वर्तमान समय में विद्यालयी पाठयचर्या में कौन से परिवर्तन आने चाहिए?

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 इक्कीसवीं शताब्दी का पर्दापण हो चुका है। अतः हमें इक्कीसवीं शताब्दी की आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी पाठ्यचर्या में परिवर्तन करने होंगे। सूचना प्रौद्योगिकी के आविष्कार एवं लोकप्रियता के कारण शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया परिवर्तित हो चुकी है। आज आधुनिक संस्थाओं में दूर परामर्श, कम्प्यूटर कार्यक्रम और इंटरनेट जैसे बेहतर मीडिया का प्रयोग किया जा रहा है अत: हमें अपनी पाठ्यचर्या में भी परिवर्तन करने चाहिए। निम्नलिखित कारणों द्वारा इक्कीसवीं शताब्दी में पाठ्यचर्या में परिवर्तन घटित होने की संभावना है।

(1) मानवीय जनांकिकी परिवर्तन- यौन, उम्र व्यवस्था, मृत्यु दर इत्यादि।

(2) सामाजिक नवाचार- शिक्षा की नई प्रणाली

(3) तकनीकी नवाचार- विभिन्न मशीनों का प्रयोग

(4) सांस्कृतिक प्रसार- विचारों का आदान-प्रदान, संस्कृतियों का समन्वय (व्यापक, रोजगार मीडिया के प्रयोग के कारण)

इक्कीसवीं शताब्दी में विद्यालयी पाठ्यचर्या में होने वाले संभावित परिवर्तन :

(1) सूचना प्रसारण एवं सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग- इक्कीसवीं शताब्दी में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया मात्र पारंपरिक विधियों व शिक्षण अधिगम सामग्रियों पर आधारित नहीं रह सकती है। अपितु विद्यार्थियों की आवश्यकताओं व दशाओं के समनुरूप विभिन्न प्रकार के सॉफ्टवेयर विकसित किए जा रहे हैं। सूचना के प्रसारण के कारण सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तीव्र गति से परिवर्तन घटित हो रहे हैं। इसके कारण अधिगम सामग्रियों के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन देखे जा रहे हैं और आने वाले वर्षों में पाठ्यचर्या का कार्यान्वयन ज्यादा वैज्ञानिक और कुशलतापूर्ण होता जा रहा है। इसलिए हमें अपनी पाठ्यचर्या का नियोजन इस प्रकार करना होगा ताकि हम नवाचार युक्त सूचना प्रौद्योगिकियों को शिक्षण-अधिगम सामग्री में प्रयुक्त कर सकें। हमें नए उपकरणों के अनुसार अपनी पाठ्यपुस्तकों को पुर्नव्यवस्थित करना होगा। हमें वर्णनात्मक पाठों के स्थान पर अपनी विषयवस्तु को छोटे-छोटे फ्रेमों में विभाजित करना होगा। हमें इन पाठों के कम्प्यूटर आधारित कार्यक्रम भी बनाने होंगे।

(2) नये रोजगार अवसरों हेतु नवीन पाठ्यक्रम- इन दिनों रोजगार के विभिन्न नवीन अवसर आ रहे हैं। आज विद्यालयों में व्यावसायिक व रोजगार परक पाठ्यक्रमों की समवर्ती मांग बलवती हो रही है जो युवाओं को नवीन रोजगार परक अवसरों हेतु प्रशिक्षित कर सकें। हम आज एम.बी.ए., एम.सी.ए. जैसे अनेक नवीन पाठ्यक्रमों को देख सकते हैं। हमारी औद्योगिक सम्यता विपणन, विक्रय संवर्धन जैसे नये रोजगार अवसरों पर कार्य करने हेतु विशेष रूप से प्रशिक्षित युवाओं की मांग रख रही है। उपयोगितावादी शिक्षा की अवधारणा ने रोजगार परक पाठ्यचर्या के प्रति सजगता और मांग को बढ़ा दिया है।

(3) निम्न से उच्च तक का प्रतिरूप- निम्न से उच्च तक के प्रतिरूप की पाठ्यचर्या इस प्रकार निर्मित की जाती है कि यह विद्यार्थियों की संचलनता एवं पाठ्यचर्यात्मक गतिविधियों के क्षेत्र में उनकी स्वतंत्रता को बढ़ाती है। और उनकी करके सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ाती है। 

ऐसी अनुदेशन प्रणाली को वैयक्तिक होना अपेक्षित है। शिक्षक इसमें अधिकारिक व्यक्ति की अपेक्षा एक दिग्दर्शक का कार्य करता है। इस प्रकार हमें इस निम्न से उच्च तक के प्रतिरूप की आवश्यकता के अनुरूप अपनी पाठ्यचर्या को परिवर्तित करना होगा। हमें विद्यार्थियों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं, रूचियों व योग्यताओं पर ध्यान देना होगा और फिर शिक्षक को अध्यापन अधिगम प्रक्रिया को विभिन्न विद्यार्थियों की योग्यताओं के अनुरूप आयोजित व नियोजित करना होगा।

(4) दूरस्थ/मुक्त शिक्षा- नयी जनसंख्या व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के क्षेत्र की ओर तेजी से बढ़ रही है। विद्यार्थियों की विभिन्न व्यवसायों में व्यस्तताओं के कारण वे शिक्षण संस्थानों में प्रतिदिन नहीं जा सकते हैं इसलिए प्रगतिशील जनसंख्या द्वारा दूरस्थ/मुक्त शिक्षा को पसन्द किया जा रहा है। दूरस्थ शिक्षा पर आधारित पाठ्यचर्या आवश्यकता आधारित, व्यक्तिगत विद्यार्थियों की आवश्यकताओं व सुविधाओं के अनुरूप, अत्यधिक लोचदार होती है। यह विद्यार्थियों के दरवाजे पर उपलब्ध कराई जाती है। ऐसी पाठ्यचर्या स्व-अध्ययन व स्वक्रिया हेतु विस्तृत दिशानिर्देश प्रदान करती है जो दूरस्थ विद्यार्थियों के अधिगम में अभिवृद्धि करती है।

कुल मिलाकर हमें इक्कीसवीं शताब्दी की पाठ्यचर्या को इस शताब्दी की आवश्यकताओं के अनुरूप बदलना होगा। आज विद्यार्थी 5 या 6 घण्टे के लिए विद्यालयों की चारदीवारी में नहीं रहना चाहता है। इसलिए विद्यार्थी प्रौद्योगिकी के नवीन उपकरणों की सहायता से शिक्षा को अपने द्वार पर अपनी सुविधानुरूप प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए हमें इक्कीसवीं शताब्दी की पाठ्यचर्या को इन विभिन्न नवीन आवश्यकताओं के समनुरूप बदलना होगा।

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