूर्ण है । ग्राह्यता से तात्पर्य यह है कि कार्यक्रम के क्रियान्वयन में शामिल लोग इसे पसंद करते हैं या नहीं। इसके लिए छात्रों, शिक्षकों, सुपरवाइजरों और प्रशासकों के विचारों पर भी ध्यान देना चाहिए।

(4) कार्यक्रम की क्षमता- पाठ्यचर्या की क्षमता इस बात को दर्शाती है कि उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए पाठ्यचर्या आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त है अर्थात् यह लागत, समय और शक्ति की दृष्टि से उपयोगी है या नहीं। पूर्व उद्देश्यों को उचित समय और धन के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। प्रभावपूर्ण और क्षमतावान पाठ्यचर्या से कम से कम समय और धन से अधिगम उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। क्षमता उपलब्धि और स्त्रोतों की शक्ति का अनुपात है।

किसी कार्यक्रम या पाठ्यचर्या की क्षमता को ज्ञात करना एक कठिन कार्य है। शिक्षा जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं की क्षमता का पता लगाना और कठिन है। नियंत्रित प्रयोगों के द्वारा यह सम्भव है परन्तु अस्थिर कारकों का नियंत्रण मुश्किल है। इसलिए अन्य कार्यक्रमों की अपेक्षा इस प्रकार के कार्यक्रमों की क्षमता का ठीक पता लगाना अति कठिन है। कार्यक्रम की क्षमता का निर्णय करने में निम्नलिखित प्रश्नों का सामना करना है-

(i) क्या कार्यक्रम के स्त्रोतों के खर्च को उसकी उपलब्धियों के अनुपात में निश्चित किया जा सकता है?

(ii) क्या दी गई पाठ्यचर्या पहले की अपेक्षा अधिक क्षमतावान हो सकती है?

(iii) क्या इसमें छात्र के समय, शिक्षक के समय या सामग्री और स्त्रोतों की बर्बादी है?

(iv) क्या संसाधनों का उपयोग होता है?

(v) पाठ्यचर्या क्षमता में किस प्रकार सुधार किया जा सकता है?

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