बुनियादी शिक्षा को स्पष्ट करते हुए वर्धा-शिक्षा नीति का वर्णन कीजिये।

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 वर्धा-शिक्षा-सम्मेलन

सन् 1937 में गाँधीजी वर्धा में थे। वहाँ के मारवाड़ी हाई सकूल (वर्तमान नवभारत स्कूल) की रजत-जयंती का समारोह 22 तथा 23 अक्टूबर, 1937 को होने वाला था। उस अवसर पर भारत के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्रियों, राष्ट्रीय नेताओं तथा समाज-सुधारकों को आमंत्रित किया गया एवं “अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा-सम्मेलन” का गाँधीजी के सभापतित्व में आयोजन किया गया। इसी सम्मेलन को “वर्धा-शिक्षा-सम्मेलन” भी कहा जाता है । सम्मेलन में उपस्थित व्यक्तियों के सामने महात्मा गाँधी ने “बेसिक शिक्षा” की अपनी नवीन योजना प्रस्तुत करते हुए कहा-

“देश की वर्तमान शिक्षा-पद्धति किसी भी तरह देश की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती है। इस शिक्षा द्वारा जो भी लाभ होता है, उसने देश का कर देने वाला मुख्य वर्ग संचित रह जाता है। अत: प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम कम-से-कम सात साल का हो, जिसके द्वारा मैट्रिक तक का ज्ञान दिया जा सके, लेकिन इसमें अंग्रेजी के स्थान पर कोई अच्छा उद्योग जोड़ दिया जाये। सर्वतोमुखी विकास के उद्देश्य से सारी शिक्षा जहाँ हो सके, किसी उद्योग के द्वारा दी जाये, जिससे पढ़ाई का खर्च भी अदा हो सके । जरूरी यह है कि सरकार उन बनाई हुई चीजों को राज्य द्वारा निश्चित की गई कीमत पर खरीद ले।”

इस तरह गाँधीजी ने मैट्रिक के स्तर तक अंग्रेजी रहित उद्योग पर आधारित तथा मातृभाषा द्वारा सात वर्ष की स्वावलंबी बेसिक शिक्षा की योजना पेश की। तत्पश्चात् “सम्मेलन” में भाग लेने वाले शिक्षा-विशारदों ने गाँधीजी की योजना पर विचार-विमर्श करके निम्न प्रस्ताव पास किये।

1. इस “सम्मेलन” की राय में राष्ट्र के सब बच्चों को 7 वर्ष तक निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा दी जानी चाहिए।

2. शिक्षा का माध्यम-मातृभाषा होनी चाहिए।

3. सात वर्ष की संपूर्ण अवधि में शिक्षा का मध्य-बिन्दु किसी तरह का हस्तशिल्प होना चाहिए, जिससे कुछ मुनाफा हो सके।

4. बच्चों को जो भी शिक्षा-दीक्षा दी जाये, वह केन्द्रीय हस्तशिल्प से संबंधित होनी चाहिए तथा उसका चुनाव बच्चों के वातावरण को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।

5. “सम्मेलन” आशा करता है कि इस पद्धति से धीरे-धीरे अध्यापक के वेतन का व्यय निकल जायेगा।


जाकिर हुसैन समिति

उपर्युक्त प्रस्तावों को पारित करने के बाद “सम्मेलन” ने दिल्ली के “जामिया मिलिया” के तत्कालीन प्रिंसिपल डॉक्टर जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की । इसी समिति को “जाकिर हुसैन समिति” कहा जाता है।

“समिति” को गाँधीजी द्वारा व्यक्त किये जाने वाले शिक्षा-संबंधी विचारों तथा “सम्मेलन” द्वारा पारित किये जाने वाले प्रस्तावों के आधार पर “नई तालीम” की योजना तैयार करने का काम सौंपा गया। “समिति” ने अपना पहला प्रतिवेदन, दिसंबर सन् 1937 में तथा दूसरा प्रतिवेदन, अप्रैल सन् 1938 में पेश किया।

