चलनांग बाधिक बालकों की समस्यायें क्या हैं इन बालकों की सुविधाओं व निदर्शन पर लेख लिखें।

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शारीरिक दृष्टि से बाधित उन बालकों को कहते हैं जिनके एक से अधिक शारीरिक भागों के कार्यक्षम न होने से वे बालक पिछड़ जाते हैं।

लेमकाव के अनुसार, “हम उन बालकों को शारीरिक दृष्टि से बाधित कहेंगे जो निरन्तर ऐसी शारीरिक निर्योग्यता से पीड़ित है जो उनकी सामान्य अभिवृद्धि सीखने एवं विकास करने में बाधक है।”

लिंगग्रेन के अनुसार, “चलनांग बाधित बालक वे हैं जिनका कार्यों से अलग रहने का परास, एक अन्धे, बहरे, जड़बुद्धि, बिस्तार से लगे हुए की सर्वाधिक असहाय स्थिति से लेकर उस बालक तक हो सकता है जो केवल लंगड़ाता है और इसलिए दौड़ने के अनुभव से वंचित रहता है |”

चलनांग बाधिता के कारण

यह चलनांग बाधिता दो कारणों से संभव है–

1. आनुवंशिक कारण– कभी– कभी भूणिक अवस्था में बालक के निर्माण के समय गर्भ पर बाह्य चोट, माता की मानसिक उद्विग्नता की अति, पिता अथवा परिवार का क्लेशपूर्ण व्यवहार अथवा गुणसूत्रीय दोष के कारण बालक में चलनांग बाधिता अर्थात् विकलांगता पायी जाती है।

2. पर्यावरणीय कारण– जन्म के समय किसी दुर्घटना अथवा किसी गंभीर बीमारी या घटना के कारण भी विकलांगता संभव है।

शारीरिक दृष्टि से बाधित बालकों की समस्यायें

ऐसे बालकों की प्रमुख समस्या समायोजन है। उनका समाज के प्रति दृष्टिकोण एवं समाज का उनके प्रति नजरिये के मध्य सामंजस्य ही विकलांग बालकों की प्रमुख समस्या है। शारीरिक बाधा पर प्रयत्नों द्वारा विजय पायी जा सकती है, किन्तु समायोजन में विद्यालय को भूमिका निभानी पड़ेगी। निर्देशित एवं अनिर्देशित विकलांग बालकों के समायोजन का अध्ययन करके डेविस ने पाया कि असमायोजित विकलांग बालकों में अधिकतम वे हैं जिन्हें उचित सहायता एवं निर्देशन नहीं दिया गया।

हेल्टन ने अपने अध्ययन में देखा कि विकलांग बालक सामान्य बालकों की अपेक्षा अधिक रूढ़िवादी एवं असमायोजित होते हैं। उसने रोर्शा परीक्षण में यह भी देखा कि इस परीक्षण पर विकलांग बालकों की अनुक्रिया उनसे अपेक्षाकृत सामान्य बालकों से भिन्न थी।

कुकशेन्क और डॉलफिन ने अपने सामान्य बालकों एवं विकलांगों के एक तुलनात्मक अध्ययन में पाया कि बालक की विकलांग अवस्था उसके समायोजन दृष्टिकोण की सकारात्मकता या नकारात्मकता पर निर्भर करती है।

एडिथ ने पोलियो ग्रस्त विकलांग बालकों एवं सामान्य बालकों पर अध्ययन करते हए बताया कि विकलांग बालकों की अनुक्रिया उनसे अपेक्षाकृत सामान्य बालकों से भिन्न थी।

कुकशेन्क और डॉलफिन ने अपने सामान्य बालकों एवं विकलांगों के एक तुलनात्मक अध्ययन में पाया कि बालक की विकलांग अवस्था उसके समायोजन दृष्टिकोण की सकारात्मकता या नकारात्मकता पर निर्भर करती है।

एडिथ ने पोलियो ग्रस्त विकलांग बालकों एवं सामान्य बालकों पर अध्ययन करते हए बताया कि विकलांग प्रायः पोलियोग्रस्त, सामान्य बालकों की अपेक्षा अधिक अतिक्रिय कोधी चिडचिड़े एवं अवज्ञाकारी थे एवं उनके माता– पिता भी अधिक चिन्ताग्रस्त पाए गए। अत: उनमें असमायोजन की समस्या उग्र पायी गई।

