पाठ्यवस्तु एवं पाठ्य-पुस्तकें-अन्तर्सम्बन्ध के बारे में लिखो।

Estimated reading: 3 minutes 76 views

पाठ्यक्रम के अन्तर्गत समाहित होने वाली कुछ क्रियाएं पाठ्यवस्तु के क्षेत्र के बाहर रह जाती हैं। उदाहरण के लिए, हाईस्कूल के पाठ्यक्रम में गणित एक विषय के रूप में शामिल किया जाता है लेकिन गणित विषय के अन्तर्गत जिन उपविषयों, अंकगणित,बीजगणित, रेखागणित की एक निश्चित पाठ्य सामग्री या प्रकरणों को पढ़ाने हेतु निर्धारित किया जाता है उसे गणित की पाठ्यवस्तु कहा जाएगा। पाठ्यवस्तु का सम्बन्ध ज्ञानात्मक पक्ष के विकास से होता है जबकि पाठ्यक्रम का सम्बन्ध बालक के सम्पूर्ण विकास से होता है। पाठ्यवस्तु के अनुसार ही पाठ्य-पुस्तकों का चुनाव किया जाता है। पाठ्य-पुस्तकें पाठ्यवस्तु के अनुरूप ही लिखी जाती हैं। कुछ विद्वानों द्वारा पाठ्यवस्तु तथा पाठ्यचर्या का एक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है। वर्तमान समय में सिलेबस के स्थान पर कोर्स ऑफ स्टडी का प्रयोग ज्यादा किया जाने लगा है जबकि कुछ लोग पाठ्यक्रम एवं पाठ्यवस्तु का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं।

पाठ्यवस्तु :

पाठ्यक्रम के लिए सिलेबस शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। जब तक पाठ्यक्रम शब्द पाठ्य-विषयों के सीमित अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है तब तक इन दोनों अर्थों में समानता होती है परन्तु पाठ्यक्रम शब्द की संकल्पना में व्यापकता आ जाने के कारण इन शब्दों के प्रयोग में भिन्नता आ गई है।

पाठ्यवस्तु में निर्धारित पाठ्य-विषयों से सम्बन्धित क्रियाओं का ही समावेश होता है। इस तरह पाठ्यवस्तु के अन्तर्गत किसी विषय-वस्तु का विवरण शिक्षण हेतु तैयार किया जाता है जिसे शिक्षक छात्रों को पढ़ाता है। एक विद्वान के अनुसार पाठ्यवस्तु पूरे शैक्षिक सत्र में विभिन्न विषयों में शिक्षक द्वारा छात्रों को दिये जाने वाले ज्ञान की मात्रा के विषय में निश्चित जानकारी पेश करता है। दूसरे शब्दों में पाठ्यवस्तु शिक्षण की विषय-वस्तु का निर्धारण करता है।

हेनरी हरेप के अनुसार, “पाठ्यवस्तु सिर्फ मुद्रित संदर्शिका है जो यह बताती है कि छात्र को क्या सीखना है? पाठ्यवस्तु की तैयारी पाठ्यक्रम विकास के कार्य का एक तर्कसम्मत सोपान है।”

यूनेस्को (UNESCO) के एक प्रकाशन Preparing Textbook Manuscripts (1970) में पाठ्यक्रम तथा पाठ्यवस्तु के अन्तर को इस तरह स्पष्ट किया है-“पाठ्यक्रम अध्ययन हेतु विषयों, उनकी व्यवस्था तथा क्रम का निर्धारण एवं इस तरह एक सीमा तक मानविकी तथा विज्ञान में सन्तुलन तथा अध्ययन विषयों में एकरूपता सुनिश्चित करता है, जिससे विषयों के मध्य अन्तर्सम्बन्ध स्थापित करने में सुविधा होती है। इसके साथ ही पाठ्यक्रम, विविध विषयों हेतु विद्यालय की समय-अवधि का आबंटन, हर विषय को पढ़ाने के उद्देश्य, क्रियात्मक कौशलों को प्राप्त करने गति तथा ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र के स्कूलों को शिक्षण में विभेदीकरण का निर्धारण करता है। विकासशील देशों में स्कूल पाठ्यक्रम वहाँ की विकास की आवश्यकताओं से सीधे जुड़ा हुआ होता है। पाठ्यवस्तु निर्धारित पाठ्य-विषयों के शिक्षण के लिए अन्तर्वस्तु, उसके ज्ञान की सीमा, छात्रों द्वारा प्राप्त किये जाने वाले कौशलों को निश्चित करता है एवं शैक्षिक सत्र में पढ़ाये जाने वाले व्यक्तिगत पहलुओं तथा निष्कर्षों की विस्तृत जानकारी प्रदान करता है पाठ्यवस्तु किसी पाठ्य-विषय हेतु अधिगम के एक स्तर विशेष पर पाठ्यक्रम का एक परिष्कृत तथा विस्तृत रूप होता है।”