प्रथम प्रतिवेदन में “समिति” ने तत्कालीन शिक्षा-पद्धति के दोषों, वर्धा-शिक्षा-योजना के सिद्धांतों, उद्देश्यों, अध्यापकों, शिक्षक-प्रशिक्षण; विद्यालयों के संगठन, प्रशासन, निरीक्षण तथा परीक्षा-नियमों; और कताई-बुनाई को मुख्य हस्तशिल्प मान उसके पाठ्यक्रम का सविस्तार वर्णन किया।

द्वितीय प्रतिवेदन में “समिति” ने कृषि, मिट्टी का काम, लकड़ी का काम आदि कुछ अन्य हस्तशिल्पों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया तथा इन शिल्पों एवं अध्ययन के सभी पाठ्य-विषयों

का वर्णन किया। उसने यह मत प्रकट किया कि हस्तशिल्पों का अन्य विषयों से सह-संबंध होना चाहिए।

“समिति” की प्रथम रिपोर्ट को फरवरी, सन. 1938 में हरिपुरा में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन के सामने पेश किया गया। अधिवेशन ने “रिपोर्ट” को स्वीकार किया। यही “रिपोर्ट”-“वर्धा-शिक्षा-योजना” के नाम से प्रसिद्ध हे तथा बुनियादी शिक्षा का आधार है।


वर्धा-योजना की रूपरेखा

“वर्धा-योजना” या “बेसिक शिक्षा-योजना” की रूपरेखा इस तरह है-

1. बेसिक शिक्षा के पाठ्यक्रम की अवधि 7 वर्ष की है।

2. यह शिक्षा 7 से 14 वर्ष तक के बालकों तथा बालिकाओं हेतु निःशुल्क एवं अनिवार्य है।

3. शिक्षा का माध्यम-मातृभाषा है

4. पाठ्यक्रम में अंग्रेजी का कोई स्थान नहीं है।

5. संपूर्ण शिक्षा का संबंध किसी आधारभूत शिल्प से होता है। ।

6. शिल्प को बालकों की योग्यता तथा स्थान की जरूरतों को ध्यान में रखकर चुना जाता है।

7. चुने हुए शिल्प की शिक्षा इस तरह दी जाती है कि वह बालकों को अच्छा शिल्पी बनाकर, उनको स्वावलंबी बना देती है।

8. उक्त शिल्प की शिक्षा इस तरह प्रदान की जाती है कि बालक उसके सामाजिक तथा वैज्ञानिक महत्व से भली-भाँति परिचित हो जाते हैं।

9. शारीरिक श्रम पर बल दिया जाता है, जिससे बालक सीखे हुए शिल्प के द्वारा अपनी जीविका का उपार्जन कर सकें।

10. शिक्षा का बालक के जीवन, गृह तथा ग्राम से एवं उसके ग्राम के उद्योगों, हस्तशिल्पों तथा व्यवसायों से घनिष्ठ संबंध होता है।

11. बालकों द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुएं ऐसी होती हैं, जिनका प्रयोग किया जा सकता है अथवा जिनको बेचकर विद्यालय का कुछ व्यय चलाया जा सकता है।

इस तरह बेसिक शिक्षा की योजना में गाँधीजी के शिक्षा-दर्शन के प्रमुख तत्वों का समावेश है।


बुनियादी शिक्षा नाम क्यों?

