COMPUTER ORGANIZATION

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2.1 Central Processing Unit :-

CPU कम्प्यूटर का मस्तिष्क होता हैं। इसका मुख्य कार्य प्रोग्रामों (Programs) को क्रियान्वित (Execute) करना हैं। इसके अलावा CPU कम्प्यूटर के सभी भागों, जैसे – मैमोरी, इनपुट और आउटपुट डिवाइसेज के कार्यों को भी नियंत्रित करता हैं। प्रोग्राम और डाटा, इसके नियंत्रण में मैमोरी में संगृहित होते हैं। इसी के नियंत्रण में आउटपुट स्क्रीन (Screen) पर दिखाई देता हैं या प्रिंटर के द्वारा कागज पर छपता हैं। सेंट्रल प्रोसेसिंग यूनिट के तीन भाग होते हैं। ये निम्नलिखित हैं –

• ऐरिथमेटिक व लॉजिक यूनिट (Arithmetic & Logic Unit)

• मुख्य मेमोरी यूनिट (Main Memory Unit)

• कन्ट्रोल यूनिट (Control Unit)

2.1.1 Control Unit :-

यह भाग कि आन्तरिक क्रियाओं का संचालन करता हैं। यह इनपुट/आउटपुट क्रियाओं को नियंत्रित करता हैं, साथ ही मेमोरी और ए.एल.यू. (ALU) के मध्य डाटा के आदान-प्रदान को निर्देशित करता हैं। यह प्रोग्राम को क्रियान्वित करने के लिए प्रोग्राम के निर्देशों को मैमोरी में से प्राप्त करता हैं। निर्देशों को विद्युत-संकेतों (Electric Signals) में परिवर्तित करके यह उचित डिवाइसेज तक पहुँचाता हैं, जिससे डाटा प्रक्रिया हेतु डाटा, मैमोरी में कहाँ उपस्थित हैं, क्यों क्रिया करनी हैं तथा प्रक्रिया के पश्चात् परिणाम मैमोरी में कहाँ स्टोर होना है, इन सभी निर्देशों के विद्युत-संकेत, सिस्टम बस (System Bus) की नियंत्रक बस (Control Bus) के माध्यम से कम्प्युटर भागों (Components) तक संचारित होते हैं।

2.1.2 Arithmetic Unit :-

एरिथमेटिक एवम् लॉजिक यूनिट को संक्षेप में ए.एल.यू. यूनिट कहते हैं। यह यूनिट डाटा पर अंकगणितीय क्रियाएँ। (जोड़, बाकी, गुणा, भाग) और तार्किक क्रियाएँ (Logical Operations) करती हैं। इसमें ऐसा इलेक्ट्रॉनिक परिपथ होता हैं। जो बाइनरी अंकगणित (Binary Arithmetic) की गणनाएँ करने में सक्षम होता हैं। ए.एल.यू. सभी गणनाओं को पहले अंकगणितीय क्रियाओं में बाँट लेता है, जैसे – गुणा (Multiplication) को बार-बार जोड़ने की क्रिया में बदलना। बाद में इन्हें विद्युत पल्स (Pulse) में बदल कर परिपथ में आगे संचारित किया जाता हैं। तार्किक क्रियाओं (Logical Operations) में ए.एल.सू. दो संख्याओं या डाटा की तुलना करता हैं और प्रक्रिया (Processing) में निर्णय लेने का कार्य करता हैं। ए.एल.यू. (ALU), Control Unit से निर्देश (Instruction) लेता हैं। यह मेमोरी से डाटा प्राप्त करता हैं और मेमोरी में ही सूचना (Information) को लौटा देता हैं। ए.एल.यू. (ALU) के कार्य करने की गति अति तीव्र होती हैं। यह लगभग 1000000 गणनाएँ प्रति सैकण्ड की गति से करता हैं। इसमें कई रजिस्टर (Register) और एक्युमुलेटर (Accumulators) होते हैं जो गणनाओं के दौरान क्षणिक संग्रह हेतु क्षणिक मेमोरी का कार्य करते हैं। ए.एल.यू. प्रोग्राम के आधार पर कंट्रोल यूनिट के बताए अनुसार सभी डाटा मेमोरी से प्राप्त करके एक्युमुलेटर (Accumulator) में रख लेता हैं।

उदाहरणार्थ, माना दो संख्याओं A और B को जोड़ना हैं। कंट्रोल यूनिट A की मेमोरी से चुनकर ए.एल.यू. में स्थित A में जोड़ती हैं। परिणाम मेमोरी में स्थित हो जाता हैं या आगे गणना हेतु एक्युमुलेटर में संग्रहित रह जाता हैं।

गणितीय क्रियायें(Arithmetic Operations)तार्किक क्रियायें(Logical Operations)
+ जोड़=, # समान, असमान
– घटाव>, not> बड़ा, बड़ा नहीं
* (x) गुणा,>= बड़ा या समान, बड़ा या समान नहीं
(/) भाग<= छोटा या समान, छोटा या समान नहीं

2.1.3 Instruction Set :-

C.P.U के निर्देश, जो कमाण्ड्स (Commands) को क्रियान्वित (Execute) करने के लिए कन्ट्रोल यूनिट (Control Unit) में तैयार किये जाते हैं। निर्देश समूह (Instruction Set) वैसे सभी क्रियाओं की सूची तैयार करता हैं जो C.P.U. कर सकता हैं। इन्स्ट्रक्शन सेट (Instruction Set) का प्रत्येक निर्देश (Instruction) माइक्रो कोड (Micro Code) में व्यक्त किया जाता हैं जो C.P.U. को यह बताता हैं कि जटिल क्रियाओं को कैसे क्रियान्वित करें।

2.1.4 Register :-

कम्प्युटर निर्देश C.P.U. के द्वारा क्रियान्वित किए जाते हैं। निर्देशों को क्रियान्वित करने के लिए सूचनाओं का आदान-प्रदान होता हैं। सूचनाओं को संतोषजनक व तेजी से आदान-प्रदान के लिए कम्प्युटर का सी.पी.यू. (CPU) मैमोरी यूनिट का प्रयोग करता हैं। इन मैमोरी यूनिट को रजिस्टर (Register) कहते हैं। रजिस्टर मुख्य मैमोरी के भाग नहीं होते हैं। इनमें सूचनाएं अस्थाई रूप में संग्रहित रहती हैं। किसी भी रजिस्टर का आकार यदि 8 बिट संग्रहित कर सकता हैं तो इसे 8 बिट रजिस्टर कहते हैं। इन दिनों 16 बिट रजिस्टर वाले कम्प्युटर तो साधारण हैं। जबकि 32 बिट तथा 64 बिट के प्रोसेसर भी उपलब्ध हैं। रजिस्टर जितने अधिक बिट की होगी उतनी ही अधिक तेजी से कम्प्युटर में डाटा प्रोसेसिंग का कार्य सम्पन्न होगा। कम्प्युटर में प्रायः निम्न प्रकार के रजिस्टर होते हैं।

· मैमोरी एड्रेस रजिस्टर (Memory Address Register) – यह कम्प्युटर निर्देश की Active मैमोरी स्थान  (Location) को संग्रहित रखता हैं।

· मैमोरी बफर रजिस्टर (Memory Buffer Register) – यह रजिस्टर मैमोरी से पढ़े गए या लिखे गए किसी शब्द के तथ्यों (Contents) को संग्रहित रखता हैं।

· प्रोग्राम कन्ट्रोल रजिस्टर (Accumulator Register) – यह रजिस्टर क्रियान्वित होने वाले अगले निर्देश का पता (Address) संग्रहित रखता हैं।

· एक्यूमुलेटर रजिस्टर (Accumulator Register) यह रजिस्टर क्रियान्वित होते हुए डाटा को उसके माध्यमिक  (Intermediate) रिजल्ट व अन्तिम रिजल्ट (Result) को संग्रहित रखता हैं। प्रायः ये रजिस्टर सूचनाओं के क्रियान्वयन के समय प्रयोग होता हैं।

· इन्स्ट्रक्शन रजिस्टर (Instruction Register) यह रजिस्टर क्रियान्वित होने वाली सूचना को संग्रहित रखता हैं।

· इनपुट/आउटपुट रजिस्टर (Input/Output Register) – ये रजिस्टर विभिन्न इनपुट/आउटपुट डिवाइस के मध्य सूचनाओं के आवागमन के लिए प्रयोग होता हैं।

2.1.5 Processor Speed :-

प्रोसेसर स्पीड (Processor Speed) या प्रोसेसर गति से तात्पर्य प्रोसेसर द्वारा सूचनाओं को क्रियान्वित करने की गति से होता हैं। प्रोसेसर की गति मेगा हर्ट्ज (Megahertz) में मापी जाती हैं।

किसी प्रोसेसर की गति प्रोसेसर के द्वारा प्रयोग की जा रही डाटा बस (Data Bus) पर निर्भर करती हैं। डाटा बस (Data Bus) प्रोसेसर में डाटा के आवागमन के लिए प्रयोग की जाती हैं। ये डाटा बस 8-बिट्स, 16-बिट्स, 32-बिट्स, 64-बिट्स 128-बिट्स की होती हैं। 8 बिट्स से तात्पर्य एक समय में 8-बिट्स डाटा ट्रांसफर होने से हैं। इसी प्रकार 128 बिट्स डाटा बस (Bits Data Bus) से तात्पर्य एक समय में 128-बिट्स डाटा से ट्रांसफर होने से हैं। डाटा बस (Data Bus) का आकार अधिक होगा, प्रोसेसर की गति उतनी ही अधिक होगी।

2.2  Memory

2.2.1 Main Memory :-

वह स्थान जहाँ पर किसी भी सूचना को Temporarily या Permanently Store करके रखा जा सकता हैं उसे Memory कहते हैं, जैसे – मानव का मस्तिष्क। इसी प्रकार प्रत्येक Computer में भी दोनों प्रकार कि Memories होती हैं। सामान्यतयः Computer Memories को निम्न प्रकार दो भागों में बाँटा गया हैं –

(1) Primary या Main Memory

(2) Secondary Memory

Main Memory CPU को Processing में सहायता करती हैं। Computer को Running Stage में लाने के लिए तथा वह लगातार User को अपनी Performance दे सकें इसके लिए मुख्य मेमोरी का महत्वपूर्ण Role होता हैं। सामान्यत: Main Memory, Chip Based Memory होती हैं जो Circuit या IC के रूप में उपलब्ध होती हैं।

Primary MemorySecondary Memory
1. यह कम्प्युटर के C.P.U. के अंदर स्थित होती हैं।1. यह C.P.U. के बाहर स्थित होता हैं।
2. इसकी भण्डारण क्षमता सीमित होती हैं।2. इसकी भण्डारण क्षमता असीमित होती हैं।
3. इसमें सूचना पुनः प्राप्ति की गति अधिक होती हैं।3. इसकी गति कम होती हैं।
4. यह Memory Data Processing के दौरान उपयोग में ली जाती हैं। 4. यह Data Processing में भाग नहीं लेता हैं।
5. यह अस्थायी होती हैं।5. यह स्थायी होती हैं।
6. यह महँगी हैं।6. यह Primary की अपेक्षा सस्ती हैं।

2.2.2 Storage Evaluation Criteria :-

Computer में जो भी Data हम प्रविष्ट कराते हैं वह कितना हैं उसे मापने के लिए किसी इकाई कि आवश्यकता होती हैं। जिस प्रकार तरल पदार्थ को मापने के लिए लीटर को एक इकाई कि तरह प्रयोग किया जाता हैं उसी प्रकार किसी Storage Media पर कितना Data Stored हैं उसे मापने के लिए भी एक Unit जिसे Byte कहते हैं, का प्रयोग किया जाता हैं। Byte, computer में type किये गये किसी एक अक्षर, अंक, संकेत या रिक्त स्थान को प्रदर्शित करता हैं जैसे – Computer शब्द में 8 अक्षर हैं। अतः यह Memory में 8 byte की जगह लेगा। नीचे Data की Size को मापने के लिए विभिन्न Units को दर्शाया गया हैं।

Units of Computer Data

4 bits=1 nibble
8 bits=1 byte
1024 bytes=1 kilobyte
1024 kilobyte=1 megabytes
1024 megabytes=1 gigabyte
1024 gigabytes=1 terabyte
1024 terabytes=1 petabyte

2.2.3 Memory Organization :-

Computers में Memory का एक महत्त्वपूर्ण Role होता हैं। Memory System का सामान्य उद्देश्य Processor को Fast तथा Uninterrupted data access Provide कराना होता हैं ताकि Processor किसी कार्य को एक excepted speed से पूरा कर सकें। इसके लिए विभिन्न प्रकार की Memories का प्रयोग किया जाता हैं। विभिन्न प्रकार की Memories की लागत भी अलग-अलग होती हैं अर्थात् Fast Speed उपलब्ध कराने वाली Memory की लागत अधिक होती हैं। Computer में निम्न Memory Hierarchy का प्रयोग किया जाता हैं, जिसमें विभिन्न प्रकार की memories को शामिल किया गया हैं। इनमें से कुछ Memories Processing में अपना Role देती हैं तथा कुछ Memories का प्रयोग permanent data storage के रूप में किया जाता हैं।

2.2.4 Memory Capacity :-

Information को Store करने के लिए computer memory का उपयोग करता हैं। Memory की भण्डारण क्षमता को Byte में मापा जाता हैं। जैसे- किलाबाईट, मेगाबाईट, गीगा बाईट आदि। एक character एक Byte के बराबर होता हैं। Primary Memory की भण्डारण क्षमता Secondary Memory से कम होती हैं।

2.2.5 Random Access Memories (RAM) :-

(1) इसका पूरा नाम Random Access Memory हैं।

(2) इसमें सूचनाओं को लिखा व पढ़ा जा सकता हैं।

(3) यह अस्थायी Memory हैं।

(4) यह Volatile होती हैं अर्थात् इसमें सूचनाएं तब तक संचित रहती हैं, जब तक Computer “ON” हैं। Power supply off होते ही पूरी RAM वापस खाली हो जाती हैं।

