पाठ्यचर्या विकास में शिक्षक की भूमिका तथा विद्यार्थी की भूमिका का वर्णन कीजिए।

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शिक्षक की भूमिका

शिक्षण विधियों, आव्यूह तथा माध्यमों के चयन एवं व्यवस्था में शिक्षक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। क्योंकि चयन करना ही पर्याप्त नहीं होता है अपितु शिक्षक को उनको प्रयुक्त करके समुचित अधिगम परिस्थिति उत्पन्न करनी होती है और छात्रों की सीखने के अवसर प्रदान करने होते हैं। शिक्षक को अपनी क्रियाओं को छात्रों को सीखने के अवसर प्रदान करने होते हैं। शिक्षक को अपनी क्रियाओं को छात्रों के अधिगम स्वरुपों से संबंधित करना होता है तभी छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन हो सकते हैं और उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है। शिक्षक के लिए पाठ्यवस्तु की सहायता से सीखने के अवसरों को समझना और उनके लिए अधिगम परिस्थति उत्पन्न करना होता है। सीखने के अवसरों के लिए विविध प्रकार की शिक्षण विधियों को प्रयुक्त कर सकते हैं इसलिए उनका चयन करना भी होता है। इसके चयन का आधार मूल्यांकन तथा छात्रों की प्रगति प्रमुख है। व्यक्तिगत भिन्नता के सन्दर्भ में अपने अनुभवों को प्रयुक्त करता है।

शिक्षण क्रियाओं का सम्पादन छात्र-शिक्षकों के सम्बन्धों पर आधारित होता है छात्र-शिक्षक अन्त प्रक्रिया और संबंध शिक्षक विधियों द्वारा निर्धारित होता है। प्रवचन विधि द्वारा संबंध होते हैं और वे प्रश्नोत्तर विधि द्वारा संबंधों से बिल्कुल भिन्न होते हैं। प्रश्नोत्तर विधि में छात्रों एवं शिक्षक की भूमिका समान होती है और प्रवचन विधि में शिक्षक की भूमिका प्रमुख होती है।

विद्यालय की व्यवस्था पर शिक्षण विधियों का चयन निर्भर करता है। प्रभावशाली एवं गतिशील व्यवस्था अधिक लचीली होती है जिसमें नई शिक्षण विधियों को प्रयुक्त करने के अवसर दिए जाते हैं तथा शिक्षकों को प्रोत्साहित किया जाता है। परन्तु इन साधनों के लिए पाठ्यक्रम के निर्माण में इनकी व्यवस्था की जाती है।

नए पाठ्यक्रमों के आरम्भ करते समय यह भी विचार किया जाता है कि इन पाठ्यक्रमों का शिक्षण कैसे किया जाएगा तभी पाठ्यक्रम का निर्माण करना सार्थक होता है। पाठ्यक्रम के साथ शिक्षण विधि आव्यूह, माध्यम आदि का भी चयन करना आवश्यक होता है।


पाठ्यचर्या विकास में विद्यार्थी की भूमिका

जॉन डीवी ने शिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया माना है जिसके एक कोण पर पाठ्यचर्या, दूसरे पर शिक्षक तथा तीसरे कोण पर विद्यार्थी है:

पाठ्यचर्या विकास की सफलता भी उक्त तीनों पक्षों की सफलता है। बालकेन्द्रित शिक्षा की अवधारणा के अनुसार पाठ्यचर्या का विकास बालक (विद्यार्थी) के इर्द-गिर्द तथा केन्द्र में रखकर होना चाहिए। पाठ्यचर्या का निर्माण छात्रों की वैयक्तिक विभिन्नता, भिन्न-भिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक परिवेश, भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं तथा रुचियों क्षमताओं के आधार पर होता है, अत: पाठ्यचर्या के विकास में भी छात्रों की वैयक्तिक विभिन्नता को आधार बनाकर अधिगम प्रक्रिया को संगठित किया जाना चाहिए।

पाठ्यचर्या विकास के सभी सोपानों आवश्यकता का आंकलन, शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण, विषय सामग्री का चयन, अधिगम अनुभवों तथा मूल्यांकन आदि में छात्र या विद्यार्थी को केन्द्र में रखकर ही संगठन किया जाता है। पाठ्यचर्या के शिक्षण स्तर का निर्धारण तथा छात्रों की क्षमताओं के अनुरूप पाठ्यचर्या विकास आवश्यक है। पाठ्यचर्या विकास के निर्धारकों में अध्यापक के साथ-साथ छात्र की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पाठ सहगामी क्रियाएं तथा पाठ्यक्रमेतर क्रियाओं में छात्रों की भूमिका या सहभागिता पाठ्यचर्या के विकास को प्रभावित करती है। शिक्षण प्रक्रिया का केन्द्रबिन्दु तथा मूल्यांकन का केन्द्र बिन्दु भी बालक होता है।

विशेष आवश्यकताओं वाले बालक (प्रतिभाशाली) तथा दिव्यांगों के लिए पृथक पाठ्यक्रम का निर्माण भी पाठ्यचर्या विकास में अधिगमकर्ता की भूमिका के महत्त्व को बताता है।

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