अंग्रेजी के “Basic” शब्द का हिन्दी अर्थ है-“आधारभूत” तथा उर्दू अर्थ है-“बुनियादी”। क्योंकि यह शिक्षा निम्न कारणों के कारण “आधारभूत” अथवा “बुनियादी” मानी गयी है, अत: इसका नाम “बेसिक शिक्षा” पड़ा है-

1. यह शिक्षा-भारत की राष्ट्रीय सभ्यता, संस्कृति तथा शिक्षा-संगठन का आधार मानी गई है।

2. यह शिक्षा-हर भारतीय बच्चे हेतु अनिवार्य आधारभूत शिक्षा स्वीकार की गई है।

3. यह शिक्षा-हर भारतीय की आधारभूत सामान्य संपत्ति है।

4. यह शिक्षा-बच्चों की आधारभूत आवश्यकताओं तथा अभिरुचियों में घनिष्ठ संबंध स्थापित करती है।

5. यह शिक्षा-सामुदायिक जीवन के आधारभूत व्यवसायों से संबंधित है।

6. यह शिक्षा-सभी भारतीयों को ऐसा आधारभूत ज्ञान प्रदान करती है, जो उनको अपने पर्यावरण को बुद्धिमत्तापूर्वक समझने तथा प्रयोग करने में मदद देती है।

7. यह शिक्षा-किसी आधारभूत शिल्प के द्वारा दी जाती है, जिसका प्रयोग व्यक्ति अपने भावी जीवन के निर्वाह हेतु कर सकता है।

इस तरह जैसा कि स्वयं गाँधीजी ने लिखा है-“बुनियादी शिक्षा बच्चों को, चाहे वे नगरों के हों अथवा ग्रामों के, भारत की समस्त सर्वोत्तम तथा स्थायी बातों से संबंधित करती है।“


बुनियादी शिक्षा की विशेषतायें

1. क्रियाप्रधान शिक्षा- बुनियादी शिक्षा-क्रिया-प्रधान है, क्योंकि इसमें संपूर्ण ज्ञान का आधार अनुभव माना जाता है।  रायबर्न के अनुसार-“बालक हस्तशिल्प के क्षेत्र में सक्रिय रहकर मानसिक अनुभवों के साथ-साथ अन्य तरह के अनुभव की प्राप्ति करता है।’

2. बालक-प्रधान शिक्षा- बुनियादी शिक्षा-बालक प्रधान है। इसमें बालक को शिक्षा का “ग्राहक” समझा जाता है। अतः उसकी आवश्यकताओं का अध्ययन किया जाता है तथा उनको पूर्ण करने का प्रयास किया जाता है। डॉ. एस.एन. मुकर्जी के शब्दों में-“नई तालीम बाल-केन्द्रित शिक्षा है तथा बालक क्रिया द्वारा ज्ञान का अर्जन करता है।”

3. गृह, स्कूल तथा समाज में सामंजस्य- बुनियादी शिक्षा-गृह, स्कूल तथा समाज के जीवन में पूर्ण सामंजस्य स्थापित करती है। इसका कारण बताते हुए रायबर्न ने लिखा है-“बालक, हस्तशिल्प की शिक्षा प्राप्त करके, अपने को गृह, स्कूल तथा समाज में प्रायः समान वातावरण में पाता है।”

4. आर्थिक आधार- बुनियादी शिक्षा का आधार आर्थिक है। इसके समर्थन में दो तर्क उपस्थित किये जा सकते हैं; यथा-(i) बुनियादी विद्यालयों में बालकों द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुओं को बेचने से विद्यालय का कुछ व्यय निकल सकता है, तथा (ii) बालक किसी हस्तशिल्प को सीखकर अपने भावी जीवन में धन का अर्जन कर सकता है। एक अन्य तर्क डॉ. एस.एन. मुकर्जी से सुनिये-“बुनियादी शिक्षा का प्रयोजन बेरोजगारी समस्या का समाधान करता है।”

5. सामाजिक आधार- बुनियादी शिक्षा का आधार-सामाजिक है, क्योंकि इसमें बालक के कई सामाजिक गुणों को विकसित करने की चेष्टा की जाती है। बालक में हस्तशिल्प के माध्यम से सेवा तथा स्नेह, सहयोग एवं सहिष्णुता, आत्म-संयम और आत्म-विश्वास के गुणों को सुविकसित करने का पूरा-पूरा प्रयास किया जाता है।

