दृष्टिगत रूप से अक्षम बालकों के लिये किस विशेष तरीके से शिक्षा दी जानी चाहिए? विशेष विधियों व सिद्धान्तों का उल्लेख करें।

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एक सामान्य दृष्टि बाधित बालक उसी स्कूल में प्रवेश कर सकता है जिसमें एक सामान्य रूप से देखने वाला बालक प्रवेश करता है । इस अवस्था में बालक का इस योग्य होना आवश्यक है कि वह अपने आवश्यक रोजमर्रा के कार्यों को कर सके । जाने– पहचाने वातावरण में चल सके। अपनी आयु के बालकों से बातचीत कर सके। इन बालकों को विशेष विद्यालयों में भी भेजा जा सकता है, विशेष कक्षाओं में पढ़ाया जा सकता है जिसे ब्रेल कक्षा कहा जाता है बेल कक्षाएं ऐसी सहायता देती हैं जिनसे बालक कक्षा की सामान्य पढ़ाई को समझ सके । शिक्षा का सबसे प्रमुख उद्देश्य बालक का सामाजिक समायोजन है इन बालकों हेतु स्कूल में विभिन्न कार्यक्रम करवाये जाना चाहिये जैसे–

(i) नाच, (i) गाना, (iii) स्काउट, गाइड, (iv) साहित्यिक गतिविधियाँ, (v) सांस्कृतिक नाटक आदि ।

इन बालकों को सामान्य बालकों अन्य लोगों से ज्यादा से ज्यादा मेलजोल, बातचीत होना चाहिये जिससे वे अधिक से अधिक अपने वातावरण में समायोजित हो सकें । इसके लिये निम्न बातों का ध्यान रखा जाना आवश्यक है।

(1) विशेष विधियाँ– जब भी दृष्टि बाधित बालक को पढ़ाया जाये तब यह ध्यान रखा जाये कि वह एक सामान्य बालक है अधिकतर उनका ज्ञान, बुद्धि, संवेग उनकी इच्छाएं अन्य बालकों की तरह है । एक सामान्य बालक के मनोविज्ञान का ज्ञान दृष्टि बाधित बालकों के मनोविज्ञान को समझने में सहायक हो सकता है। प्रत्येक बालक का दृष्टि दोष अलग– अलग हो सकता है । वास्तव में दृष्टि एक्यूटी सदा दृष्टि क्षमता नहीं बताती कई बार कम दृष्टि वाले बालक अपनी दृष्टि का अच्छा उपयोग करते हैं घर, वातावरण, सीखने की तत्परता, सीखने की क्षमता आदि का इस पर प्रभाव पड़ता है।

(2) विशेष सामान तथा माध्यम– दृष्टि बाधित बालकों की एक इन्द्रिय काम न करने पर वह अपनी अन्य इन्द्रियों पर निर्भर रहते हैं चूंकि हमारी शिक्षा पद्धति में पढ़ने व लिखने का विशेष महत्त्व है इसलिये आंखों का विशेष उपयोग है। इनके लिए ब्रेल लिखि का उपयोग किया जाता है। इसमें कागज पर उभरे हुये बिन्दु बने होते हैं जिन्हें छू कर पढ़ा जाता है किताबें ब्रेल ग्रेड I तथा ब्रेल ग्रेड II प्रकार से प्रतिबन्धित की जाती हैं प्रथम व द्वितीय प्रकार की किताबें क्रमशः पढ़ी जाती हैं। ब्रेल में बालक पढ़ भी सकता है तथा लिख भी सकता है। निम्न प्रयोग द्वारा इन बालकों को पढ़ाया जा सकता है–

(i) बोलने वाली किताबें

(ii) लॉग प्लेइंग पोनोग्राफ रिकॉर्ड

(iii) रेडियो तथा समाचार द्वारा

(iv) मानसिक संख्या कार्य (गणित हेतु)

(v) एम्बेस्ड चित्र (गणित हेतु)

(vi) मानचित्र व ग्लोब का प्रयोग

(vii) शैक्षिक यात्रायें

(viii) म्यूजियम के द्वारा

(3) आर्ट व रचनात्मक कार्यों द्वारा शिक्षण– अधिकतर दृष्टि बाधित बालक आर्ट व मॉडलिंग में रुचि दिखाते हैं नाटक का मंचन बालक में बोलने, खड़े होने, बातचीत करने की आदत डालने में सहयोगी होता है। इससे सामाजिक समायोजन तथा आत्मविश्वास बढ़ता है संगीत का ज्ञान इन बालकों को काफी प्रभावित करता है किसी तरह के संगीत के उपकरण बजाने में यह बालक माहिर हो सकते हैं, धीरे– धीरे संगीत को यह अपना व्यवसाय भी बना सकते हैं। इन बालकों को नाना प्रकार के कार्य जैसे तैरना, नाव खेना, कुश्ती लड़ना आदि भी सिखाये जा सकते हैं। विभिन्न प्रकार के हस्तकार्य भी सिखाये जा सकते हैं जिससे वह आत्मनिर्भर भी हो सकते हैं इनमें लड़कियों व लड़कों दोनों को गृह कार्य भी सिखाये जा सकते हैं। शिक्षा में रिकॉर्ड प्लेयर द्वारा इनमें शिक्षा का विकास किया जा सकता है।

