पाठ्यचर्या प्रारूप (कैरीकुलम डिजाइन) के अर्थ व परिभाषा को बताते हुए पाठ्यक्रम प्रारूप के सोपानों का वर्णन कीजिए।

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 पाठ्यचर्या प्रारूप शब्द अंग्रेज़ी के शब्द कैरिकुलम डिजाइन का हिन्दी पर्याय है। पाठ्यचर्या प्रारूप का शाब्दिक अर्थ पाठ्यचर्या की व्यवस्थित रूपरेखा है जिसमें पाठ्यचर्या के निर्माण से मूल्यांकन तक की प्रक्रिया का क्रमवार विवरण होता है । हम कह सकते हैं कि पाठ्यचर्या प्रारूप वह ढाँचा या रूपरेखा है जिसमें विद्यालय के शैक्षणिक अनुभवों का चयन, योजना, क्रियान्वयन आदि सम्मिलित है । पाठ्यचर्या प्रारूप को इन शब्दों में परिभाषित किया जा सकता है, “पाठ्यचर्या प्रारूप एक निश्चित समयावधि के लिए निश्चित अनुदेशात्मक खंडों की एक प्रस्तावित रूपरेखा होती है जिसमें इन अनुदेशात्मक खंडों को कैसे अनुशासित किया जाए यह निर्देश होता है।”

शीहान तथा किर्कलैंड के पाठ्यचर्या प्रारूप को समस्या की पहचान, अधिगमकर्ता की आवश्यकताओं का आंकलन, लक्ष्य व उद्देश्य, शैक्षणिक रणनीति, क्रियान्वयन तथा मूल्यांकन व पृष्ठपोषण (फीडबैक) इन छह चरणों (सोपानों) में विभक्त किया है। प्रो.एस. स्वामीनाथन पिल्लई व पाठ्यचर्या डिजाइन के स्तरों को इन आठ स्तरों में बाँटा है- 1. नियोजन (प्लानिंग);

2. निर्माण (प्रिपेयरिंग)

3. प्रारूपण (डिजाइनिंग);

4. विकास (डेवलपिंग);

5. क्रियान्वयन (इम्प्लीमेंटिंग);

6. मूल्यांकन

7. पुनरीक्षण (रिवाइजिंग);

8. सुधार (इंप्रूविंग)।

विस्तृत स्तर पर विभिन्न पाठ्यचर्या के प्रारूपों को निम्नलिखित छह सोपानों में विभाजित किया जा सकता है-

1. उद्देश्य निर्धारण;

2. अधिगम अनुभवों का चयन;

3. विषयवस्तु का चयन;

4. अधिगम अनुभवों व विषयवस्तु का अनुक्रम व संगठन;

5. विकास व क्रियान्वयन;

6. मूल्यांकन।

नीचे इनका विवरण दिया जा रहा है-

(1) उद्देश्य निर्धारण- पाठ्यक्रम प्रारूपण (डिजाइनिंग) हेतु प्रथम सोपान यह है कि जिस कोर्स की पाठ्यचर्या तैयार की जा रही है, उस कोर्स में अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए शिक्षा के कौनसे उद्देश्य होने चाहिए इसका विस्तृत अध्ययन कर उद्देश्यों का निर्धारण कर लिया जाए। कोर्स के ये उद्देश्य ही आगे के पाठ्यचर्या विकास को आकार देंगे। उद्देश्यों के चयन के आधार पर ही विषयवस्तु तथा अधिगम अनुभवों का संगठन होगा तथा छात्रों के मूल्यांकन का आधार भी नहीं होगा कि छात्रों ने निर्धारित शैक्षिक उद्देश्यों की किस सीमा तक अर्जित किया है इस प्रकार पाठ्यचर्या प्रारूपण की प्रक्रिया में उद्देश्यों का चयन अत्यन्त सावधानी से किया जाना चाहिए। उद्देश्यों के निर्धारण के अनेक स्रोत हैं जिनमें बालक के ज्ञानात्मक व बौद्धिक विकास, भावनात्मक या संवेगात्मक विकास, क्रियात्मक व कौशल संपादन, सामाजिक व शारीरिक विकास प्रमुख हैं । तात्पर्य यह है कि सर्वांगीण या सर्वतोमुखी विकास को ध्यान में रखकर उद्देश्य हैं निर्धारण होना चाहिए। सामान्य उद्देश्य व विशिष्ट उद्देश्य भी निर्धारित कर लेने चाहिए ताकि विषय व विषयवस्तु का चयन उनकी अनिवार्यता या वैकल्पिकता का समुचित समावेश पाठ्यचर्या में हो सके। उद्देश्यों के अनुरूप ही शिक्षण विधियों, अधिगम प्रक्रिया, पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आयोजन भी होता है। इस दृष्टि से उद्देश्य निर्धारण प्रथम व महत्त्वपूर्ण सोपान है।