6. मनोवैज्ञानिक आधार- बुनियादी शिक्षा का आधार-मनोवैज्ञानिक है, क्योंकि इसमें बालक को प्रधानता दी जाती है, न कि उसके द्वारा अध्ययन किये जाने वाले पाठ्य-विषयों को। बालक का स्वाभाविक विकास किसी कार्य में संलग्न होकर ही हो सकता है । इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखकर, बुनियादी शिक्षा में हस्तशिल्प द्वारा उत्पादक कार्य को प्रधान स्थान दिया गया।

7. शारीरिक श्रम का सम्मान- बुनियादी शिक्षा-बालक में शारीरिक श्रम के प्रति सम्मान की भावना का निर्माण करती है। बालक स्वयं हस्तशिल्प के माध्यम से किसी उत्पादक कार्य को करता है । अतः वह शारीरिक श्रम को महत्व देने लगता है तथा इस तरह का श्रम करने वाले व्यक्तियों को आदर की दृष्टि से देखने लगता है।

8. समवायी शिक्षण-विधि- बुनियादी शिक्षा में “समवायी शिक्षण-विधि” का प्रयोग किया जाता है। बालक को समस्त विषयों की शिक्षा किसी कार्य अथवा हस्तशिल्प के माध्यम से दी जाती है। दूसरे शब्दों में, उसे क्रिया के द्वारा ज्ञान प्रदान किया जाता है। वह कृषि, कताई-बुनाई, काष्ठ-कला आदि में से किसी हस्तशिल्प का चयन करता है। उसके बाद वह उस कार्य को करके, उसका तथा उससे संबंधित कार्यों का ज्ञान प्राप्त करता है।

बुनियादी शिक्षा का पाठ्यक्रम

बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम की विशेषताएं निम्न हैं-

1. पाँचवीं कक्षा तक सह-शिक्षा है तथा बालकों और बालिकाओं हेतु समान पाठ्यक्रम है।

2. पाँचवीं कक्षा के बाद बालकों तथा बालिकाओं हेतु पृथक विद्यालयों की व्यवस्था है।

3. छठवीं तथा सातवीं कक्षाओं में बालिकाएं आधारभूत शिल्प के स्थान पर गृह-विज्ञान ले सकती हैं।

4. सातवीं तथा आठवीं कक्षाओं में संस्कृत, वाणिज्य, आधुनिक भारतीय भाषाओं आदि की शिक्षा व्यवस्था है।

5. शिक्षा का माध्यम-मातृभाषा है, लेकिन राष्ट्रभाषा हिन्दी का अध्ययन सब बालकों तथा बालिकाओं के लिए अनिवार्य है।

6. पाठ्यक्रम का स्तर वर्तमान मैट्रिक के समकक्ष है।

7. पाठ्यक्रम में अंग्रेजी तथा धर्म का कोई स्थान नहीं है।

अपनी योजना में धर्म को स्थान न देने का कारण बताते हुए, महात्मा गाँधी ने लिखा है- “हमारी वर्धा-शिक्षा-योजना में से धार्मिक शिक्षा का बहिष्कार कर दिया है, क्योंकि हमें भय है कि आज जिन धर्मों की शिक्षा दी जाती है या पालन किया जाता है, वे मेल के स्थान पर झगड़े पैदा करते हैं। साथ ही मेरा विश्वास है कि बच्चों को ऐसी शिक्षा जरूर दी जानी चाहिए, जिसमें सभी मुख्य धर्मों का सार निहित हो । धर्म का यह सार सिर्फ शब्दों तथा पुस्तकों से नहीं पढ़ाया जा सकता है। इसे तो बालक सिर्फ शिक्षक की दैनिक जीवन-चर्या से ही सीख सकता है।”


बनियादी शिक्षा की समय-सारणी

बुनियादी विद्यालयों में प्रतिदिन 5 घंटे कार्य होता है तथा निम्न समय-सारणी का अनुसरण किया जाता है-