इसलिए पाठ्यवस्तु का सम्बन्ध ज्ञानात्मक पक्ष के विकास से होता है। विद्यालय के भीतर शिक्षण क्रियाओं का सम्बन्ध ज्ञानात्मक पक्ष से होता है। पाठ्यवस्तु का स्वरूप सुनिश्चित होता है एवं इसके अन्तर्गत सिर्फ शिक्षण विषयों के प्रकरणों को भी शामिल किया जाता है।


पाठ्य-पुस्तक

आधुनिक शिक्षा प्रणाली में पाठ्य-पुस्तकों का महत्त्व सर्वविदित है। पाठ्यक्रम की वास्तविक रूपरेखा को पाठ्य-पुस्तकों द्वारा ही विस्तार मिलता है जिससे वह शिक्षक तथा छात्र दोनों हेतु सुगम हो जाता है। सीखने के अनुभवों में पाठ्य-पुस्तकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पुस्तकों के माध्यम से अतीत के ज्ञान एवं अनुभवों को संचित किया जाता है जिससे आने वाली पीढ़ी उसका उपयोग करके लाभान्वित हो सके। पाठ्य-पुस्तक में किसी विषय-विशेष का संगठित ज्ञान एक स्थान पर रखा जाता है। इस तरह अच्छी पाठ्य-पुस्तकें शिक्षण-प्रक्रिया में निर्देशन का कार्य करती हैं। अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों हेतु महत्त्वपूर्ण साधन है।


पाठ्य-पुस्तक का अर्थ

किसी विषय के ज्ञान को जब एक स्थान पर पुस्तक के रूप में संगठित ढंग से पेश किया जाता है तो उसे पाठ्य-पुस्तक की संज्ञा प्रदान की जाती है। पाठ्य-पुस्तक के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कुछ विद्वानों के कथनों को यहाँ पेश किया जा रहा है

1. हैरोलिकर के अनुसार, “पाठ्य-पुस्तक ज्ञान, आदतों, भावनाओं, क्रियाओं एवं प्रवृत्तियों का सम्पूर्ण योग है।’

2. हाल-क्वेस्ट के शब्दों में, “पाठ्य-पुस्तक शिक्षण अभिप्रायों हेतु व्यवस्थित प्रजातीय चिन्तन का एक अभिलेख है।”

3. लैंज के अनुसार, “यह अध्ययन क्षेत्र की किसी शाखा की एक प्रमाणित पुस्तक होती है।”

4. डगलस का कथन है, “अध्यापकों के बहुमत ने अन्तिम विश्लेषण के आधार पर पाठ्य-पुस्तक को वे क्या एवं किस तरह पढ़ायेंगे की आधारशिला माना है।”

5. बेकन के अनुसार, “पाठ्य-पुस्तक कक्षा प्रयोग हेतु विशेषज्ञों द्वारा सावधानी से तैयार की जाती है। यह शिक्षण युक्तियों से भी सुसज्जित होती है।”


पाठ्य-पुस्तकों की आवश्यकता तथा महत्त्व

पाठ्य-पुस्तक के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कॉनबैक ने कहा है कि “अमेरिका में आज के शैक्षिक चित्र का केन्द्रबिन्दु पाठ्य-पुस्तक है। इसका विद्यालय में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका अतीत में भी बहुत अधिक महत्त्व था एवं आज भी है। इसको जनसामान्य की भी लोकप्रियता प्राप्त होती है, क्योंकि पाठ्य-पुस्तक विद्यालय अथवा कक्षा में छात्रों एवं शिक्षकों हेतु विशेष रूप से तैयार की जाती है जो किसी एक विषय अथवा सम्बन्धित विषयों की पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतीकरण करती है।

पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता तथा महत्त्व को अग्रांकित कारणों से स्वीकार किया जाता है –

(1) पाठ्य-पुस्तकें शिक्षकों तथा छात्रों के लिए मार्गदर्शक का कार्य करती हैं।

(2) पाठ्य-पुस्तक में निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार विषय का संगठित ज्ञान एक स्थान पर मिल जाता है।

(3) इनके द्वारा छात्रों तथा शिक्षकों के समय की बचत होती है।

(4) पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा छात्रों तथा शिक्षकों को यह जानकारी मिलती है कि किसी कक्षा-स्तर हेतु कितनी विषय-वस्तु का अध्ययन-अध्यापन करना है।

(5) पाठ्य-पुस्तक के आधार पर कक्षा-कार्य एवं मूल्यांकन संभव होता है।

(6) पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्त करने में छात्रों को प्रेरणा प्राप्त होती है।