लेकिन एवं उसके साथियों ने इस असमायोजन को विकलांग बालकों की प्रमख समस्या बताते हुए उनके उचित निर्देशन एवं पृथक शिक्षण विधियों पर जोर दिया।

शारीरिक बाधिता का प्रमुख कारण : पोलियो

भारत सरकार एवं राज्य सरकारों द्वारा पोलियो को बाल विकलांगता का प्रमुख कारण घोषित कर उसके विरुद्ध अभियान छेड़ा गया । शारीरिक विकलांगता का प्रमुख कारण पोलियो है। पोलियो माइटिलिस आज भी विकासशील देशों की गम्भीर स्वास्थ्य समस्या है। केवल भारत में ही पोलियो से ग्रस्त बालकों की संख्या विश्व की (2 )/(3 ) भाग है। पोलियो विकलांगता पैदा कर रोगी को जीवन भर के लिए पराधीन एवं शैक्षिक पिछड़ा बना देता है यह बीमारी एक वाइरस ‘पोलियोमाइटिस’ के कारण होती है। यह अधिकांशतः बालकों को ही संक्रमित करता है। यह वाइरस टाइप– वन, टू, थी, तरह का होता है। यह वाइरस संक्रमित व्यक्तियों के गले से निकलने वाले वाइरस स्राव से सीधे संपर्क में आने से एक स्थान से दूसरे स्थान तक फैल जाता है । पोलियो वाइरस तंत्रिकाओं पर आक्रमण करता है तथा प्रारंभिक लक्षण के बाद लगवा उत्पन्न करता है। इसके प्रारंभिक लक्षण इन्फ्लुएंजा से मिलते हैं। पोलियो का अंडसेवन 7 से 14 दिन का होता है । कुछ पोलियो रोगियों में यह 2 से तीन के ज्वर के पश्चात् स्वतः समाप्त हो जाता है। अन्य रोगियों में प्रारंभ में जुकाम, खाँसी एवं ज्वर के सामान्य लक्षण 5 से 10 दिन तक दिखने के बाद बार– बार ज्वर आता है तथा असहनीय पीड़ा होती है। इसके बाद लकवा हो जाता है । 5 वर्ष से कम बालकों में लकवा प्रायः एक पाँच में तथा 5 से 15 वर्ष आयु के बालकों में माँसपेशियों या सम्पूर्ण अथवा दोनों पैरों में लकवा हो जाता है जबकि 15 से अधिक वर्ष के आयु के बालकों में शरीर का बायाँ या दायाँ हिस्सा सम्पूर्ण रूप से लकवाग्रस्त हो सकता है। मेरूदण्ड का संक्रमण भी कभी– कभी पाया गया है । जब यह मेरूदण्ड के ऊपरी भाग को प्रभावित करता है तो बालक साँस न ले पाने के कारण घुटकर मर जाता है । पोलियो या पक्षाघात बालक की शारीरिक बाधिता का एक प्रमुख कारण है।

हमारे देश में बालक की चलनांग में छ: प्रमुख शारीरिक रोग कारण है जिसमें टिटेनस, गलघोटू, काली खाँसी, तपेदिक, पोलियो एवं खसरा है। इन सभी से बचाव के लिए व्यापक टीकाकरण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम का लक्ष्य है गर्भवती महिलाओं में टीकाकरण एवं जन्म लेने वाले शिशुओं का एक वर्ष की आयु से पूर्व सम्पूर्ण टीकाकरण । शिशु का जन्म अस्पताल में हो तो जन्म के समय बी.सी.जी. का टीका अथवा उसकी दवा जीरो पोलियो पिलाई जाती है । पोलियो के रोग का बचाव पोलियो वैक्सीन द्वारा किया जाता है। दो तरह की पोलियो वैक्सीन उपलब्ध हैं– ओरल पोलियो वैक्सीन एवं इन्जेक्टिव पोलियो वैक्सीन । अमेरिका में 1963 में ओपीवी को लाइसेंस दिया गया जो भारत में अब प्रमुखतः उपयोगी है ।