विषय                    समय

1. आधारभूत शिल्प            3 घंटे ,20 मिनट

2. मातृभाषा                  40 मिनट

3. संगीत, चित्रकला और गणित     40 मिनट

4. सामाजिक अध्ययन और सामान्य विज्ञान     30 मिनट

5. शारीरिक शिक्षा         10 मिनट

6. अल्पावकाश            10 मिनट

कुल समय              5 घंटे, 30 मिनट


बुनियादी शिक्षा के आधारभूत सिद्धांत

1. जनसाधारण की शिक्षा- भारत की ज्यादातर साधारण जनता-अज्ञानता के अंधकार से आवृत्त है। यही कारण है कि बुनियादी शिक्षा का सर्वप्रथम सिद्धांत-जनसाधारण को शिक्षित बनाना निर्धारित किया गया है। इस तरह गाँधीजी के निम्नांकित कथन के अनुसार कार्य किया जा रहा है- “जनसाधारण की अशिक्षा भारत का पाप तथा कलंक है। इसलिए उसका अंत किया जाना अनिवार्य है।”

2. नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा- गाँधीजी ने भारत हेतु निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की।

3. स्वावलंबी शिक्षा- गाँधीजी ने बुनियादी शिक्षा के आधारभूत सिद्धांत की तरफ संकेत करते हुए कहा-“सच्ची शिक्षा स्वावलंबी होनी चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि शिक्षा से पूँजी के अलावा वह सब धन मिल जाना चाहिए, जो उसे प्राप्त करने में व्यय किया जाये।”

बुनियादी शिक्षा के इस स्वावलंबी पहलू के प्रति विशेष ध्यान देकर उसे स्वावलंबी बनाया गया है। डॉ. एम.एस. पटेल के अनुसार, बुनियादी शिक्षा दो तरह से स्वावलंबी है-(i) बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने वाला बालक किसी हस्तशिल्प को सीखकर, उसे अपने भावी जीवन के निर्वाह का साधन बनाये तथा (ii) विद्यालय के बालकों द्वारा बनाई जाने वाली वस्तुओं को बेचकर, अध्यापकों को वेतन दिया जाये। इस तरह, बालक अपने विद्यालय जीवन तथा भावी जीवन-दोनों में अपने ऊपर निर्भर होकर स्वावलंबी बन सकता है।

4. सामाजिक शिक्षा- बुनियादी शिक्षा के द्वारा एक ऐसे समाज का नव-निर्माण करने का प्रयास किया जा रहा है, जो स्वार्थ तथा शोषण विहीन हो, जो प्रेम तथा न्याय पर आधारित हो एवं जिसके मूलमंत्र-सत्य तथा अहिंसा हों। यही कारण है कि बुनियादी विद्यालयों में बालकों को इसी तरह के समाज में रहने का प्रशिक्षण दिया जाता है। रायबर्न का कथन है- “बुनियादी विद्यालय एक वास्तविक सामाजिक इकाई बन जाता है तथा बच्चों को साथ-साथ रहने की कला का वास्तविक प्रशिक्षण मिलता है।”

5. शिक्षा का माध्यम ‘मातृभाषा’- बुनियादी शिक्षा का माध्यम-मातृभाषा है। इतिहास हमें बताता है कि किसी देश की संस्कृति का विनाश करने हेतु उसके साहित्य का विनाश किया जाता है। इसी सिद्धांत का अनुगमन करके, अंग्रेजों ने हमारे देश में अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम बनाया । बुनियादी शिक्षा में अंग्रेजी को कोई स्थान नहीं दिया गया है तथा मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया गया है।

6. हस्तशिल्प की शिक्षा- बुनियादी शिक्षा में हस्तशिल्प का केन्द्रीय स्थान है तथा सब विषयों की शिक्षा उसी के माध्यम से दी जाती है । हस्तशिल्प को केन्द्रीय स्थान प्रदान करने का कारण गाँधीजी के अग्रांकित शब्दों में विदित हो जाता है-“साक्षरता स्वयं शिक्षा नहीं है। अतः मैं बच्चे की शिक्षा उसे एक उपयोगी हस्तशिल्प सिखाकर तथा जिस समय से वह अपनी शिक्षा आरंभ करता है, उसी समय से उत्पादन करने के योग्य बनाकर शुरू करना चाहता हूँ।”