(7) योग्य शिक्षकों का ज्ञान भी अव्यवस्थित होता है। इसलिए उसे व्यवस्थित करने में पाठ्य-पुस्तक मददगार होती है। इसी तरह छात्रों के अपूर्ण ज्ञान को परिवर्धित तथा पूर्णता प्रदान करने हेतु यह मददगार होती है।

(8) छात्रों का मानसिक स्तर इतना ऊंचा नहीं होता है कि वे विद्यालय में पढ़ायी गई विषय-वस्तु को एक ही बार में आत्मसात् कर सकें। उन्हें विषय-वस्तु को कई बार पढ़ना एवं दुहराना पड़ता है। इसलिए पाठ्य-पुस्तक की जरूरत होती है।

(9) विविध शिक्षा आयोगों द्वारा भी पाठ्य-पुस्तकों की जरूरत तथा महत्त्व को स्वीकार किया गया है।

(10) पाठ्य-पुस्तकों में विषय के पाठ्यक्रम की सम्पूर्ण रूप से व्याख्या की जाती है जिससे शिक्षक उपयुक्त अधिगम-अनुभव प्रदान कर सकता है।

(11) पाठ्य-पुस्तकों से अध्ययन-अध्यापन में एकरूपता आती है।

(12) पाठ्य-पुस्तकें शिक्षकों एवं छात्रों को विद्वानों के बहुमूल्य विचारों तथा उपयोगी अनुभवों को प्रदान करती है जिससे वे इन अनुभवों का लाभ उठाने में समर्थ हो सकते हैं।

(13) पाठ्य-पुस्तक में विषय-वस्तु को तार्किक ढंग से पेश किया जाता है जिससे छात्रों हेतु विषय-वस्तु सरल तथा सुगम हो जाती है।

(14) पाठ्य-पुस्तकें शिक्षक को कक्षा-स्तर के अनुसार शिक्षण कार्य करने का बोध कराती हैं।


अच्छी पाठ्य-पुस्तक की प्रमुख विशेषताएं

एक अच्छी पाठ्य-पुस्तक में अग्रलिखित गुणों का होना जरूरी है:

(1) विषय-वस्तु का संगणन तार्किक तथा मनोवैज्ञानिक हो।

(2) विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण बालकों के मानसिक स्तर अनुरूप हो।

(3) व्याख्या, स्पष्टीकरण, उदाहरणों की मदद से विषय का सरलीकरण हो।

(4) भाषा-शैली में सरलता, स्पष्टता, मौलिकता तथा प्रवाहशीलता हो।

(5) पाठ्य-पुस्तक में विद्यार्थियों में स्वयं पढ़ने की रुचि विकसित करने की क्षमता हो।

(6) अन्य लेखकों, विद्वानों के सन्दर्भ स्पष्ट, विश्वसनीय तथा वैध हों।

(7) मुख-पृष्ठ सचित्र, आकर्षक तथा सोद्देश्य हो।

(8) मुद्रण स्वच्छ, शुद्ध तथा स्पष्ट हो।

(9) आकार सुविधाजनक हो।

(10) अध्यायों के आकार बालकों के स्तर तथा क्षमताओं के अनुरूप हों।

(11) विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण शिक्षण उद्देश्यों तथा मूल्यों के अनुरूप हो।

(12) विषय-वस्तु से सम्बन्धित आधुनिकतम घटनाओं, तथ्यों तथा समस्याओं पर बल दिया गया हो।

(13) विषय-वस्तु के अनुकूल चित्रों, मानचित्रों, रेखाचित्रों आदि का प्रस्तुतीकरण हो।

(14) चिन्तन तथा नवीन विचारों का प्रस्तुतीकरण हो।

(15) विषय-सूची, शब्दावली, सन्दर्भ ग्रन्थ सूची, निर्देश नियमावली आदि का समावेश हो।

(16) अध्याय के अन्त में विद्यार्थियों द्वारा स्वतः मूल्यांकन के लिए अभ्यास-प्रश्नों का समावेश।

(17) विषय-वस्तु से किसी की भी भावनाओं की आघात न पहुंचना अर्थात् धर्म निरपेक्षता की भावना पर ध्यान।


पाठ्य-पुस्तकों के प्रकार

पाठ्य-पुस्तकों को सामान्य तौर पर तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है –