पल्स पोलियो अभियान

राज्य सरकार ने पल्स पोलियो महाअभियान के रूप में, पोलियो के कारण बालक की चलनांग बाधिता पूर्ण रूप से दूर करने के लिए, एक कदम उठाया है जिसके तहत वर्ष में दो दिन ‘पोलियो दिवस’ के रूप में मनाकर सम्पूर्ण जनसंख्या में बालकों को पल्स पोलियो दवा पिलाये जाने का निश्चय किया है। इस अभियान द्वारा 1995– 2000 की अवधि में पोलियो से राष्ट्र को मुक्ति का संकल्प लिया गया है। इसमें 9 दिसम्बर एवं 20 जनवरी को ‘पोलिया दिवस’ के रूप में मनाया गया। इसे 24 अक्टूबर, 21 नवम्बर, 19 दिसम्बर, 99 एवं 20 जनवरा, 2000 तिथि के रूप में पुनः निश्चित किया गया है।

पल्स पोलियो टीकाकरण का महत्त्व

सामान्य टीकाकरण के दौरान कुछ न कुछ बच्चों की आंतों में पोलिया का रहते हैं क्योंकि वातावरण में भी कीटाण हमेशा बने रहते हैं। अतः सामान्य टीकाकरण के साथ– साथ इन दोनों दिनों को 3 साल तक के सभी बच्चों को दवा पिलाने से पोलियो वाइरस के स्थान पर वैक्सीन आ जाता है एवं रोग को जड़ से नष्ट कर देता है। इसे ही पल्स पोलियो टीकाकरण कहते हैं । पोलियो रोग के लक्षण प्रकट होते ही 72 घंटे में यह दवा पिलाना आवश्यक है अथवा यह महामारी का रूप धारण कर लेता है। राजस्थान में यह अभियान निम्न स्थानों पर चलाया गया है।

(i) जिला दौसा– सम्पूर्ण वर्ष ।

(ii) जिला चित्तौड़गढ़– अक्टूबर 2 एवं दिसम्बर 4 को

(iii) एक लाख से अधिक आबादी वाले 14 बड़े शहरों में 4 दिसंबर एवं 5 फरवरी

(iv) राष्ट्रीय टीकाकरण दिवस– 9 दिसंबर एवं 26 जनवरी।

विकलांगता एवं विद्यालय में उपस्थिति

जेम्स एस.डेवी ने अपने अध्ययन को हालिंग्सहैड द्वारा एल्मटाउन के शोध पर आधारित आंकड़ों के आधार पर बताया कि स्कूल में विकलांग बालकों की अनुपस्थिति उनकी विकलागता के साथ– साथ उनके परिवार के सामाजिक आर्थिक स्तर पर भी निर्भर करता है । उन्होंने न्यू हेवेन एवं एल्मटाउन कस्बे में स्कूल जाने वाले बालकों का अध्ययन किया।

विकलांग बालकों की सामाजिक आर्थिक दशा एवं विकलांगता को तीन सम्बन्ध के तत्वों से जोड़ा गया–

1. आर्थिक– बच्चों को स्कूल में रखने के लिए परिवार की आर्थिक क्षमता।

2. रिवाज– माता– पिता द्वारा बच्चों की उसी प्रकार शिक्षित करने की प्रवृत्ति जिस प्रकार वे स्वयं हुए हैं।

3. शिक्षा के सम्बन्ध में प्रवृत्तियाँ– परिवार में शिक्षा के उद्देश्य तथा मूल्यों के बारे में व्याप्त विश्वास।

इस आधार पर निष्कर्ष निकाला गया कि सामाजिक रूप से सहायता पाने वाले विकलांग बालकों का विद्यालय में उपस्थिति प्रतिशत उच्च था जबकि दूसरे विपरीत सहायता न । पाने वालों का निम्न था।

विकलांग बालकों की समस्याओं एवं उसके सामाजिक आर्थिक स्तर के मध्य सम्बन्ध को जानने के लिए कुल्हन ने विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने मध्यमवर्ग एवं निम्न वर्ग में 10 लक्षणों के साथ उनके कक्षागत समायोजन के अध्ययन के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि विकलांग बालक, जो निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर के हैं, को पर्याप्त वातावरण न मिलने के कारण विद्यालय में उच्च गुणों के विकास में कठिनता अनुभव करते हैं जबकि उच्च सामाजिक आर्थिक स्तर के विकलांग बालकों में परिवार के उचित एवं विवेकपूर्ण सहयोग के कारण ये गुण शीघ्र विकसित हए थे। अतः स्पष्ट है कि बालकों की विद्यालय में उपस्थिति में वृद्धि करने के लिए उसके विद्यालय परिवार एवं मित्र मण्डली का सामाजिक आर्थिक स्तर उच्च करना सहायक सिद्ध होगा।