7. शारीरिक श्रम- बुनियादी शिक्षा में हस्तशिल्प के माध्यम से शारीरिक श्रम को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। इससे निम्न चार लाभ होते हैं- (i) इससे बालकों की शिक्षा का व्यय निकल आता है, (ii) इससे उनको किसी व्यवसाय का प्रशिक्षण प्राप्त हो जाता है, (iii) इससे उनमें आत्म-विश्वास पैदा होता है तथा उनमें शारीरिक श्रम के प्रति घृणा नहीं रह जाती है एवं (iv) गाँधीजी के शब्दों में-“बालक के शरीर के अंगों का विवेकपूर्ण प्रयोग-उसके मस्तिष्क को विकसित करने की सर्वोत्तम तथा शीघ्रतम विधि है।”


बेसिक शिक्षा के दोष

बेसिक शिक्षा में समकालीन शिक्षाशास्त्रियों ने निम्न दोषों के आधार पर इसकी आलोचना की है-

1. हस्तकला केन्द्रित सिद्धांत- कुछ शिक्षाशास्त्रियों द्वारा हस्तकला को केन्द्रीय भूमिका में रखकर शिक्षा प्रदान करने की प्रक्रिया की बहुत आलोचना की गयी है। क्रियात्मकता पर बहुत बल देकर बालक को उसके बोझ के नीचे दबा दिया जाता है।

इस तरह बेसिक शिक्षा द्वारा विद्यालय को एक फैक्ट्री में परिवर्तित कर दिया जायेगा। यह बाल मनोविज्ञान के विरुद्ध है।

2. स्वावलंबन का सिद्धांत- बालक के जन्म से ही आर्थिकोपार्जन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना बाल मनोविज्ञान के सिद्धांतों के विरुद्ध है। बालक के कोमल मन-मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव होगा एवं उनमें अपने उत्पादन के संदर्भ में बाजार की वस्तुओं की तरह मूल्य प्रतिस्पर्धा, प्रतिद्वंद्विता, पक्षपात, हिंसा एवं असंतोष का जन्म हो जायेगा। क्रय-विक्रय की मनोवृत्ति उसके विकास को निगल जायेगी।

3. वैयक्तिक विकास के सिद्धांत की अवमानना- बेसिक शिक्षा पद्धति में वैयक्तिक विभिन्नताओं के अनुकूल शिक्षा प्रदान करना एक दुष्कर कार्य है। कुछ हस्तकलाएं सभी छात्रों हेतु समान रूप से अनिवार्य है, जबकि अन्य वैकल्पिक हस्तकलाओं के लिए छात्रों की पसंद के अनुरूप उचित व्यवस्था नहीं हो पाती है । इसके अलावा बालकों में आर्थिकोपार्जन का भाव पैदा करके ऐसी स्थिति पैदा कर दी जाती है कि हर छात्र उस हस्तकौशल को सीखना चाहता है जिससे उसे अधिकाधिक धनोपार्जन में सहायता मिल सके। इसके अनुकूल न तो व्यवस्थाएं हो पाती हैं तथा न ही यह भावना वैयक्तिक विभिन्नताओं को संतुष्टि प्रदान करने में समर्थ है । अत: पूर्णरूपेण हानिकारक होती है।

4. अव्यावहारिक सह-संबंध- विषयों के अंतर्गत अत्यधिक सह-संबंध एक अव्यावहारिक स्थिति को जन्म देता है। इस स्थिति में शिक्षक ऐसे प्रयत्न करता है कि विषय को किसी न किसी ढंग से हस्तकौशल से जोड़ने हेतु विवश हो जाता है। इस स्थिति में शिक्षण स्वाभाविकता एवं यथार्थता-दोनों मृतप्राय हो जाती हैं