1. सामान्य पाठ्य-पुस्तकें- सामान्य पाठ्य-पुस्तकें किसी विषय-विशेष पर सामान्य अध्ययन की दृष्टि से लिखी जाती हैं। इनमें किसी निर्धारित पाठ्यक्रम को आधार नहीं बनाया जाता है एवं प्रकरणों को विषय-सामग्री की उपलब्धता तथा उपयोगिता की दृष्टि से विस्तार दिया जाता है। ये पुस्तकें विशेष रुचि वाले विद्वानों द्वारा लिखी जाती हैं। ये पुस्तकें शिक्षकों तथा छात्रों के लिए सहायक-पुस्तकों का कार्य करती हैं। इनका प्रयोग उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं अथवा उनसे ऊपर की कक्षाओं में किया जाता है।

2. पाठ्यक्रम पर आधारित पाठ्य-पुस्तकें- इस तरह की पाठ्य-पुस्तकें किसी निश्चित पाठ्यक्रम के आधार पर किसी निश्चित कक्षा-स्तर हेतु लिखी गई होती है। हालांकि इन पुस्तकों का विस्तार क्षेत्र सीमित होता है लेकिन विद्यार्थियों के लिए ये बहुत उपयोगी होती हैं, क्योंकि ये पाठ्यक्रम से सीधे जुड़ी हुई होती हैं। इन पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण में शिक्षण उद्देश्यों को विशेष महत्त्व दिया जाता है। विद्यार्थियों में इन्हीं पुस्तकों का सर्वाधिक प्रचलन होता है। इस तरह की पाठ्य-पुस्तकें सभी कक्षाओं में प्रयुक्त की जाती हैं।

3. सन्दर्भ-पुस्तकें- ये विशिष्ट तरह की पुस्तकें होती हैं। इनमें तथ्यों, प्रत्ययों, सूत्रों, घटनाओं आदि की व्याख्या गहनता से की जाती है। शिक्षक इनका प्रयोग सन्दर्भो के रूप में करता है, अतः इन्हें सन्दर्भ-पुस्तकें कहा जाता है। उच्च कक्षाओं के शिक्षण में इन पुस्तकों का अध्ययन तथा प्रयोग उपयुक्त होता है।


पाठ्य-पुस्तकों के चयन के लिए मानदण्ड

किसी भी पाठ्य-पुस्तक का चयन करते समय कई बातों का ध्यान रखना होता है। प्रायः पुस्तक का नाम, लेखक का नाम, उसकी बाह्य आकृति तथा मूल्य प्रथम दृष्टि में लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हैं। ये सभी पुस्तक के चयन के आधार जरूर हैं लेकिन किसी पाठ्य-पुस्तक के चयन हेतु ये बहुत ज्यादा प्रामाणिक मानदण्ड नहीं हैं। इसके अलावा पाठ्य-पुस्तकों के चयन में अन्य कई महत्त्वपूर्ण पक्षों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है। इसलिए पाठ्य-पुस्तकों के चयन में अग्रांकित मानदण्डों को अनुसरण किया जाना चाहिए

1. पाठ्य-पुस्तक का नाम- इसकी उपयुक्तता एवं ग्राह्यता।

2. लेखक- उसकी योग्यता, अनुभव तथा प्रसिद्धि। उसके विचारों में स्पष्टवादिता, निष्पक्षता एवं मौलिकता। उसकी विषय-विशेषज्ञता, मनोविज्ञान का ज्ञान, शिक्षण विधियों का ज्ञान तथा प्रगतिशील विचारधारा आदि।

3. विषय-सूची- पाठ्यक्रम के अनुसार उसका महत्त्व तथा क्षेत्र, उसकी ग्राह्यता।

4. अन्तर्वस्तु का चयन तथा संगठन- इसके अन्तर्गत अग्रलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देने की जरूरत होती है

(i) पाठ्यक्रम के उद्देश्यों के अनुरूप अन्तर्वस्तु का चयन।

(ii) छात्रों की रुचि, योग्यता, मानसिक स्तर, संवेगात्मक स्तर तथा प्रवृत्तियों से अन्तर्वस्तु की अनुकूलता।

(iii) अन्तर्वस्तु की सामाजिक उपयुक्तता-सामाजिक तथा आर्थिक विकास एवं नागरिकों में नवजागरण कर सकने की क्षमता।

(iv) अन्तर्वस्तु के संगठन की मनोवैज्ञानिकता-अध्यायों का क्रम बालकों के मानसिक विकास क्रम के अनुसार।