(5) यह दो प्रकार की होती हैं-

(1) Dynamic RAM    (2) Static RAM

(1) Dynamic or D RAM :- गतिशील RAM में कुछ विशेष प्रकार के परिपथ होते हैं, जो कि एक निश्चित समय अंतराल के बाद स्वतः ही संचित सूचनाओं को हटा देते हैं। इसका मतलब यह हैं कि यदि हमने डाटा हटाने का निर्देश नहीं भी दिया हैं तथा न ही कम्प्युटर बन्द किया हैं तो भी इसमें संचित डाटा व सूचनाएँ स्वतः ही हट जाती हैं। इसके अलावा यह RAM होने के कारण Temporary (अस्थायी) तथा परिवर्तनशील मैमोरी हैं। गतिशील RAM या D RAM को कई भागों में बाँटा जा सकता हैं जो कि उनके विकसित होने के समय पर आधारित हैं।

(1) EDO-RAM :- Extended Data Input Output RAM

(2) S-D RAM :- Synchronous Dynamic RAM

(3) R-D RAM :- Rombus Dynamic RAM

(2) Static or S RAM :- S RAM का कार्य बिल्कुल सामान्य RAM की तरह ही हैं। यह एक अस्थायी मैमोरी हैं जिसमें स्टोर डाटा को हम जब चाहें हटा सकते हैं। यह एक परिवर्तनशील मेमोरी हैं इसमें संचित डाटा तब तक रहता हैं जब तक कम्प्युटर चालू हैं जैसे ही हम कम्प्युटर बन्द करते हैं या बिजली चली जाती हैं तो स्टोर डाटा स्वतः ही हट जाता हैं तथा पुनः कम्प्युटर चालू करने पर RAM हमें एकदम खाली प्राप्त होती हैं। इसका मतलब यह हैं कि सिर्फ दो कारणों से RAM में स्थिर डाटा हटता हैं।

(1) यदि हमने निर्देश देकर उसे हटाया हो।

(2) कम्प्युटर बन्द हो गया हो।

यदि यह दोनो सम्भावनाएं नहीं हैं तो RAM में लम्बे समय तक डाटा को स्टोर रखा जा सकता हैं।

2.2.6 Read Only Memories (ROM) :-

(1) इसका पूरा नाम Read Only Memory हैं।

(2) इसमें सूचनाओं को सिर्फ पढ़ा जा सकता हैं।

(3) यह स्थायी होती हैं।

(4) इसमें कम्प्युटर के निर्माण के समय ही प्रोग्राम संग्रहित किये जाते हैं। जैसे-BIOS (Basic Input Output System)

(5) यह एक Firmware हैं।

(6) यह Non-Volatile होती हैं अर्थात् इसमें सूचनाएं तब भी रहती हैं जब कम्प्युटर Off हो जाए।

(7) यह तीन प्रकार की होती हैं।

(a) PROM         (b) EPROM         (c) EEPROM        

(a) PROM – (Programmable Read Only Memory) :- ये कुछ ऐसी रोम चिप होती हैं, जिनमें कोई सूचना पूर्व संचित नहीं होती हैं तथा प्रयोक्ता जो भी इसमें संचित करना चाहता हैं, कर सकता हैं। ये प्रयोक्ता को डाटा संचित करने की सुविधा सिर्फ एक बार ही देता हैं अर्थात् प्रयोक्ता से जो सूचना एक बार संचित कर दी वो स्थाई रूप में संचित हो जाती हैं तथा फिर उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं होता हैं।

(b) EPROM – (Erasable Programmable Read Only Memory) :- यह रोम न सिर्फ हमें सूचना संचित करने की सुविधा प्रदान करती हैं, वरन् हम इस पर जब चाहे पुरानी सूचना हटाकर नई सूचना संचित कर सकते हैं। पुरानी सूचना हटाने तथा नई सूचना संचित करने के लिए कुछ विशेष प्रकार के उपकरण काम में लिए जाते हैं। इस रोम चिप में ऊपर की तरफ एक आर-पार दिखने वाला काँच लगा होता हैं, जहाँ से पराबैंगनी (Ultraviolet) किरणों द्वारा डाटा को हटाया जाता हैं।

(c) EEPROM – (Electrically Erasable Programmable Read Only Memory) :- यह रोम भी (EPROM) की तरह पुनः काम आ सकने वाली होती हैं। इसमें संचित सूचनाओं को हटाने के लिए सामान्य विद्युत किरणों का ही प्रयोग किया जाता हैं।

2.2.7 Secondary Storage Devices :-

Secondary Storage Device को External Storage Device भी कहते हैं। इनमें डाटा स्थायी रूप से Stored होते हैं – Secondary Storage Devices आजकल के कम्प्युटर के मुख्य उपकरण होते हैं। Operating Systems में बहुत सारी files तथा Images होती हैं। अतः उनके Installation के लिए अधिक Storage Capicity की आवश्यकता होती हैं। इसी प्रकार विभिन्न Software में बहुत अधिक संख्या में फाईल्स होती है। अतः बड़ी मात्रा में Data Program व Information को संग्रहित करने के लिए Secondary Storage Device का उपयोग आवश्यक हैं। Users द्वारा बनाई गयी files को permanently store रखने के लिए भी secondary storage devices की आवश्यकता होती हैं। यद्यपि इन उपकरणों में Storage तथा Re-Store Speed RAM की अपेक्षा कम होती हैं। परन्तु यह RAM की अपेक्षा सस्ते होते हैं।

Advantage :-

(1) क्षमता (Capacity) – इनमें बहुत अधिक मात्रा में Data Program व Information को संग्रहित करने की क्षमता होती हैं।

(2) कम लागत – RAM की अपेक्षा इनमें अधिक मात्रा में सूचनाओं का संग्रहण कम लागत में किया जाता है।

(3) विश्वसनीयता (Reliable) – यह Reliable हैं। डाटा सुरक्षित रहता हैं।

(4) Non-volatile Storage Media – Power off हो जाने के बाद भी Data Stored रहता हैं।

(5) गमनीय (Portable) – Secondary Storage Device में Store किए गए डाटा को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जा सकता हैं।

(6) पुनः उपयोगी (Re-usable) – इनमें पहले से स्टोर किसी डाटा को हटाकर नया डाटा Enter किया जा सकता हैं।

2.2.7.1 Magnetic Disks :-

Magnetic Disks, Secondary Storage Device के रूप में प्रयोग लिये जाते हैं। इन पर Data Permanently Store किया जा सकता हैं। यह Direct Access Media होते हैं, जिन पर Data को Directly Store या प्राप्त किया जा सकता हैं।

इनके अंतर्गत दो मुख्य प्रकार के Devices को सम्मिलित किया जाता हैं।

1. Floppy Disk

2. Hard Disk

2.2.7.2  Floppy And Hard Disk :-

Floppy Disk :-

Floppy Disk या Diskette एक प्लास्टिक के आवरण में Myler पदार्थ की वृत्ताकार चकती (Disk) होती हैं। जिसकी सतह पर चुम्बकीय पदार्थ का लेप (Magnetic Metrial Coating) होती हैं। Hard Disk के समान इसकी दोनो सतहो पर Tracks एवं Sector होते हैं। Floppy Disk का आवरण इसमें स्थित डिस्क को घूमने पर Scratch से बचाता हैं। इसकी डिस्क 3.50″ तथा 5.25″ के व्यास में उपलब्ध हैं। इसके आवरण में एक हिस्सा खुला रहता हैं जिससे Read/Write Head Data को जो डिस्क पर स्टोर होते हैं Read कर सकते हैं। इसमें Cylinder का कोई System नहीं होता हैं। इसके आवरण में एक छिद्र होता हैं। जब यह Photo Sensor के नीचे आता हैं तो इसका अर्थ है कि Read/Write Head अब वर्तमान Track के प्रथम Sector पर स्थित हो गया हैं। 5.25″ Floppy के एक ओर कुछ कटा हुआ भाग होता हैं। जिसे Write Protect Notch कहते हैं। यदि Write Protect Notch को एक Stiker या Tape से बंद कर दिया जाता हैं तो Disk पर से डाटा केवल रीड किया जा सकता हैं। जबकि 3.5″ की Floppy में एक बटन होता हैं, जिसका प्रयोग कर Floppy को Write protect कर सकते हैं। Floppy Disk 300 RPM (Round Per Minute) की गति से घूमती हैं। Floppy के मध्य एक बड़ा छिद्र होता हैं तथा Floppy Drive में Fit होता हैं।

Floppy Disk में Data संग्रहण :- Floppy Disk में Data अदृश्य Tracks में संग्रहित होता हैं। प्रत्येक Track का एक नंबर होता हैं। प्रत्येक Track अनेक Sectors में विभाजित होता हैं। प्रत्येक Track में Sectors की संख्या समान होती हैं। Disk को Format करने पर Tracks व Sector बनते हैं। Floppy Disk के प्रारम्भिक Track (0th Track) का उपयोग अन्य Track में संग्रहित सूचना को पहचानने में होता हैं। एक Sector में मुख्यतः दो भाग होते हैं।

(1) Identification Field or Fat Area (पहचान क्षेत्र)

(2) Data Field (डाटा क्षेत्र)

(1) पहचान क्षेत्र – इसमें उस Sector का Address, Track संख्या Head संख्या और सेक्टर संख्या के रूप में संग्रहित करता हैं।

(2) डाटा क्षेत्र – Data क्षेत्र में डाटा संग्रहित रहता हैं।

Floppy Disk Formation – नई Floppy में कोई भी Track अथवा Sector नहीं होते है। आजकल Floppy पहले से Formated आती हैं। Disk में Track व Sector बनाने के लिए Floppy की Formating की जाती हैं। Floppy Formating का कार्य Operating System की सहायता से किया जाता हैं। हम उपयोग में ली गई किसी Floppy को format कर सकते हैं। किन्तु इस प्रक्रिया में Floppy में पहले से संग्रहित सूचनाएं नष्ट हो जाती हैं।

Floppy के आकार :- सामान्यतः Floppy का आकार 3.50” या 5.25″ का होता हैं। पहले Floppy 8 इंच की भी आती थी। यह घनाकार होती हैं। वर्तमान में 3.50” की Floppy का उपयोग किया जाता हैं।

(1) 5.25″ की Floppy :- इसमें दोनों तरफ की सतहों पर 40-40 Track होते हैं। प्रत्येक Track में 9 Sector होते हैं। प्रत्येक सेक्टर में 512 Bytes की सूचनाएं संग्रहित कर सकते हैं। प्रत्येक अक्षर को संग्रहित करने के लिए 1 Bytes की आवश्यकता होती हैं।

5.25” की floppy की कुल संग्रहण क्षमता =

\frac{9\times 512}{1024}\times 40\times 2=368640 \space Bytes

1024

9×512

×40×2=368640 Bytes

= 368640 = 360 kb

=368640=360kb

(2) 3.50″ की Floppy :- इस Disk की दोनों सतहों पर 80-80 Tracks होते हैं। प्रत्येक Track में 18 Sector होते हैं। प्रत्येक Sector 512 Byte की सूचना संग्रहित कर सकता हैं।

\frac{80\times18\times512\times2}{1024\times1024}=1.40MB

1024×1024

80×18×512×2

=1.40MB

उपयोग :-

(1) इसका उपयोग करना आसान होता हैं।

(2) यह बहुत सस्ती होती हैं।

(3) इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से ले जाया जा सकता हैं।

सीमाएं :-

(1) अत्यधिक सूचनाओं वाली फाइल को संग्रहित नहीं किया जा सकता हैं।

(2) यह जल्दी खराब हो जाती हैं।

Floppy TypeBytesTracksSector/TrackByte/Sector
(1)  5.25″    
(1) Single Side Single Density80 KB20 Tracks8512
(2) Single Side double denisty160 KB40 Tracks8512
(3) Double Sided double density360 KB40 Tracks9512
(4) Double Sided High density1.2MB80 Tracks15512
(2) 3.50″    
(1) Double Sided Single density720 KB80 Tracks9512
(2) Double Sided Double densit1.44 MB80 Tracks18512

Hard Disk :-

IBM द्वारा निर्मित इस डिस्क को Winchester Disk भी कहते हैं। इसकी बनावट तथा कार्य विधि डिस्क की तरह ही होती हैं। Hard Disk धातु की अनेक Disk Plated का समूह होता हैं। तथा डिस्क की दोनो सतहों पर चुम्बकीय पदार्थ (Magnetic Material) का लेप होता हैं। इसमें Magnetic form में Data Store होता हैं। सभी डिस्क एक Shaft में लगी होती हैं।

शीर्ष डिस्क के ऊपरी सतह और निचली डिस्क की निचली सतह पर डाटा स्टोर नहीं किया जा सकता हैं। प्रत्येक सतह के लिए एक Read Write Head होता हैं। इन Read Write Head का समूह एक Arm पर लगा होता हैं। प्रत्येक Head, Arm के द्वारा आगे पीछे गति करके, घूमती हुई Disk की सतह पर उपयुक्त Track पर पहुँच सकता हैं।

Disk के घूमने की गति 3600 से 7200 RPM (Rotation Per Minute) होती हैं। Read Write Head अन्य Track को Read/Write किए बिना ही सीधे उसी Track पर स्थित हो जाता हैं, जिसमें डाटा उपस्थित हैं। इस प्रकार डाटा Read/Write की प्रकिया direct होती हैं। इसलिए Hard Disk को Direct Acess Storage Device भी कहते । हैं। प्रत्येक डाटा की स्थिति का एक पता Disk Address होता हैं। Disk Address की सूचना में सतह संख्या, Track संख्या तथा Sector संख्या होती हैं। उसी सूचना की सहायता से Access Arm Data को ढूँढती हैं। किसी डाटा को ढूँढने में जितना समय लगता हैं। उसे Acess Time कहते हैं। Acess Time दो तरह के समय का टोटल होता हैं।

(1) Seek Time – वह समयावधि जिसमें Read Write Head उचित Track पर पहुँचता हैं। जहाँ डाटा पड़ा हैं।

(2) Rotational Latency Time – वह समयावधि जिसमें Read/NWrite Head उचित Sector पर पहुँचता हैं।

आधुनिक समय में Hard Disk में औसत Rotation Latency Time 4.2 से 6.7 Micro Second होता हैं। Hard Disk का औसत Acess Time 12 Micro Second होता हैं।

Acess Time = Seek Time + Latency Time

Data की प्राप्ति शीघ्रता से करने के लिए Access Time को कम करना चाहिए। इसे कम करने के लिए Seek Time को कम करना अधिक उचित होगा। अतः डाटा व फाइल्स को डिस्क में इस प्रकार संग्रहित किया जाना चाहिए कि Seek Time में कमी आए।

