अधिगम निर्योग्यता के उपचार हेतु किन विधियों का उपयोग किया जाता है ? उल्लेख करें।

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अधिगम निर्योग्यता के उपचार हेतु निम्न विधियों का उपयोग किया जाता है–

(1) व्यावहारिक निर्देशन विधि– व्यावहारिक निर्देशन विधि का उपयोग बच्चों के शैक्षिक वातावरण के साथ विद्यालयों में दिशा निर्देश स्टेफेन्स (1970) द्वारा प्रस्तुत किया गया। इसके अनुसार इस विधि के उपयोग के लिए चार चरणों के अनुपालन आवश्यक हैं–

(i) उस व्यवहार को लक्ष्य बनाना जिसका परिमार्जन किया जाना हो।

(ii) लक्ष्य केन्द्रित व्यवहार का प्रत्यक्ष और बार– बार मापन करना।

(iii) संस्था में उन दशाओं को न्यून करने अथवा समाप्त करने का आग्रह करना जो उसके वास्तविक व्यवहार में बाधक हो।

(iv) व्यवहारों में होने वाले परिवर्तनों का बार– बार आंकलित कर उनका व्यावहारिक उपयोग करना।

इस विधि के उपयोग से निम्न प्रकार से सावधानी और समीक्षा का आलेख तैयार करना चाहिए–

व्यावहारिक मानदण्डों का उपयोग अनुकूलता के आधार

(इस प्रक्रिया आलेख को टारगेसन एवं वीग 1989 के साइकोलॉजिकल एवं एज्यूकेशनल परस्पेक्टिव ऑन लर्निंग डिसएबिलिटी– यू. 300 से लिया गया है ।)

इस विधि के अनुप्रयोग में परिमार्जन, मॉडल, पुरस्कार और अनावश्यक दशा का नियंत्रण आवश्यक भूमिका अदा करती है।

ब्लैकन्सिप एवं वामगार्टनर (1982) ने इस विधि के अनेक अनुसंधान पक्ष प्रस्तुत किये। उनके अनुसार अधिगम निर्योग्य बच्चों को उन परिस्थितियों से यदि अलग कर दिया जाए तो उनके शैक्षिक विकास को बाधित करती है तो अधिगम निर्योग्यता की समस्या से युक्ति पायी जा सकती है। परिवेश के निरसन की एक P जटिल समस्या नियानकर्ताओं के समक्ष है कि इन्हें कैसे दूर किया जाये। इन अध्यापनकर्ताओं (ब्लैकन्सिप एवं गार्टनर) ने एक सुझाव अपने परिणामों के आधार पर प्रस्तुत किया कि यदि मॉडल शिक्षण प्रस्तुत की जाये तो निष्पादन पर निषेधात्मक प्रभावकारी दशाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है।

गोटिजर (1982) ने ध्वन्यात्मकं समस्या समाधान पर अपना स्थान केन्द्रित कर समाधान की पृष्ठभूमि को प्रस्तुत किया जिसे गणित और अध्ययन की प्रत्यक्ष निर्देशन पद्धति कहा गया। इस विधि के उपयोग में 45% से 85% तक सफलता प्राप्त हुयी।

ग्राम (1983) ने पाया कि यदि हस्त लेखन कौशल परिमार्जन कर दिया जाये तो निष्पादन में विधेयात्मक परिवर्तन सम्भव है। हालाहन और उनके सहयोगियों (1979) ने इसे स्वसक्रिय समाधान कहा था।

(2) संज्ञानात्मक व्यवहार परिमार्जन– संज्ञानात्मक व्यवहार परिमार्जन विधि का अधिगम निर्योग्यता पर उपयोग में सर्वाधिक सराहनीय और महत्त्वपूर्ण कार्य वुटकोवस्की एवं विलांग (1980) पर्ल,ब्राइन एवं प्रनाही (1980), डगलस (1981), हालाहन एवं नीडलर (1979), पैटिस एवं मायर्स (1981), विन्स (1983), द्वारा प्रस्तुत किया गया। इस विधि द्वारा अध्ययन हेतु निम्न पक्षों पर बल देना आवश्यक है–