(v) अन्तर्वस्तु के संगठन की शिक्षण विधियों से अनुकूलता।

(vi) अन्तर्वस्तु के चयन में प्रजातान्त्रिक आदर्शों तथा मूल्यों का ध्यान।

5. प्रस्तुतीकरण- प्रस्तुतीकरण अग्रलिखित गुणों से युक्त होना चाहिए –

(i) छात्रों में स्वत: अध्ययन करने की आदत विकसित कर सकने की क्षमता।

(ii) छात्रों में विषय के प्रति रुचि विकसित कर सकने की क्षमता।

(iii) अन्य विषयों से अच्छा सह-सम्बन्ध।

(iv) शिक्षण-विधियों के अनुकूल

(v) शिक्षण सूत्रों के अनुरूप।

(vi) सीखने के नियमों तथा सिद्धान्तों का अनुसरण।

(vii) निर्देशित अध्ययन के अवसर प्रदान करने की सम्भावना।

(viii) छात्रों के मानसिक तथा संवेगात्मक स्तर के अनुकूल।

(ix) व्यक्तिगत-भिन्नता की आवश्यकताओं की पूर्ति की सम्भावना।

(x) बालकों के मानसिक विकास में मददगार।

(xi) उपयुक्त तथा सरल भाषा-शैली।

(6). उदाहरण तथा चित्र आदि-

(i) शाब्दिक तथा प्रदर्शनात्मक उदाहरण।

(ii) तालिकाओं, ग्राफ, रेखाचित्र, मानचित्र आदि की स्पष्टता, आकर्षकता तथा वैधता।

(iii) आंकड़ों, उद्धरणों तथा सन्दर्शों की पर्याप्त संख्या, उनकी विश्वसनीयता तथा वैधता।

7. शैक्षिक सहायक साधन- अभ्यासार्थ प्रश्न, उपयुक्त निर्देश,प्रस्तावना, परिशिष्ट आदि की यथार्थता तथा उपयुक्तता, सहायक पुस्तकों की सूची आदि का समुचित समावेश।

8. पाठ्य-पुस्तक की बाह्य आकृति- पाठ्य-पुस्तकों के चयन के समय पुस्तक के आकार, पृष्ठ संख्या, कागज, मुद्रण, जिल्दसाजी, आवरण पृष्ठ की आकर्षकता आदि तथ्यों पर भी ध्यान देना चाहिए।

9. प्रकाशन- (1) पुस्तक के प्रकाशक की विश्वसनीयता तथा प्रसिद्धि।

(ii) प्रकाशन की तिथि।

10. मूल्य- पुस्तक का मूल्य जनसामान्य को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाना चाहिए एवं यथासम्भव न्यूनतम होना चाहिए।

पाठ्य-पुस्तकों का मूल्यांकन

पाठ्य-पुस्तकों की उपयुक्तता का मूल्यांकन करने के लिए दो विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-

1. संख्यात्मक मान निर्धारण पैमाना विधि- इस विधि में पाठ्य-पुस्तक मूल्यांकन के कुछ मानदण्ड निश्चित किये जाते हैं। इन मानदण्डों को एक तालिका में प्रयुक्त किया जाता है पाठ्य-पुस्तक की विशेषताओं के अनुभव के आधार पर तालिका में दिये गये मानदण्डों को ध्यान में रखते हुए पुस्तक की रेटिंग होती है। प्रायः रेटिंग की पाँच श्रेणियाँ दी जाती हैं जिनके लिए संख्यात्मक मान निश्चित होता है। मानदण्ड के अनुसार मूल्यांकनकर्ता की जैसी सम्मति होती है उस तरह की श्रेणी के नीचे वह सही का निशान (सही) लगाकर रेटिंग (चिन्हित) कर देता है। रेटिंग की श्रेणियाँ एवं उनके संख्यात्मक मान अग्र तरह निर्धारित किये जाते हैं-

1. पुस्तक की बाह्य आकृति एवं तकनीकी तत्त्व :

(i) आवरण पृष्ठ (ii) जिल्द (iii) कागज (iv) मुद्रण (v) आकार

2. संगठन :

(i) विषय-वस्तु का चयन तथा संगठन

(ii) अध्यायों का तार्किक विभाजन

(iii) अध्यायों की क्रमबद्धता

(iv) अध्यायों की सम्बद्धता

(v) मौलिकता

3. प्रस्तुतीकरण :

(i) भाषा-शैली

(ii) नवीनता

(iii) निष्पक्षता

(iv) शब्दावली

(v) अद्यतनता

4. उदाहरण :

(i) उपयुक्तता

(ii) रोचकता

(iii) जीवन में सम्बद्धता

(iv) गुणात्मकता

(v) वास्तविकता

5. चित्र,मानचित्र, चार्ट,ग्राफ आदि :

(i) आकार

(ii) उपयुक्तता

(iii) स्पष्टता

(iv) शुद्धता तथा वास्तविकता

6. अभ्यासार्थ प्रश्न :

(i) विषय-वस्तु से सम्बन्ध

(ii) व्यापकता

(iii) शिक्षकों की दृष्टि से उपयोगिता

(iv) प्रश्नों का चयन

(v) प्रश्नों की प्रेरणात्मक शक्ति

7. सन्दर्श तथा निर्देशन :