Disk Cylinders – Disk Pack में Disk Storage को समझने के लिए Disk Cylinder को समझना आवश्यक हैं। माना एक हार्ड डिस्क में 8 संग्रह योग्य सतह हैं और प्रत्येक सतह पर 400 Tracks उपस्थित हैं तो हम यह मान सकते हैं। कि Disk Pack 400 काल्पनिक Cylinder से मिलकर बना हैं। प्रत्येक Cylinder में 8 Track हैं। सभी सतहों के Read/ Write Head एक समय में एक Cylinder पर स्थित रहते हैं तथा Track में डाटा पढ़ा या लिखा जा सकता हैं।

लाभ (Advantage) –

(1) इसका आकार छोटा होता हैं। किन्तु अधिक Data Store किया जा सकता हैं।

(2) इनमें डाटा संग्रह करना सस्ता होता हैं।

(3) इसे आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता हैं।

(4) इसकी Floppy की अपेक्षा Data Acess Speed Fast होती हैं।

हानि (Disadvantage) –

(1) यदि Hard Disk टूट जाए तो सारा डाटा उसी समय नष्ट हो जाता हैं।

2.2.7.3  Optical Disks CD-ROM :-

सन् 1990 दशक में Optical Disk की तकनीक विकसित हुई। इस डिस्क में Laser Beam की सहायता से डाटा को Read Write किया जाता हैं। इसलिए इसे Optical Disk कहते हैं।

(1) CD ROM (Compact Disk) :- यह Data Store करने का एक साधन हैं। इसमें लिखी गई सूचनाओं को केवल पढ़ा जा सकता हैं। इसकी संग्रहण क्षमता (700 MB) बहुत अधिक होती हैं। यह disk Metal पदार्थ की बनी होती हैं। जिसकी एक सतह पर Aluminum की Coating होती हैं, जिससे यह Reflection का गुण रखती हैं इस पर डाटा स्टोर करने के लिए इसकी परावर्तन सतह पर एक उच्च तीव्रता की Laser किरण डाली जाती हैं जिससे एक छोटा whole बनता हैं, जिसे Pit कहते हैं जो 1 bit का सूचक होता हैं। जहाँ Pit नहीं हैं वह 0 bit का सूचक हैं उसे Land कहते हैं।

Data को डिस्क से पढ़ने के लिए कम तीव्रता की Laser किरण इसकी सतह पर डाली जाती हैं। लेजर किरण डाटा को संग्रहित करने के लिए प्रयुक्त की जाती हैं। जबकि केवल 5 Megawatt की लेजर किरण डाटा को रीड करने के लिए प्रयुक्त की जाती हैं।

CD ROM में एक लम्बा सर्पीलाकार Track होता हैं। जिसमें डाटा क्रमानुसार संग्रहित होता हैं। ये Track समान आकार के सेक्टर में विभाजित रहता हैं। CD ROM तेज बदलती हुई गति से घूमती हैं। CD ROM के प्रयोग में लेने के लिए Floppy Drive की भाँति ही CD-Drive प्रयोग में लिया जाता हैं। CD-ROM में Floppy Disk की अपेक्षा अधिक डाटा संग्रहित किया जा सकता हैं तथा इसकी Data Transfer Speed भी अधिक होती हैं। इसकी संग्रहण क्षमता 700MB या उससे अधिक होती हैं। इसका उपयोग Audio-Video Disk के रूप में भी होता हैं।

Optical Media में Data Magnetic Media की अपेक्षा अधिक सुरक्षित व विश्वसनीय रहता हैं तथा इसमें Store Data का जीवन काल भी काफी लम्बा होता हैं।

लाभ (Advantage) –

(1) अधिक मात्रा में Data Storage

(2) Data Transfer Rate अधिक

(3) Stored Data स्थायी

हानि (Disadvantage) – CD ROM पर खरोच लगने से यह खराब हो जाती हैं।

(2) VCD Video Compact Disk) :- इसका प्रयोग वीडियो सूचनाओं को संग्रहित करने के लिए किया जाता हैं। इसमें MPEG क्रम्प्रेशन का प्रयोग करके 74 मिनट की Full Motion Video Picture की एक CD बनाई जाती हैं। इस Format में बनी Video CD को VCD कहा जाता हैं। VCD चलाने के लिए Video CD Player अथवा CDROM की आवश्यकता पड़ती हैं।

(3) CD-R (Compact Disk Recordable Drive) :- CD ROM की तकनीक में और विकास हुआ। उस समय ऐसी Drive का निर्माण हुआ जिसका प्रयोग CD ROM पर डाटा राईट करने के लिए किया जाने लगा। CD-R को WORM (Write Once Read Many) भी कहते हैं अर्थात् Disk में Data केवल एक बार ही Write कर सकते थे और अनेक बार पढ़ा जा सकता था।

(4) CD-RW (Compact Disk Re-Writable) :- यह आजकल प्रचलित एक प्रकार की नई डिस्क हैं। जिसे CD-RW कहते हैं। इस डिस्क पर बार-2 नया डाटा पूराने डाटा को हटाकर राईट किया जा सकता हैं। यह Re-Writable CD हैं।

(5) DVD (Digital Versatile Disk) – वर्तमान में अत्यधिक प्रयुक्त होने वाली डिस्क, इसकी Storage क्षमता 4.7 GB है।

Blu Ray Disc :-

Blu Ray को Blu Ray Disc के नाम से भी जाना जाता हैं Short में इसे (BD) भी कहते हैं। यह एक Next Generation Optical Disc Format है जिसका Development Blu-Ray Disc Association (BDA) द्वारा किया गया हैं जो दुनिया की बड़ी Consumer Electronics, Personal Computer तथा Media Manufactures जैसे – Apple, Dell, Hitachi, HP, JVC, LG, Mitsubishi, Panasonic, Pioneer, Philips, Samsung, Sharp, Sony, TDK तथा Thomson से मिलकर बना हैं। इस Format का Development High-Definition (HD) Video की Recording, Rewriting तथा Playback को Enable करने के लिए तथा साथ ही Large amount of data को Store कर सकने के लिए किया गया। यह Format Traditional DVD’s से Five Times अधिक Storage Capacity उपलब्ध कराता हैं तथा Single Layer Disk पर यह 25GB Data Hold कर सकता हैं तथा Dual-Layer Disc पर यह 50GB Data Hold कर सकता हैं।

जहाँ आजकल की Optical Disc Technologies जैसे-DVD, DVD-R, DVD-RW,तथा DVD-RAM Data को Read तथा  Write करने के लिए  Red Laser का प्रयोग करते हैं, वही यह नया Format blue-violet laser का User करता हैं इसलिए इसे Blu-ray कहा जाता हैं। विभिन्न प्रकार की Lasers Use में लेने के बावजूद भी Blu-ray Products CD तथा DVD’s Compatible बन सकते हैं इसके लिए BD/DVD/CD Compatible Optical Pickup Unit की आवश्यकता होती हैं। Blue-Violet Laser (405nm) का प्रयोग करने का मुख्य Benefit यह हैं कि इसकी Wavelength red laser (650nm) से Shorten होती हैं जिससे अधिक से अधिक Laser Spot बनाने Possible होते हैं।  Data कम से कम Space में अधिक Lightly तरीके से Store कराया जा सकता हैं। इसलिए CD/DVD की Size में ही अधिक से अधिक Data Disc पर Fit करना Possible हो जाता हैं। BD पर Numerical Aperture 0.85 होता हैं जो Blu-Ray Disc को 25GB/50GB Data Hold करने के लिए Enable करता हैं।

Blue-Ray को आजकल दुनिया की 180 से भी ज्यादा Leading Consumer Electronics, Personal Computer, Recording Medial, Video Game तथा Music Companies द्वारा Support किया जा रहा हैं। इस Format को Major Movie Studios द्वारा भी Broad Support दिया जा रहा हैं। Total 8 में से 7 Major Movies Studios (Disney, Fox, Warner, Paramount, Sony, Lionsgate and Mam) Blu-Ray Format को Support कर रहे हैं तथा इनमें से 5 ने (Disney, Fox, Sony, Lionsgate तथा MGM) ने अपनी कुछ Movie Blu-ray Format में Release की हैं।

Features of Blu-Rays: –

Media TypeHigh Density Optical Disc
EncodingMPEG-2, H 264 and VC-1
Capacity25GB (Single Layer), 50GB (Dual layer)
Read Mechanism1x @36 Mbit/s & 2 x @ 72 Mbit/s
Developed byBlu-Ray Disc Association
UsageData Storage, High  Definition video and Play Station 3 Games

Technical Specification :-

  • करीब 9 hours की high-definition (HD) Video एक 50GB Disc पर Stored की जा सकती हैं।
  • करीब 23 hours की Standard Definition (SD) Video एक SD GB Disc पर Stored किया जा सकता हैं।
  • एक Single Layer Disc mpeg-2 Format का प्रयोग करते हुए 135 Minute High Definition Featur Store की जा सकती है।
    Physical SizeSingle Layer CapacityDual Layer Capacity
12 cm, Single Sided25GB50GB
8 cm, Single Sided7.8GB15.6GB

यद्यपि Blue-Ray Disc Specification Finalized कर दिया गया है फिर भी Engineers इस Technology को और अधिक Advance बनाने की कोशिश कर रहे हैं तथा 100GB की Quad Layer की 100GB के Disc का Demonstration किया जा चुका हैं। इसके अतिरिक्त TDK ने August 2006 में यह घोषणा की उन्होंने Blu-Ray Disc का एक ऐसा Experimental बनाया है जो 200GB Data को single side में Hold कर सकता हैं। इस तरह की Disc आजकल के Player पर Work नहीं कर सकती हैं। JVC ने एक ऐसी Three Layer Technology का Development किया हैं जो दोनों प्रकार के Data Standard Definition DVD Data तथा HD Data को एक BD/DVD Combo पर रखा जा सकता हैं। इस प्रकार की Disc को DVD Players तथा BD Player दोनों पर प्रयोग किया जा सकेगा। इसे Hybrid Disc भी कहा जायेगा, परन्तु अभी तक इसका कोई भी Title Announced नहीं किया गया हैं।

2.2.7.4  Mass Storage Devices :-

इस प्रकार के Devices Portable होते हैं जिससे उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना आसान रहता हैं। ये भी स्थायी संग्रहण उपकरण होते हैं जिनमें डाटा को लम्बे समय तक रखा जा सकता हैं। आजकल इन उपकरणों का प्रयोग अधिकतर किया जा रहा हैं। ऐसे ही दो मुख्य Mass Storage Devices निम्न हैं-

1. Pen Drive                 2. Memory Card

Pen Drive :-

Pen Drive को तकनीकी भाषा में Flash Drive कहते हैं। इनमें USB (Universal Serial Bus) Interface लगा होता हैं। यह बहुत ही छोटी और हल्की होती हैं इनको आवश्यकता होने पर लगाया एवं काम हो जाने पर हटाया जा सकता हैं तथा इन पर Data बार-बार लिखा एवम् हटाया जा सकता हैं। Pen Drive में एक छोटा circuit board होता हैं जो एक cover से ढका होता हैं। यह Plug and play उपकरण हैं जो कम्प्युटर के USB Port में लगाया जाता हैं। बाजार में 512 MB, 1GB, 2GB, 8GB, 16GB इत्यादि संग्रहण क्षमता में उपलब्ध हैं।

Memory Card :-

Memory Card या Flash Memory Card एक Solid State Electronic Flash Memory Data Storage Device होता हैं। जिसका प्रयोग Digital Camera, Hand held तथा Laptop Computers, Telephone, Music तथा Players, Video Game Consoles तथा Other Electronic Equipments मे किया जाता है। Memory Card Re-record Ability, Power Free Storage, Small Form Factor जैसी विशेषताएं रखते हैं। Flash Card का प्रयोग Floppy Disc के Replacement के रूप में किया जाता हैं। ये flash memory card उन सभी Computers पर लगाये जा सकते हैं जिन पर USB Port उपलब्ध होता हैं। अलग-अलग प्रकार के Job के अनुसार अलग-अलग प्रकार के Memory Card Use में लाए जाते हैं। PC Card (MCM) ऐसे पहले Commercial Memory Card Format (type I Card) 1990 में पहली बार उपलब्ध कराये गये थे। 1990 में PC-Card से भी छोटे कई प्रकार के Memory Card Format Market में उपलब्ध कराये गये जिनमें compact Flash, Smart Media तथा Miniature Card मुख्य थे। इसके अतिरिक्त अन्य Areas में Tiny Embedded Memory Cards (SID) Cell Phone में Use में लिये जाते Game Console में propriety memory में लाए जाते हैं तथा PDA’s व digital music players में removable memory cards use में लिए जाते हैं।

सन् 1990 व 2000 के मध्य Memory Cards के कुछ नये Formats उपलब्ध कराये गये जिनमें SD/MMC, Memory Stick, XD-Picture Card तथा कई प्रकार के छोटे Cards थे। Cell Phone PDA’S तथा Compact Digital Camera’s ने अल्ट्रा Small Cards के Trande को बढ़ाया तथा पुरानी Generation के Compact Card जो काफी बड़े दिखते थे उनके प्रयोग को कम कर दिया। आजकल अधिकतर नये PC में विभिन्न प्रकार के Memory Card जैसे Memory Stick, Compact Flash, SC इत्यादि के लिए Built in swt उपलब्ध होते हैं। कुछ Products एक से अधिक प्रकार के Memory Card को Support करते हैं।

2.3 Input Devices :-

Input Devices Computer व User के मध्य सम्पर्क की सुविधा प्रदान करते हैं। Input Device दिये गये Data और Programmes को कम्प्युटर के समझने योग्य रूप में परिवर्तित करते हैं। ये Devices Character, Numericals तथा अन्य चिह्नों को 0 तथा 1 Bit में Convert करते हैं, जिन्हें कम्प्युटर समझ सकता है तथा Data Processing कर सकता हैं। Input Device सीधे computer के नियंत्रण में रहते हैं।

Input Devices :-

(1) Key Board           

(2) Mouse

(3) Track Ball

(4) Joystick                

(5) Scanner               

(6) Optical Mark Reader        

(7) Bar-Code Reader               

(8) Magnetic Ink Character Reader

(9) Digitizer                                           

(10) Card Reader       

(11) Voice Recognition             

(12) Web Camera

(13) Video Camers

2.3.1 Keyboard :-

यह मुख्य और सुगम Online Input Device ही Data और Programme Key Board Computer में Input किय जाते हैं। इसके द्वारा User कुछ Commands Computer को देता हैं और उसका प्रभाव तत्काल Screen पर पड़ता हैं। Key Board एक Type Writer के समान Keys वाला उपकरण हैं। लेकिन इसमें Keys की संख्या Type Writer से अधिक होती हैं। Key Board के बटन में एक मुख्य बात यह होती हैं कि किसी बटन को कुछ देर तक दबाए रखने पर वह स्वयं को दोहराता हैं यह क्रिया Typematic कहलाती हैं।