(i) संवेगशीलता को न्यून करना– संज्ञानात्मक व्यवहार परिमार्जन के व्यावहारिक मानदंड पर अनुक्रिया के स्तर पर संवेगशीलता को कम करना यद्यपि कठिन है परन्तु असम्भव नहीं। मैकेन वाम और गुडमैन (1971), एरनाल्ड एवं फोरहैण्ड (1978), इगेललैण्ड (1974), नेलसन एवं बिटकीमेट (1978) ने अपने अध्ययनों में पाया कि यदि विस्तृत प्रशिक्षण तकनीक का उपयोग किया जाये तो इस पर नियन्त्रण सम्भव है। मैकेनहेम एवं गुडमैन (1976) ने स्व– निर्देशन उपाय पर बल दिया। उनके अनुसार स्व– निर्देशन में मॉडल व्यवहार का प्रमुख हाथ होता है और इस व्यवहार के माध्यम से अनुक्रिया दक्षता समस्या पर नियंत्रण किया जा सकता है | कालसेन इपिस्टाइन और सिलवर (1997) ने अधिगम निर्योग्य के स्व निर्देशन और मॉडल के एक साथ लेकर अध्ययन प्रारम्भ किया। उन्होंने 9– 12 वर्ष के बच्चों जो अनुक्रिया में संवेगशीलता व्यक्त करते थे– का चयन किया।

स्व– निर्देशन और मॉडल को संयुक्त रूप से प्रशिक्षण के लिए चुना। इस विधि से प्रशिक्षण देने पर इन्होंने पाया कि अधिगम निर्योग्य बच्चों को यदि सही निदान के बाद समय प्रशिक्षण दिया जाये तो अधिगम निर्योग्य बच्चों के अनुक्रिया मानदण्डों की कमियों पर नियंत्रण सम्भव है।

ऐसा ही परिणाम कुलिमैन और उनके सहयोगियों (1977) ने 6 से 13 वर्ष के बच्चों के प्रशिक्षण पर पाया। नेलसन एवं बिटकीमेर (1978) ने अपने अध्ययन में पाया कि यदि स्व– निर्देशन एवं स्व– प्रबलन प्रशिक्षण भी जोड़ दिया जाये तो इनकी समस्याओं पर अधिक नियंत्रण सम्भव है।

(ii) लक्ष्योन्मुख व्यवहार पर बल देना– अतिक्रियाशीलता अधिगम निर्योग्य बच्चों की एक प्रमुख समस्या है। अतिक्रियाशीलता का प्रथम चरण पर आभास हो जाता है । कारण शिक्षक जब ऐसे बच्चों के बारे में अपना मूल्यांकन प्रस्तुत करते हैं तो इस समस्या को प्रमुखता से प्रस्तुत करते हैं । जब ऐसे बच्चों के बारे में शिक्षकों द्वारा गहन बातचीत की जाती है तो ऐसे बच्चों के बारे में उनका उत्तर होता है कि अमुक– अमुक छात्र कक्ष में मन से नहीं पढ़ता है ठीक से अध्ययन सामग्री को याद नहीं करता है और कार्य निष्पादन में प्रायः अतिशीघ्रता व्यक्त करता है । बोर्नस्टीन एवं क्यूविलीन (1979) ने संज्ञानात्मक व्यवहार परिमार्जन विधि का सहारा लिया और स्वनिर्देशन द्वारा लक्ष्योन्मुख व्यवहार अभिप्रेरणा उत्पन्न किया। 2 घण्टे का प्रशिक्षण प्रत्येक प्रशिक्षण अवधि में 3 माह तक दिया गया। परिणाम अपेक्षाकृत विषयात्मक रहा।

फ्रीडलिंग एवं ओलेरी (1979) ने दसरे एवं तीसरे कक्षा के विद्यार्थियों के साथ भी अनुकूल परिणाम प्राप्त किया। वर्गियों एवं उनके सहयोगियों ने अधिगम निर्योग्य के साथ– साथ प्रशिक्षणीय मानसिक मन्द बालकों पर भी विधेयात्मक परिणाम पाया । वुगेन्टल– हवेलन एवं हेन्कर (1977) में स्व– निर्देशन को बच्चों के विश्वास और वातावरणीय दशाओं के अनुकूलता के साथ विधेयात्मक परिणाम पाया।