(i) व्यावहारिकता

(ii) शिक्षण की दृष्टि से महत्त्व

(iii) छात्रों की दृष्टि से महत्त्व

(iv) नवीनता तथा पूर्णता

8. भूमिका,परिशिष्ट तथा अनुक्रमणिका :

(i) उद्देश्यपूर्णता

(ii) व्यवस्थापन

(iii) महत्त्व

(iv) व्यावहारिकता

(v) पूर्णता योग कुल योग


पाठ्य-पुस्तक के सम्बन्ध में निर्णय

रेटिंग-स्केल विधि से पाठ्य-पुस्तक के आनतरिक तत्त्वों की जाँच तो हो जाती है, लेकिन मूल्यांकन को पूर्णता प्रदान करने हेतु लेखक की योग्यता, अनुभव तथा विषय-विशेषज्ञता प्रकाशक का अनुभव तथा विश्वसनीयता, प्रकाशन की तिथि, पुस्तक का आकार और पृष्ठों की संख्या एवं पुस्तक के तर्कसंगत मूल्य आदि पर भी ध्यान देना जरूरी होता है। इस तरह पुस्तक के बारे में सही निर्णय लिया जा सकता है।

2. प्रश्नावली या चिह्नांकन सूची विधि- इस विधि में पाठ्य-पुस्तक का मूल्यांकन एक प्रश्नावली के आधार पर किया जाता है। प्रश्नों के उत्तर हाँ या नहीं के रूप में देने होते हैं। प्रायः प्रश्नावली में ही प्रश्नों के सामने हुाँ/नहीं लिखा होता है। मूल्यांकनकर्ता को प्रश्नों के आधार पर पुस्तक का आंकलन करके हाँ या नहीं को चिह्नित (सही) करना होता है। इस तरह पाठ्य-पुस्तक के बारे में निर्णय लिया जा सकता है कि वह कहाँ तक छात्रों हेतु उपयुक्त है। पाठ्य-पुस्तक के मूल्यांकन के लिए एक सामान्य प्रश्नावली निम्न तरह हो सकती है-

 पाठ्य-पुस्तक के मूल्यांकन सम्बन्धी प्रश्नावली

क्र.सं.प्रश्नमत
1क्या यह पाठ्यक्रम से सम्बन्धित है ?हाँ/नहीं
2क्या इसमें विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण व्यवस्थित, क्रमबद्ध तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से किया गया है ?हाँ/नहीं
3क्या इसमें प्रयुक्त शब्दावली प्रस्तुतीकरण का ढंग वाक्यों की रचना तथा संगठन आदि छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल है?हाँ/नहीं
4क्या इसमें अन्तर्वस्तु का चयन शैक्षिक उद्देश्यों के अनुरूप किया गया है?हाँ/नहीं
5क्या इसकी विषय-वस्तु छात्रों में विषय के प्रति रुचि विकसित करने एवं स्वतः अध्ययन के लिए प्रेरित करने में सफल सिद्ध हो सकती है?हाँ/नहीं
6क्या इसकी विषय-वस्तु छात्रों में समस्या समाधान की कुशलता का विकास करने में समर्थ है ?हाँ/नहीं
7क्या इसमें प्रयुक्त चित्र,मानचित्र, रेखाचित्र, तालिकाएं,ग्राफ तथा आंकड़े आदि स्पष्ट, शुद्ध, आधुनिकतम और अर्थपूर्ण हैं ?हाँ/नहीं
8क्या अध्यापक के अन्त में सारांश, अभ्यासार्थ
प्रश्न तथा उपयुक्त निर्देश आदि दिये गये हैं?
हाँ/नहीं
9क्या पुस्तक के प्रारम्भ में भूमिका, विषय-सूची एवं अन्त में सहायक ग्रन्थों की सूची दी गई है?हाँ/नहीं
10क्या इसका अध्ययन सामाजिक-आर्थिक विकासकरने एवं आदर्श नागरिकता का विकास करने में मददगार हो सकता है ?हाँ/नहीं
11क्या इसमें विवादास्पद प्रश्नों की निष्पक्ष तथा वस्तुपरक ढंग से विवेचना की गई है?हाँ/नहीं
12क्या पुस्तक का लेखक विषय का विद्वान, अनुभवी तथा प्रशिक्षित है?हाँ/नहीं
13क्या पुस्तक का बाह्य आकार छात्रों को आकृष्ट करने वाला है ?हाँ/नहीं
14क्या इसमें मुद्रण तकनीक का उपयुक्त प्रयोग किया गया है ?हाँ/नहीं
15क्या इसका आकार तथा पृष्ठों की संख्या उपयुक्त है?हाँ/नहीं
16क्या पुस्तक का मूल्य सामान्य छात्र को आर्थिक स्थिति के अनुरूप रखा गया है?हाँ/नहीं