5. धार्मिक शिक्षा का अभाव- गाँधीजी ने ‘स्वावलंबन’ को सबसे बड़ा ‘धर्म’ माना है एवं सदाचार तथा नैतिकता को श्रम का मूलमंत्र माना है, पर सिर्फ इन दोनों मार्गों द्वारा छोटे बालकों में धार्मिक आध्यात्मिकता का समावेश संदेहास्पद प्रतीत होता है।

6. मूल्यांकन संबंधी कठिनाइयाँ- बेसिक शिक्षा में छात्रों की उत्तरोत्तर वृद्धि तथा उन्नति की सार्थक समीक्षा हेतु कोई उचित मूल्यांकन प्रणाली निर्मित नहीं की गयी है। यह इसकी सबसे बड़ी सीमा है।

7. प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव- हालांकि तात्कालिक योजना के क्रियान्वयन हेतु अनेक नॉर्मल संस्थानों की व्यवस्था की गयी थी, पर प्रारंभिक चरण में समस्त स्कूलों हेतु बेसिक शिक्षा में प्रशिक्षित सुयोग्य शिक्षकों की पर्याप्त कमी थी। इनमें भी विभिन्न दस्तकारों तथा दस्तकारी प्रशिक्षित शिक्षकों का पूर्ण अभाव था। इसमें बेसिक शिक्षा एक दुःस्वप्न मात्र बनकर रह गयी।


बेसिक शिक्षा को कार्यान्वित करने में कठिनाइयाँ

बेसिक शिक्षा के क्रियान्वयन में निम्न कठिनाइयाँ दृष्टिगोचर होती हैं-

1. प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव- इस शिक्षा प्रणाली को लागू करने के समय संपूर्ण राष्ट्र अजीब पशोपेश में था, क्योंकि इसके प्रचार-प्रसार के अनुरूप उत्तम शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो पा रही थी। इसका मुख्य कारण शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों का अभाव था, इसके अलावा जिन पारंपरिक शिक्षकों को सेवाकालिक प्रशिक्षण प्रदान किया गया था, वे उसके प्रति अपना रुझान नहीं बना पाये थे। ऐसी स्थिति में इस प्रणाली की स्थिति त्रिशंकु की तरह थी जिसके लिए शिल्प-कौशलों में प्रवीण शिक्षकों का सर्वत्र अभाव था एवं प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना हेतु धन की व्यवस्था नहीं थी।

2. निर्धन विद्यालय तथा व्यय साध्य पद्धति- इस प्रणाली को लागू करने में दूसरी सबसे बड़ी बाधा थी कि तात्कालिक विद्यालयों की आर्थिक स्थिति शोचनीय थी, दूसरी तरफ बेसिक शिक्षा को हस्तकौशल केन्द्रित बनाने हेतु कच्चा माल एकत्रित करने के दृष्टिकोण से यह एक खर्चीली पद्धति के रूप में दृष्टिगोचर होने लगी। इन दोनों विपरीत परिस्थितियों के कारण यह व्यावहारिक पद्धति सिर्फ सैद्धांतिकता से आगे नहीं बढ़ सकी।

3. अभिभावकों की उदासीनता- ‘मूल्यांकन समिति’ के प्रमुख सदस्य डॉ. मुजीब ने उल्लेख किया है-“वास्तविक बेसिक स्कूल सिर्फ कुछ ही शिक्षाविदों के आदर्श रह गये हैं। दूसरे शिक्षाविद्, जिनके पास धन है, वे बेसिक शिक्षा का प्रचार तो करते हैं लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने वाले स्कूलों में भेजते हैं। हाईस्कूल में उत्तर बेसिक स्कूलों के छात्रों को प्रवेश नहीं दिया जाता है, क्योंकि उनकी शैक्षिक योग्यता कम होती है। इससे ग्रामीण जनता में यह विश्वास पैदा हो गया है कि बेसिक स्कूल ग्रामीण क्षेत्रों के लिए काफी अच्छे हैं, लेकिन उच्च शिक्षा के अभिलाषी बालकों के लिए बिल्कुल अच्छे नहीं हैं।”