इजेट और क्लीमेण्ट (1980) ने पाया कि यदि शिक्षक द्वारा सप्ताह में 4 दिन उनके कार्यों का प्रबलन दिया जाये तो अधिगम निर्योग्यता पर नियंत्रण सम्भव है।

(iii) गणितीय क्रियाओं के समाधान पर उन्मुखता– संज्ञानात्मक व्यवहार परिमार्जन विधि का उपयोग अधिगम निर्योग्यता के समाधान के लिए किया गया और गणितीय समस्या यद्यपि अधिगम निर्योग्य की एक प्रमुख समस्या है इसलिए इसमें भी स्व– निर्देशन विधि का अनुप्रयोग किया जाता है। मैकनवाम एवं गुडमैन (1971) ने इसमें आशातीत सफलता प्राप्त की। नोविट एवं कर्टिस (1968) ने 11 साल के अधिगम निर्योग्य बच्चों पर मात्र समस्या समाधान के पूर्व समस्या को 2– 3 बार पढ़ने के प्रयास ही सफलता प्राप्त की है। स्मिथ और लोविट (1975) ने गणितीय समस्या समाधान में मॉडल की भूमिका का अनुकूल परिणाम पाया।

लेवान एवं पीपे (1983) के स्व– निर्देशन का विधेयात्मक कक्षाओं में गणितीय कौशल के सन्दर्भ में पाया। ठीक ऐसा ही परिणाम हाइटमैन एवं जान्सटन (1983) द्वारा कक्षाओं में अध्यापन के सन्दर्भ में पाया गया।

(iv) अध्ययन शैली पर सक्रिय बल– प्रायः यह देखा गया है कि अधिगम निर्योग्य (अनि.) वाक्य अवधारणा में कभी– कभी किसी अक्षर अथवा शब्द का भी लोप कर लेते हैं । इसलिए ध्यानपूर्वक इन कमियों का अभिलेख तैयार कर प्रशिक्षण की योजना बनानी चाहिए (पेरिस एवं मायर्स 1981, टेथन (1981)) । इस समस्या के समाधान में मूल रूप से प्रक्रिया प्रशिक्षा ही आवश्यक है । वार्डेन एवं मार्क्स (1982) ने पाया कि अधिगम के बाद परन्तु प्रत्याहान के पूर्व यदि इस विधि का उपयोग किया जाये तो प्रत्याहान अपेक्षाकृत उत्तम होता है। लेजर एवं रेयन (1982), रेयन– लेजर एवं रोविन (1984), रेयन, लेजर एवं बीड (1983) ने अपने अध्ययन में पाया कि यदि अध्ययन सामग्री के प्रति बच्चे में संवेदनशीलता उत्पन्न की जाये तो विधेयात्मक लक्ष्य सम्भव है । पेरिस एवं क्रास (1983) ने कक्षा 3 और 5 के विद्यार्थियों के साथ 4 माह के प्रशिक्षण के बाद विधेयात्मक परिणाम पाया।

(v) लेखन आयामों पर निर्देशन– वेरिटर एवं स्काट डामालियाँ (1982) ने अपने अध्ययन के आधार पर यह सुझाव दिया कि यदि बच्चों के लेखन कौशल पर ध्यान केन्द्रित किया जाये तो उन बच्चों पर नियंत्रण सम्भव है। इस स्तर पर इन लोगों ने चरणबद्ध प्रशिक्षण पर बल दिया। इन अध्ययनकर्ताओं ने यद्यपि स्व– निर्देशन विधि का उपयोग नहीं किया परन्तु इस बात पर बल दिया कि यदि लेखन के विभिन्न आयामों पर ध्यान देकर प्रशिक्षण दिया जाए तो परिणाम अनुकूल प्राप्त होंगे।

एविन (1980) ने इस दिशा में विधेयात्मक परिणाम प्राप्त किया और उनका अध्ययन ‘कहानी लेखन’ कला के नाम से जाना जाता है। ब्राउन एवं डे (1983) ने भी अनुकूल परिणाम पाया।