अच्छी पाठ्य-पुस्तक के निर्माण हेतु कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव

शिक्षा व्यवस्था में पाठ्य-पुस्तकों के महत्त्व को देखते हुए कई संस्थाओं में अच्छी पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण तथा मूलभूत सिद्धान्तों, मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों, अधिगम के नियमों, शिक्षण विधियों तथा शिक्षण सूत्रों को ध्यान में रखकर विभिन्न विषयों की पाठ्य-पुस्तकों की रचना पर बल दिया जाता है। हमारे देश में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (N.C.E.R.T.) द्वारा इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किये गये हैं। अच्छी पुस्तकों के निर्माण हेतु कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव अग्र तरह हैं-

(1) पाठ्य-पुस्तकों की रचना पाठ्यक्रम के उद्देश्यों के अनुरूप की जानी चाहिए।

(2) पाठ्य-पुस्तकों का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए जिससे अच्छी पाठ्य-पुस्तकें प्रकाशित हो सकें।

(3) मौलिक रूप से रचना करने वाले लेखकों को ही पाठ्य-पुस्तकों को लिखने का अधिकार हो।

(4) पाठ्यक्रमों में बहुत जल्दी-जल्दी परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे अच्छी पुस्तकों की रचना नहीं हो पाती है।

(5) पाठ्य-पुस्तकों की रचना में पूर्ण रूप से राष्ट्रीयता की छाप होनी चाहिए।

(6) पाठ्य-पुस्तकों को सिर्फ परीक्षा की दृष्टि से ही न लिखा जाए, क्योंकि इससे विषय-वस्तु की रूपरेखा संकुचित हो जाती है एवं कई व्यावहारिक पक्षों की उपेक्षा हो जाती है।

(7) उच्चतर माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के स्तर पर एक पाठ्य-पुस्तक के स्थान पर अच्छे स्तर की कई पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण किया जाए।

(8) योग्य तथा अनुभवी लेखकों को सरकार द्वारा पाठ्य-पुस्तक के निर्माण हेतु प्रोत्साहित किया जाए।

(9) पाठ्य-पुस्तक को प्रकाशित करने से पहले उसकी पाण्डुलिपि का अध्ययन विषय-विशेषज्ञों की एक समिति द्वारा कराया जाना चाहिए।

(10) पाठ्य-पुस्तकों में सुधार हेतु राष्ट्रीय स्तर पर एक पाठ्य-पुस्तक समिति का गठन किया जाए, जो समय-समय पर उनमें गुणात्मक सुधार के लिए लेखकों तथा प्रकाशकों को उपयुक्त परामर्श देती रहे।

(11) पाठ्य-पुस्तकों की विषय-वस्तु किसी सम्प्रदाय अथवा वर्ग विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाली नहीं होनी चाहिए।

(12) पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण तथा चयन में व्यक्तिगत, वर्गगत तथा राजनीतिक हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।

(13) पाठ्य-पुस्तक में आवश्यकतानुसार चित्र, मानचित्र, चार्ट, ग्राफ, आंकड़ों आदि का प्रयोग जरूर किया जाना चाहिए।

(14) अच्छी पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण हेतु राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर अनुभवी और योग्य लेखकों की गोष्ठियाँ तथा सम्मेलन आयोजित किये जाने चाहिए।

(15) पाठ्य-पुस्तकों के मूल्यों पर सरकार द्वारा नियन्त्रण रखा जाना चाहिए एवं मूल्य कम रखने हेतु प्रकाशकों को सहायता अनुदान दिया जाना चाहिए।