(4) पढ़ाने के विशेष सिद्धान्त– अध्यापक को विभिन्न शिक्षण विधियों के साथ शिक्षण से संबंधित सिद्धान्तों का भी ध्यान रखना चाहिये यह सिद्धान्त निम्न हैं–

(1) ठोसता– दष्टि बाधित बालक केवल स्पर्श और कान द्वारा अपने वातावरण का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । सुनना उनके लिए समाज के साथ सामंजस्य की एक विधि है। परन्त किसी वस्तु का ज्ञान वह स्पर्श द्वारा ही प्राप्त करते हैं पदार्थ छूने में छोटे– बड़े मुलायम व सख्त भी हो सकते हैं। इन पदार्थों के गुणों के आधार पर वे धीरे– धीरे सभी चीजों को समझने लगते है । लेकिन बालकों को इन वस्तुओं के रंग की पहचान नहीं हो पाती है। निर्देशन में उन्हें ठोस अनुभव दिये जाने चाहिये । उन्हें पदार्थों को/वस्तुओं को छूने देना चाहिये ताकि वे इनके विशेष गणों से उन वस्तुओं को समझ सकें । इनकी ठोसता बालकों को अधिगम में सहायता प्रदान करती है।

(2) निर्देशन– सामान्य तौर पर यह देखा जाता है कि दृष्टिबाधित बालक पदार्थ को छू कर उसके समस्त गुणों से अवगत नहीं हो सकता वह वातावरण की अन्य सूचनाओं को भी एकत्रित करता है । छूने के साथ वस्तुओं को सूंघकर, कभी– कभी चखकर वातावरण को समझने का प्रयास करता है। इन सबके बावजूद भी उसे सही अनुभव प्राप्त नहीं होते हैं। अध्यापक को चाहिये कि वातावरण की सही समझ विकसित करने में बालकों की सहायता करें ऐसा निर्देशन कार्य करें ताकि बालक वातावरण में भलीभाँति समायोजित हो सके।

(3) सहायक उत्तेजक– दृष्टि बाधित बालकों की दृष्टिगत अक्षमता के कारण उनकी योग्यता कम हो जाती है साथ ही उन्हें बहुत से अनुभवों से वंचित रहना पड़ता है। अध्यापक को विभिन्न विधियों का प्रयोग करते हुए उसके समक्ष उत्तेजना प्रस्तुत करनी चाहिये । दो मुख्य विधियों द्वारा उत्तेजना प्रस्तुत की जा सकती है–

(i) बालक को अनुभवों के पास ले जाना जैसे शैक्षिक यात्रा करवाना, म्यूजियम में ले जा कर वस्तुओं का वर्णन करना।

(ii) अनुभवों को बालकों के निकट लाना जैसे लोगों को भाषण हेतु बुलाना, रेडियो, टेप– रिकॉर्डर सुनवाना आदि इनकी सफलता कार्य विधि पर निर्भर करती है।

(4) स्वयं कार्य करना– दृष्टि बाधित छात्रों का कार्य क्षेत्र सीमित होता है। वह स्वयं कार्य हेतु आगे नहीं बढ़ पाता है उसे कार्य हेतु प्रेरित करना चाहिये । उसे इस प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये कि वह स्वयं कार्य कर सके। स्वयं करके सीखने पर ही वह आत्म– विश्वास प्राप्त कर सकता है व उसे समायोजन में भी सहायता करता है । उन्हें स्वयं कार्य करने की शिक्षा दी जानी चाहिये जिससे उन्हें सुस्त रहने व दुखी रहने की आदत न पड़े।

(5) अध्यापक– दृष्टि बाधित या कम दिखाई देने वाले विद्यार्थियों के शिक्षकों में निम्न बातें होना आवश्यक है–

(अ) शिक्षक को इन बालकों को पढ़ाने हेतु तैयार हो जाना चाहिये । तैयार होने का अर्थ यह है कि बालकों की आवश्यकताओं, समस्याओं से अवगत होना तथा उन्हें पढ़ाने हेतु प्रेरित रहना आदि।

(ब) इन बालकों के शिक्षण हेतु शिक्षक को प्रशिक्षित होना चाहिए। उसे बालक के मानसिक, सामाजिक तथा शारीरिक संवेगात्मक विकास को आवश्यक रूप से समझना चाहिये, उनके वंशानुक्रम व वातावरण का अध्ययन करना चाहिये। उनकी भावनायें सहयोगी होना चाहिये। अध्यापक को निम्न तीन बातों का खास ध्यान रखना चाहिए।

(i) बालक को जीवन की वास्तविकता का ज्ञान देना।

(ii) उसमें आत्म विश्वास जागृत करना।

(iii) उसमें यह भावना जागृत करना कि वह अन्य बालकों के समान ही है।

अतः इन बालकों को अच्छी शिक्षा व प्रशिक्षण देकर किसी कार्य, नौकरियों तथा व्यवसाय में लगाना चाहिए ताकि वह स्वयं पर निर्भर हो सके।

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