विकलांग बालकों में कक्षागत अधिगम में आने वाली निम्नांकित समस्याएं उनके विद्यालय में उपस्थिति प्रतिशत को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती हैं–

1. विद्यालय में निरन्तर निम्न श्रेणियाँ प्राप्त करना।

2. गृहकार्य में असफल होने पर उत्पन्न भय।

3. गणित या विषय विशेष में कठिनाई।

4. वर्तनी या व्याकरण में कठिनाई।

5. अध्ययन में पर्याप्त समय व्यय करने में कठिनाई।

6. अध्ययन में अवधान की कमी।

7. मौखिक टिप्पणी से परेशानी।

8. कुछ विषयों में बिल्कुल रुचि नहीं।

9. स्कूल वातावरण का अत्यधिक कठोर होना।

10. शिक्षक की कथनी एवं करनी में अन्तर।

11. वाचन की मन्दगति।

12. लिखने में कठिनाई।

13. आलस्य के कारण चुस्ती नहीं होना।

14. कक्षा में बोलने से भयभीत ।

15. कक्षागत श्रेणी के बारे में चिन्ता करना।

16. पुस्तकों से अरुचि।

17. कक्षा में बहुत कम स्वतंत्रता।

18. नीरस कक्षाएं

निष्कर्षतः इस अध्ययन से स्पष्ट है कि विद्यालय में विकलांग बालकों की उपस्थिति में वृद्धि के लिए उनकी समस्याओं पर समग्र चिन्तन कर उनका उपचार करना आवश्यक है।

विकलांग बालकों के लिए राजकीय सुविधाएं

भारत सरकार विकलांग शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त जागरूक है। अपनी पंचवर्षीय योजनाओं एवं उनसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसे पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में विकलांगों के पुनर्स्थापन, द्वितीय पंचवर्षीय योजना में इन्हें रोजगार के अवसर सुलभ कराने, तृतीय पंचवर्षीय योजना में इन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण तथा नौकरी के अवसरों में वृद्धि तथा चौथी एवं पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में राज्य द्वारा इनकी व्यवस्था करने की बात कही है। इस दिशा में विशेष प्रयत्न हुए हैं । इसके अतिरिक्त देश के अधिकांश राज्यों में उन्हें अन्य कई प्रकार की सुविधाएं प्रदान की गई जो निम्नांकित है–

1. भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के समाज कल्याण विभाग की ओर से ऐसे बालकों को शिक्षा छात्रवृत्ति दी जाती है। इन्हें निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था की गई है।

2. अधिकांश राज्यों में इनके लिए 2 से 3% आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

3. विकलांग यात्री को अपने साथ एक व्यक्ति को आधा किराये पर ले जाने की छूट दी गई है।

4. 2 अक्टूबर, 1977 से पेट्रोल की कीमतों में 50 प्रतिशत छूट दी गई है।

5. इन्हें वाहन कर, म्यूनिसिपल कर या रोड कर में छूट दी गई है।

6. समाज कल्याण विभाग द्वारा वाहन खरीदने या उपकरण खरीदने के लिए इन्हें 1000/– रुपये तक अनुदान दिया जाता है।

7. डाक– तार विभाग ने इन्हें लाइसेंस से मुक्त कर दिया है।

8. 80– U नियम के अनुसार इन्हें आय– कर में छूट दी गई है।

9. इन्हें आधारभूत वेतन का 10% यात्रा भत्ता अतिरिक्त देय है।

10. व्यवसाय करने हेतु इन्हें ऋण एवं अनुदान की व्यवस्था है।

विकलांग बालकों का निर्देशन

विकलांग बालकों का निर्देशन निम्नांकित सिद्धान्तों पर आधारित होने चाहिए–

1. उन्हें ऐसे उपयुक्त यांत्रिक उपकरण एवं सहायक सामग्री सुविधाएं आदि देने चाहिए कि वे शारीरिक बाधाओं को न्यूनतम कर सकें।

2. उनके शिक्षण के लिए पृथक मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों, प्रविधियों एवं मूल्यांकन पद्धतियों का उपयोग किया जाना चाहिए।