(2) अधिगम अनुभवों का चयन- सीखने की प्रक्रियाओं के दौरान छात्र को अनुभव अर्जित करता है वे अधिगम अनुभव है। छात्र कक्षा और कक्षा के बाहर भी अधिगम् अनुभव प्राप्त करता है। बालक के स्तर के अनुरूप पाठ्यचर्या में आरक्षण के समय सीखने के इन अवसरों का चयन करना होता है । सीखने के अनुभव के व्यापक अवसर, विषयवस्तु के आंतरिक स्वरूप से संबंधित, गत्यात्मक, नवीन, प्रभावशाली, उपयोगी, एकीकृत, सहसंबंधित वैध तथा विश्वसनीय होने चाहिए । कक्षा अंतक्रिया (शिक्षक-छात्र संवाद) को लेकर पाठ्यसहगामी क्रियाओं तक अधिगम अवसरों का विस्तार होना चाहिए।

पाठ्यचर्या प्रारूपण में अधिगम अनुभव से संबंधित अधिगम सिद्धान्तों, शिक्षण विधियों, दृश्य-श्रव्य साधनों, कार्यानुभव तथा क्रियात्मक गतिविधियों,प्रायोगिक अभ्यासों,प्रोजेक्ट कार्यों, गृह कार्य, चर्चा परिचर्चा, विज्ञान प्रदर्शनी, शैक्षिक भ्रमण आदि गतिविधियों में अधिगम अनुभवों के चयन की अपार संभावनाएं हैं। बूनर ने अधिगम को क्रियात्मक अधिगम,प्रतिभात्मक अधिगम तथा प्रतीकात्मक अनुभव इन तीन भागों में विभाजित किया है। तीनों अधिगम में अधिगम करना संभव है।

(3) विषयवस्तु का चयन- विषयवस्तु का चयन पाठ्यचर्या प्रारूप का महत्त्वपूर्ण तथा अनिवार्य सोपान है। बालक की योग्यता, क्षमता, कक्षा के स्तर, उद्देश्यों के अनुरूप सैद्धान्तिक व व्यावहारिक, उपयोगी, सार्थक, रोचक, विषय सामग्री तथा विषय वस्तु का चयन होना चाहिए । छात्रों की वैयक्तिक विभिन्नता को ध्यान में रखकर पाठ्यचर्या में वैविध्य एवं अनिवार्य व वैकल्पिक विषयों के चयन की स्वतंत्रता छात्रों को मिलनी चाहिए। विषयवस्तु प्रामाणिक, सामाजिक जीवन पक्ष से जुड़ी, विविधतापूर्ण, अधिगम अनुभवों से सम्बद्ध, पाठ्यसहगामी क्रियाओं से परिपूर्ण होनी चाहिए।

विषयवस्तु का चयन कोर्स के सामान्य व विशिष्ट उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।

(4) अधिगम अनुभवों और विषयवस्तु का अनुक्रम व संगठन- पाठ्यचर्या प्रारूपण का अगला चरण अधिगम अनुभवों तथा चयनित पाठ्यवस्तु को व्यवस्थित रूप देना तथा संगठित रूप देना है। इस सोपान में इकाइयों तथा प्रकरणों में विषयवस्तु और अधिगम अनुभवों को उनकी पारस्परिक एकसूत्रता तथा सहसंबंधता के आधार पर संगठित किया जाता है। इन दोनों के निकट संबंध को दृष्टिगत रखते हुए पाठ्यचर्या में उनका सही अनुक्रम व संगठन होना चाहिए।