Key Board दो प्रकार के होते हैं :-

(1) क्रमानुसार (Serial Key Board) – यह Data के 1 और 0 Byte को Bit by Bit क्रमानुसार भेजता हैं।

(2) समानान्तर (Parallel Key Board) – यह डाटा के सभी 1 व 0 Byte को पृथक-2 तारों में एक साथ भेजता हैं। Key Board की सभी कुंजियों को सात समूह में बाँटा गया हैं-

(1) Alphabat Keys (A-Z)

(2) Numerical (0-9)

(3) Functional (F1-F12)

(4) Arrow Keys (->, <-)

(5) Symbol Keys

(6) Control Keys

(7) Special Keys

2.3.2 Mouse :-

यह एक Online Input Device हैं, इसे रखने के लिए माउस पैड का उपयोग किया जाता हैं। इसे हाथ से पकड़कर काम में लेते हैं। समतल सतह पर माउस को हिलाने पर इसके नीचे लगी Ball घूमती हैं, जो माउस में लगे छोटे-छोटे रोलर्स को संवेदित करती हैं। यह संवेदना को Digital Value में बदलकर यह व्यक्त करती हैं कि माउस किस दिशा में गति कर रहा हैं। माउस में दो या दो से अधिक बटन होते हैं जिनको दबाने से Screen पर Pointer की सहायता से Screen के अवयव चुने जाते हैं। माउस के बटन को अंगुली से दबाने की क्रिया Click कहलाती हैं। माउस एक केबल की सहायता से कम्प्युटर के C.P.U. से जुड़ा होता हैं।

G.U.I. (Graphical User Interface) Application के Develop होने से माउस में काम आने लगा। Mouse Pointing Device पर काम करता है। Mouse प्रायः Screen पर Pointer को Control करता हैं। यह Screen पर Graphics तैयार करने में काम आता हैं। इसमें मुख्यतः दो Buttons होते हैं, Left Side तथा Right Side. Left Button सबसे अधिक काम में आता हैं। आजकल Ball वाले Mouse की जगह Optical Mouse का प्रयोग किया जाता हैं। Mouse पर एक Scroll Button भी होता हैं जिसक प्रयोग Pages को ऊपर नीचे करने के लिए किया जाता हैं।

2.3.3 Track Ball :-

Track Ball भी वही कार्य करती है जो Mouse करता हैं। अन्तर यह हैं कि Mouse को हाथ से घुमाना पड़ता हैं, जबकि Track Ball को अंगुली या अंगुठे से घुमाकर संचालित किया जाता हैं। इसे अधिकांश Laptop Computer में उपयोग करते हैं। Ball को जितना और जिस दिशा में घुमाते हैं Pointer उतना व उसी दिशा में संचालित होगा।

.3.4 Joy Stick :-

Joy Sticks Games खेलने के काम आने वाला Input Device हैं। Joy Stick के माध्यम से Screen पर उपस्थित आकृति को इसके Handle से पकड़कर चलाया जा सकता हैं। यह Mouse की तरह ही कार्य करता हैं, परन्तु फर्क इतना हैं कि Mouse को एक बार किसी दिशा में Move करके छोड़ देने पर Cursor वहीं रुक जाता हैं, परन्तु Joy Stick में एक बार Move करने पर Object उसी तरफ Move करता हैं जब तक कि उसको पुनः पहले वाली स्थिति में न लाए।

2.3.5 Scanner :-

यह एक Input Device हैं जिसके द्वारा Text, Graphics को सीधे Computer में डाला जाता हैं। इसके लिए जिस Text/Graphics को Scan करना हैं उसे Scanner की Flat सतह पर रखा जाता हैं। Scanner पर लगे Lense और Light Source के द्वारा चित्र को Binary Code में Change करके Computer की Memory में पहुँचाया जाता हैं तथा उसे Monitor की Screen पर देखा जा सकता हैं। Scan की गई फोटो में आवश्यकतानुसार Change किये जा सकते हैं। इनका अधिकतर उपयोग Designer द्वारा किया जाता हैं।

Scanner दो प्रकार के होते हैं –

(1) Hand Scanner – इसको हाथ से पकड़कर चित्र के ऊपर से गुजारा जाता हैं। इसे कवर बन्द करके Operate किया जाता हैं। यह पूरे Page में अंकित सूचनाओं को एक साथ Scan करता हैं।

(2) Desktop Scanner – इस Scanner में Photo को रखकर उसका कवर बन्द करके Operate किया जाता हैं। यह पूरे Page में अंकित सूचनाओं को एक साथ Scan करता हैं।

2.3.6 Optical Mark Reader :-

यह एक ऐसी Input Device हैं जो किसी कागज पर पेन या पेन्सिल के चिन्ह की उपस्थिति को जाँचती हैं, इसमें चिह्नित कागज पर प्रकाश डाला जाता हैं। और परिवर्तित प्रकाश को जाँचा जाता हैं। जहाँ चिह्न होगा उस भाग में परावर्तित प्रकाश की तीव्रता कम होगी। इसका उपयोग किसी परीक्षा की उत्तर पुस्तिका की जाँच में होता हैं।

2.3.7 Bar-Code Reader :-

BCR द्वारा Printed Lines के समूह को एक डाटा के रूप में पढ़ा जा सकता हैं। Universal Product Code सबसे ज्यादा उपयोग में आने वाला BCR Code हैं। जो लगभग सभी Retail वस्तुओं की packing पर होता हैं। BCR वास्तव में एक स्केनर हैं जो UPC को Laser Beam की सहायता से पढ़ता हैं UPC में एक श्रेणी में कई खड़ी लाइनें होती हैं। जिसकी चौड़ाई अलग-2 होती हैं। इन Lines को 10 डिजीट में पढ़ा जाता हैं। इनमें से प्रथम 5 से निर्माता व Distributor का पता चलता हैं तथा अन्तिम 5 से Product की जानकारी होती हैं।

2.3.8 Magnetic Ink Character Reader :-

इस उपकरण के द्वारा Input किये जाने वाले Data को एक पेपर पर लिखा जाता हैं। अक्षरों को लिखने के लिए एक विशेष फोन्ट होता हैं। इस Font के प्रत्येक अक्षर Lines में बना होता हैं इसमें एक विशेष प्रकार की Megnetic Ink का प्रयोग किया जाता हैं। जिसमें Iron Oxide नामक चुम्बकीय पदार्थ मिला होता हैं। यह अधिकतर Banks के चैक व Draft No. पढ़ने के लिए प्रयोग में लिया जाता है। उस चैक को MICR के Reading Head के नीचे से गुजारा जाता है। यह Cheque व DD को पूर्ण शुद्धता से पढ़ता हैं तथा इसकी Input की गति Fast होती हैं। जिससे Processing Speed तेज होती हैं। इसमें Font Match करने चाहिए व Character Megnetic Ink से ही लिखे होने चाहिए।

2.3.9 Digitizer :-

यह एक Input Device है। Graphic Tablet में एक Drawing सतह होती हैं। इसके साथ एक Pen जुड़ा होता हैं, जिसे Stylus कहते हैं। Drawing सतह में (grid) पतले तारों का जाल होता हैं जिस पर पेन को चलाने से संकेत कम्प्युटर में चले जाते हैं व Screen पर Image बन जाती हैं।

2.3.10 Card Reader :-

Memory Card, Flash Drive की तरह ही Permanent Storage Device की तरह प्रयोग किये जाते हैं। इन्हें इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों जैसे Mobile Phone, PDA, Digital Camera आदि और Computer के बीच Data Transmission के लिए विकसित किया गया।

इन Cards को Electronic उपकरणों के अतिरिक्त Card Reader द्वारा भी Access किया जा सकता हैं अर्थात् Card Reader में Memory Cards को Insert करने के लिए विभिन्न Slots होते हैं जिनमें Card डालकर Data, Card से Computer में या Computer से Card में Transfer किया जा सकता हैं।

2.3.11 Voice Recognition :-

Computer में तकनीक का सबसे नया उदाहरण Voice Input हैं। इस तकनीक में हम कम्प्युटर में डाटा बिना टाइप किये सीधे ही बोलकर इनपुट करा सकते हैं, इससे डाटा इनपुट में होने वाली परेशानियों को दूर किया जा सकता हैं। यह तकनीक कम्प्युटर यूजर को इनपुट में सहायता प्रदान करती हैं। इस तकनीक में कुछ समस्या भी हैं जैसे कि एक समस्या तब सामने आती हैं जब डाटा बोलकर इनपुट किया जाता हैं। इस समय सिस्टम यह पर खता हैं कि कौन बोल रहा हैं तथा सन्देश क्या हैं। System उसी व्यक्ति की आवाज को पहचानेगा जो व्यक्ति उसे हमेशा उपयोग में लेता हैं। वॉयस रिकॉग्निशन (Voice Recognition) में अन्य बहुत-सी तकनीक हैं जिनके माध्यम से वॉयस सिग्नल को उचित शब्दों में परिवर्तित किया जा सकता हैं।

अधिकतर वॉयस रिकॉगनिशन सिस्टम (Voice Recognition System) स्पीकर पर निर्भर (Speaker Dependent) होते हैं। इस सिस्टम में स्पीकर किसी शब्द जैसे ‘ट्रेन’ का उच्चारण बार-बार करता हैं तो यह सिस्टम सिर्फ उसी शब्द की आवाज को पहचानेगा जो पहली बार प्रयोग में लायी गयी थी परन्तु आजकल जो कि स्पीकर पर निर्भर नहीं हैं सारे शब्दों को पहचान लेते हैं चाहे व किसी भी यूजर द्वारा कहे गये हों, लेकिन यह डाटा की लगातार इनपुटिंग को स्वीकार नहीं करते हैं।

2.3.12 Web Camera :-

वेब कैमरा का प्रयोग विशेषतः कम्प्युटर के साथ होता है। प्रयोक्ता इसका प्रयोग खास तौर पर ऑन लाइन चैटिंग के समय करते हैं। वेब कैमरा किसी ऑब्जेक्ट पर फोकस करके उसका चित्र लेता हैं तथा इसे कम्प्युटर स्क्रीन पर दूसरी ओर ऑन लाइन व्यक्ति (यदि उसके पास भी वेब कैमरा है तब) को देख सकते हैं तथा उससे बातचीत कर सकते हैं।

2.3.13 Video Camera :-

डिजिटल वीडियो कैमरा एक ऐसा मोबाइल इनपुट डिवाइस हैं जो कि किसी भी दृश्य, चलचित्र आदि को स्टोर करने के काम आता हैं। इसके माध्यम से हम दृश्य को शूट करके स्टोर करते समय उस दृश्य को कैमरे के स्क्रीन पर भी देख सकते हैं। डिजिटल वीडियो कैमरा (Digital Video Camera) बहुत छोटे आकार का इनपुट उपकरण है जिसको एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से ले जाया जा सकता हैं।

2.4 Output Devices :-

जिस उपकरण की सहायता से CPU से आने वाली सूचनाओं या परिणामों को हम प्राप्त कर सकते हैं उन्हें हम आउटपुट डिवाइस कहते हैं। कम्प्युटर से प्राप्त परिणाम दो प्रकार के होते हैं-

(1) Soft Copy   (2) Hard Copy

यदि परिणाम से प्राप्त सूचनाओं को किसी प्रोग्राम माध्यम से Screen पर देखा जा सके या आवाज के रूप में प्राप्त किया जा सके तथा जिसे बार बार परिवर्तित भी किया जा सके Softcopy कहलाती हैं तथा इन परिणामों को Floppy, Hard Disk पर स्टोर कर लिया जाता हैं।

2.4.1 Monitors :-

Output उपकरणों में सबसे अधिक काम आने वाला उपकरण मॉनीटर हैं यह Main Output Device हैं User Monitor के द्वारा ही कम्प्युटर से संवाद करता हैं। सामान्यतः प्रदर्शित रंगों के आधार पर मॉनीटर को तीन भागों में बाँटा गया हैं-

(1) Monochrome (मोनोक्रोम) :- यह दो शब्द मोनो (एकल/Single) तथा क्रोम (रंग) से मिलकर बना हैं। इस प्रकार के मॉनीटर आउटपुट को Black & White रूप में प्रदर्शित करते हैं।

(2) Gray Scale (ग्रे स्केल) :- यह विशेष प्रकार के मोनो क्रोम मॉनीटर होते हैं जो Gray Shade में आउटपुट प्रदर्शित करते हैं।

(3) Color Monitor (रंगीन मॉनीटर) :- RGB (Red Green Blue) विकरणों के आउटपुट को प्रदर्शित करता हैं।

RGB के सिद्धान्त के कारण ऐसे मॉनीटर उच्च Resolution पर Graphics को प्रदर्शित करते हैं। Computer के मैमोरी की क्षमता के अनुसार ऐसे मॉनीटर 16 से लेकर 16 लाख तक के रंगों में आउटपुट प्रदर्शित करने कि क्षमता रखते हैं।

Micro Computer दो प्रकार के मॉनीटर होते हैं-

(a) CRT (Cathore Ray Tube)

(b) LCD (Liquid Crystal Display)

(a) CRT Monitor :- अधिकतर कम्प्युटर में इस प्रकार का मॉनीटर काम में लिया जाता हैं। यह Television के समान ही कार्य करता हैं, इस प्रकार के मॉनीटर में ज्यादातर CRT (Cathod Rays Tube) Monitor काम में लेते हैं। CRT Monitor में Phosphor Coated Screen होती हैं। जब इलेक्ट्रॉन इस Screen पर गिरते हैं तो Screen पर रोशनी दिखाई देती हैं। इसकी Picture quality अच्छी होती हैं।

Black & White Monitor को Monochrome कहते हैं। Monochrome Monitor में इलेक्ट्रॉन की एक किरण उत्पन्न होती हैं। जबकि रंगीन कम्प्युटर में RGB (Red, Green, Blue) की तीन किरणें उत्पन्न होती हैं।