3. उन्हें ऐसा वातावरण प्रदान किया जाए कि उनमें हीनता दूर हो सके तथा वे पुनः आत्म विश्वास प्राप्त कर सकें।

गामक दोषों से ग्रसित वे बालक जो आंशिक या पूर्णतः किसी अंग विशेष से कार्य करने में असमर्थ है, उनकी यह विकलांगता आनुवांशिक या अर्जित हो सकती है। किसी अंग की असामान्यता के कारण बालक उस अंग विशेष से सम्बन्धित कार्यों को सामान्य रूप से सम्पादित नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार के बालक मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं अतः वे अन्य बालकों की तरह ही मानसिक कार्य कर सकते हैं, किन्तु असामान्य अंग से सम्बन्धित कार्यों के कारण वे पिछड़ जाते हैं फलतः उनमें आत्मग्लानि, आत्महीनता तथा पृथकता की भावना आ जाती है। ये बालक क्षतिपूरक शक्तियों का विकास कर अपने व्यक्तित्व को संतुलित कर सकते है |

अध्यापक का दायित्व है कि इन विकलांग बालकों में आत्महीनता तथा आत्मग्लानि का भाव निकल कर आत्म नियन्त्रण, आत्म सम्मान एवं आत्मविश्वास जाग्रत करें। उनमें ‘स्व’ का विकास करें। अध्यापकों का व्यवहार इस प्रकार का हो कि वे क्षतिपूरक शक्तियों का समुचित विकास कर सकें। अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बालक को इस तथ्य का ज्ञान कराएं कि अंग विशेष की गामक क्रियाओं के सीमित होते हुए भी उनमें अन्य कोई कमी नहीं है। अध्यापक को ऐसे बालकों में ऐसी क्षतिपूरक शक्तियों तथा क्षमताओं का विकास करना चाहिए जो सामाजिक हो तथा बालक में अधिक दृढ़ एवं स्थायी ‘स्व’ का विकास करें।

विकलांगता के क्षेत्र में नवीन अनुसंधान

1. कृत्रिम कूल्हा– विकलांग व्यक्ति समायोजन की प्रमुख समस्या है। विकलांगता की चरम सीमा में व्यक्ति कभी– कभी चल भी नहीं पाता है, लेकिन ‘हिप रिप्लेसमेंट’ तकनीक में इसका उपचार संभव है । मानव के कूल्हे फीमर के कूल्हे की गोलाकार खल्लिका में फिट होने से बनती है। इस जोड़ को मजबूत लिंगमेन्ट बाँधे रखते हैं। कूल्हे एवं जाँघ में पायी जाने वाली पेशियाँ शरीर के अन्य भागों के अपेक्षाकृत मजबूत होती हैं। इन्हीं मांसपेशियों के कारण कूल्हा, पीछे के स्थान को छोड़कर सभी स्थानों में गति कर सकता है।

हिप पर अत्यधिक दबाव पड़ते रहने से विकलांग बालकों में विकलांगता का कारण ओस्टियोआर्थराइटिस, रेम्यूरोइड आर्थराइटिस एवं रयूमेटिज्म जैसे रोग होते हैं। कभी– कभी हिप के अधिक कमजोर होने पर हिप फेक्चर भी हो सकता है । परम्परागत तकनीक में लम्बे समय तक आराम एवं अधिक व्यय की आवश्यकता होती थी, किन्तु आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ‘हिप रिप्लेसमेंट’ से इसे प्रतिस्थापित किया गया है । इस तकनीक में जर्मन फर्म द्वारा निर्मित ‘वेगनर’ टोटल हिप प्रोस्थेसिस उपयोग में आता है । इसमें स्टेनलेस स्टील से बने प्रोस्थेसिस प्रयुक्त किये जाते हैं । ‘वेगनर प्रोस्थोसिस’ टिकाऊ एवं आवश्यकतानुसार है। इस क्रिया में संक्रमण अथवा असफलता का भय अधिकतम नहीं होता है । वेगनर प्रोस्थेसिस’ के अतिरिक्त चानले एवं अल्ला उच्च परमाण्विक भार वाली पॉलीइथाइलीन से बना होता है जबकि ‘मूलर प्रोस्थेसिस’ स्टील एवं टाहटेनिस से निर्मित होता है। भारत में. अस्थि रोग विशेषज्ञ इन तीनों प्रोस्थेसिस का प्रयोग करते है |