बूनर ने विषयवस्तु के स्वरूप के लिए सिद्धान्तों तथा शिक्षण विधियों की विषयानुकूलता का विवेचन किया है। उनके अनुसार प्रत्येक विषय की अपनी विषयवस्तु, अपने सिद्धान्त, अपनी व्यवस्था तथा निजी शिक्षण विधियाँ होती हैं। उदाहरण के लिए विज्ञान विषय की पाठ्यचर्या में प्रयोग और निरीक्षण व प्रदर्शन तथा प्रायोगिक विधि उपयुक्त है। भाषा पाठ्यचर्या में कहानी विधि उपयुक्त है। अतः विषयवस्तु का पाठ्यचर्या में संगठन उस विषय की शिक्षण विधियों तथा अनुभव के अवसरों के आधार पर इन मापदंडों के प्रकाश में होना चाहिए-

1. वैधताः

2. महत्त्व

3. अभिरुचि

4. अधिगम।

अधिगम अनुभव तथा विषयवस्तु के संयोजन के साथ मूल्यांकन, परीक्षण, प्रश्न माल, गृहकार्य, असाइन्मेंट, प्रोजेक्ट कार्य को भी पाठ्यचर्या में सम्मिलित करना चाहिए ।

(5) पाठ्यचर्या का विकास और क्रियान्वयन- विद्यालय में संबंधित पाठ्यचर्या का विकास तथा क्रियान्वयन कैसा हो इसे पाठ्यचर्या प्रारूप के अगले चरण में स्पष्ट करना आवश्यक है। सीखने के अनुभव हेतु प्रमुख प्रविधियाँ व प्रक्रियाएं हैं-शिक्षण विधियाँ, शिक्षण तकनीक, शिक्षण सूत्र, सहायक सामग्री, पाठ्य पुस्तकें, गृह कार्य, कक्षा अंतक्रिया, पाठ्य सहगामी क्रियाएं, शैक्षिक भ्रमण आदि । पाठ्यचर्या के विकास तथा क्रियान्वयन में इन सबका प्रयोग होना चाहिए। सेलर अलेक्जेंडर मॉडल में पाठ्यचर्या प्रारूप में अच्छी पाठ्यचर्या की विषयवस्तु, संगठन तथा उपयुक्त अधिगम अनुभवों के बारे में पाठ्यचर्या नियोजकों के निर्णय तथा पाठ्यचर्या क्रियान्वयन में शिक्षकों के अनुदेशन संबंधों में बहुत से अधिगम अनुभवों को सम्मिलित करने पर बल दिया गया है ताकि शिक्षकों के पास विकल्प हो ।

(6) मूल्यांकन- मूल्यांकन से तात्पर्य है छात्रों ने जो कुछ सीखा उनसे उनके व्यवहारगत परिवर्तन का परीक्षण करना । मूल्यांकन में यह देखा जाता है कि पाठ्यचर्या के उद्देश्य क्या छात्रों ने समुचित रूप से अर्जित किये हैं। मापन की विभिन्न विधियों का प्रयोग कर शिक्षक छात्रों की अधिगम क्षमता व ज्ञान कौशल का परीक्षण इस सोपान में करता है । मूल्यांकन से शिक्षक को अपनी कार्य कुशलता की प्रतिपुष्टि (फीडबैक) भी मिल जाता है जिससे वह अपने शिक्षण में भविष्य में और सुधार ला सकता है।

पाठ्यचर्या में मूल्यांकन सोपान का उपयोग पाठ्यचर्या पूर्ण होने पर (वर्षांत में) एक बार न होकर सतत तथा समग्र रूप में होते रहना चाहिए। प्रत्येक पाठ के बाद प्रश्नों के माध्यम से और प्रत्येक इकाई के बाद निर्दिष्ट प्रोजेक्ट कार्य से अथवा पाठ्यचर्या में निर्देशित प्रायोगिक/प्रेक्टीकल कार्यों में छात्र के निष्पादन का निरंतर रिकॉर्ड रखना चाहिए।

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