CRT Monitor की बनावट :- CRT Monitor में सबसे पीछे एक Tube होती हैं जिसे CRT (Cathod Ray Tube) कहते हैं। इसमें एक Filament लगा रहता हैं, जो गर्म होता हैं। CRT के आगे की तरफ तीन Electron Gun होती हैं, जिसमें से तीन अलग-अलग रंग निकलते हैं, इसमें आगे की तरफ एक Focusing Device होता हैं। यह Focusing Device Rays को एक सीधी रेखा में बनाए रखता हैं। इससे आगे की तरफ Magnetic Deflection Coil होती हैं, जो Rays के direction को Decide करती हैं जो कि आगे कि तरफ Phosphor Coated Screen पर गिरती हैं जिससे यह Screen Glow करती हैं।

Mechanism :- CRT Raster Graphic Theory पर कार्य करती हैं, जिसमें Picture Tube में से वायु निकाल कर निर्वात कर लिया जाता हैं और Electron की पतली Beam छोड़ी जाती हैं। Filament के गर्म होने से Electron की Firing होती हैं। Filament को कम व तेज गर्म किया जा सकता हैं। Electron Guns Firing करने में काम आती हैं। जिसमें से तीन अलग-अलग कलर निकलते हैं। ये Rays Focusing Device में से गुजरती हैं जो इन्हें एक सीधी रेखा में बनाए रखता हैं ये Ray आगे Magnetic Deflection Coil में से गुजरती हैं जिससे Rays का Direction Decide होता। हैं। जब Rays Screen पर गिरती हैं तो Phosphor Coated Screen Glow होती हैं। इसमें छोटे-अलग Pixels होते हैं। प्रत्येक Pixels Electron की एक Beam में चमकता हैं।

Screen के सभी Pixels को चमकाने के लिए Electron-Beam Z आकृति में चलती हैं इसका मतलब यह 0, 0 Position से Glow करना शुरू करती हैं व पूरी Screen के Pixels Glow करके अन्तिम सिरे से पुनः 0, 0 स्थिति पर आ जाती हैं Electron Beam की Z आकृति की यह गति Raster कहलाती हैं। Screen के Pixels कुछ देर तक ही चमकते हैं, इसलिए लगातार चमकाने के लिए उन्हें बार-बार Refresh करना पड़ता हैं।

बार-बार Refresh करने की दर Refresh Rate कहलाती हैं जो प्रायः 30 Times/Second होती हैं। Refresh Continue होने से ही Image दिखाई देती हैं Refresh Rate कम होने से Picture Tube हिलती या लहराती दिखाई देती हैं।

प्रत्येक Pixels की चमक Electron Beam की तीव्रता पर भी निर्भर करती हैं।

Mechanism के आधार पर Monitor को दो भागों में बाँटा गया हैं –

(1) Random Scan Method Monitors

(2) Raster Scan Method Monitors

(1) Raster Scan Method :- इस Method के अन्तर्गत Rays Screen के Starting से End तक Z Form में चलती रहती हैं तथा End Point पर पहुँचने के बाद वापस Starting पर पहुँच जाती हैं तथा पूरी Screen Refresh होती हैं। जहाँ Image बनानी हैं, वहीं Area Glow होगा।

(2) Random Scan Monitor :- इसमें पूरी Screen Refresh नहीं करता हैं। उन Pixels को Glow करेगा जहाँ Image बनानी हैं, इन्हें Vector Monitor व Vector Device Or Vector Display Monitor भी कहा जाता हैं।

(b) LCD – (Liquid Crystal Display) :- यह एक Digital Display System हैं। जिसमें काँच की दो परतो के मध्य पारदर्शी द्रवीय पदार्थ होते हैं। LCD की बाहरी परत Tin Oxide द्वारा Coated होती है LCD Monitor अधिकांशतः लेपटॉप कम्प्युटर में काम में लिये जाते हैं, इस तरह की Screen Lap Top के अतिरिक्त Calculator, Videogame व Digital Camera में काम ली जाती हैं।

लाभ :-

(1) इसमें कम बिजली का उपयोग होता हैं।

(2) इनका आकार छोटा होता हैं।

हानि :-

(1) यह अधिक महँगा होता हैं।                 

(2) Resolution अधिक अच्छा नहीं होता हैं।

(c) प्लाजमा मॉनीटर (Plasma Monitor) :- प्लाजमा मॉनीटर मोटाई में बिल्कुल पतला होता है जो शीशे (Glass) के दो शीट के बीच में एक विशेष प्रकार के गैस को डालकर बनाया जाता हैं। यह विशेष प्रकार का गैस नियोन (Neon) या जेनन (Xenon) होता हैं जब गैस को छोटे-छोटे इलेक्ट्रॉड (Electrodes) के ग्रिड (Grid) के माध्यम से विद्युतिकरण (Electrified) किया जाता हैं, तब यह चमकता हैं। ग्रिड के विभिन्न बिन्दुओं पर जब एक विशेष माप कर वोल्टेज दिया जाता तब यह पिक्सल के रूप में कार्य करता हैं तथा कोई आकृति (Image) प्रदर्शित होता हैं।

(d) पेपर–व्हाइट (Paper White Monitor) :- इस प्रकार का मॉनीटर कभी-कभी डॉक्युमेन्ट डिजाइनर जैसे-डेस्कटॉप पब्लिशिंग स्पेशलिस्ट, समाचार पत्र या पत्रिका कम्पोजिटर तथा वैसे लोग जो उच्च-क्वालिटी के छपे हुए डॉक्यूमेन्ट (Printed Documents) बनाते हैं, के द्वारा प्रयोग किया जाता हैं। पेपर-व्हाइट मॉनीटर के श्वेत बैकग्राउण्ड तथा प्रदर्शित टैक्स या ग्राफिक्स के मध्य उच्च कॉन्ट्रास्ट (Contrast) बनाते हैं, जो सामान्यतः काला दिखता हैं। इसके एल.सी.डी. (LCD) संस्करण को पेज–व्हाइट मॉनीटर कहते हैं। पेज–व्हाइट मॉनीटर एक विशेष प्रकार की तकनीक प्रयोग करते हैं, जिसे सुपरटविस्ट (Spuertwist) कहते हैं, जो अधिक कन्ट्रास्ट (Contrast) बनाने में सक्षम होता हैं।

(e) इलेक्ट्रॉल्यूमिनेसेन्ट डिस्प्ले/मॉनीटर (Electro-luminiscent Display or Monitor) :- इस प्रकार का मॉनीटर LCD मॉनीटर के समान ही होते हैं। अंतर केवल इतना होता हैं कि इसमें ग्लास के दोनों शीट के मध्य फॉस्फोरेसेन्ट (Phosphorescent) फिल्म का प्रयोग किया जाता हैं। तारों के ग्रिड (Grid) फिल्म (Film) के माध्यम से धारा (Current) प्रवाहित करते हैं जिससे आकृति (Image) बनती हैं।

मॉनीटर के मुख्य लक्षण (Main Characteristics Of A Monitor) :-

सामान्यतः एक Monitor में कुछ लक्षण देखे जाते हैं, जो Monitor की कार्यक्षमता को निर्धारित करते हैं। ये लक्षण निम्न हैं रेजोल्यूशन (Resolution)-डिस्प्ले डिवाइस का महत्त्वपूर्ण लक्षण होता है-रेजोल्यूशन (Resolution) या स्क्रीन के चित्र की स्पष्टता (Sharpness)। अधिकतर डिस्प्ले (Display) डिवाइसेज में चित्र (Image) स्क्रीन के छोटे-छोटे (Dots) के चमकने से बनते हैं। स्क्रीन के ये छोटे-छोटे डॉट्स (Dots), पिक्सल (Pixels) कहलाते हैं। यहाँ पिक्सेल (Pixel) शब्द पिक्चर एलीमेंट (Picture Element) का संक्षिप्त रूप हैं। स्क्रीन पर ईकाई क्षेत्रफल में पिक्सलों की संख्या रेजोल्यूशन (Resolution) को व्यक्त करती हैं।

स्क्रीन पर जितने अधिक पिक्सेल होगें, स्क्रीन का रेजोल्यूशन (Resolution) भी उतना ही अधिक होगा अर्थात् चित्र उतना ही स्पष्ट होगा। एक डिस्प्ले रेजोल्यूशन माना 640 by 840 है तो इसका अर्थ है कि स्क्रीन 640 डॉट के स्तम्भ (Column) और 480 डॉट की पंक्तियों (Rows) से बनी हैं।

टैक्स्ट के अक्षर कैरेक्टर (Character) स्क्रीन पर डॉट मैट्रिक्स (Dot Matrix) विन्यास से बने होते हैं। सामान्यतया मैट्रिक्स का आकार 5×7=35 पिक्सेल या 7×12=84 पिक्सल के रूप में टैक्स्ट डिस्प्ले करने के लिए होता हैं। इस प्रकार एक स्क्रीन पर 65 कैरेक्टर की 25 पंक्तियाँ डिस्प्ले की जा सकती हैं। स्क्रीन पर हम इससे अधिक रेजोल्यूशन (Resolution) प्राप्त कर सकते हैं।

रिफ्रेश रेट (Refresh Rate) :- कम्प्युटर मॉनीटर लगातार कार्य करता रहता हैं। यद्यपि इसका अनुभव हम साधारण आँखों से नहीं कर पाते हैं। कम्प्युटर स्क्रीन पर इमेज बायें से दायें तथा ऊपर से नीचे इलेक्ट्रॉन गन के द्वारा परिवर्तित होती रहती हैं। परन्तु इसका अनुभव हम तभी कर पाते हैं जब स्क्रीन ‘क्लिक’ करती हैं। प्रायः क्लियर (स्क्रीन का Refresh का होना) का अनुभव हम तब कर पाते हैं जब स्क्रीन तेजी से परिवर्तित नहीं होती हैं। मॉनीटर की रिफ्रेश रेट (Refresh Rate) को हर्ट्ज में नापा जाता हैं।

पुराने मापदण्डों के अनुसार मॉनीटर की रिफ्रेश रेट (Refresh Rate) 60Hz थी परन्तु नये मापदण्डों में इसका माप 75Hz कर दिया गया हैं। इसका तात्पर्य यह हैं कि मॉनीटर पर डिस्पले एक सेकेण्ड में 75 बार परिवर्तित होता हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जितना अधिक रिफ्रेश रेट होगा उतना कम Flick करेगा।

डॉट पिच (Dot Pitch) – डॉट पिच एक प्रकार की मापन तकनीक हैं, जो कि दर्शाती हैं कि प्रत्येक पिक्सल (Pixel) के मध्य कितना Vertical अन्तर हैं। डॉट पिच का मापन मिलीमीटर में किया जाता हैं। यह एक ऐसा गुण या विशेषता है जो कि डिस्प्ले मॉनीटर की गुणवत्ता को स्पष्ट करता हैं। एक कलर मॉनीटर जो कि पर्सनल कम्प्युटर में प्रयोग होता है, उसकी डॉट पिच (Dot Pitch) की रेंज (Range) 0.15mm से .30mm तक होती हैं।

बिट मैपिंग (Bit Mapping) – प्रारम्भ में डिस्प्ले डिवाइसेज केवल कैरेक्टर एड्रेसेबल (Character Addressable) होती थी जो केवल टेक्स्ट (Text) को ही डिस्प्ले करती थीं। स्क्रीन पर भेजा जाने वाला प्रत्येक कैरेक्टर समान आकार और एक निश्चित संख्या के पिक्सलों (Pixels) के ब्लॉक (समूह) का होता था।

ग्राफिक्स आउटपुट Display करने के लिये जो तकनीक काम में लायी जाती हैं, वह बिट मैपिंग (Bit Mapping) कहलाती हैं। इस तकनीक में बिट मैप ग्राफिक्स का प्रत्येक पिक्सल ऑपरेटर द्वारा स्क्रीन पर नियन्त्रित होता हैं। इससे ऑपरेटर किसी भी आकृति की ग्राफिक्स स्क्रीन पर बना सकता हैं।

2.4.2   Printers :-

यह एक आउटपुट डिवाइस हैं तथा इसकी सहायता से सूचनाओं को Print Form में लिया जाता हैं। यह एक Hard Copy device हैं। इन्हें निम्न प्रकार वर्गीकृत कर सकते हैं –

(1) Impact Printer

(2) Non Impact Printer

(1) Impact Printer :- Type Writer के सिद्धान्त पर बना हुआ Device हैं जो Ribbon या Paper पर प्रहार करके अक्षर छापता हैं यह Striking Theory पर काम करता हैं।

(2) Non Impact Printer :- ये रीबन पर प्रहार नहीं करते हैं तथा इनमें रसायनिक inkjet अथवा प्रकाशीय विधि से अक्षर छापता हैं। इनके अलावा Printer को अन्य तीन श्रेणी में रखा गया हैं-

(1) Character Printer – एक Character Print करता हैं।

(2) Line Printer – एक बार में एक पूरी लाइन Print करता हैं।

(3) Page Printer – एक बार में पूरा पेज प्रिन्ट करती हैं।

Printer निम्न प्रकार के होते हैं-

(1) Dot Matrix Printer         

(2) Daisy Wheel Printer       

(3) Drum Printer

(4) Chain Printer       

(5) Inkjet Printer       

(6) Laser Printer

2.4.2.1 Dot Matrix Printers :-

यह एक Impact Printer हैं तथा यह Character Printer की श्रेणी में आता हैं, इसके Printer Head में अनेक Pins का एक Matrix बनता हैं तथा प्रत्येक Pin के Ribbon व Paper पर स्पर्श से एक डॉट बनता हैं तथा अनेक डॉट मिलकर एक Character या Image बनते हैं। एक बार में किसी एक Particular Character को Print करने वाली Pins ही Printer Head से बाहर निकलकर डॉट को छापती हैं। कुछ Dot Matrix Printer लाइनों को दाएं से बाएं तथा बाएं से दायें दोनों दिशाओं में प्रिन्ट करने की क्षमता रखते हैं। इन प्रिन्टर की गति 30 से 600 Character /Second हो सकती हैं। अनेक Dots मिलकर एक Character बनाता हैं। दोनों तरफ चलने वाले Printer Bi-Directional Printer कहलाते हैं।