इस तरह बेसिक स्कूलों को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाने लगा एवं इन्हें ‘निर्धन बालकों के स्कूल’ की संज्ञा प्रदान की गयी।

4. योजना के प्रति भ्रम- गाँधीजी ने हस्तकलाओं को केन्द्रीय स्थान प्रदान करके उसे शिक्षा के माध्यम की तरह स्वीकार किया था। वे हस्तकलाओं के अंतर्गत ‘ज्ञानार्जन’ एवं ‘धनोपार्जन’ के बीच संतुलन स्थापित करना चाहते थे। पर तात्कालिक सामान्य जनता के मस्तिष्क में इन दोनों के बीच संबंध संशयपूर्ण ही बने रहे । ऐसी स्थिति में प्राय: जनमानस निष्क्रिय ही बना रहा। आचार्य कृपलानी जैसे लोगों ने इसे गाँधी जी के मस्तिष्क की एक सुखद कल्पना माना है । उन्होंने कहा है-“बेसिक शिक्षा की योजना-शिक्षा के क्षेत्र में गाँधीजी की अंतिम मनःसृष्टि है।”

5. सरकारी तंत्र की उदासीनता- बेसिक शिक्षा के त्रुटिपूर्ण क्रियान्वयन हेतु तात्कालिक राज्य सरकारें एवं केन्द्र सरकार भी पर्याप्त दोषी हैं। सरकारी तंत्र इस नवीन पद्धति से न तो आकृष्ट था तथा न ही इसके लिए वह कुछ बलिदान करने की मनस्थिति में था। अतः इस प्रणाली के साथ उनकी शुभकामनायें निहित नहीं थीं। इसके अलावा धन, पर्याप्त प्रचार-प्रसार, हस्तकौशलों द्वारा निर्मित सामग्री का क्रय-विक्रय, कच्चे माल की विद्यालय में व्यवस्था आदि ऐसे महत्वहीन उत्तरदायितव प्रतीत होते थे कि वे इसकी सफलता के प्रति आश्वस्त नहीं हो सके। इसके अतिरिक्त संपूर्ण प्राथमिक शिक्षा के साथ भी सौतेला व्यवहार किया गया एवं उसके स्थान पर माध्यमिक तथा विश्वविद्यालयी शिक्षा में तीव्र प्रगति होने लगी। अत: यह प्रणाली सिर्फ मील के पत्थर के रूप में जड़वत हो गयी।

सरकारी तंत्र के अलावा शिक्षाविदों ने भी इसकी भरपूर आलोचना की है, जिसके कारण इसके क्रियान्वयन का वातावरण ठीक तरह से तैयार नहीं हो पाया।


बुनियादी शिक्षा का मूल्यांकन

बुनियादी शिक्षा के उक्त गुणों के आधार पर हम निस्संकोच भाव से स्वीकार कर सकते हैं कि दरिद्रता के दानव के चंगुल में फंसे हुए हमारे देश हेतु यह शिक्षा एक अनुपम वरदान है। यह न तो प्रचलित शिक्षा के समान पुस्तकीय तथा अव्यावहारिक है एवं न परीक्षा एवं पाठ्यक्रम की जंजीरों से जकड़ी हुई है, जबकि तत्कालीन शिक्षा सिर्फ बालकों के मानसिक विकास की तरफ ध्यान देती है। बुनियादी शिक्षा उनके शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास हेतु यथेष्ट उद्योग करती है । बुनियादी शिक्षा की सर्वप्रथम विशेषता-उसका उत्पादन का सिद्धांत है। इस सिद्धांत को व्यावहारिक रूप प्रदान करके, बालक को अपने भावी जीवन में निश्चित रूप से आत्म-निर्भर तथा स्वावलंबी बनाया जा सकता है।

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