(3) कम्प्यूटर निर्देशून विधि– आज का युग प्रवाहमयी युग माना जाता है जिसमें सभी लोग अपनी तीव्रतम जीवन शैली के कारण जीवन की समस्याओं के समाधान में मशीनों का उपयोग करने लगे हैं । कम्प्यूटर निर्देशन उसमें से एक है । इस विधि का उपयोग कर प्रशिक्षणदाता बच्चे के अन्दर आशावादिता विकसित करते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि बच्चे लक्ष्यों को प्राप्त करने में रचनात्मक हो जाते हैं और उनमें नई– नई क्षमताओं का विकास स्वतः होने लगता है । कम्प्यूटर का प्रयोग निम्न प्रकार से कर अधिगम निर्योग्यता को न्यून किया जा सकता है–

(i) कम्प्यूटर कौशलों का विकास– कम्प्यूटर द्वारा बच्चों में नये– नये कौशलों के विकास की पद्धति एवं उनके प्रति जिज्ञासु बनने की प्रेरणा अनि. में उत्पन्न की जा सकती है। रेजनिक (1981) ने अपने अध्ययन में पाया कि अधिगम निर्योग्य बच्चे कम्प्यूटर में अपने कौशलों के विकास के साथ– साथ उच्च जटिलता स्तर की समस्या का समाधान करने में सफल होते हैं।

लेसगोल्ड एवं रेजनिक (1982) ने भी ऐसा ही परिणाम अपने अध्ययन में पाया। स्टोनविच (1982a एवं 1982b) ने उन बच्चों को भी सफल होते हुए पाया जो अध्ययन में अच्छे नहीं थे। रसगोस्टा (1982) ने सुझाव दिया कि कम्प्यूटर में ड्रिल एवं प्रेक्टिस द्वारा अधिगम निर्योग्य बच्चों की समस्याओं का समाधान सम्भव है।

(ii) अभ्यास करने की आदत का विकास– सेलिसबरी (1987) ने पाया कि यद्यपि अधिगम निर्योग्य में अथवा सामान्य में कम्प्यूटर पर अभ्यास की आदत का विकास होता है इसलिए बार– बार के प्रयास से अपनी त्रुटियों का स्वयं आकलंन करता रहता है और स्व– संशोधन से अधिगम की समस्या के समाधान में सहायता मिलती है। रेजनिक (1981) ने मिश्रित प्रशिक्षण पर अधिकतम बल दिया और कहा कि मिश्रित प्रशिक्षण से अधिगम कुशलता को और तीव्रता से बढ़ाया जा सकता है। इन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि यदि मिश्रित प्रशिक्षण में गति उन्मोन्मुख प्रशिक्षण जोड़ दिया जाये तो उसमें सफलता की स्थिति में अधिगम निर्योग्य की दक्षता को बढ़ाया जा सकता है । इसके परिणामस्वरूप उन्हें उचित निर्देशन भी प्रदान किया जा सकता है।

(iii) उद्देश्यानुसार प्रक्रिया उपयोग पर बल – कम्प्यूटर के सहज संचालन और सॉफ्टवेयर के माध्यम से अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तत्काल उपयोग में लाने के लिए प्रभावकारी प्रयास के माध्यम से अधिगम निर्योग्यता को समाप्त करने पर दक्षता प्राप्त की जा सकती है। वैसे आजकल बाजार में अनेक तरह के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर सॉफ्टवेयर तैयार मिलते हैं। इन तैयार सॉफ्टवेयर से बच्चों की क्षमता में किसी भी प्रकार के परिवर्तन पर तो अन्तर नहीं पड़ता है परन्तु उद्देश्यानुसार उसके अन्दर रचनात्मक क्षमता का विकास तो अवश्य होता है । ट्रिफलेटी एवं उनके सहयोगियों (1984) ने अधिगम निर्योग्य बच्चों को 112 गणितीय समस्याओं को कम्प्यूटर द्वारा हल करने के लिए दिया।

इन्होंने पाया कि बच्चे अपने अभ्यास प्रक्रिया के कारण 60% प्रयासों तक भी यदि अवधान देते हैं तो 60 से 89% तक सही– सही और शीघ्रता से समाधान करने में सक्षम हो पाये । जब इन्हें 40 संख्या प्रति मिनट का प्रशिक्षण दिया गया तो ये लोग 80% या उससे अधिक समस्याओं का सही– सही समाधान करने में सक्षम हो गये।

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