विशेषताएँ –

(1) D.M.P. अधिक महँगें नहीं होते हैं।

(2) इनकी Printing Speed Fast होती हैं।

(3) ये ज्यादा समय तक काम आते हैं।

(4) इनकी पेपर Printing Quality Better नहीं होती हैं।

(5) इनका प्रति पेपर प्रिन्टिंग मूल्य सबसे कम हैं।

(6) इनमें किसी भी प्रकार की आकृति प्रिन्ट की जा सकती हैं।

(7) ये आवाज ज्यादा करते हैं।

(8) केवल Black & White Printing की जा सकती हैं।

(9) Font की Size Change की जा सकती हैं।

2.4.2.2  Inkjet Printers :-

यह एक Non-impact Printer हैं तथा Character Printer की श्रेणी में आता हैं। इसमें प्रिन्टिंग के लिए Ink काम में ली जाती हैं जो कि Cartridge में भरी होती हैं। इनमें छोटे-छोटे Nozzels होते हैं जिससे Ink की बूंदों को Spray करके Character व आकृतियां छापी जाती हैं। इसमें एक Megnatic Plate होती हैं जो Ink के direction को decide करती हैं। Print Head के Nozzel में Ink की बूंदों को आवेशित करके कागज पर उचित दिशा में छोड़ा जाता हैं। इस प्रिन्टर का आउटपुट अधिक स्पष्ट होता हैं। ये आवाज कम करते हैं। Graphics Printing तथा Color Printing भी की जा सकती हैं। इसमें दो प्रकार की Ink काम में आती हैं। एक वह जो घुलनशील होती हैं। इससे किया गया प्रिन्ट पानी गिरने से खराब हो सकता हैं। दूसरे प्रकार की इंक पानी में नहीं घुलती, इसमें प्रिन्ट किये गये Document ज्यादा सुरक्षित रहते हैं। ज्यादा समय तक Printing नहीं करने से Print Head के Nozzels पर स्याही जमकर छिद्रों को बंद कर देती हैं। इसकी Printing Quality better तथा महँगी होती हैं। इस Printer में Cartridge को Refill भी किया जा सकता हैं परन्तु इसकी Printing Quality उतनी स्पष्ट नहीं होती है तथा Head पर अत्यधिक भार पड़ता हैं।

2.4.2.2.  Laser Printers :-

लेजर प्रिंटर नॉन इम्पैक्ट पेज प्रिंटर हैं। लेजर प्रिंटर का उपयोग कम्प्युटर सिस्टम में 1970 के दशक से हो रहा हैं। पहले ये मेनफ्रेम कम्प्युटर में प्रयोग किये जाते थे। 1980 के दशक में लेजर प्रिंटर का मूल्य लगभग 3000 डॉलर था और यह माइक्रोकम्प्युटर के लिये उपलब्ध था। ये प्रिंटर आजकल अधिक लोकप्रिय हैं, क्योंकि ये अपेक्षाकृत अधिक तेज और उच्च क्वालिटी में टैक्स्ट और ग्राफिक्स छापने में सक्षम हैं।

लेजर प्रिंटर पृष्ठ पर आकृति (Images) को जेरोग्राफी (Xerography) तकनीक से छापता हैं। जेरोग्राफी (Xerography) तकनीक का विकास जेरॉक्स (Xerox) मशीन (फोटोकॉपीयर मशीन) के लिये हुआ था। जेरोग्राफी एक फोटोग्राफी जैसी तकनीक है, जिसमें फिल्म, एक आवेशित पदार्थ का लेपन युक्त ड्रम (Drum) होती हैं यह ड्रम फोटो-संवेदित होता हैं। इसके द्वारा कागज पर आउटपुट को छापा जाता हैं। इस ड्रम पर आउटपुट इस प्रकार आता हैं।

कम्प्युटर से प्राप्त आउटपुट, लेजर-स्त्रोत से लेजर किरण के रूप में उत्सर्जित होता हैं। यह किरण लैन्सों से एक घूमते हुए बहुभुजाकार (Polygon shaped) दर्पण पर फोकस की जाती है, जहाँ से परावर्तित होकर आउटपुट की यह लेजर-किरण लैन्सों द्वारा पुनः एक अन्य दर्पण (b) पर फोकस होती हुई परावर्तित होकर फोटो-संवेदित ड्रम पर गिरती हैं। घूमने वाला बहुभुजाकार दर्पण (a) आउटपुट की लेजर किरण को सम्पूर्ण फोटो-संवेदित ड्रम पर छपने वाली लाइनों के रूप में डालता हैं। जब यह ड्रम घूमता हैं तो आवेशित स्थानों पर टोनर (Toner-एक विशेष स्याही का पाउडर) चिपका लेता हैं। इसके बाद यह टोनर कागज पर स्थानान्तरित हो जाता हैं जिससे आउटपुट कागज पर छप जाता हैं। यह आउटपुट अस्थाई होता है, टोनर को स्थाई रूप से कागज पर सील (Seal) करने के लिए इसे गर्म रोलर से गुजारा जाता हैं।

अधिकतर लेजर प्रिंटर्स में एक अतिरिक्त माइक्रोप्रोसेसर (Microprocessor), रैम (RAM) और रोम (ROM) होते हैं। रोम (ROM) में फॉन्ट (Font) और पृष्ठ को व्यवस्थित करने के प्रोग्राम संग्रहित रहते हैं। लेजर प्रिंटर सर्वश्रेष्ठ आउटपुट छापता हैं। प्रायः यह 300 Dpi से लेकर 600 तक या उससे भी अधिक रेजोल्यूशन की छपाई करता हैं।

रंगीन लेजर प्रिंटर उच्च क्वालिटी का रंगीन आउटपुट देता हैं। इसमें विशेष टोनर होता हैं, जिसमें विविध रंगों के कण उपलब्ध रहते हैं।

लेजर प्रिंटर महँगें होते हैं, लेकिन इनकी छापने की गति उच्च होती हैं। प्लास्टिक की शीट या अन्य किसी शीट पर भी यह प्रिंटर आउटपुट को छाप सकते हैं। इनका उपयोग छपाई की ऑफसेट मशीन के मास्टर (Master) कॉपी छापने में होता हैं जिनसे आउटपुट की प्रतिलिपियाँ अधिक संख्या में छापी जाती हैं।

विशेषताएँ –

(1) इनकी Printing Speed सबसे अधिक होती हैं।

(2) इनकी Printing Quality सबसे अच्छी होती हैं।

(3) ज्यादातर Designing में काम आता हैं।

(4) इनकी Printing Cost ज्यादा होती हैं।

(5) Black & White तथा Colour दोनों ही प्रकार की प्रीन्टिंग की जा सकती हैं।

(6) इनका रख-रखाव कठिन हैं।

2.4.3 Plotters :-

यह एक Output Device हैं जो Charts Drawing, Maps, 3-D रेखाचित्र, Graph तथा अन्य प्रकार के Hard Copy Print करने के काम में लेते हैं। इसमें Arms होते हैं, जिसमें Pens लगे होते हैं वे Arms Move करती हैं तथा जहाँ पेपर लगे होते हैं वहाँ Image Create हो जाती हैं।

ये दो प्रकार के होते हैं-

(1) Flat Bed Plotter

(2) Drum Plotter

(1) Flat Bed Plotter :- इस Plotter में कागज के स्थिर अवस्था में एक बेड (Bed) या ट्रे (Tray) में रखा जाता हैं। एक भुजा (Arm) पर पेन (Pen) चढ़ा रहता हैं, जो मोटर में कागज पर ऊपर-नीचे (Y-अक्ष) और दायें-बायें (X-अक्ष) गतिशील होता हैं। कम्प्युटर पेन को X-Y अक्ष की दिशाओं में नियंत्रित करता हैं और कागज पर आकृति चित्रित करता हैं।

इलेक्ट्रॉस्टेटिक तकनीक (Electrostatic Technique) :-

इस तकनीक में पेन (Pen) के स्थान पर एक टोनर बेड (Toner Bed) होता हैं। यह टोनर बेड (Toner Bed) फोटोकॉपी मशीन की ट्रे (Tray) के समान कार्य करता हैं, लेकिन यहाँ प्रकाश के स्थान पर कागज आवेशित (Charged) करने के लिए छोटे-छोटे तारों (Wires) का एक जाल (Matrix) होता हैं। जब आवेशित कागज टोनर (Toner) से गुजारा जाता हैं तो टोनर कागज के आवेशित बिन्दुओं पर चिपक जाता हैं। जिससे चित्र (Image) उभर आता हैं।

Flat Bed इलेक्ट्रॉस्टैटिक प्लॉटर (Flat bed Electrostatic Plotter) की गति तो तीव्र होती हैं, लेकिन इसके आउटपुट की स्पष्टता पेन प्लॉटर (Pen Plotter) से कम होती हैं। ड्रम प्लॉटर (Drum Plotter) और फ्लैटबेड प्लॉटर (Flat bed Plotter), दोनों प्रकार के प्लॉटरों में पेन तकनीक या इलेक्ट्रॉस्टैटिक (Electrostatic) तकनीक का प्रयोग हो सकता हैं।

(2) Drum Plotter :- यह एक ऐसी आउटपुट डिवाइस हैं, जिसमें पेन (Pen) प्रयुक्त होते हैं, जो गतिशील होकर कागज की सतह पर आकृति तैयार करते हैं। कागज एक ड्रम पर चढ़ा रहता हैं, जो आगे खिसकता जाता हैं। पेन (Pen) कम्प्युटर द्वारा नियंत्रित होता हैं। कई पेन प्लॉटरों में फाइबर टिप्ड पेन (Fiber tipped pen) होते हैं। यदि उच्च क्वालिटी की आवश्यकता हो तो तकनीकी ड्राफ्टिंग पेन (Technical Drafting Pen) प्रयोग किया जाता हैं। पेन (Pen) की गति एक बार में एक इंच (inch) के हजारवें हिस्से के बराबर होती हैं। कई रंगीन प्लॉटरों में चार या चार से अधिक पेन (Pen) होते हैं। प्लॉटर एक सम्पूर्ण चित्र (Drawing) को कुछ इंच प्रति सैकण्ड की दर से प्लाट करता हैं।

2.4.4 Computer Output Micro-Film (Com) :-

यह Computer Output को Micro Film Media पर Store करने की तकनीक हैं। Micro-Film एक Reel या एक Micro Fitche के रूप में होती हैं। एक 4/6 इंच के आकार की Micro Fitche में लगभग 250 छपे हुए पेज आ सकते हैं। यह तकनीक उन Offices में अधिक उपयोगी होती हैं, जहाँ फाईलों में अधिक संशोधन नहीं होता हैं। Micro-Film में Data Store करने के लिए पहले Output को किसी संग्रह माध्यम पर लेना होता हैं, उसके पश्चात् उसे Micro-Film पर Transfer कर दिया जाता हैं। Micro Film व Micro Fitche को पड़ने के लिए एक अलग Device Use में लेनी होती हैं जो Output को अलग-अलग Frames के रूप में Store करती हैं।

2.4.5 Multimedia Projector :-

यह Video संकेतों को Input के रूप में ग्रहण करता हैं तथा लैंस का प्रयोग कर Screen पर उसके अनुसार Image को प्रदर्शित करता हैं। सभी प्रकार के Projector बहुत ही तेज रोशनी का प्रयोग Image को प्रदर्शित करने में करते हैं। आधुनिक Projectors में Manual Settings के द्वारा Image इत्यादि को सुधारने की क्षमता होती हैं। आजकल इसका प्रयोग Conference तथा Presentation इत्यादि में किया जाता हैं।

2.5 Computer Software

2.5.1 Relationship Between Hardware And Software :-

Software :- Software कई Programs से मिलकर बना होता हैं। यह Computer के विभिन्न कार्यों को पूरा करने में सहायता करता हैं। Computer Hardware को उपयोग में लाने के लिए Softwares की आवश्यकता होती हैं। Hardware तथा Software मिलकर एक सम्पूर्ण सिस्टम का निर्माण करते हैं।

Hardware :- Computer के Physical तथा दृश्य भागों को Hardware कहा जाता हैं। वे सारे भाग जिन्हें हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, इस श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार Monitor, Keyboard, Mouse इत्यादि सभी Hardware Part माने जाते हैं। Hardware तथा Software दोनों ही एक-दूसरे के पूरक होते हैं। इनमें से किसी एक की भी कमी Computer की कार्यप्रणाली को बाधित कर सकते हैं।

Computer System = Hardware + Software

2.5.2 System Software, Application Software, Computer Interpreter, Names of Some High Level Languages-

Program :- किसी क्रम में लिखे गये निर्देशों के समूह को प्रोग्राम कहते हैं। यह प्रोग्राम किसी भाषा में लिखे जाते हैं। अतः किसी प्रोग्राम को लिखने के लिए किसी भाषा का ज्ञान आवश्यक हैं। Computer Program किसी एक फाइल में लिखे जाते हैं तथा कम्प्युटर उसी फाईल को Execute करता हैं। User द्वारा High Level Language में लिखे गये कोड को Source Code कहते हैं। इस Source Code को Computer Software द्वारा मशीन कोड में Convert किया जाता हैं, जिसे Object Code कहते हैं।

Software :- Computer में प्रयोग आने वाले प्रोग्राम के समूह को Software कहते हैं। कम्प्युटर Hardware को संचालित करने के लिए User द्वारा निर्देश देने की विधि Software के रूप में होती हैं। Software User तथा Machine के बीच Interface का काम करते हैं। कम्प्युटर में प्रोग्राम को लिखकर हम अनेक कार्यों को बार-बार दोहरा सकते हैं।

Type Of Software :-

1.System Software2.Application Software
 Operating SystemUtility ProgramSub Routines General PurposeSpecial PurposeDiagnostic Routines
 Translator Programme  
 AssemblerCompilerInterpreter  

(1) System Software :- ऐसे प्रोग्राम का समूह जो कम्प्युटर सिस्टम की क्रियाओं को नियंत्रित करता हैं। System Software” कहलाते हैं। ये ऐसे प्रोग्राम होते हैं, जो User को कम्प्युटर सिस्टम पर कार्य करने में सहायता प्रदान करते हैं। System Software Computer में Machine Level पर चलते हैं। सभी Application Software, System Software की सहायता से ही रन किए जा सकते हैं। अतः System Software, Application Software का आधार होता हैं।

Example – Operating System, Utility Program, Subroutines, Translators System Software के कार्य –

1. Input/Output Process को Handle करना।

2. सभी Peripheral Devices जैसे Printer, Monitor, Disk आदि में परस्पर सम्पर्क स्थपित करना।