मृत व्यक्ति के कूल्हे को जीवित व्यक्ति में रिप्लेसमेंट का भी प्रयोग किया गया जो सफल रहा है। भारत में मद्रास स्थित श्री रामचन्द्र मेडिकल कॉलेज एवं रिसर्च इंस्टीट्यूट ने नया प्रोस्थेसिस निर्मित किया।

2. दूरबीन चिकित्सा– किसी जमाने में यह कहावत थी कि सर्जन एवं चीरे में चोली दामन का साथ है, किन्तु इस आधुनिक दूरबीन शल्य चिकित्सा ने विकलांगता के क्षेत्र में नवीन आशा का संचार किया है। इस शल्य क्रिया में मरीज को बेहोश कर सेलाइन से जोड़ को फुला दिया जाता है, फिर आर्थोस्कोप कैमरे की सहायता से एक छड़नुमा प्रौथ द्वारा जोड़ के अन्दर की ओर जाँच की जाती है। जिन जोड़ों में यह थेरेपी प्रयुक्त होती है वे हैं पैर, हाथ अथवा कूल्हा । यह शल्य चिकित्सा दो प्रकार की होती हैं–

1. निदान अस्थि चिकित्सा

2. उपचार अस्थि चिकित्सा

निदान अस्थि चिकित्सा में अस्थि के उन रोगों की पहचान की जाती है जिसकी अन्य वधियों जैसे आर्थराइटिस टयमर या बायोप्सी से पता न लगे। उपचार अस्थि चिकित्सा में अस्थि की मरम्मत की जाती है। इसमें जोड़ों से अलग हुए भागों को निकालना, जोड़ों का बार– बार खिसकने से रोकना, पाली की हड्डी का व्यवस्थापन, क्षतिग्रस्त नसों की मरम्मत, जोड़ की झिल्ली को निकालना आदि विधियों द्वारा विकलांगता को बिना दर्द, ज्यादा कुशलता, कम रक्त प्रवाह एवं कम समय में दूर करने का प्रयास किया जाता है।

विकलांगता को दूर करने का आधुनिकतम उपाय– आर्थिफिक्स पैर’ विकलांगता को दूर करने का यह क्रान्तिकारी अनुसंधान है जिसमें डॉ. सेठी ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। अस्थि रोग के कारण विकलांगता को दूर करने के प्रयासों में अन्य आधुनिक तकनीकें हैं ज्याइंट रिप्लेसमेंट, आर्थोफिक्स, आर्थोस्कोपी, हैण्ड सर्जरी,माइक्रोस्कोपिक स्पाइन सर्जरी, इजिलारोष एवं ए.ओ. तकनीक । आज की रफ्तार की दुनिया में विकलांग बालकों के लिए यह ‘आर्थोफिक्स लेग तकनीक’ वरदान सिद्ध हुई है। यह एक प्रकार का ‘सिम्ब रिकन्स्ट्रक्शन’ है, जिसमें दो या तीन क्लेम्प होते हैं जो एक रिजिड रेल पर इधर उधर खिसकाए जा सकते हैं. साथ ही इन्हें कम्प्रेशन एवं डिस्ट्रेक्शन यूनिट से जोड़ा जा सकता है। इस तकनीक में ज्यादा चीर– फाड़ नहीं होती है। हाथ या पैर में केवल 4– 6 छोटे– छोटे छिद्रों द्वारा स्टील रॉड डाली जाती हैं। इसके बाद सभी को इन सभी क्लेम्प द्वारा रिजिड रेल से जोड़ दिया जाता है । ऑपरेशन के बाद मरीज 2– 3 दिन में चलना शुरू कर देता है फलतः कुसमायोजन सुसमायोजन में परिवर्तित हो जाता है ।

उपयोग

1. उसके द्वारा जन्मजात अस्थि विकृति को ठीक किया जा सकता है।

2. इसके द्वारा हाथ– पैर की 15 सेमी तक लम्बाई बढ़ाई जा सकती है। जटिल विकलांगता में यह तकनीक अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है।

3. इस पद्धति द्वारा ‘ज्वाइंट फ्यूजन’ भी संभव है।

4. विकलांगता जो जोड़ों के आसपास विकृति के कारण है, जिनका उपचार सामान्य तरीकों से संभव नहीं है, का इस तकनीक द्वारा उपचार संभव है।