पाठ्यवस्तु तथा पाठ्य-पुस्तकें-अन्तर्सम्बन्ध

पाठ्यवस्तु तथा पाठ्य-पुस्तकें घनिष्ठ रूप से अन्तर्सम्बन्धित हैं। पाठ्यवस्तु सम्पूर्ण शैक्षिक सत्र में विभिन्न विषयों में शिक्षक द्वारा छात्रों को दिये जाने वाले ज्ञान की मात्रा के विषय में निश्चित जानकारी पेश करती है। यह एक तरह की संरचना बताती है कि किस स्तर पर (प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च, उच्चतर, व्यावसायिक) छात्रों को किसी विषय का कितना ज्ञान देना है, जबकि पाठ्य-पुस्तकें उस संरचना पर कार्य करके उस संरचना को वास्तविकता में परिणित करती हैं। पाठ्य-पुस्तकें पाठ्यवस्तु के विषय में छात्रों एवं शिक्षकों दोनों को ही मार्गदर्शन देती हैं। पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा ही छात्रों तथा शिक्षकों को यह जानकारी मिलती है कि किसी कक्षा स्तर हेतु कितनी विषय-वस्तु का अध्ययन-अध्यापन करना है। उदाहरण हेतु पर्यावरण तथा प्रदूषण एक विस्तृत विषय है। इस विषय में पाठ्यवस्तु के आधार पर एवं छात्रों की आयु तथा मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए पाठ्य-पुस्तकें बनायी जाती हैं जिसमें प्राथमिक स्तर पर छात्रों को मूल प्रत्यय स्पष्ट कराये जाते हैं जबकि बढ़ते हुए क्रम में माध्यमिक स्तर पर उसके प्रकार, प्रदूषण के साधन आदि बताये जाते हैं एवं उच्च तथा उच्चतर स्तर पर पाठ्यवस्तु ज्यादा विस्तृत एवं ज्यादा जटिल होती जाती है।

पाठ्यवस्तु भले ही प्रत्यक्ष हो, पाठ्य-पुस्तकों के अभाव में शिक्षण कार्य अबाध रूप से नहीं चल सकता है, क्योंकि किसी भी पाठ्यवस्तु को ज्यादा समय तक स्मृति में सँजोकर नहीं रखा जा सकता है। पाठ्य-पुस्तकें ही विषय-वस्तु को संकलित करने में एवं भूल जाने पर स्मृति स्तर तक पुन: लाने में मदद करती हैं। पाठ्य-पुस्तक के आधार पर ही कक्षा कार्य एवं मूल्यांकन साभव हो पाता है। पाठ्यवस्तु को अंशों में एवं इकाइयों में विभक्त करके पाठ्यपुस्तकें निर्मित की जाती हैं जिसकी मदद से शिक्षक वस्तु-वस्तु का शिक्षण देता है एवं साथ ही उसको बार-र दोहराकर छात्र के पाठ को पक्का कराता है। इसके बाद वह छात्र का टेस्ट लेकर बीच-बीच में पाठ्यवस्तु का मूल्यांकन भी करता जाता है जिससे छात्र अधिगम की गई सामग्री को याद रख सके। ये पाठ्य-पुस्तकें परीक्षा के समय छात्रों की मदद करती है एवं मदद से छात्र स्वयं भी अपने द्वारा स्मरण की गई अधिगम सामग्री का मूल्यांकन कर लेते हैं। पाठ्य-पुस्तकों में पाठ्यवस्तु को तार्किक ढंग से पेश किया जाता है, पाठ्यवस्तु को आकार दिया जाता है तथा शिक्षकों को कक्षा-स्तर के अनुसार शिक्षण कार्य करने का बोध कराया जाता है। पाठ्य-पुस्तकें कक्षा शिक्षण की कई कमियों को भी दूर करती है क्योंकि कक्षा-शिक्षण के समय शिक्षक सभी छात्रों पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान नहीं दे सकता है जबकि पाठ्य-पुस्तकों की मदद से छात्र व्यक्तिगत रुचि तथा गति के साथ अध्ययन कर सकता है।

पाठ्यवस्तु ज्ञान का एक खाका होता है। योग्य शिक्षकों का ज्ञान भी अव्यवस्थित होता है। इसलिए पाठ्य-वस्तुओं के अभाव में योग्य शिक्षक भी न तो ठीक से पढ़ा सकते हैं तथा न ही छात्र उस ज्ञान को संकलित रख सकते हैं। कुछ पाठ्यक्रमों में स्वाध्याय के आधार पर भी ज्ञान प्रदान किया जाता है। इस तरह के ज्ञान को देने में पाठ्य-पुस्तकों का विशेष महत्त्व होता है। दूर-दराज के क्षेत्रों में रहने वाले एवं पत्राचार के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने वाले है छात्रों की पाठ्यवस्तु पुस्तकों के रूप में ही प्राप्त होती है जिससे वे स्वाध्याय के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा अपने अधूरे ज्ञान एवं अधूरी शिक्षा को पूर्णता प्रदान करते हैं। पाठ्यवस्तु पाठ्य-पुस्तक के रूप में उपलब्ध हो जाने पर हर छात्र को यह स्पष्ट हो जाता है कि उसे परीक्षा की तैयारी के लिये कितनी पाठ्यवस्तु पढ़नी है एवं किस तरह पढ़नी है। उन्हें पाठ्यवस्तु को कई बार पढ़ना एवं दोहराना पड़ता है। इसमें पाठ्य-पुस्तकें उनकी काफी मदद करती हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि पाठ्यवस्तु एवं पाठ्य-पुस्तकें अन्तर्सम्बन्धित होती हैं। दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं।

Leave a Comment

CONTENTS