3. Memory Management करना।

4. Scheduling करना।

(A) Operating System :- Operating System एक Master Control Program होता हैं, जो कम्प्युटर का संचालन करता हैं। तथा एक नियंत्रक की भूमिका निभाता हैं। यह एक कम्प्युटर Control Program हैं। जिस तरह Traffic Police अपने क्षेत्र के Traffic का नियंत्रण करता है, उसी प्रकार Operating System भी कम्प्युटर पर नियंत्रण करता हैं। यह फाईलों पर नियंत्रण रखने में मदद करता हैं तथा विभिन्न Hardware Device जैसे Printer, Monitor आदि की भी जाँच करता हैं।

Operating System ऐसा प्रोग्राम हैं जो P.C. को निर्देश देता हैं कि उसके विभिन्न अंगों के साथ कैसे कार्य किया जाए। Operating System में हर विशिष्ट कार्य के लिए अलग-अलग निर्देश होते हैं। इन्हीं निर्देशों के द्वारा Operating System User से Interface करता हैं। Operating System अन्य सभी Application Program को कम्प्युटर में Execute करने में सहायता प्रदान करता हैं। अर्थात् सभी प्रोग्राम कम्प्युटर मशीन के सम्पर्क में आने से पहले Operating System के सम्पर्क में आते हैं।

Functions Operating System के कार्य – Operating System का महत्त्वपूर्ण कार्य नियंत्रण व प्रबंधन हैं। बड़े कम्प्युटर जिनमें एक से अधिक User एक साथ कार्य करते हैं, वहाँ Operating System Computer संसाधनों का आवंटन User की आवश्यकतानुसार करता हैं। जिस प्रकार मानव शरीर में रक्त शरीर की सभी क्रियाओं के संचालन महत्त्वपूर्ण हैं, उसी प्रकार Operating System Computer के लिए महत्त्वपूर्ण होता हैं। Operating System के महत्त्वपूर्ण कार्य निम्न हैं –

(1) Processor Manager :- Program के निर्देशों को C.P.U. में भेजने का कार्य Operating System करता हैं। यह C.P.U. के समय को भी सभी प्रोग्राम के बीच बराबर बाँटता हैं। जिसे हम Round Robin Mathod कहते हैं, ताकि सभी Program Process हो सकें।

(2) Memory Manager – Operating System यह भी ध्यान रखता हैं कि कोई भी प्रोग्राम जब Input-Output करें तो वह डाटा तथा Information को अपने निर्धारित स्थान पर स्टोर करे ताकि दूसरे प्रोग्राम भी सुचारू रूप से काम करे। अतः किस डाटा को कहाँ स्टोर करना हैं तथा उसके Storage के लिए कितनी Memory Allocate करनी हैं यह काम, Operating System करता हैं।

(3) Input-Output Management – Input Unit से डाटा को रीड करके मेमोरी में उचित स्थान पर स्टोर करने के बाद उससे प्राप्त Output को Output Unit तक पहुँचाने का कार्य भी Operating System ही करता हैं।

(4) File Management – इसके अन्तर्गत विभिन्न फाईलों को स्टोर किया जाता हैं। तथा उन फाईलों को कहां स्थनान्तरित करना हैं। यह कार्य भी Operating System करता हैं यह इस बात की भी स्वीकृती प्रदान करता हैं कि आप फाइलों को बदल दे या उनमें परिवर्तन कर सके।

(5) Conmmunication – Operating System Computer तथा User के बीच अच्छा Communication Path स्थापित करता हैं। अर्थात् यह User तथा मशीन के बीच Interface का काम करता हैं। Networking में Operating System एक Computer से दूसरे Computer तक सूचनाओं को भेजने का कार्य भी सम्पन्न करता हैं।

(6) Data Security – सुरक्षा व एकता का निर्माण करता हैं जिससे विभिन्न प्रोग्राम तथा डाटा के बीच कोई मतभेद पैदा न हो। अर्थात् प्रोग्राम में पड़े डाटा आपस में इकट्ठे नहीं होते हैं।

(7) Job Priority – इसमें यह निर्धारित किया जाता हैं कि कौनसा कार्य अन्य कार्यों से पहले किया जाये। यह Job Priority घटते हुए क्रम में होती हैं।

(8) विभिन्न Error Message का निर्माण करना।

Operating System के प्रकार :-

(1) Single User Operating System

(2)  Single User Multitasking Operating System

(3)  Multiuser Operating System

(4)  Network Operating System

(1) Single User Operating System – इस प्रकार के Operating System में एक बार में केवल एक प्रोग्राम ही क्रियान्वित होता हैं तथा एक समय में केवल एक व्यक्ति ही कम्प्युटर पर कार्य कर सकता हैं। अर्थात् एक से अधिक कम्प्युटर को जोड़कर एक से अधिक व्यक्ति द्वारा कार्य नहीं किया जा सकता हैं। जैसे MS-DOS.

(2) Single User Multitasking Operating System – इस तरह के Operaing System में एक User एक समय में एक से अधिक प्रोग्राम को Open कर सकता हैं। अर्थात् किसी दूसरे प्रोग्राम को Open करने के लिए पहले वाले प्रोग्राम को बंद करना जरूरी नहीं होता हैं, जैसे :- Window 95, 98 etc.

(3) Multi User Operating System – ऐसा Operating System जिसमें एक समय में एक से अधिक User काम कर सकते हैं। यह Client Server पर आधारित हैं। इसमें Server पर अन्य सभी कम्प्युटर की सूचनाऐं Save रहती हैं। इसमें जुड़े दूसरे कम्प्युटर (Terminals) कहलाते हैं सभी प्रोग्राम व फाइल मुख्य कम्प्युटर में Save रहती हैं। तथा उनका आदान-प्रदान Server की सहायता से किया जाता हैं। जैसे :- UNIX, Window 2000.

(4) Networking Operating System – ऐसा Operating System जो दो या दो से अधिक कम्प्युटर को आपस में जोड़ता हैं Networking Operating System कहलाता हैं। जैसे – WINNT, NOVELL- NETWARE

(B) Utility Programs – ये Program भी Computer के निर्माताओं द्वारा उपलब्ध कराये जाते हैं। क्योंकि लगभग समस्त Processing कार्यों में इनका प्रयोग होता हैं। इनमें कुछ परिपूर्ण प्रोग्राम हो सकते हैं या किसी Application Program के Compilation में सहायक होते हैं। ये ऐसे प्रोग्राम हैं जो कुछ कार्यों को पूरा करने में Operating System की मदद करते हैं। Utility Program द्वारा निम्नलिखित कार्य सम्पन्न किए जा सकते हैं-

(1) Data की आवश्यकतानुसार Storing करना।

(2) Output की Editing करना।

(3) Storage Device पर स्टोर डाटा को किसी अन्य माध्यम पर Transfer करना।

(C) Subroutines – Subroutines निर्देशों का समूह होते हैं जो प्रोग्राम में अनेक बार प्रयुक्त होते हैं। इसे एक बार सदैव के लिए लिखना कम खर्चीला होता हैं तथा Debuging में भी कम समय लगता हैं। इससे प्रोग्राम की साईज भी छोटी हो जाती हैं जिससे उस प्रोग्राम को समझने में आसानी होती हैं। इन Subroutines को कॉल किया जाता हैं। Execution होते समय Control उस कॉल की गई जगह से उस Subroutines पर चला जाता हैं तथा वहां के Statement Execute होते हैं। Subroutines का Execution पूरा होते ही Control वापस Main Program में Subroutines के आगे वाले Statement पर आ जाता हैं।

(D) Diagonstic Routines – इस प्रकार के प्रोग्राम भी कम्प्युटर निर्माताओं द्वारा ही बनाए जाते हैं। ये प्रोग्राम किसी Application Program के परीक्षण का कार्य करते हैं तथा इनमें Error ढूँढकर Debugging करने में सहायता करते हैं।

(E) Translator Program – Computer विभिन्न High Level Language जैसे Basic, FORTRAN आदि को नहीं समझता हैं। अतः Programmer द्वारा इन भाषाओं में लिखे प्रोग्राम को मशीन भाषा में Convert कराना पड़ता हैं। वे प्रोग्राम जो एक भाषा के प्रोग्राम को दूसरी भाषा के प्रोग्राम में परिवर्तित करते हैं।

Translator Program कहलाते हैं।

Translator तीन प्रकार के होते हैं :-

(1) Assembler (2) Compiler           (3) Interpreter

High Level Language में लिखे प्रोग्राम को भी मशीन कोड में Convert करना पड़ता हैं। इसके लिए हम दो तरीकों का उपयोग कर सकते हैं-

(1) पूरे प्रोग्राम को Convert करना तथा उसके बाद मशीन भाषा वाले प्रोग्राम को रन करना।

(2) प्रत्येक निर्देश को एक-एक करके Execute करना।

प्रथम विधि से Conversion करने वाले Compiler कहलाते हैं तथा दूसरी विधी से Conversion करने वाले Interpreter कहलाते हैं।

(i) Assembler – यह Assembly Language में लिखे प्रोग्राम को मशीन भाषा में Convert करता हैं। प्रत्येक कम्प्युटर की अपनी मशीन भाषा तथा Assembly Language होती हैं। अतः विभिन्न प्रकार की मशीनों के लिए विभिन्न Converter को प्रयोग में लिया जाता हैं।

(ii) Compiler – High Level Language को मशीन भाषा में Convert करने के लिए Compiler का उपयोग किया जाता हैं। High Level Language में लिखे प्रोग्राम को Source Program तथा Conversion के बाद प्राप्त होने वाले Machine Program को Object Program कहते हैं। Source Program से Object Program में Conversion प्रक्रिया को Compilation कहते हैं। Compilation की प्रक्रिया में Compiler, Source Program को एक साथ Check करता हैं तथा पूरे प्रोग्राम को मशीन भाषा में रूपान्तरित कर देता हैं। विभिन्न भाषाओं के लिए भिन्न-भिन्न Compiler होते हैं। जैसे :- PASCAL Compiler, C Compiler, FORTRAN Compiler.

Compiler Source Program की प्रत्येक लाईन को चैक करता हैं तथा मशीन भाषा में Convert करता हैं। प्रत्येक निर्देश को चैक करते समय वह प्रोग्राम में से गलतियां भी निकालता हैं तथा उन्हें एक साथ Display करता हैं। Compilation की प्रक्रिया तब तक पूरी नहीं होती जब तक की सभी गलतियाँ समाप्त नहीं होती। एक बार किसी Source Program को Object Program में Convert करने के बाद बार-बार Compiler की आवश्यकता नहीं होती हैं। Next Time हम Object Code को ही सीधे रन कर सकते हैं।

(iii) Interpreter :- यह एक अन्य प्रकार का Transalator हैं, जो High Level Language में लिखे प्रोग्राम को मशीन भाषा में Convert करता हैं तथा साथ ही Execute भी कर देता हैं। Translation व Execution दोनों एक के बाद एक चलते रहते हैं। अर्थात् Interpreter एक लाईन को चैक करता हैं, Control Unit उस मशीन कोड को Execute करती हैं। यह क्रम प्रोग्राम के समाप्त होने तक चलता रहता हैं। जबकि Compiler में पूरा प्रोग्राम एक साथ Convert हो जाता हैं और उससे उत्पन्न मशीन कोड को संचित करके पुनः सीधे ही काम में लिया जा सकता हैं। अतः प्रोग्राम को हर बार Execute करने के लिए बार-बार Compilation जरूरी नहीं होता हैं।

Interpreter में हर बार प्रोग्राम रन करने के लिए Source Code आवश्यक होता है जो हर बार Interpret होता है।

Interpreter के प्रयोग में भविष्य के लिए कोई मशीन कोड स्टोर नहीं होता क्योकि Conversion तथा Execution साथ-साथ चलता हैं। अतः अगली बार जब भी निर्देश प्रयोग में आता हैं उसे पुनः रूपान्तरित करना पड़ता हैं।

(2) Application Software :- किसी विशेष तथा निश्चित कार्यों को करने के लिए बनाये गये Software Application Software कहलाते हैं। इनकी कार्यक्षमता सीमित होती हैं। कार्य के आधार पर किसी भी Programming भाषा में इसका निर्माण किया जा सकता हैं। इसके द्वारा User को अपने कार्य करने में आसानी होती हैं। इनका प्रयोग करने के लिए User का कम्प्युटर क्षेत्र में दक्ष होना आवश्यक नहीं होता है। Application Software अनेक प्रोग्राम के समूह होते हैं, इसलिए उन्हें Application Software Package भी कहते हैं। उदाहरण के लिए किसी ऑफिस के कर्मचारियों का वेतन तैयार करने के लिए कम्प्युटर प्रोग्राम, किसी फैक्टरी में सामान्य Accounting के प्रोग्राम तथा किसी विशेष क्षेत्रों जैसे-बैंक अस्पताल आदि के लिये लिखे गये Program Application Software कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-

(i) General Purpose Application Software

(ii) Special Purpose Applcation software

(i) General Purpose Application Software- इस तरह के Software किसी भी Field में उपयोग लिये जा सकते हैं। जैसे – Ms-Word, MS-Excel.