5. छोटी अस्थियों की विकृतियों के उपचार में अत्यन्त उपयोगी है।

विकलांगता को दूर करने का आधुनिकतम उपाय– ‘इलिजारोव पद्धति’– जन्मजात विकलांगता के कारण बालक कुसमायोजन को सुसमायोजन में बदलने के लिए रिंगफिक्सेटर या इलिजारोव पद्धति एक आधुनिकतम तकनीक है जिसके जन्मदाता डॉ. गेवरिल अब्रामोविच इलिजारोव साइबेरिया के सामान्य चिकित्सक थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने इस विधि का प्रयोग किया। इस तकनीक को लोकप्रियता मिलने का कारण ओलम्पिक ऊंची कूद चैम्पियन बूमेल का ऑपरेशन था।

इस पद्धति में हड्डी को तनाव दिए तारों की मदद से गोल छल्लों से जोड़ दिया जाता है फिर हड्डी में चीरा लगाकर थेटेट रॉड एवं नटों से एक मि.मी. रोज खिसकाया जाता है और इस रिक्त स्थानों में नई हड्डी बन जाती है। नई हड्डी को कब्जों की सहायता से मनचाही दिशा दी जा सकती है, लम्बाई बढ़ाई जा सकती है, अस्थि के टेढ़ेपन को दूर किया जा सकता है । कई असंभव से लगने वाले अस्थि रोगों का इलाज इस पद्धति से संभव हो गया है । अतः विकलांग बालकों के लिए यह पद्धति वरदान सिद्ध हुई है।

उपयोग

1. न जुड़ने वाले फेक्चर, इन्फेक्टेड. अस्थियों की विकलांगता में उपयोगी।

2. छोटी हड्डियों को बढ़ाकर विकलांगता दूर करने में उपयोगी।

3. जन्मजात विकृति या पोलियो के कारण विकलांगता को दूर करने में उपयोगी।

4. हड्डी में मध्य रिक्त स्थान भरकर विकलांगता को दूर करने में।

5. जोड़ों के व्यायाम द्वारा विकलांगता को दूर करने में।

उस पद्धति द्वारा इलाज जयपुर में रूंगटा एवं भण्डारी अस्पताल, बम्बई, दिल्ली आदि महानगरों में स्थित चुनिंदा अस्पतालों में संभव है।

विकलांगता को दूर करने का आधुनिकतम उपाय– ‘इन्टरलॉकिंग नेलिंग’

आकस्मिक विकलांगता को दूर करने में यद्यपि यह 70 वर्षों पुरानी तकनीक है, किन्तु पिछले वर्षों में इस क्षेत्र में नवीन अनुसंधान हुए हैं। इस इन्ट्रामोड्यूसलरी नेलिंग तकनीक के अन्तर्गत रॉड से टूटी हुई अस्थि या विकृत अस्थि का सही स्थान निर्धारित किया जाता है। यह दो प्रकार से की जा सकती है– ओपन मोड्यूलरी नेलिंग जिसमें उस स्थान को खोला जाता है तथा क्लोज्ड मोड्यूलरी नेलिंग जिसमें मात्र छिद्र किये जाते हैं।

इस नेल के ऊपर एवं नीचे दोनों ओर छिद्र होते हैं जिसमें विकृत स्थान ऊपर एवं नीचे बोल्ट कस कर हड्डी की लम्बाई एवं रोटेशनल एलीमेंट को नियन्त्रित किया जाता है। साधारण विकृति में इसका अनुप्रयोग संभव नहीं है। किसी जोड़ के निकटवर्ती स्थान या कमीन्यूटेड विकृति की अवस्था में ही इसका प्रयोग संभव है। इस पद्धति में विशेष प्रकार की ऑपरेशन टेबल और इमेज इन्टेसीफायर की आवश्यकता है । इस विधि द्वारा ऑपरेशन के बाद एनस्थिसिया का प्रभाव समाप्त होते ही उसे बैठाया जा सकता है।

उपयोग

1. इस विधि द्वारा संक्रमण की संभावना बहुत कम एवं उपचार की अत्यधिक होती

2. मरीज 3– 4 दिन में घूमने लायक हो सकता है।

3. हड्डी के जाम हो जाने की संभावना बहुत कम होती है।

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