(ii) Special Purpose Application Software – इस तरह के प्रोग्राम किसी विशेष संस्था के लिये बनाये जाते हैं तथा उसी प्रकार की ही किसी अन्य संस्था में उपयोग हो सकते हैं। अन्य क्षेत्रों में इनका उपयोग नहीं किया जा सकता हैं। जैसे-किसी फेक्टरी, दुकान आदि के लिए बनाये गये Programs

Computer Language :-

विचारों के आदान-प्रदान के लिए भाषा की आवश्यकता होती हैं। देशों में सामान्य बातचीत के लिए विभिन्न प्राकृतिक भाषाओं का प्रयोग किया जाता हैं। जैसे हिन्दी, जर्मन आदि। ठीक उसी प्रकार यदि हम कम्प्युटर से काम लेना चाहते हैं तो हमें उस भाषा का उपयोग करना होगा जो कम्प्युटर आसानी से समझ सके। अतः कम्प्युटर को उसकी भाषा में ही निर्देश देने पड़ते हैं। प्रत्येक भाषा की अपनी वर्णमाला व शब्दलिपि होती हैं। अतः किसी भी भाषा का उपयोग करने के लिए उसकी वर्णमाला एवं व्याकरण का ज्ञान होना आवश्यक हैं। व्याकरण में उस भाषा से संबंधित नियमों के उपयोगों को बताया जाता हैं। ठीक उसी प्रकार कम्प्युटर की विभिन्न भाषाओं को उपयोग में लेने वाला व्यक्ति उस भाषा के शब्द और संकेतो का प्रयोग करते हुए कम्प्युटर से बातचीत करता हैं। वहीं कम्प्युटर की भाषा अच्छी होती हैं। जिसे कम्प्युटर पर काम करने वाला व्यक्ति आसानी से समझ सके और उसके अनुरूप प्रोग्राम बना सके।

कम्प्युटर भाषाओं की तीन श्रेणियाँ हैं –

(1) Machine Language Or Binary Language

(2) Assembly Language/Symbolic Language

(3) High Level Language

Computer मशीन भाषा ही समझता हैं। यह भाषा कम्प्युटर द्वारा आसानी से समझी जाती हैं परन्तु यह मनुष्य के लिए अत्यन्त कठिन हैं। अन्य दोनों भाषाएं हमारे लिए उपयुक्त हैं। Assembly Language में Numeric (चिह्नों) का उपयोग होता हैं। चिह्नों को याद रखना सुविधाजनक होता हैं। परन्तु कम्प्युटर Assembly भाषा में लिखे गये निर्देशों को मशीन भाषा में परिवर्तित करना पड़ता हैं। मशीन व Assembly Languge दोनो ही निम्न स्तरीय भाषा हैं-

(1) Machine Language – वह भाषा जो कम्प्युटर सीधे ही समझ सकता हैं और उसमें लिखे निर्देशों को बिना किसी परिवर्तन के रन किया जा सकता हैं। मशीन भाषा कहलाती हैं। आरम्भिक कम्प्युटर में सभी प्रोग्राम मशीन कोड में लिखे गये जिनका विकास उन कम्प्युटर के निर्माताओं द्वारा किया गया था। प्रत्येक कम्प्युटर की अपनी अलग भाषा होती थी। जो उसकी आन्तरिक संरचना पर आधारित होती थी।

प्रोग्राम लिखने के लिए इस विशेष Machinary Language की समुचीत जानकारी होनी चाहिए और साथ ही साथ काम में आने वाले कम्प्युटर कि भी ज्ञान होना चाहिए। इस भाषा में लिखे गये प्रोग्राम केवल उन्हीं कम्प्युटर पर प्रयोग कर सकते थे। जिनके लिए वह प्रोग्राम बनाया गया हैं तथा उस कम्प्युटर का Hardware का ज्ञान होना जरूरी था।

विशेषताएँ –

(1) मशीन भाषा का उपयोग करने पर कम्प्युटर द्वारा कार्य तीव्र गति से सम्पन्न किया जाता हैं, क्योंकि कम्प्युटर को CPU इस भाषा को सीधे समझने में सक्षम होता हैं और भाषा का अनुवाद करने के लिए अन्य प्रोग्राम की आवश्यकता नहीं होती हैं।

(2) इस भाषा द्वारा कम्प्युटर के सभी भागों को निर्देश देकर व उनसे कार्य कराया जा सकता हैं।

दोष –

(1) मशीन पर आश्रित विभिन्न कम्प्यूटर का आंतरिक परिपथ Different होता हैं। अतः प्रत्येक कम्प्युटर को संचालित करने के लिए विभिन्न विद्युत संकेतो की आवश्यकता होती हैं। एक कम्प्युटर के लिए मशीन कोड में लिखा गया प्रोग्राम दूसरे कम्प्युटर पर नहीं चलता।

(2) प्रोग्राम लिखना कठिन :- मशीनी भाषा को सीखना एक कठिन व मेहनत का कार्य हैं। मशीन कोड में प्रोग्राम लिखने से पूर्व कम्प्युटर के आन्तरिक परिपथ व कार्यप्रणाली का ज्ञान होना आवश्यक हैं। सामान्य लोग मशीन भाषा में लिखे प्रोग्राम को पढ़ व लिख ही नहीं सकते।

(3) गलती का पता लगाना कठिन :- मशीन भाषा में लिखे गए प्रोग्राम में 0 तथा 1 की कई लम्बी पंक्तियां होती हैं। इस कारण गलती का पता लगाना बहुत कठिन होता हैं। यदि गलती से प्रोग्राम किसी स्थान में 0 के स्थान पर 1 लिख देती हैं तो इस गलती का पता लगाना एक कठिन कार्य हैं।

(4) मशीन कोड में सुधार करना कठिन।

(2) Assembly Language Or Symbolic Language – मशीन भाषा के प्रयोग में आने वाली कठिनाइयों को देखते हुए उनमें सुधार करके जो Language बनाई गई उसे Assembly Language कहते हैं। इस भाषा में कम्प्युटर के गणितीय तथा तार्किक दोनों प्रकार के कार्यो के लिए प्रतीकों का उपयोग किया जाता हैं। आसानी से याद किये जा सकने वाले प्रतीकों का उपयोग होने के कारण प्रोग्रामिंग का कार्य अत्यन्त सरल हो गया। परन्तु कम्प्युटर केवल Machinery Language ही समझ सकता हैं। अतः Assembly Language में दिये गये प्रोग्राम का Machine Language में अनुवाद करना आवश्यक हैं। इस कार्य को करने के लिए कुछ विशेष प्रोग्राम को प्रयुक्त किया जाता हैं। जिन्हें Assembler कहते हैं।

विशेषताएं :-

(1) समझने व उपयोग में आसान – चिह्नों का उपयोग होने के कारण इस भाषा के उपयोग के लिए समझना अत्यन्त सरल हैं।

(2) समय व श्रम की बचत – इस भाषा में प्रोग्राम लिखना Machine Laguage की अपेक्षा सरल होता हैं। इस कारण प्रोग्राम के समय व मेहनत में बहुत बचत होती हैं।

(3) कार्य कुशलता में वृद्धि – Assembly Language में काम करने में समय की बचत होती थी तथा मशीन भाषा की अपेक्षा काम करना भी सरल होता हैं। जिससे ज्यादा समय तक शुद्धता से काम किया जा सकता हैं।

दोष :–

(1) मशीन पर आश्रित

(2) मशीन का ज्ञान होना आवश्यक

(3) समय अधिक लगता हैं – Computer Machinery Language समझता हैं। अतः Assembly Language को Machinery Language में परिवर्तित करने के लिए Assembler का उपयोग करना पड़ता हैं। जिससे कार्य पूरा होने में अधिक समय लगता हैं।

(3) High Level Language – वे भाषाएं जो सामान्य English Language के समान होती हैं और जिनमें लिखे गये निर्देश सीधे Run नहीं होते हैं। अर्थात् रन करने के लिए उन्हें मशीनी भाषा में Convert करना पड़ता हैं। High Level Language कहलाती हैं।

English Language का उपयोग होने के कारण यह अत्यन्त सरल होती हैं तथा Machine dependent नहीं होती हैं। High Level Language. जैसे :- Fortran, COBOL, BASIC, PASCAL, JAVA Etc.

High Level Language में लिखे प्रोग्राम को रन करने के लिए कुछ विशेष प्रोग्राम को प्रयुक्त किया जाता हैं। जिन्हें Compiler तथा Interpeter कहते हैं।

(1) मशीन पर निर्भरता नहीं

(2) सीखने व उपयोग में आसान

(3) गलती खोजना आसान

(4) Programming सस्ती

(5) Good Documantation

(6) रख-रखाव आसान

दोष –

Processing में अधिक समय High Level Language को Machine Language में परिवर्तित करना। कुछ मुख्य High Level Languages निम्न हैं –

(1) BASIC :- इसका पूरा नाम Beginners All purpose Symbolic Instruction Code हैं। यह काफी सरल भाषा हैं। इसका विकास 1965 में हुआ था। Microsoft द्वारा इसका नया संस्करण QBASIC निकाला गया। उसके बाद Microsoft द्वारा 1965 में Visual Basic विकसित की गई। Visual Basic (VB) ने Graphics User Interface को संभव कर दिखाया।

(2) C :- इसका विकास Denis Richi ने 1972 में किया था। इस भाषा में काफी जटिल Program भी बनाये जा सकते हैं। AT & T द्वारा इस भाषा का Compiler बनाया गया। Compiler Programming को मशीनी भाषा में बदल देता हैं।

(3) COBOL :- इसका पूरा नाम Common Business Oriented Language हैं। इसका उपयोग व्यावसायिक संस्थानों द्वारा खाता-बही, रोकड़ खाते, पंक्ति आदि में करते हैं। इसमें एल्फा-न्यूमेरिक शब्दों का अधिक अच्छा उपयोग होता हैं। इस भाषा में निर्देश अंग्रेजी भाषा में काफी मिलते-जुलते हैं।

(4) FORTRAN :- इसका पूरा नाम Formula Translation हैं। यह वैज्ञानिक व इंजीनियरिंग कार्यों हेतु सर्वाधिक उपयोग की जाने वाली भाषा हैं। इसके द्वारा जटिल गणनायें भी सम्पन्न की जा सकती हैं।

(5) PL (Programming Language) :- इसका विकास IBM ने 1965 में किया था। इसका उपयोग वैज्ञानिक एवं व्यावसायिक दोनों प्रकार के कार्यों हेतु किया जाता हैं। इसमें दोनो FORTRAN व COBOL की विशेषताएं हैं।

(6) 4GL भाषायें :- 4GL भाषायें गैर–प्रक्रियागत एवं उद्देश्य अभिमुखी भाषाएं हैं। इसमें केवल यहीं बताते हैं कि क्या करना हैं। कैसे करना हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं होती।

(7) C++ :- यह C भाषा का एक विकसित रूप हैं। यह Object Oriented भाषा हैं। इसका विकास 1980 में हुआ था। इसमें Structred Programming की विशेषताएँ भी हैं।

(8) JAVA :- इसका विकास SUN Micro System ने किया हैं। यह भाषा Internet के उपयोग हेतु काफी उपयोगी भाषा हैं। Internet Program JAVA में भी तैयार किये जाते हैं। इसके उपयोग हेतु Computer में JAVA Compiler का होना जरूरी हैं। JAVA Virtual Machine जो कि Computer Memory में स्थापित होती हैं, के उपयोग के कारण यह किसी भी Computer में उपयोग की जा सकती हैं।

2.5.3 Applications Of Computer :-

कार्य क्षमता, उपयोगिता, उत्पादकता के कारण आज Computer मानव जीवन का अभिन्न अंग बन गया हैं। आज Computer का प्रयोग निम्नलिखित क्षेत्र में कर सकते हैं-

(1) Education :- Computer का Development मुख्यतः Mathematical Problem को Solve करने के लिए हुआ था। अतः इसका सबसे अधिक उपयोग गणित, सांख्यिकी, Economics, Statistics जैसे – जटिल विषयों को समझने के लिए किया जाता है। स्कूल तथा कॉलेज में विद्यार्थियों की Personal Information को वापस प्राप्त किया जा सकता हैं। स्कूल में विद्यार्थी को Different-different Subject से Related विभिन्न प्रकार की Education Computer द्वारा सिखायी जाती हैं।

(2) Business & Commerce (व्यापार एवं वाणिज्य) :- Computer का Use Business में सबसे अधिक किया जा रहा हैं। India में अभी Computerise Trade & Business अभी Starting Stage में ही हैं। e-Commerce Computer की एक ऐसी Branch हैं जिसके द्वारा कोई भी दो Business Oraganisation अपना व्यापार Word Wide कर सकता हैं।

(3) Health :- स्वास्थ्य संबंधी कार्यों में भी Computer का अधिक से अधिक उपयोग किया जा रहा हैं। CTScan, Ultra Sound, Sonography आदि कार्यों में Use में ली जाने वाली मशीन Computer से नियंत्रित होती हैं।

(4) Administration :- Office में कर्मचारियों से संबंधित सूचनाओं को Computer में Stored करके आवश्यकतानुसार उपयोग में लिया जा सकता हैं। Police department में अपराधियों के Records Computer में Stored करके रखा जाता हैं। किसी भी ऑफिस में employees का ध्यान रखने के लिए तथा समय-साथ पर विभिन्न प्रकार की Information भेजने के लिए कम्प्युटर का उपयोग लिया जाता हैं।

(5) D.T.P. Work and Printing Work :- News Papers, Books, Invitation Card आदि सभी प्रकार के कार्य D.T.P. के अंतर्गत आते ही इन सभी प्रकार के कार्यों को करने के लिए Computer का प्रयोग किया जा रहा हैं। जिससे इन कार्यों की Speed तथा Quality better हो गयी हैं D.T.P. के लिए कुछ विशेष प्रकार के Programme या Software की आवश्यकता होती हैं। जैसे-Photo Editing के लिए Photoshop, Card Design के लिए Coral Draw, Magazine के लिए Page Maker etc.

(6) Message Transmission :- किसी भी देश की आधुनिकता उसकी संचार व्यवस्था से लगाई जाती हैं। E-mail संचार का एक ऐसा माध्यम हैं जिसे कम्प्युटर तथा इन्टरनेट की सुविधा का प्रयोग करते हुए सुचनाएँ एक कम्प्युटर से दूसरे कम्प्युटर तक भेजी जा सकती हैं। Information भेजने का यह कार्य कम समय व कम लागत पर किया जा सकता हैं।

(7) Astronomy :- Astronomy के क्षेत्र में कम्प्युटर का प्रयोग अधिक किया जा रहा हैं। Astronomy में सारा कार्य Calculational होता हैं। कम्प्युटर का Main Work Calculation करना ही है। इसके लिए कई प्रकार के Software Market में उपलब्ध हैं। जिसका प्रयोग हर व्यक्ति कर सकता हैं। जिसको ज्योतिष का ज्ञान नहीं भी हों। ऐसे कुछ Software Kundli, नक्षत्र हैं।

(8) Music :- पिछले कई वर्षों में बनी फिल्म्स तथा एलबम देखते हैं तो हम पाएंगें कि संगीतकारों ने अपना Music Computer की Help से Compose किया हैं। कम्प्युटर की Help से किसी भी Instruments की Sound Create की जा सकती हैं तथा उनके Combination से नये-नये Music या Sounds generate किए जा सकते हैं तथा Music की Quality को Improve किया जा सकता हैं।

(9) Entertainment :- Computer का Use Videos, Games, Music इत्यादि देखने के लिए तथा उन्हें Develop करने के लिए भी किया जा रहा हैं। Movies में कम्प्युटर का प्रयोग Special Effects Apply करने के लिए किया जाता हैं। विभिन्न प्रकार की Cartoon तथा Animation Computer पर ही Develop हो जाती हैं।

Use Of Computers in Different Fields :-

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